WBBSE Class 9 Hindi रचना सार-लेखन

Students should regularly practice West Bengal Board Class 9 Hindi Book Solutions and रचना सार-लेखन to reinforce their learning.

WBBSE Class 9 Hindi रचना सार-लेखन

‘सार-लेखन’ का अर्थ है किसी रचना को संक्षिप्त रूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जाए कि उस गद्यांश का कोई महत्तपूर्ण विचार छूटना नहीं चाहिए। इसमें से ऐसा अंश निकाल दिया जाए जिससे उस गद्यांश के मूल भाव पर कोई प्रभाव न पड़े।

‘सार’ का अर्थ है ‘मूल तत्व’ अथवा ‘निचोड़’। किसी अनुच्छेद का सार दो वाक्यों में भी दिया जा सकता है कितु सार-लेखन का एक अन्य प्रकार है – संक्षेपण। संक्षेपण में दिए गए ग्यांश को उसके मूल तत्वों को सुरक्षित रखते हुए एक-तिहाई शब्दों तक संक्षिप्त करना होता है। सार-लेखन के दो प्रमुख सोपान हैं –

(अ) सभी मूल विचारों को सीमित रखना।
(ब) एक-तिहाई शब्दों में सीमित रखना।

किसी भी लम्बी-चौड़ी बात को संक्षेप में प्रस्तुत करना एक कला है परन्तु किसी गद्य-पद्य रचना को काट-छाँटकर एक निश्चित परिमाण में प्रस्तुत करना एक कठिन और अभ्यास-जन्य कौशल है। लगातार अभ्यास से संक्षेपीकरण अथवा सार-लेखन की कुशलता विकसित होती है। इससे लेखन में गठन, गुंफन और सामासिकता आती है। सार अथवा सारांश-लेखन पद्यान्मक और गद्यात्मक दोनों ही प्रकार की रचनाओं का संभव है।

सार-लेखन का महत्व : जीवन में कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक बात कहने का महत्त्व सबसे अधिक है। प्रार्थना-पत्र में, आवेदन-पत्र में, विवरण में, अभिव्यक्ति में, अपनी बात समझने में, साक्षात्कार में, लेखन में, समाचार-पत्रों में, दूरदर्शन अथवा रेडियो में सभी क्षेत्रों में यह आवश्यकता होती है जिससे कम से कम समय खर्च करके अधिक से अधिक समय तक बात की जा सके। इसके लिए छात्रों को भाषा की समाहार-शक्ति, विचारों को सघन बनाने के कला, व्यर्थ तथा अव्यर्थ (सार) को समझने की क्षमता का विकास करना चाहिए। दूसरे की बात को अपने शब्दों में प्रवाहपूर्ण ढंग से रखने की कला भी सार-लेखन के लिए आवश्यक है।

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सार-लेखन की प्रक्रिया अथवा विधि :

जिस गद्यांश/निबंध का सार लिखना हो उसे ध्यानपूर्वक एक से अधिकार बार पढ़ना चाहिए। उसे तब तक पढ़ना चाहिए जब तक उसका अर्थ स्पष्ट न हो। कुछ ही देर में केन्द्रीय भाव समझ में आ जाएगा।
विषय के केंद्रीय भाव को रेखांकित कीजिए। इसी में अनुच्छेद का शीर्षक छिपा होता है।
सार-लेखन में ‘उपयुक्त शीर्षक’ का महत्वपूर्ण स्थान है, इसलिए पाठक को अपने मन में दा-तीन शीर्षकों पर विचार करके अंतिम शीर्षक का चुनाव कर लेना चाहिए।
सार-लेखन दिए गए गद्यांश का लगभग एक-तिहाई होता है।
सार-लेखन में वाक्य संक्षिप्त, सरल और स्पष्ट होने चाहिए। उनमें गागर में सागर भरने की शक्ति होनी चाहिए।
मूल अनुच्छेद के शब्द, वाक्य, मुहावरे तथा लोकोक्तियों का प्रयोग सार-लेखन में नहीं करना चाहिए। अलंकारों, उदाहरणों तथा उद्धरणों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
अंत में सार-लेखन को पुन: पढ़ना चाहिए और देखना चाहिए कि मूल अनुच्छेद की कोई बात छूटी न हो तथा किसी बात की पुनरावृत्ति न हो गई हो, यदि ऐसा हो तो जो भी भूल हो गई हो उसे तुरंत सुधार लेना चाहिए।
यदि शब्द तिहाई से अधिक हों शब्द-संकोचन कला का प्रयोग करना चाहिए। इसमें अनेक शब्दों के लिए एक शब्द का प्रयोग किया जाता है जैसे –
धर्म का उपदेश देना वाला – धर्मोपदेशक।

यदि वाक्य अधिक हों तो दो-तीन सरल वाक्यों को मिलाकर संयुक्त अथवा मिश्र वाक्य में बदल लेना चाहिए।
दिवअर्थक शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए तथा विरामदि चिह्नों का प्रयोग सावधानीपूर्वक करना चाहिए।
शीर्षक-सार लिखन के बाद उस कोई शीर्षक भी देना चाहिए। मूल पाठ को पढ़ने से शीर्षक समझ में आ जाता है। मूल की अवधारणा का समझ लन क बाद उसे निकटतम शीर्षक दे देना चाहिए। शीर्षक से विषय का बोध होना चाहिए। उससं वर्ण्य-विषय की झलक मिलनी चाहिए। शीर्षक अनेक बार मूल के प्रारम्भ अथवा अन्त में स्वतः ही होता है। उसं चुन लनना चाहिए अन्यथा संपूर्णता को ध्यान में रखकर अपनी ओर से शीर्षक बनाना चाहिए। शीर्षक संक्षिप्त होना चाहिए।

शीर्षक का चयन : सार-लेखन में शीर्षक का चुनाव भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। अच्छे शीर्षक में निम्नलिखित गुण होने चाहिए –

1. अनुच्छेट का कंद्रीय भाव्र या मूल विचार ही शीर्षक में व्यक्त होना चाहिए।
2. शीर्षक अनुच्छेद के कंद्रीय भाव का सही-सही प्रतिनिधि होना चाहिए। अर्थात् उसमें केन्द्रीय भाव से हटकर कोई अर्थ ध्वनित नहीं हांना चानिए और न उसमें केन्द्रीय भाव के किसी अंश की कमी होनी चाहिए।
3. शीर्षक सक्षप्त, स्पष, आकष्षक, अर्थपूर्ण, स्वयं बोलता हुआ-सा होना चाहिए। उसका आकार एक शब्द से एक पदबंध तक हो सकता है कभी-कभी संक्षिप्त सूक्ति भी शीर्षक का स्थान ले सकती है। अच्छा शीर्षक वही है जो पदबंध तक सौमित हों जस -.

अनुशासन/अनुशासन का गित्ज, परिश्रम का महत्त्व, साहस ही जिंदगी, हिम्मत और जिंदगी, श्रद्धा और भक्ति, श्रद्धा और ज्ञानोपल्धि, श्रद्धा से ज्ञान मिलता है आदि।

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उदाहरण 1.
मेरा यह मान्लब्र कदापि नहीं कि विदेशी भाषाएँ सीखनी ही नहीं चाहिए। आवश्यकता, अनुकूलता, अवसर और अवकाश हान पर प्ं त्क नही अनेक भाषाएँ सीखकर ज्ञानार्जन करना चाहिए। द्वेष किसी भाषा से नहीं करना चाहिए। ज्ञान कही भी मिलता हो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। परंतु अपनी भाषा और उसी के साहित्य को प्रधानता देनी चाहिए। क्यांक अपना, अपने टश का, अपनी जाति का उपकार और कल्याण अपनी ही भाषा के साहित्य की उन्नात सं हो सकता है। ज्ञान, विज्ञान, धर्म और राजनीति की भाषा सदैव लोकभाषा हो होनी चाहिए। अतएव अपनी भाषा के साहित्य की संवा और आभवृद्धि करना, सभी दृष्टियों से हमारा परम धर्म है। (लगभग 110 शब्द)

सार-लेखन-प्रक्रिया : इस अनुच्करंद के महत्त्वपूर्ण विचार-बिंदु निम्नलिखित हैं –

  • ज्ञानार्जन के लिए विदेशी भाषः सीखने में कोई हानि नहीं।
  • किसी भाषा से द्वेष करनन पर उसमें चर्चित ज्ञान से वंचित रह जायेंगे।
  • अपनी भाषा और उसंक साहित्य की उपेक्षा नहीं करती चाहिए।
  • किसी जाति का कल्याण अपनी भाषा से ही होता है।
  • ज्ञान-विज्ञान का वर्णन अपनी भाषा में ही करना चाहिए।
  • अपने साहित्य की सेवा हमारा कर्त्तव्य है।

यं विचार-बिंदु इस प्रकार की अव्यर्वस्थित भाषा में लिखने आवश्यक नहीं, इनका संग्रह-मात्र पर्याप्त है।
शीर्षक-अपनी भाषा का महत्त्व :

सार : लेखक विदेशी भाषा का विरोधी नहीं। उसके अनुसार सभी भाषाओं से ज्ञान-संग्रह उपयोगी है। परंतु किसी राष्ट्र का कल्याण उसकी अपनो भाषा से ही संभव है, अतः अपनी भाषा में साहित्य और ज्ञान की समृद्धि का यत्न करते गहना चाहिए। (लगभग 40 शब्द)

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उदाहरण 2.
लेखक का काम बहुत अंशों में मधु-मक्खियों के काम से मिलता-जुलता है। मधु-मक्खियाँ मकरंद संग्रह करने के लिए कोसों के चक्कर लगाती हैं और अच्छे-अच्छे फूलों पर बैठकर उनका रस लेती हैं। तभी तो उनके मधु में संसार की सर्वश्रेष्ठ मुधरता रहती है। यदि आप अच्छे लेखक बनना चाहते हैं तो आपको भी यह वृत्ति-ग्रहण करनी चाहिए। अच्छे-अच्छे ग्रंथों का खूब अध्ययन कीजिए और उनकी बातों का मनन कीजिए, फिर आपकी रचनाओं में मधु का-सा माधुर्य आने लगेगा। कोई अच्छी उक्ति, कोई अच्छा विचार भले ही दूसरों से ग्रहण किया गया हो, पर यथेष्ट मनन करके आप उसे अपनी रचना में स्थान देंगे तो वह आपका ही हो जाएगा। मनपूर्वक लिखी हुई चीज के संबंध में जल्दी या किसी को यह कहने का साहस ही न होगा कि अमुक स्थान से ली गई है या उच्छिष्ट है। जो बात आप अच्छी तरह आत्मसात् कर लेंगे, तब वह आपकी ही हो जाएगी।

(लगभग 180 शब्द)

मुख्य विचार-बिंदु :

  • लेखक अ, -ग भिम्रियाँ समान होते हैं।
  • अच्छा लेखक ने के लिए मधुमक्खी-वृत्ति अपनानी आवश्यक है।
  • अच्छे ग्रंथ पढ़क नके विचारों का संग्रह कीजिए तथा उनका मनन और चिंतन कीजिए।
  • भली प्रकार चिं न के बाद उन्हें अपनी रचनाओं में प्रयुक्त कीजिए।
  • आत्मसात् कर लेने से वह आपकी बात हो जाएगी।

शीर्षक : अच्छा लेखक कैसे ?

सारांश : अच्छे लेखक मधुमक्खियों की तरह संग्राहक होते हैं। तभी तो उनके ग्रंथों में संसार के श्रेष्ठ ग्रंथों का विचार-मधु मिलता है। अच्छा लेखक बनने के लिए श्रेष्ठ ग्रंथों का अध्ययन कर उत्तम विचारों का संग्रह कीजिए। फिर भली प्रकार उन्हें अपने लेखन में अपना लीजिए। ऐसा करने से वे दूसरों के न रहकर आपके ही प्रतीत होंगे। (लगभग 60 शब्द)

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उदाहरण 3. आधुनिक युग में समाज और राष्ट्र के जीवन में समाचार-पत्रों का बहुत ही विशिष्ट और ऊँचा स्थान है। समाचार-पत्र मानो अपने देश की सभ्यता, संस्कृति और शक्ति के मानदंड बन गए हैं। जिस देश में जितने अच्छे और जितने अधिक समाचार-पत्र होते हैं, वह देश उतना ही उम्नत और प्रभावशाली समझा जाता है। बहुत से क्षेत्रों में जो काम समाचार-पत्र कर जाते हैं, वे बड़ी-बड़ी सेनाएँ और बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ भी नहीं कर पाते। समाचार-पत्र एक ओर तो जनता का मत सरकार और संसद पर प्रकट करते हैं दूसरी ओर देश में सुदृढ़ और संपुष्ट लोकमत तैयार करते हैं। देश को सब प्रकार से जागृत और सजीव रखने में जितनी अधिक सहायता समाचार-पत्रों में मिलती है, उतनी शायद किसी और चीज़ से नहीं। इसलिए आजकल समाचार-पत्र का बहुत महत्त्व है। (लगभग 130 शब्द)

शीर्षक : समाचार पत्रों का महत्त्व।

सारांश : समाचार-पत्र राष्ट्र की संस्कृति एवं शक्ति के परिचायक होते हैं। कई क्षेत्रों में वे बड़ी-बड़ी सेनाओं एवं राजनीतिजों को भी मात कर देते हैं। इनकी श्रेष्ठता तथा संख्या से देश की उन्नति का पता चलता है। जनता का अभिमत सरकार तक पहुँचाने, दृढ़ लोकमत तैयार करने और देश को जागृत करने में उनका पूर्ण योगदान है। (लगभग50 शब्द)

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उदाहरण 4. परिश्रम और निरंतर अभ्यास से कठिन समझे जाने वाले कार्य भी सुगम हो जाया करते हैं। ज्ञान, भाव और कर्म से संबंधित सभी क्षेत्रों में इसका चमत्कार देखा जा सकता है। नियमित अभ्यास वज्र से वज्र मूर्ख को भी चतुर बना देता है। प्यार की अधिकता और नि:स्वार्थता भयंकर से भयंकर और दुष्ट और दुष्ट व्यक्ति को भी अपना बना लेती है। पापी से पापी भी ईश्वर की कृपा का भागीदार बन जाता है। बट्टे की रगड़ से पत्थर की सिल भी चिकनी हो जाती है। (84 शब्द)

शीर्षक : सफलता का राज : निरंतर अभ्यास।

सार : निरतंतर परिश्रिम से कठिनतम कार्य सुगम हो सकते हैं। कठोर साधना से मूर्ख ‘चतुर’, भयंकर दुष्ट ‘आत्मीय’, पापी ‘ईश्वर-अनुग्रही’ तथा पत्थर ‘चिकने’ बन जाते हैं।

उदाहरण 5.
सफल और असफल मनुष्यों में क्या अंतर है ? यह कि एक ने कम काम किया और दूसरे ने अधिक। क्या यही दोनों के परिश्रम के विभिन्न परिणामों का कारण है ? नहीं, बात कुछ और ही है। सफल व्यक्ति ने काम बुद्धिमत्ता से किया, एकाग्रता से किया, उसने अपना दिमाग लगाया। असफल व्यक्ति ने बोझ ढोया। ऐसे लोग काम तो बहुत करते हैं, लेकिन वे अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं करते, उनके श्रम और फल को देखकर दया आती है। वे परिस्थितियों को पकड़े रहते हैं। वे यह नहीं जानते कि अवसर से किस प्रकार लाभ उठाना चाहिए। उनमें वह योग्यता नहीं होती, जिससे वे असफलता को सफलता में बदल लें।

शीर्षक : सफलता का रहस्य।

सार : जो लोग अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं करते और लगन से काम नहीं करते वे असफल हो जाते हैं ; उनका श्रम बेकार जाता है। ऐसे लोग मात्र परिस्थितियों के दास होते हैं। वे अवसर से लाभ उठाना नहीं जानते।

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उदाहरण 6.
कहा जाता है कि मन बड़ा चंचल होता है। इस पर नियंत्रण दुष्कर है। व्यक्ति कभी-कभी जिस पर से मन को हटाना चाहता है, मन बार-बार उसी की ओर अभिमुख होता है। दूसरी ओर मन की अपार शक्ति का भी बड़ा विशद् वर्णन किया गया है। कहा है ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ यदि मन में दृढ़ संकल्प हो तो असाध्य भी साध्य हो सकता है। योगियों और सिद्धोंने मन पर नियंत्रण कर सर्व-शक्तिमान ईश्वर को पा लिया है। गीता में कहा गया है कि दृढ़तापूर्वक एवं बलपूर्वक ही मन पर नियंत्रण संभव है। इसीलिए दृढ़ निश्चय एवं दृढ़-संकल्प का सर्वोपरि महत्त्व है।

शीर्षक : ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’

सार : अत्यधिक चंचल मन पर नियंत्रण पाना कठिन है। अपार शक्तिशाली मन पर दृढ़ संकल्प तथा दृढ़ निश्चय द्वारा नियंत्रण पाकर ही असाध्य भी साध्य हो जाता है तथा ईश्वर को भी प्राप्त किया जा सकता है।

उदाहरण 7.
निंदा का उद्ग्गम ही हीनता और कमजोरी से होता है। मनुष्य अपनी हीनता से दबता है। वह दूसरों की निंदा करके ऐसा अनुभव करता है कि वे सब निकृष्ट हैं वह उनसे अच्छा है। उसके अहं की इससे तुष्टि होती है। बड़ी लकीर को मिटकर छोटी लकीर बड़ी बनती है। ज्यों-ज्यों कर्मक्षीण होता जाता है, त्यों-त्यों निंदा की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है।

शीर्षक – निंदा की जननी : हीनता।

सार : निंदा अपनी हीनता से जन्मती है। परनिन्दक दूसरों को नीचा तथा स्वयं को ऊँचा समझाकर अहंतुष्टि करते हैं। कर्महीनता तथा पर-निंदा वृत्ति साथ-साथ बढ़ती है।

उदाहरण 8.
माता का स्थान संसार के सारे संबंधों में सर्वोपरि है। शिशु की शरीर-रचना माँ की रक्त-मज्जा से ही होती है। गर्भावस्था में शिशु की रक्षा माता ही करती है। प्रसव-पीड़ा को संसार की सबसे बड़ी पीड़ा माना गया है तथा शिशु को जन्म देने के बाद माता के दुग्ध-पान और अत्यंत सतर्क-सजग अहर्निश देख-भाल से ही संतान के जीवन का विकास होता है। केवल दुग्ध-पान देकर गाय भी गो-माता कहलाती है तथा हम उसकी पूजा करते हैं। धरती हमें अन्र और आश्रय देती है। इसीलिए उसे हम धरती-माता कहते हैं। माँ की महिमा अपार है। इसीलिए कहा गया है, ‘जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’

शीर्षक : जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

सार : माता का स्थान संसार के सभी संबंधों में सर्वोपरि है। गर्भावस्था में शिशु की रक्षा करके, उमे जन्म देकर माँ ही उसका लालन-पालन करती है। धरती तथा गौ को भी माता कहा गया है। जननी तथा जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है।

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उदाहरण 9.
सच्चा मित्र एक शिक्षक की भाँति होता है। जिस प्रकार शिक्षक अपने छात्र कों सन्मार्ग की ओर ही अग्रसर करता है, उसी प्रकार एक सच्चा मित्र अपने मित्र को पाप के गर्त में गिरने से बचाता है। मानव-जीवन अधिक रहस्यपूर्ण है। कभी-कभी जीवन में ऐसे अवसर उर्पस्थित हो जाते हैं जब मनुष्य की धर्मबबद्ध न न हो जाती है और उसका मन द्रुतगति से पाप की ओर दौड़ता है। ऐसे समय में मित्र का ही उपदेश अधिक कल्याणकारी सिद्ध होंता है। मित्र के उपदेश का जितना प्रभाव हृदय पर पड़ता है, उतना और किसी का नहीं पड़ता है।

शीर्षक : सच्चा मित्र।

सार : सच्चा मित्र अपने मित्र को पाप के गर्त से बचाकर सन्मार्ग की ओर अग्रसर करता है। धर्मबुद्धि के नष्ट होने पर पाप की ओर दौड़ते मन पर मित्र के उपदेश का ही अधिक प्रभाव होता है।

उदाहरण 10.
हमें सदैव परोपकार करते रहना चाहिए। यदि हम यह ध्यान रखें कि दूसरों की सहायता करना सौभाग्य की बात है, तो परोपकार करने की इच्छा हमारी सर्वोत्कृष्ट प्रेरणा होगी। ऊँचे आयन पर खड़े होका और अपने हाथ में दो पैसे लेकर यह न कहो – “ऐ भिखारी, ले यह मैं तुझे देता हूँ।” वास्तव में तुम्हे इस बात के लिए कृतज्ञ होना चाहिए कि तुम्हें वह निर्धन व्यक्ति मिला, जिसे दान देकर तुमने स्वयं अपना उपकार किया। धन्य पाने वाला नहीं होता, देने वाला होता है। यह कम महत्त्व की बात नहीं है कि इस संसार में तुम्हें अपनी दयालुता प्रकट करने और इस प्रकार पवित्र एवं पूर्ण होने का अवसर प्राप्त हुआ।

शीर्षक – परोपकार की उचित विधि।

सार : परोपकार करते समय हमें मन में यह विचार लाना चाहिए कि निर्धनों की सहायता करना हमाँे सौभाग्य की बात है। हमें गर्व से नहीं, नम्रता से दूसरों की सहायता करनी चाहिए।

उदाहरण 11.
आज अंग्रेजी का अधकचरा ज्ञान रखने वाले शिक्षार्थियों ने ऐसी दूषित प्रवृत्ति का प्रचार किया है कि जिसे देखो वह अपने अंग्रेजी ज्ञान का प्रमाण दो-चार टूटे-फूटे वाक्य बोलकर देना चाहता है। विदेशों में इस प्रवृत्ति के कारण हमारे राष्ट्रीय गौरव को जो क्षति समय-समय पर पहुँचती रहती है, उससे सभी परिचित हैं अंग्रेजी के इस प्रयोग से विदेशियों को लगता है कि भारत स्वतंत्र तो हुआ, किंतु मानसिक दृष्टि से अभी वह गुलाम है :

शीर्षक : अंग्रेजी का मोह।

सार : अंग्रेजी के अधकचरे ज्ञान को दिखाने की दुष्पवृत्ति के कारण राष्ट्रॉय-गौरव को क्षात पहुँचतो है। इस दुष्मवृत्ति के परिणामस्वरूप विदेशियों को लगता है, भारत अब भी मानसिक दृष्टि से गुलाम है।

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उदाहरण 12.
हम एक ओर तो प्रकृति के उपकरणों की बंदी बना रहे हैं और दूसरी और स्वयं उनके दास बनते जा रहे हैं। अत: इनसे बचने के लिए प्राकृतिक और मानव-निर्मित वातावरण में एक ऐसा तालमंल पैदा होना चाहिए जो प्रकृति के सुंदर स्वरूप को भी खंडित न करे और मानव-विकास की गुंजाइश भी बनी रें। मशीन हमारी स्वामिनी न बनकर सेविका का ही काम करे।हमें वन, पर्वत और नदियों का भरपूर लाभ मिलता रहे, वे मनोरम और उपयोगी रहें। शहरों में आवश्यकता से अधिक जमघट होने का अर्थ होगा ग्रामीण का विनाश, अत: उसे रोकना होगा।

शीर्षक : मानव और प्रकृति।

सार : प्रकृति और मानव-निर्मित वातावरण में सामंजस्य अत्यंत आवश्यक है जिससे प्रकृति की सुंदरता बनी रहे तथा भौतिक उन्नति के लिए वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग भी किया जा सके। मशीनें सेविका के रूप में रहं तथा शहरों में होने वाला जमघट रुके।

उदाहरण 13.
वर्तमान काल विज्ञापन का युग माना जाता है। समाचार-पत्रों के अतिरिक्त रेडियो तथा टेलीविजन भी विज्ञापन के सफल साधन हैं। विज्ञापन का मूल उद्देश्य उत्पादक तथा उपभोक्ता में सीधा संपर्क स्थापित करना होता है। जितना अधिक विज्ञापन किसी पदार्थ का होगा उतनी ही अधिक लोकप्रियता बढ़ेगी। इन विज्ञापनों पर धन तो अधिक व्यय होता है, पर इससे बिक्री बढ़ जाती है। ग्राहक जब इन आकर्षक विज्ञापनों को देखता है तो वह उस वस्तु-विशेष के प्रति आकृष्ट होकर उसे खरीदने के लिए बाध्य हो जाता है।

शीर्षक : विज्ञापन का युग।

सार : समाचार-पत्रों, रेडियो तथा टेलीविजन द्वारा उत्पादक और उपभोक्ता से संपर्क स्थापित होता है। विज्ञापन से वस्तु विशेष की लोकप्रियता, बिक्री बढ़ती है और ग्राहक का वस्तु के प्रति आकर्षण भी बढ़ता है।

उदाहरण : मनुष्य स्वयं भाग्य का निर्माता है। पर कायर मनुष्य नहीं, सबल ही भाग्य निर्माण की सामर्थ्य रखता है। कायर तो दैव ही दैव पुकारता है। साहसी व्यक्ति को अपने मानसिक बल पर अभिमान होता है, उसकी भुजाओं में कार्य करने की शक्ति होती है, वह नियति के हाथ का क्रीड़ा कंदुक बनकर नहीं रहता, कठपुतली की तरह किसी की अँगुलियों पर नहीं नाचता। सिंह नदी को अपने वक्ष के बल पर चीर कर उस पार पहुँचता है, तो साहसी भाग्य को झूठा प्रमाणित कर उसे स्वयं निर्मित करता है। मनुष्य संसार के जितने भी कार्य करता है, उसकी सफलता-असफलता मन पर आधारित है, उसे भाग्य के माथे मढ़ देना मूखों का काम है।

शीर्षक : भाग्य तथा पुरुषार्थ।

सार : साहसी मनुष्य भाग्य के हाथ कठपुतली नहीं बनता अपितु स्वयं अपने भाग्य का निर्माण करता है क्योंकि उसे अपनी शक्ति पर विश्वास होता है। मानव के समस्त कार्यों की सफलता-असफलता भाग्य पर नहीं, उसके मन पर आधारित है।

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उदाहरण 15.
लोकतांत्रिक अवस्था केवल केंद्र तथा राज्य स्तर पर क्रमशः लोकसभा तथा विधानसभाओं के निर्माण का नाम नहीं है। उसका वास्तविक स्वरूप है – एक विशिष्ट जीवन-पद्धति। जब सामान्य जन को प्रशासन के निम्नतर स्तर पर यह अनुभव होता है कि शासन तंत्र उसके हित एवं कल्याण के लिए सक्रिय है तथा न्याय-व्यवस्था निष्पक्ष और स्वतंत्र है, तभी लोकतन्त्र में उसकी आस्था में निरंतर अभिवृद्धि होती है। ग्राम पंचायतों का विकास भारतीय जनता में इन मूल्यों का विकास-विस्तार नहीं कर पाया, क्योंकि राज्य सरकारों ने इनकी व्यवस्था और आयोजन को अधिकारियों के संरक्षण में रखा जो अपने को जनता के प्रति उत्तरदायी न मानकर सरकार के मुखापेक्षी बने रहने में अपना कल्याण समझते हैं। व्यवस्था के इस दोष को दूर करके ही लोकतंत्र को सफल बनाया जा सकता है।

शीर्षक : लोकतंत्र की सफलता।

सार : लोकतांत्रिक व्यवस्था, केन्द्र तथा राज्य-स्तर पर लोकसभा तथा विधानसभाओं के निर्माण तक सीमित न होकर एक विशिष्ट जीवन-पद्धति है। निम्नतम स्तर पर कल्याणकारी कार्य तथा स्वतंत्र-निष्पक्ष न्याय व्यवस्था से लोकतंत्र की आस्था में वृद्धि होती है। पंचायत व्यवस्था के दोषों को दूर करके हमें लोकतंत्र को सफल बनाना चाहिए।

उदाहरण 16.
किसी भी देश और जाति की सांस्कृतिक चेतना का स्पष्ट चित्र उसकी अपनी भाषा के साहित्य में दिखलाई पड़ता है, क्योंकि समाज और साहित्य एक-दूसरे से अभिन्न है। एक के बिना दूसरे की कल्पना भी संभव नहीं है। रामायण, महाभारत, रामचरितमानस, साकेत, कामायनी और गोदान आदि इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। साहित्यकार अपने युग का चितेरा होता है। उसके साहित्य में अपने समाज का जीवन-स्पंदन विद्यमान रहता है। इसी अर्थ में वह उसका दर्पण होता है।

शीर्षक : साहित्य समाज का दर्पण है।

सार : किसी भी देश और जाति की सांस्कृतिक चेतना उसकी भाषा के साहित्य से प्रकट होती है। इस प्रकार समाज और साहित्य परस्पर पूरक हैं। इसीलिए साहित्य समाज का दर्पण कहलाता है।

उदाहरण 17.
ज्ञान प्राप्ति के साथ-साथ पर्यटन द्वारा हमें सरस और रुचिपूर्ण मनोरंजन भी प्राप्त होता है। विभिन्न स्थानों, वनों, नदी-तालाबों और सागर की उत्ताल तरंगों का अवलोकन कर मन झूम उठता है। पर्यटन हमारे स्वास्थ्य के लिए भी हितकर है। जलवायु-परिवर्तन से चित्त में सरसता और उत्साह का संचार होता है, जिससे हम प्रसन्न मन:स्थिति में रहते हैं, जो हमारे अच्छे स्वास्थ्य की अनिवाय शर्त है। देशाटन के दौरान हमें अनेक सुविधाओं और कष्टों का भी सामना करना पड़ता है। इन्हें सहन करके तथा इनका समाधान ढूँढ़ लेने पर हमें अद्भुत खुशी का अनुभव होता है।

शीर्षक : देशाटन।

सार : देशाटन से ज्ञानवर्धन और स्वास्थ्य लाभ होता है। जलवायु-परिवर्तन से मन प्रसन्न रहता है। प्राकृतिक दृश्यों को देखने से मनोरंजन होता है, मन खुशी से नाच उठता है। मन की खुशी ही स्वास्थ्य लाभ की कुंजी है।

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उदाहरण 18.
किसी से कुछ पाने की इच्छा रखना ही मनुष्य के दुख का कारण है। जब तक पाने की इच्छा मनुष्य में विद्यमान है तब तक उसे सच्चे सुख की प्राप्ति होना असंभव है। वस्तुत: सच्चा सुख किसी से कुछ पाने में नहीं वरन् देने में है। जिस प्रकार अंगूर की सार्थकता अपने तमाम रस को निचोड़कर दूसरों के लिए देने में है, उसी प्रकार मनुष्य जीवन की सार्थकता अपनी संपूर्ण क्षमताओं और समृद्धि को दूसरों के लिए अर्पित कर देने में है।

शीर्षक : सच्चा सुख अथवा वास्तविक सुख।

सार : सच्चा सुख परोपकार की भावना में है। किसी से कुछ पाने की इच्छा ही दुख का मूल कारण है। मनुष्य जीवन की सार्थकता अपनी योग्यता, शक्ति और समृद्धि को दूसरों को अर्पित कर देने में है।

उदाहरण 19.
नारी नर की शक्ति है। वह माता, बहन, पत्नी और पुत्री आदि रूपों में पुरुष में कर्तव्य की भावना जगाती है। वह ममतामयी है अत: पुष्प के समान कोमल है, किन्तु चोट खाकर वह अत्याचार के विरुद्ध सन्नद्ध होती है, तो वज्र से भी कठोर हो जाती है। तब वह न माता रहती है, न प्रिया ; उसका एक ही रूप होता है और वह है दुर्गा का। वास्तव में नारी सृष्टि का ही रूप है, जिसमें सभी शक्तियाँ समाहित हैं।

शीर्षक : नारी एक : रूप अनेक/नारी के विभिन्न रूप।

सार : नारी पुरुष की शक्ति है जिसके अनेक रूप हैं। नारी कोमल, कठोर तथा ममतामयी – तीनों रूप धारण करती है। वह सृष्टि का रूप है, जिसमें सभी शक्तियों का समावेश है।

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उदाहरण 20.
धर्म को लोगों ने धोखे की दुकान बना रखा है। वे उसकी आड़ में स्वार्थसिद्धि करते हैं। बात यह है कि लोग धर्म को छोड़कर संप्रदाय के जाल में फँस जाते हैं। संप्रदाय वाक्य कृत्यों पर जोर देते हैं। वे चिह्नों को अपनाकर धर्म के सारतत्व को मसल देते हैं। धर्म मनुष्य की अंतर्मुखी बनाता है, उसके हृद्य के किवाड़ों को खोलता है। उसकी आत्मा को विशाल, मन को उदार तथा चरित्र को उन्नत बनाता है। संमताय संकीर्णता सिखाते हैं। ज्ञात-पाँत, रूप-रंग तथा ऊँच-नीच के भेद-भावों से ऊपर नहीं उठने देते।

शीर्षक : धर्म और संप्रदाय।

सार : धर्म मनुष्य की आत्मा को विशाल, मन को उदार, चरित्र को उन्नत बनाकर उसे अंतर्मुखी बनाता है। संप्रदाय, जात-पाँत, ऊँच-नीच की संकीर्णता सिखाते हैं। अत: मनुष्यों को संप्रदाय के जाल से बचना चाहिए।

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