WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

Students should regularly practice West Bengal Board Class 9 Hindi Book Solutions and रचना सूक्तिपरक निबंध to reinforce their learning.

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘सादा जीवन, उच्च विचार’

‘सादा जीवन, उच्च विचार’, यह सूक्ति जीवन के दो अलग तथ्यों, रूपों को प्रदर्शित करने वाली होते हुए भी मूलत: एक ही सत्य को स्वरूपाकार देने या उजागर करने वाली है। सादा जीवन उन्हीं का हुआ करता है कि जो उच्च विचारशील व्यक्ति हुआ करते है या फिर उच्च विचार वाले व्यक्ति ही सादगी का रहस्य पहचान कर जीवन के रहन-सहन, खान-पान, कार्य-पद्धति आदि को सादा बना कर व्यवहार किया करते हैं। ऐसा कर के वे संसार के लिए आदर्श तो स्थापित करते ही हैं, आदरणीय एवं चिरस्मरणीय भी बन जाते हैं।

सादा जीवन जीने पर विश्वास करने वाला व्यक्ति ईर्ष्या-द्वेष जैसे उन मनो-विकारों से भी बचा रहता है कि जिन्होंने आज पूरी मानवता को आकान्त कर रखा है। उन निहित-स्वार्थों से भी सादगी पसन्द आक्रान्त नही हुआ करता कि जो अनेक प्रकार के भ्रष्टाचारों के कारण बन कर केवल अपने प्रति ही नहीं, सारे विश्व की मानवता के प्रति हीन और आकामक बना दिया करते हैं। स्पष्ट है कि सादे जीवन का मानवीय मूल्यों की दृष्टि से बहुत अधिक महत्व है। इसीलिए हम प्रत्येक ज्ञानी सन्त के जीवन को एकदम सीधा-सादा पाते हैं। आधुनिक युग पुरुष महात्मा गाँधी से बढ़ कर सादगी का और अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है ?

बिना विचारों की उच्चता के न तो आदमी की आत्मा ही ऊँची उठ सकती है और न ही वह कोई ऊँचा या महत्वपूर्ण कर्म करने के लिए ही अनुभाणित हो सकता है। उच्च विचारों से रहित व्यक्ति न तो स्वयं सामान्य स्तर से; सांसारिक ईर्ष्याद्वेष, माया-मोह आदि के मनोविकारों और ख्वार्थों से, दुनिया की झँझटों से छुटकारा पा सकता है। वह छोटी चीजों और बातों के लिए स्वयं तो झगड़ता रहेगा ही, दूसरों को भी लड़ाता-भिड़ाता रहेगा। इसी कारण सन्तजन सादगी के साथ-साथ विचार भी उच्च बनाए रखने की बात कहा और प्रेरणा दिया करते हैं।

संसार ने आज तक आध्यात्मिक, भौतिक, वैज्ञानिक क्षेत्रों में जितनी और जिस प्रकार की भी प्रगति की हैं; वह उच्च विचार एवं धारणाएँ बना कर ही की है। धारणाओं और विचारों को उच्च बनाए बिना जीवन-संसार के छोटे-बड़े किसी भी तरह के किसी आदर्श को प्राप्त कर पाना कतई संभव नहीं हुआ करता। श्रेष्ठ एवं उच्च विचार होने पर सहज सामान्य को तो पाया ही जा सकता है। उच्च शिखर का लक्ष्य सामने रख कर चढ़ाई कर देने पर यदि उसे नहीं, तो उससे कम ऊँचे शिखर तक तो पहुँचा ही जा सकता है। इसलिए उन्नति और सफलता के इच्छुक व्यक्ति को अपनी चेतना को हीन भावों-विचारों से प्रस्त कभी नहीं होने देना चाहिए।

इस प्रकांर स्पष्ट है कि शीर्षक-सूक्ति के दोनों भाग ऊपर से अलग-अलग प्रतीत होते हुए भी अपनी अन्तरात्मा में एक ही सत्य को निहित किए हुए है। वह सत्य केवल इतना ओर यही है कि जीवन में सादगी अपना कर ही उच्च विचार बनाए और पाए जा सकते हैं। इस प्रकार के सादगी और उच्च विचारों से सम्पन्न कर्मयोगियों ने ही संसार को भिन्न आध्यात्मिक एवं भौतिक क्षेत्रों में हुई प्रगति के आदान दिए हैं।

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘साँच बराबर तप नहीं’
अथवा, ‘जाके हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप’

सन्त कबीर द्वारा रचे गए इस दोहे का पूर्ण रूप इस प्रकार है :-

‘साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप।

इस नाशवान और तरह-तरह की बुराइयों से भरे संसार में सच बोलना सबसे बड़ी और सहज-सरल तपस्या हैं। सत्य बोलने, सच्चा व्यवहार करने और सत्य मार्ग पर चलने से बढ़ कर और कोई तपस्या है, न हो ही सकती है। इसके विपरीत जिसे पाप कहा जाता है या जो अनेक प्रकार के पाप-कर्म माने गए हैं; बात-बात पर झूठ बोलते रहना; छल-कपट और झूठ से भरा व्यवहार तथा आचरण करना उन सभी से बड़ा पाप है।

जिस किसी व्यक्ति के हृदय में सत्य का वास होता है अर्थात् जिस का आचरण एवं व्यवहार सब तरह से सत्य पर ही आधारित रहा करता है, ईश्वर स्वयं उसके हदय में निवास किया करते हैं। अर्थात् सत्य व्यवहार करने वाले व्यक्ति पर सब तरह से ईश्वर की दयादृष्टि एवं कृपा बनी रहा करती है। इसके विपरीत मिथ्याचरण-व्यवहार करने वाला, हर बात में झूठ का सहारा लेने वाला व्यक्ति न तो चिन्ताओं से छुटकारा प्राप्त कर पाता है, न प्रभु की कृपा का अधिकारी ही बना करता है। सत्य के साधक और व्यवहारक के सामने हर कदम पर अनेकविध कठिनाइयाँ आया करती हैं।

उसे कदम-कदम पर विरोधों, विघ्न-बाधाओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसके अपने भी उस सब से घबरा कर साथ छोड़ सकते क्या, अक्सर छोड़ दिया करते हैं। सब तरह के दबाव और कष्ट झेलते हुए सत्य के शोधक और उपासक को अपनी राह पर एक अकेले ही चलना पड़ता है। जो सत्याराधक इन सब की परवाह न करते हुए भी अपनी राह पर दृढ़ता से स्थिर-अटल रह निरनतर बढ़ता रहता है, उसका कार्य किसी भी तरह तप करने से कम महत्वपूर्ण नहीं रेखांकित किया जा सकता। इन्हीं सब तथ्यों के आलोक में सत्य के परम आराधक कवि ने अपने व्यापक एवं प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर सत्य को सबसे बड़ा तप उचित ही कहा है।

इसके बाद अनुभव-सिद्ध आधार पर ही कवि सूक्ति के दूसरे पक्ष पर आता है। दूसरे पक्ष में उसने ‘झूठ बराबर पाप’ कह कर झूठ बोलने या मिथ्या व्यवहार करने को संसार का सब से बड़ा पाप कहा हैं। गम्भीरता से विचार करने पर हम पाते हैं कि कथन में वजन तो है ही, जीवन-समाज का बहुत बड़ा यथार्थ भी अन्तर्हित है। यदि व्यक्ति अपनी कमी या बुराई को छिपाता नहीं; बल्कि स्वीकार कर लेता है, तो उसमें सुधार की प्रत्येक संभावना बनी रहती है। लेकिन मानव अपने स्वभाव में बड़ा ही कमजोर और डरपोक हुआ करता है।

वह सच्चाई, कमी या बुराई को छिपाने के लिए अक्सर झूठ का सहारा लिया करता है। बस, जब एक बार झूठ बोल दिया, तो फिर उस एक झूठ को छिपाने के लिए उसे एक-के बाद-एक लगातार झूठ की राह पर बढ़ते-जाने के लिए विवश होते जाना पड़ता है। फिर किसी भी तरह झूठों अर झूठे व्यवहारों से पिण्ड छुड़ा पाना प्राय: असम्भव हो जाया करता है। जीवन जीते-जी नरक बन जाया करता है। आदमी सभी की घृणा का पात्र बन कर रह जाता है।

आदमी का हर तरह का व्यवहार हमेशा सत्यमय एवं सत्य पर आधारित रहना चाहिए। झूठ का सहारा कभी भूल कर भी नहीं लेना चाहिए। गलती हो जाने पर भी यदि व्यक्ति सब-कुछ सच-सच प्रकट कर देता है, तो उसके सुधार की प्रत्येक सम्भावना उसी प्रकार बनी रह सकती है कि जिस तरह डॉक्टर के समक्ष रोग प्रकट हो जाने पर उसका इलाज संभव हो जाा करता है। यदि रोग प्रकट नहीं होगा, तो भीतर-ही-भीतर व्यक्ति के शरीर को सड़ा-गला कर नष्ट कर देगा। उसी प्रकार यदि झूठ का सहारा लेकर बुराई को छिपाया जाएगा, तो जीवन फिर असत्य व्यवहारों का पुलिन्दा बन कर रह जाएगा और बुराइयों का परिहार कभी भी कतई संभव नहीं हो पाएगा।

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’
(माध्य्यमिक परीक्षा – 2010)

मज़हब यानि धर्म, सभी ने इन्हें अपने प्रन्थों में बड़ा पवित्र माना और उच्च महत्व दिया है। ऐसे में स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि ये तो दंगे-फसाद और सिर-फुटौवल हो जाया करते हैं, जिन्हें मज़ही दंगे, जातिगत फसाद या धार्मिक उन्माद कह कर पारिभाषित किया जाता है, वे सब क्या है ? क्यों होते रहते हैं ? क्या वे जरूरी हैं ? क्या इन्हें टाला नहीं जा सकता है ?

मज़हब, जाति और धर्म जब कट्टरता का आवरण पहन कर भीतर से बाहर आ जाया करता है अर्थात् बाह्याचारव्यवहार बन कर अपनी श्रेष्ठता का प्रतिपादन और दूरों के प्रति हेयता का प्रचार-प्रसार करने लगता है, तभी वह दंगेफसाद आदि का कारण बन जाया करता है। जहाँ तक अपने को श्रेष्ठ बताने की बात है, वहाँ तक तो ठीक है और सहनीय भी हो सकती है; पर होता यह है कि हम अपनी बात दूसरों पर थोपने का प्रयत्न करने लगते हैं। जब यों नहीं थोप पाते तो भावनाओं में वह कर उसे बलात् दूसरों पर आरोपित करने लगते हैं।

यह एक वास्तविकता है कि मज़बी-उन्माद भारतीय न होकर बाहर से आई वस्तु है। भारतीय सभ्यता-संस्कृति तो आरम्भ से ही ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त को मानने वाली रही है। तभी तो कोल-मंगोल, हूण आदि कितने ही आक्रमणकारी यहाँ आए और यहीं के होकर रह गए। कुछ इस तरह घुल-मिल गए कि आज उनकी कोई अलग पहचान तक शेष नहीं रह गई है।

कोई भी मज़हब यह नहीं सिखाता कि आपस में एक-दूसरे का सिर भी फोड़ों और देश या राष्ट्र को भी तोड़ों। इस प्रकार की तोड़-फोड़ की शिक्षा या प्रेरणा देने वाले तत्व वास्तव में मज़हबी एवं धार्मिक तो कभी भी नहीं हुआ करते। निश्चय ही मात्र स्वार्थी तत्व हुआ करते हैं। अंग्रेज क्योंकि भारत को गुलाम बनाए रखना चाहते थे। इस कारण उन्होंने अपनी ‘बाँटों और राज करो’ नीति के तहत भारत में मज़हबी जुनून इस सीमा तक जगाया कि भारत-विभाजन हो जाने के इतने वर्षों बाद भी वह कायम है या उसे निहित स्वार्थी देशी-विदेशी तत्वों द्वारा उसे कायम रखने का षड्यंत्रपूर्ण प्रयास किया जा रहा है। लेकिन स्वतंत्रता-संघर्ष के उन दिनों में शायर अलामा इकबाल का यह कथन जितना सत्य-स्मरणीय था, आज भी है कि

“‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
हिन्दी हैं हम, वतन है, हिन्दोस्ताँ हमारा।”

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘जब आवे सन्तोष धन सब धन धूरि समान’
अथवा, ‘संतोष सबसे बड़ा धन है’

मनुष्य की इच्छा दुनिया में विद्यमान प्रत्येक वसु को पा लेने की हुआ करती है, चाहे उसके हाथ या पहुँच में कुछ हो, या न हो। ये एक साथ सब कुछ पा लेने की इच्छाएँ ही उसे भड़काया और भटकाया करती हैं। इस भड़काव ओर भटकाव के फलस्वरूप जन्म लेता है आदमी का यह असन्तोष का भाव, जो कभी भी सुख-चैन से नहीं बैठने दिया करता और सभी प्रकार की उपाधियों की जड़ है।

आज जीवन और संसार में चारों ओर असन्तोष का व्यापक साम्राज्य छाया हुआ दिखाई देता है। सामान्य-विशेष, छोटेबड़े सभी असन्तुष्ट हैं। इसी कारण सभी स्वार्थ-पीड़ित हो कर, आपाधापी और हिंसा का शस्त्र थाम कर वह सब पा लेना चाहते हैं जो कभी मिल नहीं सकता।फलस्वरूप तरह-तरह के प्रष्टाचार, रिश्वत, काला बाजार, और भी न जाने कितने प्रकार के अनैतिक धन्धे एवं राजगार चारों ओर छा कर आम आदमी का दम घोट देना चाहते हैं। कोई व्यक्ति किसी अन्य को आगे बढ़ते हुए न तो देख पाता है और न सहन ही कर सकता है। इस तरह का असहिष्णुता का भाव कई प्रकार के संघर्षों को जन्म दे रहा है।

आज के आदमी ने अपनी इच्छाओं का विस्तर सुदूर क्षितिज से भी कहीं आगे तक कर लिया है। उन्हें पूरी करने के लिए मनुष्य ने अपना हुदय, हृदय में स्थित भाव-लोक, सहदयता, प्रेम और भाईचारा सभी कुछ बेच खाया है। वह टाँग खींच कर, दूसरों को नीचे गिरा या पीछे धकेल कर भी स्वयं आप-यानि एक अकेला आगे बढ़ जाना चाहता है। आगे बढ़ने पर चाहे उसे मुँह की खानी पड़े, माथा टक्रा कर ओधे मुँह गिरना पड़े, तब भी इच्छाओं-वासनाओं के हाथों का खिलौना बन कर अपने-आप में, अपने वर्तमान में सब-कुछ रहते हुए भी असन्तुष्ट मानव बस आगे ही बढ़ते जाना चाहता है। कहाँ तक और कितना आगे, इस सब का स्यात् उसे भी कतई कुछ ज्ञान नहीं है।

एक वाक्य में यदि कहा जाए, तो अपने सीमित साधनों में ही सन्तुष्ट रहने में ही जीवन के समस्त सुखों का सार तत्व है। जो व्यक्ति इस सन्तोष रूपी धन को अर्जित कर लिया करता है, उसे फिर ओर किसी भी वस्तु की, व्यर्थ की भाग-दौड़ की कतई कोई आवश्यकता नहीं हर जाया करती है। अत: मनुष्य को शेष सभी के व्यर्थ के चक्कर छोड़ कर मात्र सन्तोष रूपी धन अर्जित करने का प्रयास करना चाहिए।

ज्ञानियों, विद्वानों, सज्जनों का अनुभव के आधार पर यह कहना सर्वथा उचित ही प्रतीत होता है कि ‘जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान’ अर्थात् सन्तुष्ट व्यक्ति के लिए संसार के सभी तरह के धन एकदम धूल-माटी के समान व्यर्थ होकर रह जाया करते हैं।

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘अविवेक विपत्तियों का जनक है’
अथवा, ‘जहँ सुमति तहं सम्पत्ति नाना’

जहाँ अविवेक होता है वहाँ दरिद्रता निवास करती है तथा जहाँ विवेक का वास होता है, वहीं पर लक्ष्मी, सुख और शांति निवास करती है। विवेक से धन-धान्य, सुख-संपत्ति तथा यश-गौरव स्वयं ही खिंचे चले आते हैं। इसीलिए तुलसीदास ने लिखा है –

जहँ सुमति तहं सम्पत्ति नाना।
जहँ कुमति तहं विपत्ति निदाना।।

मनुष्य विवेकर्शील है, अच्छे-बुरे कार्य और उसके परिणाम पर विचार कर सकता है, इसी कारण वह पशु न होकर उससे भिन्न एवं ऊँचा है। नहीं तो आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदि शेष सभी तरह को क्रियाएँ मनुष्य एवं पशु में एक समान ही हुआ करतो हैं। मनुष्य अपने-पराये में विभेद भी कर सकता है और धर्म-अधर्म का स्वरूप एवं महत्त्व भी जान-पहचान सकता है, इसी कारण वह विवेकशील प्राणी है। विवेक के बल पर मनुष्य जीवन-समाज के बनाए हुए और स्वयं बन एग सभी नियमों का पालन कर सभी उन्नति और विकास में सहायक बन सकता है और फिर अपने एवं सभी के अधिकारों को पाने या रक्षा के लिए संघर्ष भी कर सकता है। इस प्रकार जीवन-समाज के सभी तरह के सम्बन्धोंसरकारों, प्रगति और विकास का मूलाधार विवेक ही है।

राजपूत वीर तो बहुत हुआ करते थे; पर विवेकसम्मत निर्णय ले पाने की सामर्थ्य नहीं रखा करते थे। इस कारण उनके अपने ही दकम उनके नाश और अधोगति का कारण बनते रहे। यदि वे नीतिवान और विवेकसम्मत निर्णय ले पाने की शक्ति से भी सम्पन्न होते, तो भारत को शतियों तक पराधीनता के कारण जिस दुर्गति का शिकार होना पड़ा, वह न होती। मराठे यदि ग्वालियर की सामान्य विजय से आनन्दोन्मत न हो गए होते, उन्होंने पुरुष होने का अहकार त्याग एक नारी झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का परामर्श एवं नेतृत्व स्वीकार कर लिया होता, तो बहुत सम्भव है सन् 1857 का स्वतंत्रता-संघर्ष यों असफल न हो गया होता।

इस सारे विवेचन-विश्लेषण के बाद हम कहना मात्र यही चाहते हैं कि न कभी विवेक दामन अपने हाथ से खिसकने दीजिए और न ही तरह-तरह की विपत्तियों को पास फटकने का अवसर प्रदान कीजिए। विवेक-विचार की ऊर्ध्वमुखी मशाल जला कर हमेशा हाथों में थामें रखिए और निश्चिन्त होकर प्रगति और विकास के अविरत पथ पर बढ़ते चलिए। विवेक रूपी मशाल हाथ में रहने पर अविवेकजन्य विपत्तियों का अन्धकार कभी भी पास नहीं फटक पाएगा।

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘कर्म-प्रधान विश्व रचिराखा’

प्राकृतिक नियम और आत्मिक प्रेरणा से संसार का छोटा-बड़ा हर प्राणी किसी-न-किसी यानि अपनी स्थिति और आवश्यकता के अनुरूप कर्म में निरत रहा करता है। संसार की रचना का मूल उद्देश्य ही अनवरत कर्म कर के, सभी प्रकार के ॠणों से मुक्त होकर जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति या छुटकारा पाना है।

संसार का तुच्छ-से-तुच्छ प्रणी और पदार्थ भी अपने कर्म में लगा रहता है। वृक्ष स्वत: या प्राकृतिक नियम से डोल कर अपने आनन्द-भाव को तो प्रकट किया ही करते हैं संसार को हरियाली, फल-फूल और प्राणवायु भी देते रहते हैं। ऐसा सब करना ही उन का कार्य है और करते रहना ही उनकी मुक्ति है। संसार में वस्तुत: कर्म ही मुक्ति और मुक्ति ही कर्म है। बादल जिन नदियों, सागरों, सरोवरों आदि के जल से बना करते हैं, अपने अस्तित्व एवं व्यक्तित्व को मिटा कर उन सभी को वर्षा से दुबारा भरते रह कर ही कृत्कार्य होते रहते हैं। जाने उनका यह कर्ममय मुक्ति का क्रम कब से चला आ रहा है। तब तक निरन्तर चलता रहेगा कि जब तक यह धराधाम, यह हमारा दृश्य संसार विध्यमान, है।

संसार में सुखों का अधिकारी केवल कर्मवीर व्यक्ति ही हुआ करता है, कर्म से जी चुराने वाला कभी नहीं। वह तो जीते-जो नरक की आग में जलने, विषम यातनाएँ भोगने के लिए बाध्य हुआ करता है। कहावत है कि चलने वाला ही कहीं पहुँच पाता है , राह के किनारे बैठा रहने वाला नहीं। सागर के गहरे में उतर कर गोता लगाने वाला ही भीतर से निकाल कर मोती बाहर ला पाता है, मात्र किनारे बैठ कर यह प्रतीक्षा करते रहने वाला नहीं कि कब भीतर से कोई बवण्डर उभर का मोती बाहर फेंक जाए। ठीक उसी तरह से कर्म-सागर में कूद कर ही इस संसार में सफलता का सुख को मोंती पाया जा सकता है, अन्य किसी भी उपाय से नहीं। संसार में आज हमें जो कई तरह की उन्नति, प्रगति और विकास के उच्च शिख़र दीख पड़ रहे हैं, उन का निर्माण कर्म पर विश्वास रख उसमें जुट जाने वाले कर्मठ व्यक्तियों ने ही किया है। बातों के धनियों या बैठे-बैंठे उबासियाँ लेते हुए हाथों की उँगलियाँ तोड़ते-मरोड़ते रहने वालों ने नहीं।

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई’

परहित सरिस धरम नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।

तुलसीदास की यह चौपाई इस कथन का रूपान्तर है –

अष्ठादश पुरापेषु व्यासस्य वचनद्वयम
परोपकार पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥

अठारह पुराणों में व्यास ने दो ही बातें कही हैं – “परोपकार से पुण्य प्राप्त होता है और दूसरों को कष्ट पहुँचाने से पाप होता है।”

आज का नव धनाढ्य वर्ग परोपकार को घृणा की दृष्टि से देखता है फिर भी वह दिखावे के लिए कुछ परोपकार का कार्य करता है ताकि आयकर में चोटी की जा सके। धर्म का वास्तविक अर्थ हुआ करता है उदात मानवीय सद्गुणों का विकास कर उन्हें अपने में धारण करने की क्षमता अर्जित करना। तभी तो ‘धर्म’ की परिभाषा की जाती है कि ‘धारयते इतिह धर्म:’ अर्थात् जिसमें धारण कर पाने की शक्ति हो वही धर्म है, यह सफल-सार्थक हो सकती है।

सभी तरह के उदात एवं उदार सुद्युणों को धारण कर पाने की शक्ति। इस शक्ति से सम्पन्न रहने के कारण ही मनुष्य अपने भीतर भिन्न प्रकार की धार्मिक प्रवृत्तियों कां विकास कर पाता है। उन वृत्तियों में एक महानतम वृत्त है परोपकार करने की। कविवर तुलसीदास ने इसी प्रवृत्ति को महत्व देते हुए, महत्वपूर्ण मानते हुए अपनी महानतम रचना ‘रामचरितमानस’ में एक विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न पात्र के मुख से यह कहलवाया है कि- ‘पर-हित सरिस धर्म नहिं भाई।’ अर्थात् हे भाई, परापकार से बढ़ कर मनुष्य के लिए अन्य कोई धर्म नहीं। संस्कृत में भी इस प्रकार की एक सूक्ति मिलती है। उसके अनुसार- ‘परोपकाराय सत्तां विभूतय:’ अर्थात् सज्जनों द्वारा अर्जित सभी प्रकार की सम्पत्तियाँ अपने सुख-भोग के लिए न होकर परोपकार या पर-हित-साधन के लिए ही हुआ करती है।

मानव-जीवन की सार्थकता का वास्तविक मानदण्ड यही है कि वह पर-हित-साधन में इस सीमा तक आगे बढ़े कि दूसरो को भी अपने समान, अपने जैसा यानि साधन-सम्पन्न बना दे। शास्त्रीय शब्दों में मानवता का ऋण से मुक्ति पाने का प्रयास परोपकार है और परोपकार सब से बड़ा धर्म। ऐसा धर्म कि जिस की साधना के लिए कहीं जाने आने की कतई कोई जरूरत नहीं, जो सहज साध्य एवं सर्व सुलभ है।

आज दु:खद स्थिति है कि परोपकार के नाम पर लोगों को उल्लू बनाया जा रह है। इस भ्रष्ट व्यवस्था में परहित की बात कौन करें वश चले तो देश को भी बेच डालने में परहेज नहीं। शिकायत किससे की जाय क्योंकि –

बरबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्नू काफी था।
अंजामे गुलिस्तां क्या होगा, हर शाख पे उल्लू बैठा है।

‘जो तोकूँ काँटा बुए, ताही बोई तू फूल’

सूक्किपरक शीर्षक पंक्ति सन्त कबीर के एक प्रसिद्ध दोहे की पंक्ति है –

”जो तेकूँ काँटा बुए, ताही बोई तू फूल।
तोके फूल-तो-फूल हैं, वाको हैं तिरशूल।।

अर्थात् यदि तेरी राह में कोई काँटे बोता है, तो भी तू बदला लेने की इच्छा से उसकी राह में काँटे मत बो; बल्कि काँटों के स्थान पर अपनी तरफ से फूल ही बोने का प्रयास कर। ऐसा करने पर तुझे तो फूल बोने के कारण बदले में फूल ही फूल प्राप्त होंगे, जबकि काँटे बोने वाले को बदले में काँटे ही मिल पाएँगे। इस सामान्य अर्थ से प्राप्त होने वाला व्याख्यापरक ध्वन्यर्थ यह है कि संसार में रहते हुए यदि कोई व्यक्ति तुम्हारा उपकार या बुरा करता है, तब भी तुम उसका अपनी ओर से भला ही करो। अन्ततोगत्वा भला करने वाले का भला होगा, जबकि बुरा करने वाला अपने बुरे किए का फल बुरा प्राप्त करेगा। इस उक्ति का अर्थ और प्रयोजन व्यक्ति की चेतना को बुरों और बुराइयों से विमुख कर अच्छों और अच्छाइयों की तरपु उन्मुख करना ही है। व्यक्ति को अपने भले के लिए, अन्तिम लाभ के लिए सन्मार्ग पर चलने, कुमार्ग का त्याग करने की प्रेरणा देना ही है।

प्रकृति का सामान्य नियम भी यही है कि बबूल बोने पर आम खाने के लिए नही मिल सकते। आम खाने की इच्छा हो, तो आम के पौधे ही रोपने पड़ेंगे।

आदमी स्वभाव, गुण और कर्म से वास्तव में बड़ा दुर्बल प्राणी है। उसपर बुराई का प्रभाव बड़ी जल्दी पड़ा करता है, जब अच्छाई का प्रभाव पड़ते-पड़ते ही पड़ा करता है। अच्छाई साधना और तत्पश्चर्या से प्राप्त हुआ करती है, जब की गण्डाई या दुष्टता यों ही प्राप्त हो जाया करती है। स्वभाव से पानी की तरह ढलान यानि सरलता की ओर अच्छा बन कर मौनभाव से अच्छाई करते जाने का मार्ग काफी कठिन एवं कष्ट साध्य है। इसी कारण व्यक्ति अच्छा करते-करते अकसर फिसल जाया करता है। बुरे मार्ग पर चलने और बुरा करने के लिए सरलता से तत्पर हो जाया करता है। सो सूक्तिकार व्यक्ति को चारित्रिक दृढ़ता का उपदेश देकर सभी के हित और सुख-साधन की कामना से अनुप्राणित होकर ही काँटे बोने अर्थात् बुरा करने वालों की राह में भी फूल बोने अर्थात् भलाई और प्यार करने की प्रेरणा देना चाहता है।

कटुता से कटुता बढ़ती है, क्रोध से क्रोध बढ़ता है। बैर को प्रेम से ही जीता जा सकता है। जो किसी के बारे में बुरा नहीं सोचता, वही वास्तविक सुख और शांति का अनुभव करता है। ईष्या की आग और द्वेष का धुआँ उससे कोसों दूर रहता है। कवि रहीम ने भी लिखा है –

प्रीति रीति सब सों भली, बैर न हित मित गोत।
रहिमन याही जनम में बहुरि न संगति होत।।

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘हानि-लाभ, जीवन-मरण,
यश-अपयश विधि-हाथ’

मानव के सभी शुभ कार्यों पर नियंत्रण करने वाली कोई और शक्ति है, जिसके आगे बड़े-बड़े विद्वानों को भी नतमस्तक होना पड़ता है। मानव की प्रिय वस्तुएँ जीवन, यश और लाभ ही है। लेकिन वह न इन्हें बना सकता है और न मिटा सकता है, कोई और ही शक्ति है जो सबको नियंत्रण में रखती है। अन्यथा बड़े-बड़े महाराजाधिराज जिनकी शक्तिसमृद्धि का सब लोहा मानते थे – वे मृत्यु की गोद में क्यों चले जाते ? इन्हीं सब कारणों से तुलसीदास ने लिखा है कि-

“हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि-हाथ।”

अर्थात् जनम से लेकर मृत्यु तक आदमी हानि-लाभ, यश-अपयश जो कुछ भी अर्जित कर पाता है, उसमें उसका अपना वश या हाथ कतई कुछ नहीं रहा करता। विधाता की जब जैसी इच्छा हुआ करती है, तब उसे उसी प्रकार की लाभ-हानि तो उठानी ही पड़ती है, मान-अपमान भी सहना पड़ता है।

कई बार मनुष्य कोई अच्छा कर्म इसलिए करता है कि उसका परिणाम मान-यश बढ़ाने वाला होगा। सो वह उस कर्म को करता जाता है; पर उसके विरोधी पैदा होकर उसके सारे परिश्रम को व्यर्थ कर देते हैं। उसे मान की जगह अपमान और यश की जगह अपयश भोगने को विवश होना पड़ता है।

इस प्रकार यह मान्यता स्वीकार कर ही लेनी चाहिए कि आदमी के अपने हाथ में कुछ नहीं है। जो कुछ हैं, वह विधि के हथ में ही है। वही संसारकर्ता, भर्त्रा और हरता सभी कुछ है। उसी की इच्छा-अनिच्छा और लीला का परिणाम है यह दृश्य जगत। इस का कण-कण उसी से संचालित हुआ करता है। उसी की इच्छा से हवा चलती है, बादल बरसते हैं। चाँद-सूर्य-तारे कम से आते-जाते हैं। वहीं यश-अपयश, मान-सम्मान आदि हर बात कर कर्ता और दाता है। इसी ओर संकेत करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा था – “अपना भला-बुरा सब-कुछ मेरे अर्पित कर दो। तुम केवल कर्त्तव्य कर्म मेरा ही आदेश मान कर करते जाओ।’सो कवि का भी यहाँ यही आशय है किहानि-लाभ, यश-अपयश आदि सभी को भगवान् के हाथ में मान कर अपने कर्त्तव्यों का पालन करते जाओ-बस!”

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘नर हो, न निराश करो मन को’

जब हम महापुरुषों के जीवन-चरित को पढ़ते हैं तब हमें आश्चर्य होता है कि इन व्यक्तियों में ऐसी कौन-सी शक्ति थी जो उन्होंने कल्पनातीत कार्य कर दिखाया। पता चलता है कि वह शक्ति थी – उनका मनोबल, जिसने उन्हें असाधारण व्यक्तियों की श्रेणी में लाकर खड़ाकर दिया। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या थोड़े से वीर मरहठों को लेकर वीर शिवाजी और कंकाल के पुतले महात्मा गाँधी वह सब कर पाते जो उन्होंने कर दिखाया। ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य अपने जीवन में जो कुछ करता है उसके पीछे उसकी मानसिक शक्ति ही होती है। अगर मानसिक शक्ति दृढ़ तो एक बार मौत भी हार जाती है।

जिस दिन नर मनुष्य निराश या सन्तुष्ट होकर बैठ जाएगा, उस दिन वास्तव में सृष्टि का विकास ही रुक जाएगा, इस बात में तनिक भी सदेह नहीं। निराशा या उदासी यदि जीवन के तथ्य होते, तो आज तक विश्व में जो प्रगति एवं विकास संभव हो पाया है, कदापि न हो पाता। नरता का पहला और अनिवार्य लक्षण है हर हाल में, हर स्थिति में निरन्तर आगेही-आगे बढ़ते जाना ‘जिस तरह जल की नन्हीं, कोमल एवं स्वच्छ धारा अपने निकास-स्थान से निकलकर एक बार जब चल पड़ती है, तो सागर में मिले बिना कभी रुकती या विश्राम नहीं लिया करती; उसी प्रकार नरता भी कभी लक्ष्य पाए बिना रुका नहीं करती।

नर प्राणी किसी बात से निराश होकर बैठ जाए, यह उसे कतई शोभा नहीं देता। निराश होकर बैठ जाना हार तो है ही, श्रेष्ठता से विमुख होना या उसे काल के हाथों गिरवी रखना भी है। किसी भी वस्तु को गिरवी रखने वाला व्यक्ति मानसम्मान एवं आत्मविश्वास के साथ-साथ लोक विश्वास से भी हाथ धो बैठता है। ऐसा होना दूसरे शब्दों में निराशात्तिरेक में उसका नरता से पतित होना है। अपने-आप को कहीं का भी नहीं रहने देने जैसा है। सो नर मनुष्य होकर कभी भूल से भी इस तरह की स्थिति, पतन और गिरावट मत आने दो। बुद्धिमान व्यक्ति को आशावादी होना चाहिए, ताकि वह अपना और अपने देश का कल्याण कर सके। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपना मनोबल बनाए रखना चाहिए क्योंकि मनोबल से ही सफलता कदम चूमती है। जिस व्यक्ति का मनोबल गिर जाता है, वह जीते-जी पशु के समान हो जाता है।

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘बुरा जो देखन मैं चला’

जहाँ तक आदमी के आम स्वभाव का प्रश्न है, हर आदमी अपनी बड़ी-से-बड़ी बुराई की तरफ ध्यान न दे दूसरों की सामान्य-से-सामान्य बुराई पर नुक्ताचीनी करता रहता है। कहावत भी है न, आदमी को अपनी आँख का शहतीर नजर नहीं आता, जबकि दूसरे की आँख में पड़ा तिनका तक वह देख और ढूँढ लिया करता है। लेकिन यदि मनुष्य अपनी आँख में गढ़े शहतीर मात्र को देखने लगे, यानि सभी लोग अपनी बुराइयाँ खोज कर उन्हें दूर कर लें, तो निस्सन्देह जीवन स्वर्ग-सा सुखदायक बन जाएगा।

वास्तव मं जिस व्यक्ति के अपने भीतर बुराई रहा करती है, उसे सारा संसार बुरा दीख पड़ता है। ठीक यह बात उस व्यक्ति के बारे में भी सत्य है। इसलिए आदमी की पहली आवश्यकता है अपने भीतर की बुराई दूर करे, फिर दूसरों की बुराइयों की तरफ ध्यान दे। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रख कर ही सन्त कबीर ने अपने अनुभव के आधार पर कहा था –

‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलयों कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझ-सा बुरा न होय।’

अर्थात् जब में संसार में बुरे स्वभाव वाले प्राणियों को खोजने चला, तो मुझे कहीं एक भी व्यक्ति बुरा दिखाई न दिया। इसके बाद जब मैंन अपने भीतर बुराई की खोज आरम्भ की, तो पाया कि वास्तव में इस संसार में मुझ से बढ़ कर बुरा व्यक्ति और कोई नहीं है। स्पष्ट है कि कबीर जैसे सन्त और सत्य के उपासक ने ऐसा कह कर हमें आत्मविश्लेषण करने की प्रेरणा दी है। इस ओर संकेत किया है कि व्यक्ति को अपनी वास्तविकता जान कर ही दूसरों की अच्छाई-बुराई की खोज या विश्लेषण करना चाहिए। दूसरे शब्दों में कुछ कहने-करने का अधिकारी बनने के बाद ही दूसरों से कुछ कहना या कोई व्यवहार करना चाहिए।

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘काल्ह करे सो आज कर’

सन्त कबीर द्वारा रचे गए एक प्रसिद्ध दोहे का पहला चरण है यह शीर्षक-पँक्ति:-

“काल्ह करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलै होयगी, बहुरि करो कब ।।”

इस का अर्थ, इसकी व्याख्या भी देखने में सीधी और सरल ही है। लेकिन अने भीतर बड़े ही गम्भीर विचार को छिपाए हुए है। सीधा सादा अर्थ है-जो कार्य कल करना है, उसे आज ही कर डालो। जो आज करने का विचार है, उसे अभी आरम्भ कर दो। पता नहीं, अगले ही क्षण प्रलय हो जाए। सो फिर सोचा कार्य कब करोगे? अर्थात् बहुत संभव है कि प्रलय का क्षण उपस्थित हो जाए और उसके कारण फिर कभी भी वह कार्य कर पाने का अवसर ही सुलभ न हो सके।

निश्चय ही सीधे-साधे शब्दों और सरल शैली में कही गई बात का विशेष अर्थ, प्रयोजन एवं महत्व है। सब से महत्वपूर्ण संकेत तो यह है कि कवि ने समय के सुदपयोग करना आवश्यक किया है। दूसरे शब्दों में यह कहा है कि कभी भी आज का काम कल पर नहीं छोड़ना चाहिए। क्यों नहीं छोड़ना चाहिए, इस तथ्य को समझना और जानना ही वास्तव में इस सूक्ति के वास्तविक अर्थ और भाव तक पहुँचना है। उसे जाने बिना सभी कुछ एकदम सरल एवं सामान्य-सा ही प्रतीत होता है।

तो आखिर वह विशेष कथन का वह विशेष अर्थ एवं रहस्य है क्या ? वह जानने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि भारतीय दार्शनिक-आध्यात्मिक धारणा के अनुसार यदि मृत्यु के समय मरने वाले के मन-मस्तिष्क में कुछ अधूरी एवं अपूर्ण इच्छाएँ शेष रह जाती हें, तो उन्हें पूरा करने के लिए उसे तब तक बार-बार जन्म लेते रहना पड़ता है कि जब तक वे पूर्ण नहीं हो जाया करतीं। पूर्ण करने के चक्कर में आदमी बार-बार जन्म लेता और मरता रहता है।

इस प्रकार आवागमन का चक्कर कभी समाप्त ही नहीं हो पाता। जन्म-मरण के चक्कर में बन्धा प्राणी भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेता, कष्ट भोगता हुआ बड़े ही पुण्य कर्मों के बल से फिर मनुष्य योनि में इसलिए जन्म लेता है कि अच्छे कर्म कर के, सभी तरह की अधूरी रह गई इच्छाएँ समय पर यानि मृत्यु से पहले पूर्ण कर ले और इस तरह लोक-परलोक दोनों तरह की मुक्ति पाने का अधिकारी बन जाए।

समय पर प्रत्येक कार्य सम्पन्न हो सके, इसके लिए भी आवश्यक है कि आज का काम कल पर न छोड़ा जाए। उन्नति और विकास की इच्छा एवं कल्पना भी तभी पूर्ण की जा सकती है कि जब समय पर उचित कार्य सम्पन्न करने की तरफ ध्यान दिया जा सके। महान् लोग जो समय का सदुपयोग करने की शिक्षा दिया करते हैं, तो कहा जा सकता है कि प्रत्येक स्वीकृत कार्य को लगातार लग के साथ-ही-साथ पूर्ण करते जाना ही वास्तव में समय का सदुपयोग हैं। फिर दिनप्रतिदिन आदमी की शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक शक्तियाँ भी तो लगातार क्षीण होती जाया करती हैं। स्वभावतः कार्यक्षमता पर भी असर पड़ता है। यदि व्यक्ति आज का काम कल पर छोडता जाएगा, तो क्या पता वह कल कभी आए या न आए ? क्या पता कि कल तक उसकी आज की-सी कार्यक्षमता रह पाए या नहीं ?

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे’

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा परिकल्पित एवं विरचित ‘रामचरितमानस’ में दी गई इस सूक्ति का सम्पूर्ण स्वरूप इस प्रकार है:

“जहाँ सुमति तहाँ सम्पत्रि नाना।
जहाँ कुमति तहाँ विपत्ति निधाना।।’

अर्थात् जहाँ यहा जिस व्यक्ति के हृदय एवं समस्त क्रिया-व्यापारों में सुमति या सुबुद्धि का निवास अथवा आग्रह रहा करता है, वहीं पर सभी तरह की सुख-सम्पत्तियाँ सुलभ रहा करती हैं।

यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे।

मनुष्य और पशु में यदि कोई अंतर है तो यह है कि पशु परहित की भावना से शून्य होता है। उसके जितने भी कार्य होते हैं वे सभी अपने तक सीमित रहते हैं। यदि मनुष्य भी मनुष्य के साथ ऐसा व्यवहार करे तो फिर मनुष्य और पशु में अंतर ही क्या रह जाएगा। हमारी संस्कृति में मानव-मात्र की कल्याण-भावना निहित है तथा यह संस्कृति ‘वसुधैव कुटंबकम्’ की पवित्र भावना पर आधारित है। सच तो यही है कि संसार में परोपकार के समान न कोई दूसरा धर्म है, न पुण्य।

इस तथ्य को उजागर करने एवं सन्देश को प्रसारित करने के लिए तुलनात्मक दृष्टि अपना कर कवि ने परस्पर विलोम रहने वाले दो शब्दों का बारी-बारी से प्रयोग किया है। एक सुमति-कुमति, दूसरा सम्पत्ति-विपत्ति। ‘सुमति’ का सम्बन्ध ‘सम्पत्ति’ से बताया है; जबकि ‘कुमति’ का सम्बन्ध ‘विपत्ति’ से बताया गया है। मनुष्य क्योंकि सामाजिक, सर्वश्रेष्ठ एवं विचारवान् प्रणी है, इस कारण कवि ने उस से सुमति के द्वारा सम्पत्ति की ओर जाने का आय्रह किया है। व्यक्ति को कुमति का मार्ग त्याग देना चाहिए; क्योंकि वह तरह-तरह की विपत्तियों की ओर ले जाने वाला होता है।

सुमति से काम लेकर सुविचारित ढंग से चलने का मार्ग कठिन हो सकता है, प्राय: हुआ भी करता है। लेकिन जब मनुष्य उस कठिन मार्ग पर साहस और सुविचार से चल कर उसे पार कर लिया करता है, तब जिस सुख एवं आनन्द् की अनुभूति हुआ करती है। इसी तरह कुमति से प्रेरित हो और अविचार या कुविचार का दामन थाम कर चलने से अन्ततोगत्वा जिस प्रकार की आत्मपीड़ा और आत्मसंन्ताप झेलना पड़ा करता है, उसे भी शब्दों द्वारा आकार दे पाना संभव नही हुआ करता। वह तो मात्र झेलने वाला ही हर पल पश्चाताप की आग ने झुलसते रह कर अनुभव कर पाता है।

मानव जीवन का उद्देश्य केवल इतना नहीं है कि खाओ, पीओ और मस्त रहो। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है –

“एहि तन कर फल विषय न भाई,
सब छल छांड़ि भजिय रघुराई।।”

अर्थात् इस जीवन का लक्ष्य केवल विषय-वासनाओं में लिप्त नहीं, बल्कि निष्कपट होकर भगवान की भक्ति है। भक्ति भी तभी सफल हो सकती है जब हम दूसरे मानवमात्र के साथ सहानुभूति, सहयोग और संवेदना के साथ पेश आएं। अंग्रेजी का एक कथन है – “The best way to pray to God is to love His creation.”

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘सबै दिन जात न एक समान’

आज बचपन का कोमल गात
जरा-सा पीला पात
चार दिन सुखद चाँदनी रात
और फिर अंधकार अज्ञात।

इस शीर्ष सूक्ति में सूक्किकार का आशय दिनों के एक समान न जाने से यह है कि व्यक्ति के जीवन में उतार-चढ़ाव आता रहता हे। उतार यानि बुरे एवं कष्टदायक दिनों का आगमन, चढ़ाव यानि सुखदायक अच्दे दिनों का आगमन। अच्छे दिनों का आगमन स्वभावत: बुरे दिनों के गमन या बीत जाने का संकेत है। इस प्रकार जीवन में कभी अच्छे दिन आते हैं, तो बुरे भी आ सकते हैं। इसी तरह बुरे दिन अच्छे दिनों का आगमन स्वभावत: बुरे दिनों के गमन या बीत जाने का संकेत है। इस प्रकार जीवन में कभी अच्छे दिन आते हैं, तो बुरे भी आ सकते हैं। इसी तरह बुरे दिन अच्छे दिनों में भी परिवर्तित हो सकते हैं।

समय का चक्र भी अनवरत गति से ऊपर-नीचे, नीचे-ऊपर घूमता ही रहा करता है। बुरा समय कब चील की तरह झापट्टा मार के व्यक्ति के सारे सुख-संसार को निगल जाएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। बड़े-बड़े राजाओं-महाराजाओं, समृद्धों-सम्पत्तिवानों को भी समय का शिकार होकर भूखों मरते देखा गया है। दूसरी ओर ऐसा भी देखा गया है कि आज जो बेचारा एक-एक पैसे के लिए तरस रहा है, कल वह दोनों हाथों से धन-सम्पत्ति लुटाता फिर रहा है। आज दूटा-फूटा या पुरानी साइकिल तक सुलभ नहीं, कल कई-कई कारां का मालिक बना फिरता है। इस प्रकार समय के हाथ बड़े लम्बे और मजबूत माने जाते हैं। वे सुख-दु:ख किसी को भी खींच कर व्यक्ति के जीवन को कुछ-का-कुछ बना सकते हैं। एक समय था जब रोम की सभ्यता-संस्कृति की धाक सारे विश्व पर हुआ करती थी, पर आज उसके खण्डहर तक भी काल यानि बलवान समय का ग्रास बन चुके हैं।

यह समय की ही तो बात है कि जिस रावण के एक लाख पुत्र-पौत्र और सवा लाख नाती हुआ करते थे, आज कोई उसका नामलेवा तक बाकी नहीं है। जहाँ कभी सागर लहराया करते थे, आज वहाँ लम्बे रेगिस्तान हैं और उनमें धूलधक्खड़ के बवण्डर ठाठें मारते उड़-फिर रहे हैं। जहाँ कभी ऊँचे पहाड़ हुआ करते थे, पर्वतमालाएँ थीं, आज वहाँ अथाह जल से भरे सागर लहरा रहे हैं। जहाँ कभी बस्तियाँ हुआ करती थीं, वहाँ आज श्मशान-कबिस्तान हैं और कब्रिस्तानों पर बस्तिर्याँ बस रहीं हैं। जहाँ हरे-भरे वन, खेत-खलिहान लहलहाया करते थे, वहाँ आज कंक्रीट के जंगल उग आए हैं। कल-कारखाने खड़े होकर धुएँ के अम्बार उगल रहे हैं। इस प्रकार उतार-चढ़ाव से भरा समय का चक्र कहाँ जा कर रुकेगा, न तो कोई जानता ही है और न इस सम्बन्ध में कुछ कह या कर ही सकता है। बस, वह यह कर सकता है तो इतनाही कि यह तथ्य मान कर सुकर्म करने लगे कि ‘सबे दिन जात न एक समान।’

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’

कविवर वृन्द के रचे दोहे की यह एक पंक्ति वास्तव में परिश्रम की निरन्तरता का महत्व बताने वाली है –

“करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत-जात ते, सिल पर परत निसान।।”

इसकी व्याख्या इस पकार की जा सकती है कि निरन्तर परिश्रम करते रहने से असाध्य माना जाने वाला कार्य भी सिद्ध हो जाया करता है। असफलता के माथे में कील ठोंक कर सफलता पाई जा सकती है। जेसे कुएँ की जात पर लगे पत्थर पर पानी खींचने वाली रस्सी के बार-बार आने-जाने से, कोमल रस्सी की रगड़ पड़ने से घिस कर उस उस पर एक निशान अंकित हो जाया करता है; उसी तरह लगातार ओर बार-बार अभ्यास यानि परिश्रम और चेष्टा करते रहने से एक निकम्मा एवं जड़-बुद्धि समझा-जाने वाला व्यत्रि भी कुछ करने के लायक बन सकता है। सफलता और सिद्धि का स्पर्ष कर सकता है। दूसरे शब्दों में अनवरत परिश्रम और लगन के द्वारा असम्भव समझे जाने वाले कार्यों को भी सम्भव कर के दिखाया जा सकता है।

एकबार वायलिनवादक फ्रिट्ज क्रीसलर से पूछा गया, “आप वायलिन इतना सुंदर कैसे बजा लेते हैं? क्या आप खुशकिस्मत हैं ?” उन्होंने जबाब दिया, “यह अभ्यास के कारप्प है। अगर मैं एक महीने तक अभ्यास न करूँ ते मेरे श्रोता फर्क समझ जाते हैं। अगर मैं एक सप्ताह तक अभ्यास न करूँ तो मेरी पत्नी फर्क बता देती है। अगर मैं एक दिन भी अभ्यास न करूँ तो खुद ही फर्क बता सकता हूँ।”

इसलिए मनुष्य को अपने अध्यवसाय-रूपी रस्सी को समय की शिला पर निरन्तर रगड़ते रहना चाहिए, तब तक लगातार ऐसे करते रहना चाहिए कि जब तक कर्म की रस्सी से विघ्न-बाधा या असफलता की शिला पर घिस कर उनकी सफलता का चिन्ह स्पष्ट न झलकने लगे। मानव-प्रगति का इतिहास गवाह है कि आज तक जाने कितनी शिलाओं को अपने निरन्तर अभ्यास से घिसते आकर, बर्फ की कितने दीवारें पिघला कर वह आज की उन्नत दशा में पहुँच पाया है। यदि वह हार मानकर या एक-दो बार की असफलता से ही घबरा कर निराश बैठे रहता, तो अभी तक आदिम काल कीअन्धेरी गुफाओं ओर बीहड़ वनों में ही भटक रहा होता।

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘अपना हाथ जगन्नाथ’

‘अपना हाथ जगन्नाथ’ एक लोक-प्रसिद्ध कहावत है। इसका सीधा और स्पष्ट अर्थ यही लिया जाता है कि व्यक्ति अपने हाथ से किए गए कार्यों पर ही विश्वास कर सकता है। उन्हीं के द्वारा परिश्रमपूर्ण कार्य करके अपने घर-परिवार का लालन-पालन तो ठीक प्रकार से कर ही सकता है, अपने लिए यथासम्भव सफलता के प्रत्येक द्वार, प्रत्येक रास्ते का भी उद्घाटन कर सकता है। अपने हाथों की शक्ति आदमी की सब से विश्वसनीय सहकर्मी, साथी और सहयात्री हुआ करती है। जिसे अपने हाथों की शक्ति पर विश्वास रहता है, उसे कभी भूल से भी पराश्रित नहीं बनना पड़ता।

स्वामी रामतीर्थ ने जापान-यात्रा करके और वहाँ की सुख-समृद्धि का रहस्य जान लेने के बाद उन्होंने बड़े सुलझे हुए ढंग से कहा था – “जिस देश के हाथों की डँगलियों और चेहरे पर परिश्रम की धूल नहीं पड़ा करती, वह देशजाति कभी भी उन्नति के शिखर नही छू सकते।” स्पष्ट है कि सब प्रकार की उन्नति और विकास के शिखर छूने के लिए अपने हाथों की उँगलियों में छिपी शक्ति को जगन्नाथ की अनन्त-असीमित शक्तियों के समान ही बनाने की अनिवार्य आवश्यकता हुआ करती है।

ईश्वर ने हाथ दिये ही तरह-तरह के कार्य करने के लिए हैं। इसलिए कि अनवरत कर्म द्वारा संसार-सागर को मथ कर उसमें जो सुख एवं आनन्द-रूपी मोती-माखन छिपा पड़ा है, उसे दोनों हाथ बढ़ा कर अपने लिए समेट लिया जाए।

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’

हार-जीत तो आरम्भ से ही जीवन के साथ लगी हुई है, लगी रहती है और आगे भी लगी ही रहेगी। यह जीवन का एक निश्चित एवं परीक्षित सत्य है। सफलता प्राप्त करने की प्रेरणा लक्ष्य को हासिल करने की गहरी इच्छा शक्ति से आती है। नेपोलियन ने लिखा था – “इंसान जो सोच सकता है और जिसमें यकीन करता है वह उसे हासिल भी कर सकता है।”

सभी कामयाबियों की शुरुआत उन्हें पूरा करने की गहरी इच्छा शक्ति से ही होती है। जिस तरह थोड़ी-सी आग ज्यादा गर्मी नहीं दे सकती, उसी प्रकार कमजोर इच्छा से बड़ी कामयाबियाँ नहीं मिल सकती। असफलता के डर से कुछ लोग कोशिश ही नहीं करते, और साथ ही पीछे न छूट जायं इस डर से वे पीछे भी रहना नहीं चाहते। ऐसे लोग जीतना तो चाहते हैं लेकिन हारने के डर से अपनी मानसिक क्षमताओं का इस्तेमाल नहीं कर पाते। वे अपनी क्षमता इस चिंता में गंवाते हैं कि कहीं हार न जाएँ, बजाए इसके कि जीतने की कोशिश में उसे लगाएँ

मानव-समाज ने अपने आरम्भ काल से लेकर आज तक जितनी प्रगति, जितना विकास किया है, उसके लिए जाने कितनी विघ्न-बाधाएँ सहीं, कितनी-कितनी असफलताएँ झेली और कितनी बार असफल परीक्षण किए, कहाँ है उस सब का हिसाब-किताब ? यदि वह कुछ विघ्न-बाधाएँ देख कर, कुछ असफल परीक्षणों के बाद ही मन मार कर बैठ जाता, तो आज तक की उन्नत यात्रा भला कैसे और क्यों कर के कर पाता ? वहीं अन्धेरी मुफाओं और घने जंगलों के सघन वृक्षों की डालियों में ही उछल-कूद न मचा रहा होता ? पर नहीं, मनुष्य के लिए हार मान हाथ-पर-हाथ धर कर बैठ जाना कतई संभव ही नहीं हुआ करता।

मानव-मान हार को हार मान ही नहीं सकता। सच्चे मनुष्य का मन तो हमेशा जीत के आनन्दोल्लास से भरा रहता है। उत्साह से भरे उसके कर्मठ मन को बढ़ाता हुआ हर कदम जीत या सफलता को निकटतर खींचता हुआ प्रतीत होता है। तभी तो वह गर्मी-सर्दी, वर्षा-बाढ़ आदि किसी की भी परवाह न करते हुए, वसन्त या शरद की सुन्दरता की ओर आकर्षित होते हुए भी उन की अपेक्षा करते हुए अपने गन्तव्य की ओर कदम-दर-कदम हमेशा बढ़ता रहता है-तब तक कि जब तक उस तक पहुँच कर अपना विजय-ध्वज नहीं फहरा देता।

इन तथ्यों के आलोक में शीर्षक-सूक्ति में व्यंजित सत्य को नतमस्तक होकर स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि हार-जीत दोनों मन के व्यापार हैं।

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘दैव-दैव आलसी पुकारा’

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।

– यह आलसियों का गुरु-मंत्र है। आलसी मनुष्य ही दैव का, भाग्य का अनावश्यक सहारा लेते हैं। ऐसे लोगों का जीवन इसलिए होता है कि वे दूसरें के भोजन पर तिरस्कृत होकर भी पलते रहें तथा दुर्गति का शिकार बनते रहें। ऐसे लोगों से सभी घृणा करते हैं। आलस्य से मानव-जीवन का पतन हो जाता है तथा संसार की समस्त बुराइयाँ उसमें घर कर जाती है। उसे उत्थान की जगह पतन, उन्नति की जगह अवनति तथा यश की जगह अपयश की प्राप्ति होती है। आलस्य उसके जीवन को घुन की तरह खा जाता है।

कर्मशील व्यक्ति समय की गति पहचान औरकर्म-निरत होकर जीवन को सुखी और सफल बना लिया करता है, जबकि निठल्ला भाग्यवादी बैठा-बैठा माथे की लकीरें पीटता रह जाता है। इस तरह से कर्म या पुरुषार्थवादियों की स्पष्ट धारणा है कि:

उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणिन मनोरथै :।
न हि सुपतस्य सिहंस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा :।।

अर्थात् मात्र उद्योग या परिश्रम करते रहने से ही सब तरह के कार्य सिद्ध हो सकते हैं। पुरुषार्थवादियों का यह भी स्पष्ट मानना और कहना है कि “‘उद्योगिनां हि सिंहनुपैति लक्ष्मी:” अर्थात् उद्योग या परिश्रम करते रहने वाले सिंह-समान वीर पुरुषों का वरण ही लक्ष्मी किया करती है। दूसरे शब्दों में परिश्रमी व्यक्ति हर प्रकार की सुख-समृद्धियाँ, धन-सम्पत्तियाँ अपने परिश्रम् के बल पर अर्जित कर लिया करते हैं।

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘अब पछताय होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत’

अरविंद को मार तुषार गया,
मुस्कराते हुए रवि आये तो क्या।

जब कमलों को पाला मार जाये, प्रात:काल के समय कितनी ही मुस्कुराहट बिखराते हुए सूर्य आये, कोई लाभ नहीं होता। काम बिगड़ जाने पर पश्चात्ताप की अग्नि में स्वयं को जला डालने से ही कुछ बनता है। मनुष्य का कर्त्तव्य है कि अच्छी प्रकार सोच-समझकर कार्य करे, जिससे कि बाद में पछताना न पड़े। कवि गिरधर ने कहा है –

“बिना बिचोट जो करे, सो पाछे पछताय।
काम बिगारे आपनौ, जंग में होत हैसाय ।।”

समय के महत्व के बारे में तुलसीदास ने भी लिखा है –

“का वरषा जब कृषि सुखाने। समय चूकि पुनि का पछिताने।”

सूक्तिकार ने ‘अब पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गई खेत’ कह कर समय के महत्व को उजागर किया है। समय का सदुपयोग करने का महत्व बताया है। साथ ही सावधान भी किया है कि यदि समय पर कर्म करने से चूक जाओगे, समय का सदुपयोग नहीं कर सकोगे, तो बाद में जीवन एक जीवन्त अभिशाप बन जाएगा। वह रात-दिन की कुढ़न एवं क्रन्दन बन कर अपने आप को ही कचोटता रहेगा। इस बात का हमेशा ध्यान रखो कि इस-आध पल भ्जी देर कर देने वाला समय पर छूट जाने वाली रेलगाड़ी को कभी भी नहीं पकड़ पाता। देखते-ही-देखते ट्रेन तो मीलों आगे निकल जाया करती है और उस पर यात्रा करने का इच्छुक व्यक्ति वहीं प्लेटफार्म पर खड़ा-खड़ा बस सोचता हुआ, अपनी गफलत पर पछताता हुआ खड़ा रह जाता है। तब उसे अगली द्रेन की प्रतीक्षा करनी पड़ती है और हो सकता है कि तब तक यात्रा का उद्देश्य ही समाप्त हो जाए।

समय का पंछी एक बार हाथ से छूट जाने पर दुबारा कतई कभी भी पकड़ में नहीं आया करता। समय का हर पलक्षण, प्रत्येक साँस ही जीवन है, समय का साकार-सजीव स्वरूप है। जन्म लेते ही उस (समय) का क्षण आरम्भ हो जाता है। हम देखते और सोचते ही रह जाते हैं कि कब बचपन हाथ से खिक गया। फिर कैशौर्य हिरणों की तरह चौकड़ियाँ भरता यह जा, वह जा’ हो गया और आ गए यौवन के उमंग-उत्साह भरे क्षण। लेकिन अभी चौकन्ने होने को होते ही हैं कि कभी न लौट पाने के लिए यौवन के वे उन्मादक क्षण हाथों से चुपचाप फिसल जाते हैं।

फिर प्रौढ़ता और बुढ़ापे का भी यही हाल होता है। कब मृत्यु आकर सभी कुछ समाप्त करे दती है, व्यक्ति को पता तक नहीं चल पाता। प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को समय रहते ही सावधान हो जाना चाहिए। व्यास से व्याकुल होने पर जो व्यक्ति कुआँ खोदना प्रारंभ करता है, वह प्यासा ही मर जाता है। जो विद्यार्थी पढ़ाई के दिनों में तो सोता है लेकिन परीक्षा में पछताता है, उसका पछताना व्यर्थ है क्योंकि बीता हुआ समय लौट कर नहीं आता।

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं’

यह सूक्ति ‘रामचरितमानस’ जैसी अद्भुत एवं अमर रचना के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास द्वारा कही गई है। इसका आशय यह है कि सत्ता और धन से युक्त सामर्थ्यशाली व्यक्तियों के दोष भी गुण में बदल जाते हैं। इस संसार में घोषित रूप से नैतिकता का दोहरा मानदंड प्रचलित रहा है जिन बातों के लिए निर्धन और अशक्त लोगों की निंदा की जाती है, उन्हीं के लिए सत्तारूढ़ और सम्पत्तिशाली लोगों की प्रशंसा। ऐसा नहीं होना चाहिए। शेक्सपीयर के नाटको में इस बात का बार-बार उल्लेख किया जाता है कि समर्थ लोग किस प्रकार न्याय-व्यवस्था को भी धोखा देने में सफल हो जाता है।

इस युग-युगों के सत्य को एक अन्य मुहावरे या कथन द्वारा भी प्रकट किया जाता है। वह यों कि ‘बड़ी मछली छोटी मछली को निगल कर ही बड़ी बना करती’ है। ये सभी उक्तियाँ और शीर्षक-सूक्ति वास्तव में परम्परागत सामाजिक न्याय-व्यवस्था को रेखांकित कर उस पर तीखा व्यंग्य कसने वाली हैं। जो ससमर्थ है, अपने-आप में दुर्बल है, जिसके हाथ में शक्ति का प्रतीक लाठी नहीं है, जो हीनता का शिकार होकर छोटा है, तो छोटा ही बना रहना चाहता है, अपनी दीन-हीन स्थितियों से उबर पाने के लिए प्रयास नहीं करता, उसे हमेशा से सबलों-समर्थों की इच्छा का शिकार होते आना पड़ा है।

दुनिया झुकती है, बस उसे झुकाने वाला चाहिए। लेकिन झुकाने की शक्ति अर्जित करने का यह तात्पर्य नहीं है कि स्वयं जिन विषम स्थितियों से गुजरें हैं, दूसरों को भी बाधित कर दें कि अब वे हमारा दबाव प्रतिरोध के बिना सहन करें। ऐसा करना तो मात्र प्रतिकार की हिंसक भावना को बढ़ावा देना है। उसे कभी भी समाप्त नहीं होने देना है। भारतीय साहित्य में सत्ता और संपत्ति से युक्त समर्थ व्यक्तियों की स्तुति-वंदना करनेवाले अंश बहुत कम मिलते हैं तथा प्रतिनिधि रचनाओं में सत्ता-विरोध का ही स्वर प्रबल है।

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘पराधीन सपनेहु सुख नाही’

स्वाधीन यानि स्वतंत्र, अपने अधीन और अपना शासन या अपने जीवन को संयम एवं सुरक्षा तटबंध प्रदान करने वाले अपने नियम-विधान। इस के वपरीत पराधीन यानि पराये या दूसरे के अधीन और परतंत्र अर्थात् पराये और बलपूर्वक थोपे गये नियम-विधान, सभी प्रकार के बन्धनों को मानने के लिए विवश। इस व्याख्या से स्वाधीन और पाराधीन का अंतर पता चल जाता है।

पराधीनता व्यक्ति और समाज से उसकी अपनी इच्छाएँ तक छीन लिया करती है। उसके मुँह पर भी ताला ठोंक दिया करती है। अर्थात् पराधीन व्यक्ति न तो कभी किसी प्रकार की स्वतंत्र इच्छा ही कर सकता है और न अपने स्वतंत्र विचार रख तथा प्रकट ही कर सकता है। उसे दूसरे की आँख से देखना, दूसरे के मुँह से बोलना, दूसरे के लिए ही अपने हाथों से काम करना, यहाँ तक कि अपने पैरों से चलना भी दूसरों के लिए ही पड़ता है। बस, एक ऐसा मिट्टी का लोटा बन कर रह जाना पड़ता है, जिस में प्राण तो होते हैं; पर अपने नहीं, पराये और पर वश।

स्वाधीनता का सुख ही निराला है। स्वाधीन व्यक्ति के दिन, रात, सभी तरह के कार्य-व्यापार, सपनें, भावनाएँ सभी कुछ अपना यानि नितान्त निजी हुआ करता है। वह अपनी इच्छा का मालिक स्वयं आप हुआ करता है। मनमानी राह पर बढ़ सकता है। हर शिखर पर स्वेच्छा और प्रयत्न से चढ़ सकता है। सभी दिशाओं में उछल-कूद कर गा और कुहुक सकता है।

पराधीनता वस्तुतः नरक तुल्य दु:खदायक हुआ करती है। वहाँ अपने पास अपना कहने को कुछ रह ही नहीं जाया करता । हर चीज बिक जाती है। पराई हो जाया करती है। ऐसा न हो, तभी तो स्वतंत्रता-सेनानी प्राणों पर खेल कर भी, लाठी-गोली खा और जेल के सींखचों के पीछे बन्द होकर भी स्वतंत्रता के नारे लगाते रहे। अन्तिम साँस तक लड़ते-संघर्ष करते रहे। स्वतंत्रता छीन कर कोई पराधीन न बना ले, इसी भावना से अनुप्राणित होकर वीर सैनिक तोपों के दहाने पर अड़ कर भी शत्रु को आगे नहीं बढ़ने देते।

सच तो यह है कि पराधीनता से छुटकारा पाने, स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए अपने सुखों का तो क्या सिर का मोल चुकाना पड़ता है । तलबार की धार पर चलना पड़ता है। सर्वस्व बलिदान करना पड़ता है। ऐसा करके ही वह सब पाया जा सकता है कि जो पराधीनता में कभी सुलभ नहीं होता। यही सब सोच कर, स्वतंग्रता का महत्व बताने के लिए गोस्वामी तुलसीदास ने कहा :

“पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।”

WBBSE Class 9 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध

‘पर-उपदेश कुशल बहुतेरे’

किसी भक्ष्य पदार्थ का वास्तविक स्वाद क्या है, इस तथ्य से भली- भाँति परिचित तभी हुआ जा सकता है, तब से स्वयं खा कर देखा जाए। सु सत्य, जीवन-सत्य, लोक-परलोक का सत्य क्या है; सत्य के शोधकों ने यह सब जानने के लिए अपने प्राणों तक की बाजी लगा दी। का बार रेसा भी एुनेने-नने को भिला कि किसी संधातक, प्राणहारक किय का वास्तविक स्वाद जानने के लिए किसी डॉक्टर ने उसे अपनी ही जिहावा पर रख लिया और अनुभूति का सत्य प्रकट करने से पहले ही प्राण त्याग दिए। सत्य तो यह है क्षित्क को कुण्ण भी अनुभ्ज किया करता है, अनुभूति के उस सत्य को सही रूप में प्रकट कर पाना संभव ही नहीं हुआ करत्ता। उसका घर्णन कर पाना जीभ के वश की बात ही नहीं रह जाती। कबीर के मत में वह तो ‘गूँगे का गुड़’ हुआ करता है:

“कह कबीर पूँगे गुड़ खायी, बिन रसना का करै बड़ाई ? लैकिन आम जगत में आम प्रघलन यह है कि लोग किसी धात का ऊर्य या महल्व स्बयं जानें या न आाने, किसी बात और व्यवहार पर स्वयं आचरण करें वा न करें, दूसरों के सापने उद्ष सम का बखान करते, दूकरों कों उन की कही बातों पर आचरण करने के उपदेश बधारने का शौक अवर्य वर्रातत रहता है। जब ठन से पूछा जाए कि आप ने इस का कब, कहाँ कैसा और क्या अनुभय किया; तो उनका उत्तर होगा कि “अजी इन सष्षातों को छोढ़ो।”

कबीर हो या नामक, गान्धी हो या विनोबा या फिर कोई अय सन्त एवं भहापुकुष; इन सभी ने पहले स्वयं किसी बात का परीक्षण कर के उसके अन्छे-बुरे परिणाम को भोगा, फिर जो उचिस रवं आवश्यक लगा उस पर चलने की बात बड़े ही आत्मविश्वास और नम्र ढंग से कही। लोगों ने उस पर अमल तो किया ही, उसका सुफल भी पाया। तभी तो उनका प्रत्येक कथन, कदम एवं व्यवहार युग-युगों का सत्य, आदर्श और भूले-भटकों का पथ-प्रदर्शन करने वाले स्थिर आलोक स्तम्भ बन गया।

आजकल तो लोगों की बात ही निराली है। वे स्वयं कुछ न कर चाहते हैं कि दूसरे ही सब करें। नेता, अभिनेता, शिक्षक-गुरु सभी उपदेश तो देते हैं, बड़े-बड़े आदर्श वाक्य उछालते फिरते हैं, फिल्मी भाषा-अन्दांज में डॉयलॉग भी मारते हैं और बड़े-बड़े महापुरुषों के नाम भी लेते नहीं थकते; पर आचरण के नाम पर एकदम कोरे साबित होते है। इसी कारण जीवन-समाज पर उनके कथनों का कतई कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन ‘पर-उपदेश कुशलों’ की कृपा और वास्तविक व्यवहार के कारण ही जीवन-समाज का माहौल बद से बदतर होता जा रहा है।

Leave a Comment