Students should regularly practice West Bengal Board Class 9 Hindi Book Solutions and रचना भाव विस्तार to reinforce their learning.
WBBSE Class 9 Hindi रचना भाव विस्तार
प्रश्न : भाव-पल्लवन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
किसी उक्ति, विचार अथवा वाक्य के मूलभाव को विस्तार के साथ समझाकर लिखना भाव-पल्लवन कहलाता है । कभी-कभी थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कह दिया जाता है । इसी को ‘गागर में सागर’ भरना कहते हैं। इसी प्रकार की संक्षिप्त सटीक अभिव्यक्ति को विस्तार से प्रस्तुत करना ही भाव-पल्लवन है । मूलभाव को समझाने के लिए किसी उदाहरण, सहायक भाव, धारणा आदि का खण्डन या मण्डन करने के लिए भाव-पल्लवन का उपयोग करते हैं । इसमें मूलभाव की संदर्भगत संगति तथा निहितार्थ का विवेचन करने से भाव-पल्लवन की रचना का शिक्षण होता है। अन्त में सम्पूर्ण विचार में स्थित निहितार्थ या प्रेरणा संदेश लिखा जाता है। भाव-पल्लवन में भाषा, वाक्य गठन और शैलो का विशेष महत्व है। “होनहार बिरवान के होत चीकने पात”-जैसे गम्भीर अर्थ भरे कथनों का भाव-पल्लवन करा कर, शिक्षार्थियों को संक्षेप में कहीं गई किसी गम्भीर उक्ति या विचार को परत-दर-परत खोलना सिखाना भाव-पल्लवन शिक्षण कहलाता है ।
प्रश्न : भाव-पल्लवन के लिए किन बातों पर ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर :
भाव-पल्लवन एक कला है । इसके लिए भाषा-ज्ञान की अपेक्षा होती है। विश्लेषण, तर्क-वितर्क और उचित निर्णय के बिना भाव-पल्लवन या भाव-विस्तार नहीं आ सकता। इसमें प्रारम्भ से ही अपनी बात खोलकर कहनी पड़ती है । प्रत्येक अंश को समझा-समझाकर कहना पड़ता है। नीर-क्षीर विवेक का प्रदर्शन करना पड़ता है और गुम्फित वाक्यों को तोड़कर सरल शब्दावली प्रस्तुत करनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में छात्रों के लिए उपर्युक्त बातों पर ध्यान देना आवश्यक है ।
प्रश्न : निम्नांकित पंक्तियों में निहित भाव का भाव-पल्लवन करें ।
1. ‘अधजल गगरी छलकत जाय’ ।
(माध्यमिक परीक्षा – 2010)
उत्तर :
आधी भरी गगरी छलकती जाती है, परन्तु पूर्ण भरी गगरी नहीं छलकती है। तात्पर्य यह है कि अपूर्ण या कम ज्ञान बड़ा ही अस्थिर होता है, परन्तु विद्वान व्यक्ति में कभी अस्थिरता नहीं होती। समुद्र में कभी बाढ़ नहीं आती, परन्तु छांटी-छोटी नदियाँ तनिक भी वर्षा में उफनने लगती हैं। अल्प ज्ञान वाला व्यक्ति बना बनाया काम भी नाकामयाब कर देता है, परन्तु धैर्यवान, गम्भीर एवं विद्वान व्यक्ति सहज ही सफल हो जाते हैं। इसलिए अंग्रेजी में कहावत भी है कि कम ज्ञान सदा खतरनाक होता है । जीवन की पूर्णता अधूरा ज्ञान अर्जन में नहीं है, बल्कि पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने में है। दिखावा या अपनेआप को प्रदर्शित करने से व्यक्ति हल्का हो जाता है, इसलिए ही तो कहा गया है कि अधजल गगरी छलकत जाय।
2. चोर की दाढ़ी में तिनका
(माध्यमिक परीक्षा – 2009)
उत्तर :
जो लोग दोषी होते हैं, वे क्षुब्ध और सशंकित होते हैं । इसलिए समय और परिस्थिति के साथ उनका मानसिक और स्वाभाविक संतुलन नहीं हो पाता है और वे पहचान लिए जाते हैं।
ऐसा कहा जाता है कि व्यक्ति का मुखमंडल उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का दर्पण होता है, जिसमें उसके सम्पूर्ण जीवन प्रक्रियाएँ छाया के रूप में दिखाई पड़ती हैं। उसकी आत्मिक अशांति के कारण ही उसका चित्त अस्त-व्यस्त हो जाता है जिससे वह इतना अधिक प्रभावित हो जाता है कि अपने दुर्गुणों को स्वयं व्यक्त कर देता है।
3. मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
(माध्यमिक परीक्षा – 2008)
उत्तर :
मनुष्य की मानसिक शक्ति वास्तव में उसकी इच्छा-शक्ति पर निर्भर करती है । मन के हारने पर ही मनुष्य हार जाता है तथा मन के जीतने पर मनुष्य जीत जाता है । मनुष्य की हार-जीत वास्तव में मन के अंदर ही निहित होती है। प्रबल इच्छा शक्ति के द्वारा मनुष्य एक बार मृत्यु को भी टाल सकता है । बुद्धिमान व्यक्ति हमेशा आशा का दामन पकड़े रहता है तथा मन को हारने नहीं देता। विषम परिस्थितियों में भी अपना कार्य करते रहना तथा दृढताापूर्वक हर कठिनाई पर विजय प्राप्त करना ही मनुष्य को महान बनती है ।
4. अधिकार खोकर बैठ रहना यह महादुष्कर्म है
(मॉडल प्रश्न – 2007)
उत्तर :
मानव-जोवन में अधिकार एवं कर्त्तव्य दोनों साथ-साथ जीते व मरते हैं। अधिकार विरत होकर जीना, कोई जीना नहीं है। अधिकार का समानार्थी शब्द स्वाभिमान और आत्मशक्ति है। जहाँ अधिकार बोध है, वहीं स्वाभिमान भी है। अपन अधिकारों से वंचित रहना आत्म-गौरवहीनता का सूचक है। अतएव हमें अपने अधिकारों के रक्षार्थ जान तक की भी बाजी लगा देनी चाहिए । अधिकारों के प्रति सजग न रहने पर स्वेच्छारिता, निरकुशता तथा अन्याय की प्रवृक्ति सशक्त होती है । त्याग, तप और शान्ति के नाम पर अधिकार खोकर जीवित रहना, मृत्यु वरण करने के समान है। दिनकर के शब्दों में – छीनता है, स्वप्न कोई और तू, त्याग तप से काम ले, यह पाप है।
5. मानव का परिचय मानवपन
(मॉडल प्रश्न – 2007)
अथवा,
मनुष्य मात्र बन्धु है, यही बड़ा विवेक है
(माध्यमिक परीक्षा – 2013)
उत्तर :
इस संसार में अनेक प्रकार के जीवन हैं। सभी जीवों में मानव अपने बुद्धि के बल पर श्रेष्ठ माना जाता है सामान्य रूप से जो मनुष्य योनि में जन्म लेता है उसे मानव कहा जाता है । लेकिन वास्तव में वही मनुष्य मानव कहलाने का अधिकारी है जिनमें मानवता की भावना निहित होती है। अतः हमें अपने प्रेमभाव को और आत्मीयता को सभी मानव के बोच बॉंटना चाहिए। मानव समाज में सहयोग, परोपकार और सौहार्द्ध के भावना से देवतुल्य बन जाता है। मानव का परिचय उसकी जाति, धन और कुटुम्ब नहीं होता बल्कि उसका मानवपन ही होता है।
6. मनुष्य बन, मनुष्य के गले-गले मिले चलो ।
उत्तर :
मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। वह चौरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ है । मनुष्यता उसका आभूषण है। मानव योनि में जन्म लेकर भी अगर वह मानवीय गुणों से युक्त नहीं है, तो वह मानव कहलाने का अधिकारी नहीं होता। दया, धर्म, क्षमा, परोपकार, पर दुःख कातरता, श्रद्धा, सहानुभूति, सेवाभाव, कृतज्ञता, ममता, पारस्परिक प्रेम आदि गुणों को धारण करने के कारण ही वह श्रेष्ठ माना जाता है। मानव का यह पुनीत कर्म और धर्म है कि वह मानवीय गुणों से अपने को युक्त कर सच्चा मानव बनने का प्रयत्न करे। सदुगुणों को धारण कर मानव-मानव के बीच पारस्परिक प्रेम की गंगा बहाकर, एक-दूसरे को पेम की डोर में इस प्रकार बाँधने का कार्य करें कि ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, ऊँच-नीच, अमीरगरीब आदि का भेदभाव संसार में उत्पन्न ही न होने पाये। सभी लोग एक ही परमपपिता की संतान हैं। अतः विश्चिन्धुत्व वसुधैव कुटुम्बकम् की अविरल धारा सबके हुदय में समानरूप से प्रवाहित हो, इसके लिए सचेष्ट रहे । एकता, अखंडता, भाईचारे की यह भावना ही इस संसार को स्वर्ग का पर्याय बना सकती है।
7. “साधू ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।”
अथवा,
“रहिमन यह तन सूप है लीजै जगत् पछोर”
उत्तर :
सज्जन व्यक्ति ज्ञानी की भाँति गुणग्राही (तत्व ग्राही) होता है । जिस प्रकार सूप हल्के तत्त्व-हीन छिछले एवं गन्दगी को दूर उड़ा देता है, और गुणकारी पदार्थ अपने पास रख लेता है, ठीक उसी प्रकार संत लोग (सज्जन-व्यक्ति) गुणों एवं अवगुणों से भरे हुए इस संसार से गुणों को ग्रहण कर अवगुणों को छोड़ देते हैं । संत लोग हंस की तरह नीरक्षीर विवेकी होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि यदि हंस के सामने जल मिश्रित दूध रख दिया जाय तो वह दूध को ग्रहण कर लेता है, और जल को छोड़ देता है ।
तुलसीदास जी ने लिखा है ।
जड़-चेतन गुण-दोष मय, विश्व कीन्ह करतार ।
संत-हंस गुण गहहिं पय, परिहरि वारि विकार ।।
8. “मनुष्य है वही जो मनुष्य के लिए मरे” ”
अथवा,
“अपने सुख को विस्तृत कर लो जग को सुखी बनाओ”
(माध्यमिक परीक्षा – 2011)
अथवा,
“परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर”
उत्तर :
संसार में मनुष्य के सम्मुख सुख-दुःख, लाभ-हानि इत्यादि स्थितियाँ सदैव आती रहती हैं। इन स्थितियों का सामना करते वक्त अनेक बार उसे दूसरों से सहायता की आवश्यकता पड़ती है, ऐसे समय में जो दूसरों को सुख देकर उसका भला करता है, तो इससे बढ़कर धर्म का कार्य और कुछ नहीं है । इसके विपरीत अनेक बार व्यक्ति दूसरों को अनायास ही कष्ट देकर उसे और दु:खी बनाता है, अथवी कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो दूसरों को कष्ट देकर स्वयं आनन्दित होते हैं। ऐसा करना सबसे बड़ा पाप है ।
अतः ठीक ही कहा गया है कि यदि मनुष्य दूसंरौ की भहलाई मे बलारद्धता है, वद्वी वास्तव में आस्तिक है । ईश्वर उसी की सहायता करते है, जो दूसरों की सहायता करते हैं ऐऐसे लोगों को सांसारिक सुख भी सहजता से उपलष्ध हो जाते हैं, इसके विपरीत दूसरों को सताने वाला स्वयं अनेक विपसियों को निमेंत्रण देता है । क्योंकि मनुष्य सदैव अपने कर्म का फल स्वयं भुगतता है। कहा भी गया है –
कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहि से तस फल धाखा ।
इसीलिए मनुष्य को सदैव दूसरो का छपकार करना याधिए।
9. हम बढ़े छधर कि जिधर सूस्ष्र बौ यु्रार ।
उत्तर :
जिस देश की भूमि पर हम घन्म लिए हैं और जिसकी रज में लोट-लोट कर हम बड़े हुए हैं अथवा जिसके । राष्प्र के संकाट के समब्ब राष्ट्र की रक्ष के सिए यदि हम अनने अस को यैस्धाषर नहीं करते हैं, तो हमारा जीवन जौना धिक्कार है तथा हम अपने देश के लिए भार स्वस्रूप हैं। इस संघ्य मे गोषाल प्रसाद ‘घ्यास’ जो कहते है कि-
वह खून कहो किस मवलन का, जिसमें छबखा्ल का भाम नहीं ।
वह खून कहो किस मतलब क्वा, आा सके देश के काम नहीं ।।
10. निज भाषा उन्नवि अहै, सब छन्नति को मूल ।
उत्तर :
कविवर भारतेन्दुजी की यह ठक्ति सर्षमान्य्य है कि अपनी मातृभापा की उन्नति एवं प्रगति में ही हमारे चतुर्दिक विकास का मूल मन्त्र क्षिपा हुआ है। अपनी मातृभाषा के साथ हमारा अत्यधिक गहरा लगाव है। यही भाषा हमारी संस्कृति परम्परा, जातीय इतिहास और अप्नी परिवेश की ठवज मानी जाती है । अपनी ही भाषा में हमारी संस्कृति बोलती है । परम्मा सांस लेती है और जातीय गौरव छंसता रहता है ।
यही भाषा हमारे मन एवं मस्तिष्क, द्वृय तथा चेतना को अनुकूल तथा स्वाभाविक खुराक देकर हमें सही उन्नति का मार्गदर्शन कराती है और हमारे ऊपर ऐतेहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, पारिवारिक तथा सामाजिक संस्कार का सही छाप छोड़ती है। इसी से हमारी अभिर्यक्ति स्वाभाविक स्वरूप पाती है। इसी से हमारे मन और प्राण को स्वाभाविक खुराक मिलती है। इसके विपरीत विदेशी भाषा व संस्कृति का अनुकूल प्रभाव हमारे मन पर कभी पड़ ही नहीं सकता । क्योंकि उसमें दूसरे देश की इतिहास और परम्परा होती है । इसलिए उसमें आत्मीयता का अभाव होता है । अत: हमें अपनी मातृभाषा से ही उन्नति का मार्ग प्राप्त हो सकता है।
11. करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान
उत्तर :
लगातार परिश्रम करते रहने से व्यक्ति को अवश्य सफलता मिलती है । इसीलिए केवल दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। यदि हम संकल्प कर लेते है कि हमें यह कार्य करना है तो हमारा वह कार्य अवश्य पूरा होगा, क्योंकि दृढ़ संकल्प के पश्चात् ही व्यक्ति सफल होने के लिए लगातार परिश्रम करेगा। लगातार कोई भी काम करते रहने से मनुष्य अवश्य सफल होता है । अतः सफल होने के लिए परिश्रिम करना अत्यंत आवश्यक होता है । कहा जाता है –
यदि व्यक्ति दृढ़ प्रतिज होकर कोई कार्य आरंभ करता है, तो माना जाता है कि उसका आधा काम पूरा हो गया और आधा काम परिश्रम के बल पर पूरा हो जाता है । इसके विपरीत दो नाव पर सवार व्यक्ति कभी पार नहीं पहुँच सकता है। इसी प्रकार अव्यर्वस्थित चित्त वाले मनुष्य की सफलता में सदा संदेह रहता है ।
अत: सब ‘तज हरि भज’ का अनुसरण करके सफलता प्राप्ति के हेतु व्यक्ति को लगातार परिश्रम करते हुए कार्य में संलग्न होना चाहिए। सफलता उसके चरण चूमेगी ।
आभरण निज देह का बस ज्ञान का भंडार है ।
हार को हीरा कहे उस बुद्धि को धिक्कार है ।
12. अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत
अथवा,
का बरषा जब कृषि सुखाने
उत्तर :
मनुष्य-जीवन मे यदा-कदा ऐसे क्षण आया-जाया करते हैं, जिसका सदुपयोग न कर पाने की कसक जीवन भर पीड़ित बनाया करती है । बीता हुआ क्षण पुन: लौट कर नहीं आता है । सुनहरे अवसर बार-बार नहीं मिलते । अत: चतुर एवं कर्मठ व्यक्ति ऐसे अवसरों को हाथ से नही जाने देना चाहते । उसकी आहट के लिये वे हर समय सतर्क एवं सजग रहते हैं और अवसर के आते ही वे उसका लाभ उठाने से नहीं चूकते । सच कहा गया है – ‘ का वर्षा जब कृषि सुखाने’ — फसल के सूख जाने पर यदि वृष्टि होती है तो उससे कोई लाभ नहीं होता। पष्योयों ने पकी फसल के दाने चुन डाले और उसके बाद किसान सुरका के उपाय करल है तो उससे बुगे हुए दाने वापस नहों भिलने । फसल की सुरक्षा के उपाय पहले से ही करने पड़ते हैं। जीवन में सफलता प्राप्ति का सरलतम उपाय यही है कि अवसर को पहचान कर उसका सदुपयोग किया जाय ।
13. निन्दक निबरे राखिये, आँगन कुटी ह्वाव
उत्तर :
मनुष्य स्वभाष से आत्म-प्रशासा-प्रिय होता है । अपने सम्बन्ध में औरों के द्वारा की गई प्रशंसा उसे आनन्द और उल्लास ग्रदान करती है । यह मानवीय कमजोरी है कि अपनी निन्दा भी नहीं सुताती, कह अरशः सत्य ही क्यों न हो । दूसरी और प्रशंसा चाहे कैसी भी क्यों न हो उसे इतनी अच्छी लगती है कि कह अनहित को हित और शत्रु को भो मित्र समझने लगता है । मिथ्या प्रशंसा से अभिदूतत हो उठने वाले की विवेक शक्कि कुज्ठित हो जाती है और वह भलेबुरे की पहचान खो वैठता है। ऐसे लोगों के परतन रव विनाश का मार्ग सहज ही हुल आता है।
मिथ्या प्रशंसा सुन-सुन कर व्यक्ति अपनी मानसिक तथा चारित्रिक कमओरिवो की और ध्यान नहीं दे पाता और वही प्रवृष्ति धातक सिद्ध होती है। अतः निन्दको की उपेक्षा न करके उनकी बातों पर गम्भीरता से विचार करना ही वुद्धिभानी है । यदि उनमें सच्चाई हो तो उनका स्वागत करना चाहिए और जिन बुराइयों की और निन्दक ने संकेत किया हो उन्हें दूर कर अपने व्यक्तित्व को शुद्ध एवं स्वस्थ बनाना चाहिए ।
निन्दकों की कृपा से ही हम अपनी त्रुटियों को जान पाते हैं । इसलिए कबीर जैसे सन्त पुरुष ने सलाह दो है कि निन्दक को अपने ही निकट शरण देनी चाहिए, ताकि बिना साबुन और पानी के ही आचरण शुद्ध हो सके। प्रशंसा के अहितकर प्रभाव से स्वयं को बचाकर निन्दा के कल्याणकारी पक्ष का स्वागत ही व्यक्ति के चरित्र को विकास की सही दिशा प्रदान कर सकता है।
14. जहाँ चाह, वहाँ राह
उत्तर :
इच्छा-शक्ति मनुष्य के लिए दैवी वरदान है, जो मानव-स्वभाव का अभिन्न अंग है । मनुष्य आशाआकांक्षाओं की प्रेरणा से ही जीवन को गति प्रदान करता है । यदि मन में सच्ची लगन पैदा हो जाती है तो सफलता की प्राप्ति में कोई सन्देह नहीं रह जाता । जहाँ चाह होती है वहाँ राह अपने-आय उभर जाती है । आकाश झुक जाता है, पर्वतों में दरारें पड़ जाती हैं तथा सागर की छाती सूखने लगती है । प्रबल इच्छा-शक्ति का वेग आँधी-तूफान के वेग को भी शान्त और शिथिल बना देता है। प्रत्येक परिश्रमी, कर्मठ तथा कांतिकारी व्यक्तित्व प्रबल इच्छा की ही देन है। स्वर्ग से धरती पर गंगा को उतारने वाले भगीरथ हों, समुद्र की उफनती लहरों पर सेतु रचना करने वाले राम हों अथवा हँसते हुए सूली पर चढ़ जान वाले ईसा मसीह हों, सबमें अद्भुत इच्छा शक्ति थी।
15. दैव-दैव आलसी पुकारा
उत्तर :
आलस्य मानव-स्वभाव की ऐसी निकृष्ट विकृति है जो उसे सर्वथा अकर्मण्य बना देती है। आलसी व्यक्ति सदैव परमुखापेक्षी तथा दूसरों की कृपा-करुणा का आकांक्षी बना रहता है । उसके विकास के सारे मार्ग अवरुद्ध होते है तथा वह निरन्तर मानसिक ग्रंथियों एवं कुण्ठाओं से ग्रस्त रहता है । जीवन के वास्तविक उल्लास से वंचित होकर वह जीवित होते हुए भी मृतक के समान बन जाता है । आलस्य के दुष्मभाव को ध्यान में रखकर संस्कृत की एक सूक्ति में आलस्य को मनुष्य का परम शत्रु कहा गया है – “आलस्यं हि मनुष्यानां शरीरस्थो महान रिपु :”।
आलस्य की प्रवृत्ति व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के लिए एक समान घातक है, यह व्यक्ति की सम्पूर्ण कार्यक्षमता को जहरीली नागिन की तरह डँस लेती है । आलसी व्यक्ति की बुद्धि एवं विवेक शक्ति मन्द हो जाती है, उसका पौरुष-पराक्रम नष्ट हो जाता है तथा उसकी समस्त इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं, वह एक मद्धप की भाँत निष्किय बन जाता है । साधारणतः ऐसे व्यक्ति भाग्य और भगवान के भरोसे संत मलूक दास की पंक्तियाँ दुहराते रहते हैं-
“अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम ।
दास मलूका कह गये सबके दाता राम ।।”
16. बड़े न हूजे गुनन बिन विरद बड़ाई पाय
उत्तर :
बड़पन के अभाव में कोई बड़ा नहीं बन सकता । चादुकारों की प्रशंसा अथवा निष्ठा प्रदर्शन से किसी व्यक्ति को बड़ाई मिल सकती है, बड़पन नहीं । खून लगाकर शहीद बनने वाले तथा भस्म लगाकर साधु बनने वाले ढोंगी कदमकदम पर मिल जाते हैं, किन्तु सच्चा शहीद अथवा सच्चा साधु तो लाखों में कोई एक होता है। भारत के राष्ट्रापिता गांधी के शरीर पर साधारण खादी की मोटी धोती थी तथा वे कोई धनवान अथवा उच्च पदासीन राजकीय अधिकारी न थे, किन्तु उन्हें विश्व के महान् पुरुषों में गिना जाता है। इसका एकमात्र कारण है आचार-विचार की पवित्रता तथा उच्चता । परोपकार, अहिंसा, करुणा, प्राणिमात्र के प्रति स्नेह, क्षमशीलता, स्वार्थत्याग, विनम्मता आदि एसं महान् गुण हैं, जिन्हें अपनाकर ही मनुष्य महान् बन सकता है । महानता गुणों की होती है, नाम की नहीं । मनुष्य के कार्य उसे महान् बनाते हैं, बातें नहीं ।
17. अधजल गगरी छलकत जाय ।
उत्तर :
आधी भरी गगरी छलकती जाती है, परन्तु पूर्ण भरी गगरी नहीं छलकती है । तात्पर्य यह है कि अपूर्ण या कम ज्ञान बड़ा ही अस्थिर होता है, परन्तु विद्वान व्यक्ति में कभी अस्थरता नहीं होती। समुद्र में कभी बढढ़ नहीं आती, परन्तु छोटी-छोटी नदियाँ तनिक भी वर्षा में उफनने लगती हैं। अल्प ज्ञान वाला व्यक्ति बना बनाया काम भी नाकामयाब्ब कर देता है, परन्तु धैर्यवान, गम्भीर एवं विद्वान व्यक्ति सहज ही सफल हो जाते हैं। इसलिए अंग्रेजी में कहावत भी है कि कम ज्ञान सदा खतरनाक होता है । जीवन की पूर्णता अधूरा ज्ञान अर्जन में नहीं है, बल्कि पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने में है । दिखावा या अपने-आप को प्रदर्शित करने से व्यक्ति हल्का हो जाता है, इसलिए ही तो कहा गया है कि अधजल गगरी छलकत जाय।
18. जितेन्द्रियता चरित्र बल की कुंजी है ।
उत्तर :
‘जितेन्द्रिय’ का अर्थ है ‘अपनी इन्द्रियों को वश में रखना’ और इन्द्रियों को वश में रखकर ही चरित्र बल को उत्तम बनाया जा सकता है । चरित्र-बल मानव जीवन का प्रमुख अंग है। शारीरिक बल के नष्ट हो जाने पर उसे फिर से प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन चरित्र बल नष्ट हो जाने पर उसे कभी भी जीवन में प्राप्त नही किया जा सकता है । चरित्रहीन व्यक्ति को समाज में कभी भी सम्मान प्राप्त नहीं होता । अतः प्रत्येक मनुष्य को अपने इन्द्रियों को वश में रखकर अपने चरित्र को उत्तम बनाना चाहिए, क्योंकि इसके अभाव में व्यक्तियों में सद्गुणों का आना असंभव है। अत: यह सष्ट है कि जितेन्द्रियता ही चरित्र बल की कुंजी है ।
19. नर हो, न निराश करो मन को ।
उत्तर :
कवि मनुष्यों से यह कहना चाहते हैं कि आप मनुष्य होने के कारण वीर-साहसी, बुद्धिमान एवं कर्मशील भी हैं । आप निराश न होकर अपने कर्मपथ पर चलते रहिए । सदियों पुराने इतिहास में यह बताया गया है कि निराशा को त्यागकर मनुष्य ने जब जो कुछ चाहा वह उसे अवश्य मिला है । इसलिए यदि किसी कारणवश आप सफल नहीं हो रहे हैं, तो काई बात नहों, अभी भी निराशा को छोड़कर कर्त्तव्यपथ पर डटे रहिए सफलता अवश्य मिलेगी । सच ही कहा गया है कि –
प्रयत्नेन कार्य सुसिद्धिर्जनानाम्, प्रयत्नेन सद्बुद्धि वृद्धिर्जनानाम् ।
प्रयत्नेन युद्धेजयः स्याज्यनानाम्, प्रयत्नेन विधेयः प्रयत्नेनविधेय ।
20. “जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान ।”
(माध्यमिक परीक्षा – 2012)
उत्तर :
असताष के कारण आज कई सामाजिक कुरीतियाँ और दुराचरण मानव-समाज में घर कर गए हैं। इच्छाओं का दास बनकर नारी अपना तन, पुरूष अपना स्वाभिमान और ईमान बेच रहे हैं। बेटे बेचे जाते हैं, बहुएँ जलाई जाती हैं। मनुष्य और अधिक पाने की लालसा में भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूब गया है । धर्म हो या राजनीति हर क्षेत्र में भष्टाचार है । इसलिए ज्ञानियों, विद्वानों तथा सज्जनों का यह कथन ठीक ही प्रतीत होता है कि ‘जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान’। अर्थात् सन्तुष्ट व्यक्ति के लिए सभी तरह के धन धूल-माटी के समान व्यर्थ होकर रह जाया करते हैं। जो व्यक्ति अपने को नाना प्रकार को बुराइयों से बचाकर रखना चाहता है, उसे केवल संतोष रूपी धन ही अर्जित करना चाहिए ।
21. “दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले ।”
(मॉडल प्रश्न – 2011)
उत्तर :
संसार में मनुष्य के सम्मुख सुख-दु:ख, लाभ-हानि इत्यादि स्थितियाँ सदैव आती रहती हैं । इन स्थितियों का सामना करते वक्त अनेक बार उसे दूसरों से सहायता की आवश्यकता पड़ती है, ऐसे समय में जो दूसरों को सुख देकर उसका भला करता है, तो इससे बढ़कर धर्म का कार्य और कुछ नहीं है । इसके विपरीत अनेक बार व्यक्ति दूसरों को अनायास ही कष्ट टेकर उसे और दुःखी बनाता है, अथवा कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो दूसरो को कष्ट देकर स्वयं आनन्दित होते हैं। ऐसा करना सबसे बड़ा पाप है ।
अत: ठीक ही कहा गया है कि यदि मनुष्य दूसरों की भलाई में लगा रहता है, वही वास्तव में आस्तिक है। ईश्वर उसी की सहायता करतं हैं, जो दूसरों की सहायता करते हैं। ऐसे लोगों को सांसारिक सुख भी सहजता से उपलब्ध हो जाते हैं, इसके विपरीत दूसरों को सताने वाला स्वय अनेक विर्पत्तियों को निमंत्रण देता है। क्योंकि मनुष्य सदैव अपने कर्म का फल स्वयं भुगतता है । कहा भी गया है – ‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा।’ इसीलिए मनुष्य को सदैव दूसरों का उपकार करना चाहिए।
22. ‘गतिशीलता ही जीवन है ।’
(मॉडल प्रश्न – 2011)
उत्तर :
इस क्षणभंगुर संसार की प्रत्येक वस्तु, चाये वह जड़ हो, या चेतन, परिवर्तनशील है। परिवर्तन या गतिशीलता का ही दूसरा नाम संसार है । यदि संसार में गति न हो तो मानव ऊब उठे। सुख-दुःख की धूप एवं छाया में संसार उठताबैठता है । परिवर्तन की महिमा का कहाँ तक वर्णन किया जाय । एक दिन भारत विश्वगुरु था, इसे ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। परतु आज भारत न सोने की चिड़िया है न विश्वगरु । इसी का नाम तो गतिशीलता है । यह परिवर्तन का क्रम सृष्टि में अनवरत रूप से चलता रहता है । कवि पंत ने संसार की इस गतिशीलता पर कहा है –
” आह रे, निष्ठुर परिवर्तन !
एक सौ वर्ष, नगर उपवन, एक सौ वर्ष विजन-वन
यही तो है संसार असार, सुजन, सिंचन, संहार !’’