Students should regularly practice West Bengal Board Class 9 Hindi Book Solutions and रचना सामाजिक-सांस्कृतिक निबंध to reinforce their learning.
WBBSE Class 9 Hindi रचना सामाजिक-सांस्कृतिक निबंध
दशहरा / विजयादशमी
रूपरेखा :
- भूमिका
- दशहरा मनाने का कारण
- रामलीला आयोजन की परम्परा
- उपसंहार।
विजयादशमी इस देश में मनाये जानेवाले अनेक त्योहारों में से एक प्रमुख त्योहार है। इसे आम बोलचाल के शब्दों में दशहरा भी कहा जाता है। भारतीय उत्सव एवं त्योहार देशी तिथियों के हिसाब से मनाये जाते हैं। इस दृष्टि से विजयादशमी का त्योहार आश्विन मास की शुक्ल पक्ष के दशमी को मनाया जाता है। अंग्रेजी महीनों के हिसाब से सितम्बर या अक्टूबर में ही दशहरा मनाया जाता है।
विजयादशमी का त्योहार महिषासुरमर्दिनी शक्ति के अवतार और सिंहवाहिनी देवी दुर्गा की विजय गाथा के साथ भी जुड़ा हुआ है। पौराणिक गाथाओं के अनुसार, महिषासुर नामक दुर्दान्त असुर से देव-जाति को बचाने के लिये देवी दुर्गा ने उसके साथ लगातार नौ दिनों तक घमासान युद्ध किया था। दसवें दिन यानी दशमी तिथि को कहीं जाकर उसका वध किया था। उसी विजय की स्मृति में नौ दिनों तक स्त्रियाँ तथा भक्तजन व्रतोपवास रख देवी की पूजा-उपासना करते हैं। दसवें दिन बालिकाओं को खिला-पिलाकर अपने व्रत का उपारण करती हैं। राम कथा के समान यह कथा भी आसुरी शक्तियों पर दैवी शक्तियों की विजय गाथा ही है।
विजयादशमी शक्ति की साधना का प्रतीक है। शक्ति की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा के नौ रूपों की पूजा नवरात्र में करने के बाद आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी को इसका समापन दस शीशधारी रावण के वध के साथ होता है। अत: इसे दशहरा भी कहा जाता है।
दसानन रावण का संहार राम ने शक्ति की साधना करके किया था। दशमी की विजय यात्रा दुर्गा के जिन नौ रूपों की आराधना के पश्चात् आयोजित की जाती है, उनमें घोर से घोर कष्ट को दूर करने की दैवी क्षमता होती है।
विजयादशमी के दिन माना जाता है कि देवराज इन्द्र ने महादानव वृत्रासुर पर विजय प्राप्त की थी। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने लंका-नरेश रावण पर विजय प्राप्त की थी। इसी दिन पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास की अवधि समाप्त कर द्रौपदी का वरण किया था। महाभारत का युद्ध भी इसी दिन प्रारम्भ हुआ था।
उत्तर भारत में विजयादशमी नौरते टाँगने का पर्व भी है। बहिनें अपने भाइयों को टीका लगा कानों पर नौरते टाँगती हैं। इसमें नंवरात्र पूजन की सफलता और कृषि की श्रीवृद्धि का भाव समाहित रहता है। बहने नवरात्र पूजा विधि-विधान से करके अपने भाइयों को बधाई देने के लिए नवरात्र में बोये जौ (अन्र) के अंकुरित रूप नौरते को उनके कानों पर टाँगती है।
विजयादशमी के दिन शक्ति के प्रतीक शस्रों का शास्रीय विधि से पूजन किया जाता है। प्राचीन काल में, वर्षा काल में युद्ध निपेध था। परिणामस्वरूप वर्षा के चतुर्मास में शस्त्रों को सुरक्षित रख दिया जाता था। विजया दशमी के दिन उन शस्स्वों को निकाल कर उनकी पूजा की जाती थी।
हिन्दी भाषी समाज में नवरात्र के दिनों में रामलीला का मंचन किया जाता है। आश्विन शुक्ल प्रतिपद से मंचन आरम्भ कर दशमी के दिन रावणवध किया जाता है और रावण का पुतला जलाया जाता है।
विजयादशमी धार्मिक दृष्टि से आत्मशुद्धि का पर्व है। पूजा-अर्चना कर शक्ति की याचना की जाती है तथा असत्य पर सत्य की विजय की कामना की जाती है। विजया दशमी के दिन ही सन् 1925 ई० में भारत के राष्रीय पुनर्निर्माण के लिये डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ’ की स्थापना की थी। यह संगठन राष्र्रीय एकता, सामाजिक समरसता और समर्पण का संस्कार देकर देश की स्वाधीनता के सजग प्रहरियों का सृजन करने का प्रयास करता है। अत: राष्ट्रीय दृष्टि से भी यह सैन्य शक्ति सम्बर्द्धन का दिन है।
दीपावली
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- दीपावली का पौराणिक महत्व
- वैज्ञानिक दृष्टि से महत्व
- व्यावसायिक महत्व
- दार्शनिक महत्व
- दीपावली से लाभ-हानियाँ
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- प्रतिवर्ष कार्तिक मास की अमावस्या के दिन हिंदू सुमाज मे दीपावली का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। आलोक-पर्व दीपावली भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय तथा उल्लासपूर्ण त्योहार है। दीपावली शब्द का अर्थ है दीपों की अवली अथवा पंक्ति। दीपों की माला जलाकर अमावस्या की रात को पूर्णिमा की जगमगाहट से भर देने के कारण इसे दीपावली कहते हैं। इस दिन घर को दीपों से सजाया जाता है। एक साथ असंख्य दीपों की जगमगातो लड़ियों से संपूर्ण वातावरण प्रकाशित हो उठता है। घर-घर में लक्ष्मी-गणेश जी की पूजा की जाती है। लोग इस दिन आपसी द्वेष को भूलकर एक-दूसरे के घर जाते हैं और मिठाइयाँ बाँटते हैं। बच्चों के लिए यह दिन विशेष खुशी का होता है। वे नये कपड़े पहनकर, रात्रि में जी भर कर पटाखे जलाते हैं, घूमते हैं। पूरा शहर रोशनी में स्नान करता नजर आता है। लोग अपने घर, दुकान तथा कारखानों की सफाई कराते हैं, रंग-रोगन कराकर उन्हें सजाते हैं। दीपावली एक राष्ट्रीय पर्व है।
दीपावली का पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व :- दीपावली का अपना पौराणिक महत्व है। इसका संबंध पुराणों में वर्णित भारतीय समाज के प्राचीन इतिहास से जुड़ा है। इसी दिन कालीमाता ने रक्तबीज नामक उस दुष्ट राक्षस का संहार किया था, जिसके अत्याचार से संपूर्ण समाज ग्रस्त था। उस दुष्ट के संहार के बाद लोगों ने अपने घर में घी के दिए जलाए थे। इस मंगलकारी घटना की याद में ही प्रतिवर्ष दीपावली मनायी जाती है।
लंका विजय के बाद जब भगवान राम अयोध्या लौटे तो इसी दिन उनका राजतिलक किया गया था। संपूर्ण देश में इस उपलष्ष्य में दीपक जलाकर खुशियाँ मनाई गई थीं। कुछ लोग दीपावली का प्रारंभ इसी दिनं से मानते हैं, जबकि अनेक विद्वानों के अनुसार दीपावली का त्यौहार इससे भी अधिक प्राचीनकाल से मनाया जा रहा है।
वैज्ञानिक दृष्टि से महत्व :- दीपावली का पौराणिक एवम् ऐतिहासिक महत्व के साथ-साथ वैज्ञानिक महत्व भी है। वर्षा \#तु में कीड़ो-मकोड़ों, जल में घास-फूस एवं गंदगी के सड़ने से उत्पन्न विषैली गैसों तथा घर-मकान में व्याप्त सीलन को दूर करने में दीपावली के त्योहार की महत्वपूर्ण भूमिका है।
व्यावसायिक महत्व :- दींपावली के दिन व्यवसायी लक्ष्मी-गणेश जी की पूजा करते हैं। इस दिन से किसी व्यावसायिक कार्य का आरंभ शुभ समझा जाता है। इसके पीछे भी कुछ वैज्ञानिक कारण रहे हैं।
दार्शनिक महत्व :- दीपानती को प्रकाश-पर्व भी कहा जाता है। यह अंधेरे पर प्रकाश की तथा असत्य पर सत्य की विजय का प्रनीक है। यह इस दार्शीच चाण्य को अभिव्यक्त करता है कि अन्धेरा कितना भी घना हो, ज्ञान और कर्त्तंव्य का सामूहिक दीप उस्य अंधेरे को प्रकाश में बदल देता है।
दीपावली से लाभ :- दीपावली के वल त्यौहार ही नहीं है, अपितु इससे अनेक लाभ हैं। घर-मुहल्लों की सफाई, वातावरण की शुद्धि, अपसी़ सद्धाव की भावना का विकास तथा नए कार्य एवम् नई योजनाओं को प्रारंभ करने की प्रेरणा के साथ-साथ दीपावली हमें अंघेरे से, अज्ञानता से तथा असत्यता से लड़ने का भी संदेश देती है।
दीपावली से हानि :- दोपावली के दिन जुआ खेलने, शराब पीने और अशिष्ट आचरण से विनाश को आमंत्रित करने वालों की भी आज कमी नहीं है।ऐसे लोगों के लिए दीपावली का त्योहार लाभ के बदले हानि ही आमंग्रित करता है। देश में अरबों रुपये का बारूद एूँक दिया जाता है। इससे देश की अर्थव्यवस्था तो प्रभावित होती ही है, वातावरण भी प्रदूषित होता है। अनेक लोग पटाखों के कारण होने वाली दुर्घटना से प्रसित होकर अपनी जिंदगी को नरक बना लेते हैं।
उपसंहार :- किसी भी त्योहार को मनाने के समय हमें उसमें निहित कल्याणकारी अर्थ को समझना चाहिए। दीपावली के त्योहार में भी यहा दृष्टिकोण अपनाना उचित होगा, तभी हम इसका आनंद प्राप्त कर सकते हैं। दीपावली का दीपक हमें प्रेरणा देता है-
जलते दीएक के प्रकाश में, अपना जीवन-तिमिर हटाएँ
उसकी ज्योधिर्मय किरणों से, अपने मन की जज्योति’ जगाएँ।
ईद
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- त्योहोरों का संबंध
- रमजान का महीना
- ईद का दिन
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- त्योहारो का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। त्योहारों के मनाने से सामाजिक जीवन में आपसी भाईचारा बढ़ता है। संप्रदायिक सौहार्द बढ़ता है। जीवन में ताजगी बनाए रखने के लिए पर्व एवम्य्योहारों का चक बनाया गया है। इससे सामाजिक जीजन मे विशेष चहल-पहल आ जाती है तथा सभी संपदाय के लोगों को एक-दूसरे के त्योहारों की जानकारी मिलती है।
त्योहारोों का संबंध :- ध्यारं अधिकांश त्योहारों का संबंध धर्म से जुड़ा हुआ है। हिंदुओं में होली, दीपावली, दशहरा आदि पा विशेग्य महतब है तो ईसाइयों में क्रिसमस का मुख्य स्थान है। मुसलमानों में जो त्योहार मनाए जाते हैं उनमें ईंद का सर्वीधिक महल है। यहत जोंहार सभी मुसलमानों को परोपकार एवम् भाईचारे का संदेश देता है। ईद इस्लाम धर्म का प्रमुख आनंदद्दायक त्योहार है। ईद् वर्ष में दो बार मनाई जाती है। एक को ईद-उल-फितर तथा दूसरी को ईद-उज-जोहा कहते हैं।
ईद से पूर्व रमजान का पविश्र महीना होता है। मुसलमान इस पूरे महीने भर रोजा रखते हैं। वे उपवास (रोजा) रखकर अपना सारा वक्त खुदा की इबादत (आराधना) में बिताते हैं और कोई अनैतिक कार्य न करने का प्रयास करते हैं। पूरे मास वे शरीर और मन पर बड़ा अंकुश रखते हैं। दिन में खाना-पीना तो दूर पानी पीना तक वर्जित होता है। पाँच वक्त नमाज़ पढ़े जाते हैं।
रोजा खत्म होने के बाद आता है ईद का शुम दिन। ईद’ शब्द का अर्थ है -लौटन और ‘फितर’ का अर्थ है-खाना-पीना। ईद-उल-फितत के दिन लोग खाना-पीना शुरू करते हैं। मुसलमान भाई एक मास तक रोजा (वत्) रखने के बाद ईद के दिन मीठी सेवइयाँ बनाते हैं और उन्हें प्रसन्नतापूर्वक आपस में बाँटा जाता है। इसी कारण इसे भीठी ईद भी कहते हैं। इस दिन के दो महीने और नौ दिन बाद चाँद की दस तारीख को एक और ईद मनाई जाती है। यह ईंद-उज-जोहा अथवा ‘बकर-ईद कहलाती है। इस दिन बकरे काटे जाते हैं और उनका मांस इष्ट-मित्रों में बाँटा जाता है
ईद के दिन मुसलमान सूरज निकलने के बाद नमाज़ पढ़ने जाते हैं, जिसमें वे खुंदा (ईश्वर को) धन्यवाद देते हैं कि उसकी कृपा से वे रमजान का व्रत रखने में सफल हो गए और इन दिनों में उनसे जाने-अन्जाने में कोई अपराध हो गया हो तो क्षमा करें। इस दिन वे गरीबों को खूब दान देते हैं। ईद के दिन संसार की सभी मस्जिदों में खूब भीड़ होती है। उस दिन की सामूहिक नमाज का दृश्य देखने योग्य होता है।
उपसंहार :- ईद्रेम और सद्भाव का त्योहार है। यह सभी के लिए खुशी का संदेश लाता है। यह त्योहार प्रेम, एकता और समानता की शिक्षा देता है। सभी समुदायों के लोगों को आपस में मिल-जुलकर यह त्योहार मनाना चाहिए। इससे सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ता है और राष्ट्रीय एकता की भावना मजबूत होती है।
वर्षा-ॠतु
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- वर्षा ॠतु से पूर्व की स्थिति
- वर्षा का आगमन
- वर्षा के विविध दृश्य
- वर्षा का उम्र रूप
- स.हित्य में वर्षा का वर्णन
- वर्षा से लाभ व हानियाँ
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- भारत में प्रकृति का अक्षय भंडार है। यहाँ का ऋतु परिवर्तन संसार के अन्य देशों से सुंदर तथा मनोहारी है। दूसरे देशो मे गायः तीन ऋतुएँ होती हैं-वसंत, ग्रीष्म और शरद, किंतु भारत में छः ॠतुओं का एक सुंदर चक है-वसंत, म्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत तथा शिशिर। इन छ: ॠतुओं की प्राकृतिक शोभा सदैव नवीन रूप में विकसित होती है। इन छ: ऋतुओं में वर्षा, म्रीष्म तथा शरद ऋतु प्रुख हैं। वर्षा ॠतु इनमें अपना विशेष महत्व रखती है। हमारा देश सामाजिक तथा आर्थिक रूप से वर्षा पर आश्रित है।
वर्षा ऋतु से पूर्व की स्थिति :- जेठ मास धरती को आग का गोला बना देता है। भयंकर धूप तथा लू से मानव जींवन तप रहा होता है। नदी-नाले सूख जाते हैं। सूरज अपनी गर्म किरणों से पृथ्वीवासियों पर तीक्ष्ष्रहार करता है। वृक्षों के नीचे छाया भी कठिनाई से मिलती है।
धरती का प्रत्येक प्राणी वर्षा के आगमन की प्रतीक्षा करता है। व्याकुल किसान को विश्वास रहता है कि बादल आवश्य आएँगे तथा उनके सूखे हुए खेत को हरा-भरा बना देंगे तथा धरती की प्यास को बुझा देंगे।
वर्षा का आगमन :- सूर्य की गर्मी से तालाबों, झीलों और सागरों का पानी भाप बनकर ऊपर उठता है। यह भाप घनी होकर वादलों का रूप धारण कर लेती है। ये वायु की गति से विभिन्न स्थानों पर पुनः पानी के रूप में बरस पड़ते हैं। इसी को हम वर्षा कहते हैं। शीतल बूँदों का स्पर्श पाकर वनस्पति और पेड़-पौधे झूमने लगते हैं, पशु-पक्षी मस्त हो जाते हैं। मानव का मन हर्ष से नाचने लगता है।
वर्षा के विविध दृश्य :- वर्षा का अपना सौदर्य होता है। धूल-धूसरित पत्ते धुलकर निर्मल हो जाते हैं। चारों ओर हरियाली छा जाती है, आकाश में काली घटाएँ छा जाती हैं। बादल गरजते हैं, बिंजली चमकती है। शीतल पवन मन में उल्लास भर देती है। चारों ओर मेढ़कों की टर्र-टर्र सुनाई पढ़ती है। काले मेघों को देखकर मयूर प्रसन्न होकर नाचने लगते हैं। कोयल का पंचम स्वर कानों में मधुरता का संचार करने लगता है।
वर्षा का उग्र रूप :-वर्षा जहाँ एक ओर सुहावने तथा मोहक वातावरण को जन्म देती है, वहीं दूसरी ओर उप्रता और भयानकता से हुदय को दहला देती है। वर्षा ॠतु की काली-काली रातें झींगुरों की झंकार, मेढ़कों की टर्र-टर्र मिलकर वातावरण को भयानक बना देते हैं। इंझावात जब प्रचंड रूप धारण कर लेता है तो जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। नदियों में बाढ़ आ जाती है। कभी-कभी नदियाँ अपने साथ गाँवों तक को बहाकर ले जाती हैं।
साहित्य में वर्षा वर्णन :- कवियों तथा साहित्यकारों ने भी अपनी रचनाओं में वर्षा ऋतु के सौददर्य और उसके भयंकर रूप दोनों का सजीव चित्रण किया है। इंर्रधनुप की झलक, मेघों की कड़क और बिजली की चमक कवियों के दद्यय में नई-नई कल्पनाएँ जगाने लगती हैं।
वर्षा से लाभ :- वर्षा की जीवनदायिनी महिमा है। भारत कृषि-प्रधान देश है। यहाँ की संपन्नता तथा निर्धनता कृषि पर निर्भर करती है। वर्षा के बिना कृषि संभव नहीं है। सिंचाई के कृत्रिम साधन वर्षा की कमी को पूरा नहीं कर सकते। यह जल पूरे वर्ष हमारे खेतों की सिंचाई करता है। बड़ी-बड़ी नदियों पर बाँध बनाकर, वर्षा के जल को रोकने का प्रयास किया गया है, ताकि उनमें से नहरें निकाली जा सकें और जल-विद्युत का उत्पादन हो सके। वर्षा ॠतु के जल से हरीहरी घासें उगती हैं जो पशुओं के चारे के काम आती है।
वर्षा से हानियाँ :- जहाँ वर्षा ॠतु कोमल-स्वरूपा है, वहीं कठोर भी है। यह अनेक प्रकार से कष्टदायक और हानिकारक भी है। वर्षा से मार्गों व सड़कों पर पानी भर जाता है, वहाँ कीचड़ हो जाने से आवागमन और यातायात में भारी कठिनाई उठानी पड़ती है। वर्षा के कारण कच्चे तथा पुराने मकान गिर जाने से जन-धन की भारी क्षति होती है। अधिक वर्षा से नदियों में बाढ़ आ जाती है जिससे फसल नष्ट हो जाती है, गाँव बह जाते हैं। भारत में प्रतिवर्ष बाढ़ से बहुत हानि होती है।
उपसंहार :- अनेक हानियाँ होने पर भी भारतीय जन-जीवन में वर्षा का अत्यंत महत्व है। इसे जन-जीवन की वरदायिनी देवी माना जाता है। वर्षा हमारे जीवन का आधार है। वह हमें जीवनप्रदायक जल प्रदान करती है। यदि समय से वर्षा न हो तो चारों ओर हाहाकार मच जाता है तथा पीने के पानी का अकाल हो जाता है। इसीलिए हमारा तरसता हुआ मन वर्षा के बादलों के आगमन की प्रतीक्षा करता है।
शरद्-ऋतु
रूपरेखा :
- भूमिका
- शरद्- ऋतु, ऋतुओं की रानी के रूप में
- प्रकृति नवीनता के रूप में
- उपसंहार।
भारत में ऋतु-चक्र के अनुसार छ: ऋतुओं का आना-जाना हुआ करता है। ग्रीष्म-ऋतु के बाद वर्षा और वर्षा के पश्चात् भारत में सुहावनी शरद्- ॠतु का आगमन होता है। सुन्दरता व सुहावनेपन के कारण शरद् को भारतीय मनीषियों ने ऋतुओं की रानी कहा है। निराला जी के शब्दों में – आ गई शरद्, ऋतुओं की रानी। देशी महीनों के हिसाब से आश्विन-कार्तिक मास और अंग्रेजी महीनों के हिसाब से अक्टूबर-नवम्बर मास शरद-ऋतु के लिए माने गये हैं। हम सभी जानते और अनुभव करते हैं कि इन महीनों में वर्षा का प्रकोप समाप्त होकर वातावरण धीरे-धीरे धुल कर साफ हो जाता है। वर्षा-ऋतु की उमस का अन्त होकर इस ऋतु में वातावरण गुलाबी ठण्डक से भर उठता है। दिन का ताप अवश्य कुछ अखरता है, पर सुबह-शाम और राते क्रमश: ठण्डी से ठण्डी होती जाती हैं।
शरद्-ऋतु में वर्षाकालीन कीचड़ सूख कर स्वच्छ हो जाता है। सम्पूर्ण वातावरण स्वच्छ और निर्गध हो जाता है। प्रसादजी के शब्दों में –
वह विवर्ण मुखा त्रस्त प्रवृरति का
आज लगा हँसने पिर से।
वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में
शरद्-विकास नयो सिर से।।
प्रकृति का नवोन्मेष होते ही वायुमण्डल मधुर, भीनी और रसीली सुंगध से भरकर महक उठता है। एकाएक शीतलमंद-सुगन्ध बयार चलकर एहसास दिला जाती है कि ऋतुओं की रानी शरद् का आगमन हो गया है। फल-फूलों से लदे वृक्षों की घनी डालियों पर मदमाते स्वरों में चहककर विहग-गण भी अचानक ॠतु परिवर्तन का आभास देने लगते हैं।
शरद्-ऋतु की चाँदनी का क्या कहना। प्राय: हर भाषा के महान् कवियों, लेखकों ने उस चाँदनी का खुलकर गुणगान किया है। उसे अमृत वर्षा करने वाली बताया है। लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि शरद् पूर्णिमा की रात में खीर पकाकर छतों पर खुले में रात-भर के लिये रख देते हैं, फिर सुबह उठकर यह मानकर खाते हैं कि वह अमृतमयी हो गयी है।
भारत में शरद्- ऋतु का आध्यात्मिक महत्व भी है। इस ऋतु के दौरान लोग कार्तिक मास में प्रति सुबह उठकर समीपस्थ नदियों, सरोवरों आदि में स्नान करते हैं। फिर मंदिर या किसी धार्मिक स्थान पर जाकर भजन-कीर्तन करते हैं। बहुत से लोग महीना भर व्रत-उपवास एवं फलाहार करने के नियम का पालन भी करते हैं। शरद् पूर्णिमा का स्नान करने के लिये लोग गंगासागर, हरिद्वार, गढ़गंगा आदि तीर्थों में जाते हैं या जहाँ कहीं भी जिस रूप में गंगा उपलब्ध है, उसमें स्नान करके अपने आप को धन्य मानते हैं। विशेषकर कार्तिक मास में दान-पुण्य करने का भी बड़ा महत्व माना गया है। इस प्रकार यह ॠतु पवित्र और आध्यात्मिक सिद्धि भी देने वाली है।
इन सारे विवेचनों से स्पष्ट है कि प्राकृतिक, सौन्दर्य वैभव एवं आध्यात्मिक महत्त्व को दृष्ट से शरद्-ॠतु को ऋतुओं की रानी उचित ही कहा गया है।
वैज्ञानिक दृष्टि से शरत् का बहुत महत्व है। वर्षा के बाद घर की साफ-सफाई, रंगाई शुरू हो जाती है। साल भर का कूड़ा-करकट निकाल दिया जाता है। घर चमकने लगते हैं। शरद्-कतु आने पर विवाह का मौसम भो आ जाता है। शरद्- ऋतु ऐसी ऋतु है जिसमें जीवन जीने का पूरा आनंद मिल जाता है।
बसंत पंचमी :
रूपरेखा :
- भूमिका
- बसंत ॠतु का प्रमुख त्योहार
- विद्यः की दंवी सुखवंत।
- उपसंहार।
बसन्त पंचमी जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है बसन्त ॠतु का प्रमुख त्योहार है। चह भी सट्ट है कि यं बरन्त-ॠतु के दौरान माघ महीना की शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली पंचमी तिथि के दिन मनाया जाता है। तिधि वार के अनुसार त्योहार मनाने एकदम स्पष्ट है। देशी महीनों के हिसाब से माघ और फाल्गुन मास बसन्त-ॠतु के मास माने गये हैं। अंग्रेजी महीनों के हिसाब से बसन्त पंचमी का दिन प्राय: फरवरी मास में ही आया करता है।
ऋतुओं का राजा वसंत है। चैत और बैशाख को मधुमास कहा जाता है, किन्तु बसत पंच्चमी से ही इसका आगमन हो जाता है। जेठ और बैशाख की तपती दोपहर के बाद वर्षा का आगमन होता है। तत्पश्चात् शरद्- ॠतु असे उत्साह के साथ आती है। शरद के बाद शिशिर, फिर हेमन्त और बाद में बसंत का आगमन होता है। धरती के चारों तरफ हर्षोल्लास और खेतों में हरियाली का मौसम आ जाता है। प्रकृति अपने अल्हड़ रूप में धरती का शृंगार करने लगाती है। समक्त वातावरण में मानो मादकता फैलने लगती है, हवा में खुशबू आ जाती है। नयी फसल उगने लगती है। वृद्ध नये फूलों से भरकर झूमने लगते हैं।
ॠतुराज बसंत सबको चंचल कर देता है। प्रकृति अपने कोमल किसलय के आँचल से चँतर डुलानी, नौदर्य-सुधा के साथ वैराग्य का अंत कर देती है।
वृक्ष और लता आदि वनस्पतियाँ खिल जाती हैं। सरसों बसंतो रंग के फूलों से लद कर पनोरम लगने लगती है। हिन्दी कवियों की दृष्टि में बसंत धरती के कण-कण में अपना उल्लास बिखेर देता है। जड़-चेतन में स्यंदन कर देता है। बसंत के सौंदर्य को हर कवि ने अलग-अलग ढंग से चित्रित किया है। बसंत के प्रकृति यौवन पर ‘निराला’ गाते हैं-
किसलय बसना नववय लतिका।
मिली मधुर प्रिय उर तरु पतिका।
मधुप वृन्द-वृन्दी पिक स्वर नभ सरसाय।।।
सखि वसन्त आया।
बसंत को केदारनाथ जी ने दुलहिन के रूप में देखा –
विकराल वनखण्डी
लाजवन्ती दुलहिन बन गई।
फूलों के आभूषण पहन आकर्षक बन गई।
एक कवि ने बसंत को मदन महीप का बालक कहा है। बसंत अमोदिनी वृत्ति की संलीन है। इसलिये वसन्तोत्सव को मदनोत्सव भी कहा जाता है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे मादक उत्सवों का काल मानते हैं। उनका कहना है कि कभी अशोक दोहर के रूप में, कभी मदन व देवता की पूजा के रूप में, कभी आप्र-तरू और माधवी लता के रूप में, कीी दोली के रूप में बसंत नाच, गान और काव्यालाप से मुखर हो उठता है।
बसंत पंचमी विद्या की देवी सरस्वती का दिन भी है। इस दिन सरस्वती पूजा का विधान है। वीणावादिनी माँ शारदा की देन है कि वे जीवन के रहस्यों को समझने की सूक्ष्म दृष्टि प्रदान कर ज्ञानालोक से सम्पूर्ण किश्न्त को आलोकित करती हैं। प्राचीन काल में वेद-मंत्रों का पाठ श्रावणी पूर्णिमा से आरम्भ होकर पंचम तिथि को सवाप्त होता भा :
‘निराला’ ने अपनी प्रसिद्ध कविता ‘वर दे वीणावादिनि वर दे’ में जगमग जग कर दे का आग्रह किया है। बसंत पंचमी के दिन पोले वस्र पहनकर हृदय का उल्लास प्रकट किया जाता है।
इस दिन बसंती हलुवा, पीले चावल तथा केसरिया खीर का आनंद लिया जाता है।
बसंत मादक-उमंगों और कामदेव की क्रीड़ा का ही पर्व नहीं, वीरता का त्योहार भी है। फाँसी पर चढ़ने वाले आजादी के मतवाले वीरों ने मेरा रंग दे बसंती चोला की कामना की तो सुभद्रा कुमारी चौहान देश-भक्तों से पूछ बैठी –
वीरों का कैसा हो बसंत?
फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुँचा अनंग
वधु-वसुधा पुलकित अंग-अंग।
बसंत स्वास्थ्यप्रद ऋतु है। इसमें बहने वाली शीतल-मंद-सुगंध वायु मनुष्य को नीरोग कर देती हैं।
अत: हम कह सकते हैं कि बसंत हर दृष्टि से हर्षोल्लास और उत्साह से भर देने वाली ऋतु है।
ग्रीष्म ॠतु
रूपरेखा :
- भूमिका
- प्रभाव
- गर्मी से बचने का उपाय
- उपसंहार।
बसंत के पश्चात् ग्रीष्म का आगमन होता है। ज्येष्ठ और आषाढ़ ग्रीष्म के महीने हैं। गर्मी आते ही हरियाली गायब हो जाती है और लू चलने लगती है। स्फूर्ति की जगह आलस्य और निष्क्रियता ले लेती है।
गर्मी में दिन लम्बे और रातें छोटी हो जाती हैं। सूर्य उद्य होते ही गर्मी का प्रचण्ड प्रकोप जन-जीवन को झुलसा देता है। गर्मी में लोगों का घर से निकलने का मन नहीं करता।
प्रसाद के शब्दों में ग्रीष्म-छतु सूर्य भगवान की अविश्राम तपती किरणों, सर्राटे भरती हुई लू की लपटों और तेज-पूरित उष्ग निदाघ की ऋतु है। वनस्पतियाँ मुरझा जाती हैं और नदियों के प्रवाह मंद हो जाते हैं। कुल मिलाकर ग्रीष्म ॠतु धरणीतल की अविरल शून्यता है।
किरण नहीं, ये पावक वेन कण
जगती धारती पर गिरते हैं।
‘निराला’ जी कहते हैं –
ग्रीष्म तापमय लू की लपटों की दोपहरी।
झुलसाती विरणें वरों की आ ठहरी।।
ग्रीष्म का ताप प्राणियों को इतना व्याकुल कर देता है कि उन्हें अपनी सुध ही नहीं रहती। प्राणी पारस्परिक राग-द्वेष भूल जाते हैं। प्यास और पसीना गर्मी के अभिशाप हैं। बार-बार पानी पीने पर भी गला सूखा ही रहता है। पसीने से शरीर लथपथ हो जाता है। मैथिलीशरण गुप्त गर्मी से संतप्त ‘यशोधरा’ के माध्यम से प्राणी का चित्रण करते हैं –
सूखा कण्ठ, पसीना छूटा, मृद तृष्णा की माया।
झुलसी दृष्टि, अंधेरा दीखा, दूर गई वह छाया।।
सरोवर सूख गये, नदियों में जल की कमी हो गई, प्रकृति भी प्यासी है। ग्रीष्म की दोपहर में सचमुच जीवन की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है। सड़के सुनसान हो जाती हैं। लोग विवशतावश गर्मी से बचने के साधन साथ लेकर बाहर निकलते हैं।
गर्मी की दोपहर प्राणियों के लिये ही नहीं, प्रकृति के लिये भी पीड़ादायिनी है। गर्मी में खेत-खलिहान मुरझा जाते हैं। घासे सूख जाती हैं। वृक्ष दोपहर की ताप न सह कर कुम्हला जाते हैं।
धूप की तेजी अन्न और फसलों को पका देती है। खरबूजा, आम, तरबूज, ककड़ी, खीरा आदि शीतल पदार्थ खाने से आनन्द मिलता है।
गर्मी से बचने के लिये लोगों ने तरह-तरह के उपाय खोज लिये हैं। साधारण आदमी तो बिजली के पंखों का प्रयोग करते हैं, जबकि अमीरों के घर में वातानुकूलित यंत्र लगे रहते हैं। कुछ लोग गर्मी से बचने के लिये पहाड़ी स्थानों या शोतल प्रदेशों में जाकर वहाँ की ठंडी हवा का आनंद लेते हैं।
रक्षा-बंधन :
रूपरेखा :
- भूमिका
- भाई-बहन के प्रेम का साक्षी
- ऐतिहासिक घटनाओं से सम्बद्ध
- उपसंहार।
रक्षा-बंधन का त्योहार भाई-बहन के प्रेम का साक्षी है और हिन्दू जाति और धर्मावलम्बियों के घरों में ही मनाया जाता है। यद्यापि अन्य जातियों के व्यक्तियों को भी राखी बाँधते-बँधवाते पूर्व काल में तो देखा ही गया है, आजकल भी अक्सर दिखाई देता है। कई बार हिन्दू बहनें किसी मुस्लिम भाई को भी राखी बाँधती दिखाई दे जाती हैं। इसी प्रकार हिन्दू भाई अन्य जाति की बहनों से आग्रहपूर्वक पवित्र राखी के धागे कलाई पर बँधवाकर उनके प्रेम और सुरक्षा का दायित्व अपनेआप पर लेते हुए देखे जाते हैं। इस प्रकार प्रमुख रूप से यह बहन-भाई के पवित्र प्रेम और अटूट रिश्ते-नाते को रूपायित करनेवाला त्योहार है।
रक्षा-बंधन हमारा राप्र्यापी पारिवारिक पर्व है। श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन पड़ने के कारण इसे श्रावणी भी कहा जाता है। प्राचीन काल में स्वाध्याय के लिये यज्ञ और तर्पण करने के कारण इसका ॠषि-तर्पण, उपाकर्म नाम भी पड़ा। यज्ञ के पश्चात्रक्षासूत्र बाँधने के कारण रक्षाबंधन नाम प्रसिद्ध हुआ।
रक्षा-बंन का प्रारम्भ कब और कैसे हुआ, यह निश्चित् नहीं कहा जा सकता। इस सम्बन्ध में कई किववदन्तियाँ हैं। एक बार देवताओं और दानवों के बीच युद्ध शुरू हुआ। घोर संघर्ष के बाद भी विजय न मिलने पर देवता परेशान थे। एक दिन इन्द्र की पल्नी शची ने अपने पति की विजय एवं मंगल कामना से प्रेरित हो रक्षा-सूत्र बाँधा। जिसके प्रभाव से इन्द्र युद्ध में विजयी हुए। इसी दिन से रक्षा-बंधन का महत्व माना जाने लगा।
श्रावण मास की पूर्णिमा में फषिगण अपनी-अपनी वैदिक शाखा में अध्ययन आरम्भ करवाते थे। शिप्यगण गुरू, शास्ख और ज्ञान में अपनी श्रद्धा दृढ़ करते थे, शिक्षा के नये सत्र में उतरते थे। गुरू आशीर्वाद के रूप में उन्हें रक्षासूत्र देते थे।
मुस्लिम शासनकाल में यही रक्षा-सूत्र रक्षी अर्थात् राखी बन गया। यह रक्षी वीरन अर्थात् वीरों के लिये थी। स्वतंत्रता की लड़ाई के समय स्तियाँ देश भक्त वीरों को रेशम का धागा बाँध उनके लिए मंगल और विजय की कामना करती थी। मेवाड़ की वीरांगना कर्मवती ने अपनी रक्षा हेतु हुमायूँ को राखी भेजी थी।
रक्षा-बन्धन बहिनों के लिये अमूल्य पर्व है। महीनों पहले से वे इस पर्व की तैयारी शुरू कर देती हैं। बाजार में तरहतरह की राखियाँ मिलनी शुरू हो जाती हैं।
भारतीय संस्कृति का यह विलक्षण त्यौहार है। यह पर्व बहुत ही सुख-शांति से मनाया जाता है। कहीं-कहीं लड़कियाँ अपने मायके में जाती हैं, तो कहीं-कहीं भाई अपनी बहिन के घर जाकर राखी बँधवाता है। प्रेम और मिलन का यह बहुत ही सुंदर पर्व है। गोपाल सिंह ‘नेपाली’ ने लिखा है –
भाई एक लहर बन आया,
बहन नदी की धारा है।
संगम है, गंगा उमड़ी है,
डूबा वूल-किनारा है।
यह उन्माद बहन को अपना
भाई एक सहारा है।
यह अलमस्ती एक बहन ही
भाई का ध्रुव-तारा है।
महँगाई
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- महँगाई के कारण
- महँगाई के कारण आने वाली समस्या
- महँगाई को दूर करने का उपाय
- उपसंहार।
प्रस्तावना :-भारत की आर्थिक समस्याओं के अन्तर्गत महँगाई सबसे प्रमुख समस्या है। वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि इतनी तेजी से हो रही है कि आज जब किसी वस्तु को पुन: खरीदने जाते हैं तो उस वस्तु का मूल्य पहले से अधिक बढ़ा हुआ होता है।
महँगाई के कारण :-वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि, अर्थात् महँगाई के अनेक कारण हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :-
(क) जनसंख्या में तेजी से वृद्धि :-भारत में जनसंख्या के विस्फोट ने वस्तुओं की कीमतों को बढ़ाने की दृष्टि से बहुत अधिक सहयोग दिया है। जितनी तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, उतनी तेजी से वस्तुओं का उत्पादन नहीं हो रहा है, जिससे अधिकांश वस्तुओं के मूल्यों में निरंतर वृद्धि हो रही है।
(ख) कृषि उत्पादन-व्यय में वृद्धि :-भारत कृषि-प्रधान देश है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। गत अनेक वर्षों से खेती में काम आने वाले उपकरणों, उर्वरकों आदि के मूल्यों में वृद्धि हुई है, फलतः उत्पादित वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होती जा रही है। अधिकांश वस्तुओं का मूल्य प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि-पदार्थों के मूल्यों से संबंधित है। इसी कारण जब कृषि-मूल्यों में वृद्धि होती है तो देश में प्राय: सभी वस्तुओं के दाम बढ़ जाते हैं।
(ग) कृत्रिम रूप से वस्तुओं की आपूर्ति में कमी :-वस्तुओं का मूल्य माँग और पूर्ति पर आधारित है। बाजार में वस्तुओं की कमी होते ही उनके मूल्य में वृद्धि हो जाती है। अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से भी व्यापारी वस्तुओं का कृत्रिम अभाव पैदा करके महँगाई बढ़ा देते हैं।
महँगाई के कारण होने वाली समस्याएँ :-महँगाई नागरिकों के लिए अभिशाप स्वरूप है। भारत एक गरीब देश है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या के आय के साधन सीमित हैं। इस कारण साधारण नागरिक और कमजोर वर्ग के व्यक्ति अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते। बेरोजगारी इस कठिनाई को और भी अधिक जटिल बना देती है।
महँगाई को दूर करने के उपाय :-यदि महँगाई इसी दर से बढ़ती रही तो देश के आर्थिक विकास में बहुत बड़ी बाधा उपस्थित हो जाएगी। इससे अनेक प्रकार की सामाजिक बुराइयाँ जन्म लेंगी। अत: महँगाई की इस समस्या को अमूल नष्ट करना अति आवश्यक है।
महँगाई को दूर करने के लिए सरकार को समयबद्ध कार्यक्रम बनाना होगा। किसानों को सस्ते मूल्य पर खाद, बीज और उपकरण उपलब्ध कराने होंगे, ताकि कृषि-उत्पादन का मूल्य कम हो सके। मुद्रा-प्रसार को रोकने के लिए घाटे की व्यवस्था समाप्त करनी होगी तथा घाटे को पूरा करने के लिए नए नोट छापने की प्रणाली बंद करना होगा। जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए निरंतर प्रयास करने होंगे, ताकि वस्तुओं का उचित बँटवारा हो सके।
उपसंहार :- महँगाई के कारण हमारी अर्थव्यवस्था में अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। घाटे की अर्थव्यवस्था ने इस समस्या को और अधिक बढ़ा दिया है। यद्यपि सरकार की ओर से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में किए जाने वाले प्रयासों द्वारा महँगाई की इस प्रवृत्ति को रोकने का प्रयास निरंतर किया जा रहा है, तथापि इस दिशा में अभी तक पर्याप्त सफलता नहीं मिल सकी है। यदि समय रहते महँगाई की इस समस्या पर नियंत्रण नहीं किया गया तो हमारी अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी और हमारी प्रगति के सारे रास्ते बंद हो जाएँगे, भ्रष्टाचार अपनी जड़ें जमा लेगा और नैतिक मूल्य पूर्णतया समाप्त हो जाएँगे।
बेरोजगारी
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- बेरोजगारी-एक प्रमुख समस्या
- बेरोजगारी-एक अभिशाप
- बेरोजगारी के कारण
- बंरोजगारी दूर करने के उपाय
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय से डिप्री लेकर रोजगार की तलाश में भटकते हुए नवयुवक के चेहरे पर निराशा और चिंता के भाव आजकल देखना सामान्य-सी बात हो गयी है। कभी-कभी रोजगार की तलाश में भटकता हुआ युवक अपनी डिग्रियाँ फाड़ने अथवा जलाने के लिए विवश दिखाई देता है। वह रात को देर तक बैठकर अखबारों के विज्ञापनों को पढ़ता है, आवेदन-पत्र लिखता है। साक्षात्कार देता है और नौकरी न मिलने पर पुन: रोजगार की तलाश में भटकता रहता है। युवक अपनी योग्यता के अनुरूप नौकरी खोजते रहते हैं। घर के लोग उसे निकम्मा समझते हैं, समाज के लोग आवारा कहते हैं, जबकि स्वयं बेचारा निराशा की नींद सोता है और आँसुओं के खारेपन को पीकर समाज को अपनी मौन-व्यथा सुनाता है।
बेरोजगारी का अर्थ :- बेरोजगारी का अभिग्राय उस स्थिति से है जब कोई योग्य तथा काम करने के लिए इच्छुक व्यक्ति प्रचलित मजदूरी की दरों पर कार्य करने के लिए तैयार हो और उसे काम न मिलता हो। बालक, वृद्ध, रोगी, अक्षम एवं अपंग व्यक्तियों को बेरोजगार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। जो व्यक्ति काम करने के इच्छुक नहीं हैं और परजीवी हैं, वे भी बेरोजगारों की श्रेणी में नहीं आते। .
एक प्रमुख समस्या :- भारत की आर्थिक समस्याओं के अंतर्गत बेरोजगारी एक प्रमुख समस्या है। वस्तुत: यह एक ऐसी बुराई है, जिसके कारण केवल उत्पादक मानव-शक्ति ही नष्ट नहीं होती वरन देश का भावी आर्थिक विकास ही अवरुद्ध हो जाता है। जो श्रमिक अपने कार्य द्वारा देश के आर्थिक विकास में सक्रिय सहयोग दे सकते थे, वे कार्य के अभाव में बेरोजगार रह जाते हैं। यह स्थिति हमारे विकास में बाधक है।
एक अभिशाप :- बेरोजगारी किसी भी देश या समाज के लिए अभिशाप है। इससे एक ओर निर्धनता, भुखमरी तथा मानसिक अशांति फैलती है तो, दूसरी ओर युवकों में आक्रोश तथा अनुशासनहीनता बढ़ती है। चोरी, डकैती, हिंसा, अपराध-वृत्ति एवं आत्महत्या आदि समस्याओं के मूल में एक बड़ी सीमा तक बेरोजगारी ही विद्यमान है। बेरोजगारी एक ऐसा भयंकर विष है जो संपूर्ण देश के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन को दूषित कर देता है। अत: उसके कारणों को खोजकर उनका निराकरण अत्यधिक आवश्यक है।
बेरोजगारी के कारण :- भारत में बेरोजगारी के अनेक कारण हैं जिनमें प्रमुख निम्न हैं :-
(क) जनसंख्या में वृद्धि :- बेरोजगारी का प्रमुख कारण है जनसंख्या में तीव्र वृद्धि। विगत कुछ दशको में भारत में जनसंख्या का विस्फोट हुआ है।
(ख) दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली :- भारतीय शिक्षा सैद्धांतिक अधिक है, लेकिन व्यावहारिकता में शून्य है। इसमें पुस्तकीय ज्ञान पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है।
(ग) कुटीर उद्योगों की उपेक्षा :- अंग्रेजी सरकार की कुटीर उद्योग विरोधी नीति के कारण देश में कुटीर उद्योगधंधों का पतन हो गया, जिससे अनेक कारीगर बेकार हो गए।
(घ) औद्योगीकरण की मंद प्रक्रिया :- विगत पंचवर्षीय योजनाओं में देश में औद्योगिक विकास के लिए प्रशंसनीय कदम उठाए गए हैं, किंतु समुचित रूप से देश को औद्योगीकरण नहीं किया जा सका है।
(ङ) कृषि का पिछड़ापन :- भारत की लगभग 72 % जनता कृषि पर निर्भर है। कृषि के क्षेत्र में अत्यंत पिछड़ी हुई दशा के कारण कृषि बेरोजगारी व्यापक हो गई है।
बेरोजगारी दूर करने के उपाय :- बेरोजगारी दूर करने में निम्नलिखित उपाय सहायक सिद्ध हो सकते हैं –
(क) जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण :- जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि ही बेरोजगारी का मूल कारण है। अतः इस पर नियंत्रण बहुत आवश्यक है। जनता को परिवार-नियोजन का महतव समझाते हुए उसमें छोटे परिवार के प्रति चेतना जाप्रत करनी चाहिए।
(ख) शिक्षा-प्रणाली में व्यापक परिवर्तन :- शिक्षा को व्यवसाय-प्रधान बनाकर शारीरिक श्रम को उचित महत्व दिया जाना चाहिए।
(ग) कुटीर उद्योगों का विकास :- सरकार द्वारा कुटीर उद्योगों के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
(घ) औद्योगीकरण :- देश में व्यापक स्तर पर औद्योगीकरण किया जाना चाहिए। इसके लिए विशाल उद्योगों की अपेक्षा लघुस्तरीय उद्योगों का अधिक विकास करना चाहिए।
(ङ) सहकारी खेती :- कृषि के क्षेत्र में अधिकाधिक व्यक्तियों को रोजगार देने के लिए सहकारी खेती को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
(च) राष्ट्र निर्माण संबंधी विविध कार्य :-देश में बेरोजगारी को दूर करने के लिए राष्ट्र-निर्माण संबंधी विविध कार्यों का विस्तार किया जाना चाहिए, जैसे-सड़कों का निर्माण, रेल-परिवहन का विकास, पुल-निर्माण, बाँध-निर्माण तथा वृक्षारोपण आदि।
उपसंहार :- भारत सरकार बेरोजगारी के प्रति जागरुक है तथा इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम भी उठा रही है। परिवार-विनियोजन, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, कच्चा माल एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने की सुविधा, कृषि-भूमि की हदबन्दी, नए-नए उद्योगों की स्थापना, अप्रंटिस (प्रशिक्षु) योजना, प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना, आदि अनेकानेक कार्य ऐसे हैं जो बेरोजगारी को दूर करने में एक सीमा तक सहायक सिद्ध हुए हैं।
सांप्रदायिकता : कारण व समाधान
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- साप्रदायिकता का कारण
- संप्रदायिक संघर्ष के कारण
- भारत में संप्रदायिकता
- सांजदायिक घटनाएँ
- सांप्रदायिकता के दुष्परिणाम
- सांप्रदायिकता का समाधान
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- भारत एक अरब से भी अधिक आबादी वाला विशाल देश है। यह स्वयं में एक संसार है। इसमें अनेक भाषाओं, अनेक जातियों और अनेक धर्मो के लोग रहते हैं। उनके खान-पान, वेश-भूषा और रीति-रिवाज भी अलग-अलग हैं। यह एक मात्र ऐसा देश है, जहाँ सबसे अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं। यहाँ हिंदू बहुसंख्यक हैं, किंतु साथ ही मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी आदि सभी यहाँ के समान स्तर के समान अधिकार के नागरिक हैं। सभी धर्मावलंबी यहाँ अपने तौर-तरीके, रीति-रिवाज और परंपराओं का पालन करते हैं। इतनी सब भिन्नताओं के होते हुए भी उनमें एक मूलभूत एकता है और वह यह है कि ये हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई बाद में हैं, पहले भारतीय हैं। कोई भी सम्प्रदाय अथवा धर्म मानव-मानव को लड़ाई की बात नहीं कहता।
उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल ने कहा था –
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।
हिंदी हैं, हमवतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा।।
सांप्रदायिकता का कारण :-जब कोई सम्र्रदाय अथवा धर्म स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और अन्य संप्रदायों को निम्न मानने लगता है, तब उसके मन में अपने सम्प्रदाय के प्रति एक अहंकार की बू आने लगती है। इसी कारण वह दूसरे सम्रदाय के प्रति घृणा, विद्वेष और हिंसा का भाव रखने लगता है।
सांप्रदायिक संघर्ष के कारण :-भारत में साप्रदायिकता की समस्या प्रारंभ से ही धार्मिक की अपेक्षा मुख्यत: राजनीतिक रही है। कुछ स्वार्थी राजनेता अपने अथवा अपने दल के लाभ हेतु भड़काऊ भाषण देकर आग में घी डाल देते हैं। परिणामस्वरूप संप्रदाय के अंधे लोग अन्य धर्मांधों से भिड़ जाते हैं और सारा जनजीवन दूषित कर देते हैं।
भारत में सांप्रदायिकता :- भारत में सांप्रदायिकता का प्रारंभ मुसलमानों के आगमन से हुआ। शासन और शक्ति पाकर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने धर्म को आधार बनाकर हिंदू जन-जीवन को रौंद डाला। हिंदुओं के धार्मिक तीर्थों को तोड़ा, देवी-देवताओं को अपमानित किया, बहू-बेटियों को अपवित्र किया, जान-माल का हरण किया। परिणामस्वरूप, हिंदू जाति के मन में उन पाप-कर्मों के प्रति गहरी घृणा भर गई, जो आज तक भी जीवित है। छोटी-छोटी घटना पर हिंदूमुस्लिम संघर्ष का भड़क उठना उसी घृणा का सूचक है।
सांप्रदायिक घटनाएँ :- सांप्रदायिकता को भड़काने में अंग्रेज शासकों का गहरा षड़यंत्र था। आजादी से पूर्व अनेक खूनी-संघर्ष हुए। आजादी के बाद तो विभाजन का जो संघर्ष हुआ, भीषण नर -संहार हुआ। उसे देखकर समूची मानवता बिलख-बिलखकर रो पड़ी थी।
सांप्रदायिकता के दुष्परिणाम :- सांप्रदायिकता का उन्माद देश में कभी-कभी ऐसी कटुता पैदा कर देती है कि आये दिन हिंदू-मुस्लिम दंगे होते हैं। इसके द्वारा तोड़-फोड़, आगजनी और नर-संहार का ऐसा तांडव होता है कि मानवता का सिर शर्म से झुक जाता है।
सांप्रदायिकता का समाधान :- भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है। हमारे अपने देश में सांप्रदायिकता की समस्या का समाधान कठिन अवश्य है, किंतु असंभव नहीं। सांप्रदायिकता का अन्धापन अज्ञान तथा अविवेक से पैदा होता है। इसलिए शिक्षा का प्रसार सर्वोत्तम उपाय है।
देश में कानून का शासन स्थापित किया जाय, अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति चाहे हिंदू हो या मुसलमांन, सिख हो या ईसाई, समान कानून का पालन करे। कानून का उल्लंघन करने पर दण्ड भी समान रूप में दिया जाए। साम्प्रदायिकता फैलाने वाले को दंडित किया जाए। जनसंचार के माध्यमों द्वारा साप्रदायिकता विरोधी कार्यक्रम प्रसारित किए जाएं।
उपसंहार :- प्रत्येक मानव का यह अधिकार है कि वह अपनी इच्छानुसार धर्म का पालन करे। किसी मानव को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने धार्मिक अन्धविश्वास के कारण दूसरों की उन्नति के मार्ग की बाधा बन जाए। यदि कोई संप्रदायिकता की संकुचित भावना से प्रेरित होकर अपने धर्म का विकास तथा दूसरे धर्म का उपहास करता है तो इससे निश्चय ही राष्ट्र, विश्व तथा संपूर्ण मानवता को क्षति पहुँचेगी। अतः संप्रदायिकता के अभिशाप को समाप्त किए बिना मानवता की सुरक्षा संभव नहीं है।
राष्ट्रीय एकता (मॉडल प्रश्न – 2007)
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- भारत में अनेकता के विविध रूप
- राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता
- राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ
- जातिवाद
- राष्ट्रीय एकता बनाए रखने के उपाय-सर्वधर्म समभाव
- समष्टि-हित की भावना
- एकता का विश्वास, शिक्षा का प्रसार
- राजनैतिक वातावरण की स्वच्छता
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- भारत अनेक धर्मों, जातियों और भाषाओं का देश है। धर्म, जाति एवं भाषाओं की दृष्टि सं विविधता होते हुए भी भारत में प्राचीनकाल से ही एकता की भावना विद्यमान रही है। जब कभी किसी ने उस एकता को खंडित करने का प्रयास किया है, भारत का एक-एक नागरिक सजग हो उठा है। राष्ट्रीय एकता को खंडतत करने वाली शक्तियों के विरुद्ध आंदोलन आरंभ हो जाता है। राष्ट्रीय एकता हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है और जिस व्यक्ति को अपने राष्ट्रीय गौरव का अभिमान नहीं है, वह नर नहीं, नर-पशु है-
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं नर-पशु निरा है और मृतक समान है। -मैथिलीशरण गुप्त
राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय :- राष्ट्रीय एकता का अभिप्राय है-संपूर्ण भारत की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक़ एकता। हमारे कर्मकांड, पूजा-पाठ, खान-पान, रहन-सहन और वेश-भूषा में अंतर हो सकता है। इनमें अनेकता भी हो सकती है, किंतु हमारे राजनीतिक और वैचारिक दृष्टिकोण में एकता है। इस प्रकार अनेकता में एकता ही भारत की प्रमुख विशेषता है।
भारत में अनेकता के विविध रूप :- भारत जैसे विशाल देश में अनेकता का होना स्वाभाविक ही है। धर्म के क्षेत्र में हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि विविध धर्मावलंबी यहाँ निवास करते हैं। इतनी विविधताओं के होते हुए भी भारत अत्यंत प्राचीनकाल से एकता के सूत्र में बँधा रहा है।
राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता :- राष्ट्र की आंतरिक शक्ति तथा सुव्यवस्था और बाह्य सुरक्षा की दृष्टि से राष्ट्रीय एकता की परम आवश्यकता होती है। भारतवासियों में यदि जरासी भी फूट पड़ेगी तो अन्य देश हमारी स्वतंत्रता को हड़पने के लिए तैयार बैठे हैं।
राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ :- राष्ट्रीय एकता की भावना का अर्थ मात्र यह नहीं है कि हम एक राष्ट्र से संबद्ध हैं। राष्ट्रीय एकता के लिए एक-दूसरे के प्रति भाईचारे की भावना आवश्यक है। आजादी के समय हमने सोचा था कि पारस्परिक भेदभाव समाप्त हो जाएगा कितु संप्रदायिकता, क्षेत्रीयता, जातीयता, अज्ञानता और भाषागत अनेकता ने अब तक पूरे देश को आक्रांत कर रखा है।
राष्ट्रीय एकता को छिन्न-भिन्न कर देने वाले कारण निम्न हैं :-
सांप्रदायिकता :- राष्ट्रीय एकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा सांप्रदायिकता की भावना है। सांप्रदायिकता एक ऐसी बुराई है जो मानव-मानव में फूट डालती है, समाज को विभाजित करती है। जहाँ भी द्वेष, घूणा और विरोध है, वहाँ धर्म नहीं है। राष्ट्रवादी शायर इकबाल ने कहा है –
“मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।
हिंदी हैं हम वतन है हिंदोस्तां हमारा।।”
सांप्रदायिक कटुता को दूर करने के लिए हमें परस्पर सभी धर्मों का आदर करना चाहिए।
भाषागत विवाद :-भारत बहुभाषी राष्ट्र है। विभिन्न प्रांतों की अलग-अलग बोलियाँ और भाषाएँ हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी भाषा को श्रेष्ठ और उसके साहित्य को महान मानता है।
मातृभाषा को सीखने के बाद संविधान में स्वीकृत 18 भाषाओं में से किसी भी भाषा को सीख लें तथा राष्ट्रीय एकता के निर्माण में सहयोग प्रदान करें।
प्रांतीयता अथवा प्रादेशिकता की भावना :-प्रांतीयता अथवा प्रादेशिकता की भावना भी राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है। कभी-कभी किसी अंचल विशेष के निवासी अपने लिए पृथक् अस्तित्व की माँग रखते हैं।
जातिवाद :-भारत में जातिवाद सदैव प्रभावी रहा है। कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था टूटी है और जाति-प्रथा कहर रूप से उभरी है। जातिवाद ने भारतीय एकता को बुरी तरह प्रभावित किया है।
राष्ट्रीय एकता बनाए रखने के उपाय :- वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता को सुद्ध़ करने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं :-
सर्वधर्म समभाव :-सभी धर्मो की आदर्श एवं श्रेष्ठ बातें समान दिखाई देती हैं। सभी धर्मो का समान रूप से आदर होनी चाहिए।
समष्टि-हित की भावना :- हम अपनी स्वार्थ भावना को भूलकर समष्टि-हित का भाव विकसित कर लें।
एकता का विश्वास :- भारत की अनेकता में ही एकता का निवास है। सभी नागरिको को प्रेम और सद्भाव द्वारा एक-दूसरे में अपने प्रति विश्वास पैदा करनी चाहिए।
राजनीतिक वातावरण की स्वच्छता :- स्वतंत्रता से पूर्व अंग्रेजों ने तथा स्वतंत्रता के बाद राजनेताओं ने जातीय विद्वेष तथा हिंसा भड़काये हैं। किसी संप्रदाय विशेष का मसीहा बनकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। इन स्वार्थी राजनेताओं का बहिष्कार करना चाहिए।
उपसंहार :- आज विकास के साधन बढ़ रहे हैं, भौगोलिक दूरियाँ कम हो रही हैं, कितु आदमी और आदमी के बीच दूरो बढ़ती ही जा रही है। हम सभी को मिलकर राष्ट्रीय एकता को सुद्ढ़ बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए। ऐसा करने पर भारत एक सबल राष्ट्र बन सकेगा।
इक्कीसवीं सदी का भारत
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- परिवर्तनशील भारत
- इक्कीसवीं सदी का भारत
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- लगभग 25-30 वर्ष पूर्व अंग्रेजी साहित्य के एक लेखक ने ‘इक्कीसवीं सदी की दुनिया’ नामक लेख लिखा था, जिसमें यह बताया गया था कि इक्कीसवीं सदी में मानव-समाज औद्योगिकता की अनेक मंजिलें तय करते हुए उस जगह तक जा पहुँचेगा, जहाँ आदमी शून्य होगा और मशीनें सर्वोत्तम। यह चाँद तक पहुँचेगा तथा आकाश पर जगमगाते सितारों की खोज करेगा किंतु मशीनों के माध्यम से। यह वह समय होगा जब मानव की समस्त वौद्धिक शक्तियाँ मशीन के कलपुर्जों को समर्पित कर दी जाएँगी। विकास के अंतिम चरण में मनुष्य स्वरिम्मित मशीनों का दास होकर रह जाएगा।
इक्कीसवीं सदी का भारत : कल्पना में जब भी इक्कीसवीं सदी का भारत उभरता है तो उसके दो स्पष्ट छोर दिखाई देते हैं। इनमें से एक आधुनिक और वैज्ञानिक विश्व से जुड़ा है तो, दूसरा काठ के बने गाड़ी के दो पहियों के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ने को विवश है।
भारते में पंचवर्षीय योजनाओं पर अरबों रुपया खर्च हो रहा है। इससे भारत का आधुनिकीकरण तो हो रहा है, कितु इसका लाभ देश के अधिकांश वर्ग को नहीं मिल रहा है। इससे यह खतरा भी हो सकता है कि भारत का एक बहुत छोटा वर्ग अति-आधुनिक साधनों और सुविधाओं का भोग कर रहा होगा और एक बहुत बड़ा वर्ग अपनी जीविका के लिए ही संघर्ष कर रहा होगा।
इक्कीसवीं सदी के भारत के रूप में कल्पना कीजिए कि देश का एक ऐसा वर्ग होगा जो केवल अपने हाथ की एक अँगुली से बटन दबाकर रात का खाना अपनी मेज पर मँगवाएगा तथा दूसरा बटन दबाकर जूठे बर्तनु भी साफ कराएगा। इस सदी का व्यक्ति राकेटों पर सवार होकर चंद्रमा की यात्रा करेगा तथा घण्टों या मिनटों में ब्रह्यांड का चक्कर लगाकर वापस अपने घर लौट सकेगा। किसी कार्यालय में बैठे लिपिक को पूरे दिन टाइप करने की आवश्यकता नहीं, अपितु संपूर्ण रिपोर्टिंग को कंप्यूटर की मदद से कुछ ही देर में प्रिंटर द्वारा लेखा-जोखा प्रस्तुत कर देगा। दूसरी ओर भारत में एक ऐसा वर्ग भी होगा जो अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा और मकान के लिए दर-दर भटक रहा होगा।
इक्कीसवीं सदी और भारत :-संपन्न देशों की नकल करके इक्कीसवीं सदी की बात करने वाले भारत की इसके क्षेत्र में तैयारी बहुत कम है। हमारे देश में 21 वीं सदी की बात के लिए हड़बड़ाहट अधिक है, तैयारी कम है। अत्यधिक प्रयासों के बाद भी हम अपनी कृषि को पूर्णत: वैज्ञानिक आधार नहीं दे पाए हैं। अभी भी बहुत कम किसान ऐसे हैं जो कृषि के वैज्ञानिक तरीकों और साधनों का प्रयोग कर पाते हैं, कितु दस वर्ष बाद हम अवश्य इतने समर्थ हो जायेंगे कि अपने देश की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए खाद्यान्नों का निर्यात भी कर सकें।
हमारे देश में प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है, कमी है तो सिर्फ उनके समुचित दोहन की। इस शताब्दी में हम इन संसाधनों का भरपूर और समुचित उपयोग कर सकने की स्थिति में होंगे।
उपसंकार :- हमें विश्वास है कि सन् 2010 ई० तक हम विकास की उस निर्णायक स्थिति में अवश्य पहुँच जायेंगे जहाँ भारत का कोई बालक भूखा नहीं सो सकेगा, कोई ऐसा तन नहीं होगा जिस पर वस्त्र नही होगा तथा कोई ऐसा परिवार न होगा जिसके सिर पर छत न हो, अर्थात् प्रत्येक नागरिक को रोटी, कपड़ा और मकान सुलभ होगा।
दूरदर्शन का प्रभाव
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- दूरदर्शन का आविष्कार, उपयोग, प्रभाव
- दूरदर्शन से लाभ तथा हानियाँ
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- दूरदर्शन अर्थात् टेलीविजन आधुनिक-युग में मनोरंजन के साथ-साथ सूचनाओं की प्राप्ति का भी महत्वपूर्ण साधन है। केवल पच्चीस-तीस वर्ष पहले तक भारतीय समाज में दूरदर्शन का उपयोग महानगरों के कुछ संपन्न परिवार ही कर पाते थे तथा इस पर सीमित कार्यक्रम ही प्रसारित होते थे, कितु आज स्थिति यह है कि दूरदर्शन देश के प्रत्येक शहर तथा गाँव तक पहुँच चुका है। देश की अधिकांश आबादी तक यह कोठियों से लेकर झुग्गी-झोंपड़ी तक अपने पैर पसार चुका है। दूरदर्शन के उपग्रह द्वारा प्रसारण संबंधी सुविधा के कारण आजकल सैकड़ों चैनलों एवम् कार्यक्रमों की भरमार है।
दूरदर्शन का आविष्कार :- 25 जनवरी, सन् 1926 को इंग्लैण्ड में एक इंजीनियर जान बेयर्ड ने रायल इन्स्टीट्यूट के सदस्यों के सामने टेलीविजन का सर्वप्रथम प्रदर्शन किया था। उसने कठपुतली के चेहेर का चित्र रेडियो की तरंगों की सहायता से वैज्ञानिकों के सामने प्रदर्शित किया था। विज्ञान के लिए यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी।
दूरदर्शन का उपयोग :-आधुनिक समाज में दूरदर्शन का उपयोग मनोरंजन, शिक्षा, साहित्य, संगीत, सूचना आदि विभिन्न क्षेत्रों के लिए किया जा रहा है। आज यह मनोरंजन का सबसे सस्ता और सुलभ साधन है। अब लोगों को फिल्म देखने के लिए सिनेमा हॉल तक नहीं जाना पड़ता है। क्रिकेट-मैच को देखने के लिए मैदान पर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। पूरे विश्व के समाचार तथा विभिन्न संस्कृतियों के आधार-व्यवहार आदि का दृश्यावलोकन भी घर बैठे हो जाता है। इसके माध्यम से विभिन्न कक्षाओं के लिए शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण भी किया जाता है, जिससे छात्रों को अध्ययन में सुविधा मिलती है। यू. जी. सी का कंट्रीवाइड क्लास रूम टीचिग ऐसा ही कार्यक्रम है तथा दूरदर्शन का ज्ञान-दर्शन चैनल शिक्षा प्रदान करने वाला चैनल है जो बहुत उपयोगी है।
दूरदर्शन का प्रभाव :- दूरदर्शन आज प्रत्येक परिवार का एक आवश्यक अंग बन गया है, जिसका परिवार तथा समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति, परिवार तथा समाज पर दूरदर्शन का प्रभाव लाभकारी है या हानिकारक यह प्रश्न विचारणीय है। अत: लाभ-हानि के दृष्टिकोण से दूरदर्शन के प्रभाव का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है :-
दूरदर्शन से लाभ – दूरदर्शन समाज के लिए निम्न क्षेत्रों में उपयोगी है-
दूरदर्शन आज के समय में सबसे सस्ता एवं सुलभ मनोरंजन प्रदान करता है। इसमें केवल बिजली का थोड़ा-सा खर्च लगता है। लोग घर पर बैठकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार कार्यक्रम देखते हैं।
दूरदर्शन के पर्दे पर विश्व मानव समुदाय की विभिन्न संस्कृतियों से संबंधित कार्यक्रम आते रहते हैं, जिससे हम उनकी संस्कृति से परिचित हो जाते हैं। जिन स्थानों पर जाना सम्भव नहीं होता उनकी भी जानकारी मिल जाती है।
दूरदर्शन के माध्यम से हम महत्वपूर्ण व्यावसायिक सूचनाएँ एवं शिक्षा संबंधी अनेक तथ्यों की जानकारियाँ अपने घर में ही प्राप्त कर लेते हैं। इसका लाभ हमें शैक्षणिक एवं व्यावसायिक स्तर पर प्राप्त होता है।
दूरदर्शन के कारण बच्चों की बुद्धि का विकास भी शीघ्रता से संभव हो गया है। आज उन्हें बाघ और सिंह का अंतर बताने के लिए किसी चिड़ियाघर ले जाने की आवश्यकता नहीं है। हवाई जहाज, हेलीकॉप्टर, रॉकेट आदि को टेलीविजन के पर्दे पर देखकर ही पहचान करना सीख जाते हैं।
दूरदर्शन से हानियाँ :- जहाँ दूरदर्शन से अनेक लाभ हैं, वहीं दूसरी ओर समाज को इससे अनेक हानियाँ भी हैं, उनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-
समय की हानि :- मनुष्य के लिए मनोरंजन आवश्यक है, मनुष्य असमय एवं अनावश्यक मनोरंजन में समय नष्ट करता है, इससे उसके कार्य करने की क्षमता में कमी आ जाती है।
स्वास्थ्य की हानि :- दूरदर्शन से निकलने वाली प्रकाश की किरणें मनुष्य के नेत्र एवं त्वचा पर अत्यंत हानिकारक प्रभाव डालती हैं, क्योंकि इस प्रकाश की किरणें साधारण प्रकाश की किरणों से भिन्न होती हैं।
चरित्र का हनन :- दूरदर्शन के कार्यक्रमों से जहाँ एक ओर ज्ञान का विकास होता है, वहीं इसके प्रभाव से समाज का चारित्रिक पतन भी हो रहा है। मनोरंजन के कार्यक्रमों में व्यावसायिकता का बोलबाला है, उनमें नैतिक आदर्शों को छोड़ दिया जाता है। अश्लीन एवं फूहड़ दृश्य, द्विअर्थी गीत-संवाद, हिससात्मक एवं वीभत्स घटनाओं आदि का प्रसारण मानव-मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालता है। इससे समाज में अपराध तथा अनैतिक कार्य की प्रवृत्ति बढ़ रही है।
बच्चों के भविष्य पर कुप्रभाव :- दूरदर्शन का सबसे बुरा प्रभाव बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर पड़ता है। बच्चे अल्पायु से ही बंदूक का खेल खेलने लगते हैं। कार्दून फिल्मों को देखने में अपना अमूल्य समय नष्ट करते हैं, जिसका सीधा प्रभाव उनकी पढ़ाई पर, उनके भविष्य पर पड़ता है।
उपसंहार :- दूरदर्शन मानव जीवन का एक अति-आवश्यक अंग है, किंतु इसका संयमित और नियंत्रित उपयोग ही करना चाहिए।
दहेज-प्रथा : एक अभिशाप
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- दहेज-प्रथा का प्रारंभ
- दहेज का अर्थ
- दहेज प्रथा के विस्तार के कारण
- दहेज-प्रथा से हानियाँ
- समस्या का समाधान
- उपसंहार।
‘कहती है नन्हीं-सी बाला, मैं कोई अभिशाप नहीं।’
लज्जित होना पड़े पिता को, मैं कोई ऐसा पाप नहीं।”
“’दहेज बुरा रिवाज है, बेहद बुरा। बेहद बुरा। बस चले तो दहेज लेने वालों और देने वालों को ही गोली मार देनी चाहिए, फिर चाहे फाँसी ही क्यों न हो जाए। पूछो, आप लड़के का विवाह करते हैं कि उसे बेचते हैं।।’
– मुंशी प्रेमचंद
दहेज-प्रथा वर्तमान समाज का कलंक बन गई है। भारतीय समाज का यह कलंक निरंतर विकृत रूप धारण करता जा रहा है। समय रहते इस रोग का निदान और उपचार आवश्यक है, अन्यथा समाज की नैतिक मान्यताएँ नष्ट हो जाएँगी और मानव-मूल्य समाप्त हो जायेंगे।
दहेंज-प्रथा का प्रारंभ :- महर्षि मनु ने ‘मनुस्मृति’ में अनेक विवाहों का उल्लेख किया है। ब्रह्म-विवाह के अंतर्गत कन्या को वस्त्र और आभूषण देने की बात कही गई है। कन्या के माता-पिता अपनी सामर्थ्य और इच्छानुसार वस्त्र और अलंकार दिया करते थे, किंतु उसमें बड़ी मात्रा में दिए जाने वाले दहेज का उल्लेख नहीं है।
दहेज का अर्थ :- दहेज का तात्पर्य उन संपत्ति और वस्तुओं से है, जिन्हें विवाह के समय वधू-पक्ष की ओर से वरपक्ष को दिया जाता है। मूल रूप से इसमें स्वेच्छा की भावना निहित है, कितु आज दहेज का अर्थ बिल्कुल अलग हो गया है, अब तो इसका अर्थ उस संपत्ति अथवा मूल्यवान वस्तुओं से है, जिन्हें विवाह की एक शर्त के रूप में कन्या-पक्ष द्वारा वर पक्ष के प्रति विवाह से पूर्व अथवा बाद में पूरा करना पड़ता है।
दहेज-प्रथा के विस्तार के कारण :- दहेज प्रथा के विस्तार के प्रमुख कारण निम्न हैं –
धन के प्रति अधिक आकर्षण :- वर्तम नन युग भौतिकवादी युग है। समाज में धन का महत्व बढ़ता जा रहा है। धन सामाजिक प्रतिष्ठा और पारिवारिक प्रतिष्ठा का आधार बन गया है। वर-पक्ष ऐसे परिवार में ही संबंध स्थापित करना चाहता है, जो धनी हो तथा अधिक से अधिक धन दहेज के रूप में दे सके।
जीवन-साथी चुनने का सीमित क्षेत्र :- भारतीय समाज अनेक जातियों तथा उपजातियों में विभाजित है। सामान्यत : प्रत्येक माता-पिता अपनी पुत्री का विवाह अपनी ही जाति या उससे उच्च जाति के लड़के के साथ करना चाहते हैं। इसी कारण वर-पक्ष की ओर से दहेज की माँग होती है।
शिक्षा और व्यक्तिगत प्रतिष्ठा :- वर्तमान युग में शिक्षा बहुत महँगी है। इसके लिए पिता को कभी-कभी अपने पुत्र की शिक्षा पर अपनी सामर्थ्य से अधिक धन खर्च करना पड़ता है। इस धन की पूर्ति वह पुत्र के विवाह के अवसर पर दहेज प्राप्त करके करना चाहता है।
दहेज-प्रथा से हानियाँ :- दहेज-प्रथा ने हमारे समाज को पथभ्रष्ट और स्वार्थी बना दिया है। समाज में फैला यह रोग इस तरह जड़ जमा चुका है कि कन्या के माता-पिता के रूप में जो लोग दहेज की बुराई करते हैं वे ही अपने पुत्र के विवाह के अवसर पर मनचाहा दहेज माँगते हैं। इससे समाज में अनेक विकृतियाँ उत्पन्न हो गई हैं तथा अनेक नवीन समस्याएँ विकराल रूप धारण करती जा रही हैं, जैसे –
(क) बेमेल विवाह :- दहेज-प्रथा के कारण निर्धन माता-पिता अपनी पुत्री के लिए उपयुक्त वर प्राप्त नहीं कर पाते और मजबूरी में उन्हें अपनी पुत्री का विवाह अयोग्य लड़के से करना पड़ता है। दहेज देने में असमर्थ माता-पिता को अपनी कम उम्र की लड़कियों का विवाह अधिक अवस्था के पुरुषों से करना पड़ता है।
(ख) ऋणग्रस्तता :- दहेज-प्रथा के कारण वर-पक्ष की माँग को पूरा करने के लिए कई बार कन्या के माता-पिता को ऋण भी लेना पड़ता है। फलतः वे आमृत्यु ऋण की चक्की में पिसते रहते है।
(ग) कन्याओं का दु:खद वैवाहिक जीवन :-वर-पक्ष की माँग के अनुसार दहेज न देने अथवा उसमें किसी प्रकार की कमी रह जाने के कारण नव वधू को सुसराल में अपमानित होना पड़ता है।
(घ) अविवाहिताओं की संख्या में वृद्धि :- आर्थिक दृष्टि से दुर्बल परिवारों की जागरुक युवतियाँ गुणहीन तथा निम्नस्तरीय युवकों से विवाह करने की अपेक्षा अविवाहित रहना उचित समझती हैं, जिससे अनैतिक संबंधों और यौनकुंठाओं जैसी अनेक सामाजिक विकृतियों को बढ़ावा मिलता है।
समस्या का समाधान :- दहेज-प्रथा समाज के लिए निश्चित ही एक अभिशाप है। कानून और समाज-सुधारकों ने दहेज से मुक्ति के अनेक उपाय सुझाए हैं। प्रमुख उपाय निम्न हैं-
(क) कानून द्वारा प्रतिबंध :- अनेक लोगों का विचार था कि दहेज के लेन-देन पर कानून द्वारा प्रतिबन्ध लगा दिया जाय। इसीलिए 9 मई, 1961 ई० को भारतीय संसद ने ‘दहेज निरोधक अधिनियम’ स्वीकार कर लिया गया।
(ख) अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन :- अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देने से वर का चुनाव करने के क्षेत्र में विस्तार होगा तथा युवतियों के लिए योग्य वर खोजने में सुविधा होगी। इससे दहेज की माँग में कमी आएगी।
(ग) युवकों को स्वावलंबी बनाया जाए :- स्वावलम्बी होने पर युवक अपनी इच्छा से लड़की का चयन कर सकेंगे 1 स्वावलंबी युवकों पर माता-पिता का दबाव कम होने पर दहेज के लेन-देन में स्वत: कमी आएगी।
(घ) लड़कियों की शिक्षा :- जब युवतियाँ भी शिक्षित होकर स्वावलंबी बनेंगी तो वे स्वयं नौकरी करके अपना जीवन-निर्वाह करने में समर्थ हो सकेंगी। विवाह एक विवशता के रूप में भी न होगा, जिसका वर-पक्ष प्रायः अनुचित लाभ उठाता है।
(ङ) जीवन साथी चुनने का अधिकार :- प्रबुद्ध युवक-युवतियों को अपना जीवन-साथी चुनने के लिए अधिक छूट मिलनी चाहिए।
उपसंहार :- दहेज-प्रथा एक सामाजिक बुराई है, एक कलंक है, हमारे समाज का कोढ़ है। इसके विरुद्ध स्वस्थ जनमत का निर्माण होना चाहिए। जब तक समाज में चेतना नहीं आएगी, दहेज के दैत्य से मुक्ति पाना असंभव है। राजनेताओं, समाज-सुधारकों तथा शिक्षित युवक-युवतियों आदि सभी के सहयोग से दहेज-प्रथा का अंत हो सकता है।
भारतीय समाज में नारी का स्थान
अथवा, भारतीय नारी : दशा और दिशा
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- भारतीय नारी का अतीत
- मध्यकाल में भारतीय नारी
- आधुनिक युग में नारी
- पाश्चात्य प्रभाव
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- मानव-जीवन का रथ सिर्फ एक पहिए से नहीं चल सकता। उसकी समुचित गति के लिए दोनों पहिए होने चाहिए। गृहस्थी की गाड़ी नर और नारी के सहयोग व सद्भावना से प्रगति के पथ पर अविराम गति से बढ़ सकती है। स्री केवल पत्नी ही नहीं, अपितु योग्य मित्र, परामर्शदात्री, संिव, सहायिका, माता के समान उस पर सर्वस्व न्यौछावर करने वाली तथा सेविका की तरह सच्ची सेवा करने वाली है। गृहस्थी का कोई भी कार्य उसकी सम्मति के बिना नहीं हो सकता। किंतु भारतीय समाज में नारी की स्थिति सदैव एक समान न रहकर बड़े उतार-चढ़ावों से गुजरी है।
भारतीय नारी का अतीत :-प्राचीनकाल में स्त्रियों को आदर और सम्मान से देखा जाता था। लोगों की मान्यता थी कि जिस घर में स्त्रियों का सम्मान होता है; वह घर सुखी तथा स्वर्ग बन जाता है। कहा गया है _ ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः।’ भारत का इतिहास पृष्ठ नारी की गौरव-गरिमा से मंडित है।
वेद तथा उपनिषद् काल में नारी को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी। उन्हें समाज में सामाजिक अधिकार प्राप्त थे। याज्ञवल्क्य और गार्गी का शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है। मैत्रेयी विख्यात बह्मवादिनी थीं। मंडन मिश्र की धर्मपत्नी भारत में अपने काल की विख्यात विदुषी महिला थीं। स्त्रियाँ अपने पति के साथ युद्ध-क्षेत्र में भी जाती थीं।
मध्यकाल में भारतीय नारी :-मध्यकाल में स्त्रियों की स्थिति बदतर हो गयी थी। स्त्रियों को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा। मुसलमानों के आक्रमण से हिंदू समाज का ढाँचा चरमरा गया। मुसलमानों के लिए नारी भोग-विलास तथा वासनापूर्ति मात्र की वस्तु थी। इसी कारण नारी का कार्य-क्षेत्र घर की चहारदीारी के भीतर सिमट कर रह गया, जिससे समाज में अशिक्षा, बाल-विवाह प्रथा, सती-प्रथा, परदा-प्रथा का प्रचलन बढ़ा।
आधुनिक युग में नारी :- धीरे-धीरे विचारकों तथा नेताओं ने नारी की स्थिति पर ध्यान दिया। राजा राममोहन राय ने ‘सती-प्रथा’ का अंत कराया। महर्षि दयानंद ने महिलाओं को समान अधिकार दिए जाने की आवाज उठाई। गाँधीजी ने जीवन भर महिला उत्थान का कार्य किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नारी वर्ग में चेतना का विशेष विकास हुआ। स्रियाँ समाज में पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर साथ चलने को तैयार हुई। भारतीय संविधान में भी यह घोषणा की गई कि “राज्य, धर्म, जाति, संप्रदाय, लिंग आदि के आधार पर किसी भी नागरिक में विभेद नहीं होगा।”
आज भारतीय नारियाँ जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। चिकित्सा, मनोविज्ञान, कानून, फिल्म-निर्माण, वायुयान की पायलट, ट्रक-ड्राइवर, खेल का मैदान आदि क्षेत्रों में महिलाएँ पुरुषों से पीछे नहीं हैं। ये ललित कलाओं, जैसे–संगीत, नृत्य, चित्रकला, छायांकन (फोटोग्राफी) में विशेष दक्षता प्राप्त कर रही हैं। वाणिज्य तथा विज्ञान के क्षेत्र में भी स्त्रियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। स्त्रियों की सामाजिक चेतना जाग उठी है। वे समाज की दुर्दशा के प्रति सजग व सावधान हैं। वे समाज–सुधार के कार्यक्कम में व्यस्त हैं। भारत की वर्तमान समस्याओं-भुखमरी, महँगाई, बकारी, देहेज-प्रथा आदि को सुलझाने के लिए भी वे प्रयत्नशील हैं।
श्रीमती इंदिरा गाँधी, श्रीमती सरोजिनी नायड्डू, श्रीमती सुचेता कृपलानी, श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित, लता मंगेशकर, श्रीमती किरण बेदी, मेधा पाटकर, महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम आदि ऐसी भारतीय नारियाँ हैं जिन पर भारतवर्ष को सदैव गर्व रहेगा।
पाश्चात्य-प्रभाव :- आजकल अधिकांश स्त्रियाँ पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता से अधिक प्रभावित हैं। वे फैशन व आडंबर को जीवन का सार समझकर भोगवाद की ओर अग्रसर हो रही हैं। वे सादगी से विमुख होकर पैसा कमाने की होड़ में अनैतिकता की ओर उन्मुख हो रही हैं। इस प्रकार वे स्वय गुड़िया बनकर पुरुषों के हाथों में खेल रही हैं।
उपसंहार :- नारी को अपने गौरवपूर्ण अतीत को ध्यान में रखकर त्याग, समर्पण, स्नेह, सरलता आदि गुणों को नहीं भूलना है। यूरोपीय संस्कृति के व्यामोह में न फँसकर भारतीयता को बनाये रखना चाहिए। इससे समाज का और उनका दोनों का हित हो सकेगा। नारी के इस चिरकल्याणमय रूप को लक्ष्य कर कवि जयशंकर प्रसाद ने नारी का अत्यंत सजीव चित्रण किया है –
“नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग-पग-तल में,
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।”
नारी-शिक्षा का महत्व
रूपरेखा :
- भूमिका
- नारी शिक्षा की आवश्यकता
- उपसंहार।
नारी स्नेह और सौजन्य की देवी है। वह पशु के समान आचरण करने वाले व्यक्ति को भी मनुष्य बनाती है। मधुर वाणी से वह जीवन को मधुमय बनाती है। मानवीय सदगुणों के पूर्ण विकास, परिवार तथा समाज की शांति, बच्चों के चरित्रनिर्माण और देश के निर्माण में खी की अहम भूमिका है। अत: नारी शिक्षा का महत्व स्वयंसदद्ध है। एक पुरुष की शिक्षा का अर्थ केवल एक व्यक्ति की शिक्षा है, जबकि एक नारी की शिक्षा का अर्थ सम्पूर्ण परिवार की शिक्षा है।
भारतेंदु जी ने ख्री शिक्षा के विषय में कहा था, ‘स्त्री अगर शिक्षित होगी तो वह अपने बच्चों को शिक्षित कर सकती है। अनपढ़ माता की संतान अपना विकास उस तरह नहीं कर सकती, जिस तरह एक शिक्षित माता की संतान कर सकती है। देश के विकास में भी स्री शिक्षा सहायक होगी, स्री शिक्षित होगी तो देश दोनों हाथों से काम करेगा। देश की उन्नति में कोई संदेह नहीं रहेगा।”
नारी-जीवन मुख्यत: पत्नी, माता, बहन और बेटी में बँटा होता है। शिक्षित पत्नी परिवार को सुंदर ढंग से जीने की कला सिखलाती है। नारी स्नेह, सुख, शांति और श्री की वृद्धि करती है। परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों में समन्वय, सामंजस्य स्थापित करने में सफल होती है।
शिक्षित नारी अपने अस्तित्व और शक्ति को पहचानने में समर्थ होती है, तब वह शोषण का शिकार कम होती है। अशिक्षित नारी अपने अधिकार तथा शक्ति से अनभिज्ञ होती है। अशिक्षित नारी स्वभावतः दुर्बल होती है। वह प्राय: जादू-टोना, भूत-प्रेत में विश्वास करती है। प्रगतिशील कदम उठाने में असमर्थ होती है। वह कुरीतियों और कुसंस्कारों की लक्ष्मण रेखा पार करते हुए हिचकती है। इसलिये निरक्षर नारी के जीवन में अंधकार होता है। पुत्री के रूप में वह माता-पिता के लिये बोझ होती है। पत्नी के रूप में उसका पृथक् अस्तित्व नहीं होता। पुत्र के बड़े होने पर वह उसके आश्रय में परमुखापेक्षी जीवन में जीती है।
शिक्षित नारी में आत्मविश्वास जागृत होता है। वह रुढ़ परम्पराओं और कुसंस्कारों को त्याग कर, अपने पैरों पर खड़ी होती है और अपने सम्मान तथा अस्तित्व की रक्षा करती है।
शिक्षित नारी में सभी परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति होती है। स्रियाँ रोजगार कर सकती है और अपने घर की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बना सकती है। अत: नारी के लिये पूर्णत: सुशिक्षित होना अत्यंत आवश्यक है। राष्ट्रनिर्माण के लिए नारी-शिक्षा एक अनिवार्य शर्त है।
राष्ट्र-निर्माण में नारी का योगदान
रूपरेखा :
- भूमिका
- समाज निर्माण तथा
- राष्ट्र निर्माण में सहयोग
- उपसंहार।
राष्ट्र-निर्माण में सहयोग देना हर देशवासी का कर्त्तव्य है। राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया आदिकाल से लेकर आज तक नारियों ने पुरुषों का साथ देकर, उसकी जीवन यात्रा को सफल बनाया है और उसके अभिशापों को स्वयं झेलकर अपने नैसर्गिक वरदानों से राष्ट्रीय जीवन में अक्षय शक्ति का संचार किया है।
अपने-अपन राष्ट्रों के निर्माण में विश्व प्रसिद्ध महिला प्रधानमंत्रियों का योगदान इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। इस सन्दर्भ में भारत की भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, श्रीलंका की सिरीमावो बंडारनायके, वर्तमान राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंगे, इजरायल की भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती गोल्डामायर और ग्रेट बिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री त्रोमती मागरिट थैचर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनोय है।
नारी ने हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर राष्ट्र के उत्थान में सक्रिय सहयोग दिया है। शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षिका बन उसने भारत को शिक्षित किया, साथ ही राजनीति के क्षेत्र में प्रधानमंत्री, विधायक, सांसद और मंत्री बन कर ख्याति पाई। न्याय के क्षेत्र में भी उसका योगदान कम नहीं है। हर न्यायालय में महिला वकील पाई जाती है। महिला न्यायाधीशों ने तो अपने जोखिम भरे, साहसपूर्ण और अद्भुत निर्णयों द्वारा समग्र राष्ट्र को चमत्कृत किया है।
कार्यरत् महिलाओं में प्रथम महिला वायु-सुरक्षा अधिकारी प्रेमा माथुर, पहली महिला छाताधारी सैनिक गीता घोष, पहली वायुयान पायलेट रूबी बनर्जी, अत्याधुनिक वायुयान की कमाण्डर सौदामिनी देशमुख, सुर्खा जादव और पहली ट्रेन ड्राइवर मुमताज काटावाला का नाम सररणीय है।
पहली भारतीय महिला आई०पी०एस० अधिकारी किरण बेदी ने अपने कार्यकाल में जेल में सुधार लायी, उसके लिये उन्हें मैंगससे पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
भारत की प्रथम महिला डॉं。 प्रेमा मुखर्जी और हृदयरोग विशेषज्ञा डॉ. पद्मावती तथा दीन-दुखियों की सेविका मदर टेरेसा का नाम कभी भुलाया नहीं जा सकता।
आदिकाल से ही हम देखते हैं कि ख्रियों ने देश के निर्माण में निरंतर योगदान किया है और भविष्य में भी करती रहेंगी। घरसमाज सभी जगह उन्होंने अपनी छवि को आलोकित किया है। शिक्षा का क्षेत्र हो अथवा वाणिज्य का, खेल का हो या संगीत का, ऐसा काई भी क्षेत्र नहीं है जहाँ खियों ने अपनी विशिष्टता का परिचय न दिया हो। अत: हम कह सकते हैं कि राष्ट्र-निर्माण में नारी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है और रहेगा। महिलाओं का यह योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता।
धर्म और साम्र्रदायिकता
रूपरेखा :
- भूमिका
- भारत में विविध धर्म
- विविध सम्पदाय
- उपसंहार।
जीवन को सुचारु रूप से संचालित करने वाले श्रेष्ठ सिद्धान्तों का समूह धर्म कहलाता है। समस्त मानवीय व्यवहारों का श्रेयस्कर पक्ष ही धर्म है। धर्म व्यक्ति का सहज स्वभाव है, कर्त्तव्य है। अतः धर्म का क्षेत्र व्यापक है।
अपने धर्म के प्रति अदूट आस्था, विश्वास तथा श्रद्धा समर्पित करना साम्पदायिकता नहीं, बल्कि दूसरे धर्मों के प्रति असहिष्णुता का भाव ही साम्प्रदायिकता है। सत्य पर सभी धर्मों का समान अधिकार है, लेकिन जब एक धर्म सत्य पर केवल अपना एकाधिकार स्थापित करना चाहता है तो वह सम्पदायिकता का रूप ले लेता है।
भारत में साम्पदायिकता की नई परिभाषा दी जा रही है। धर्म ने सम्पदाय का रूप ले लिया है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का अर्थ है. सर्वधर्म-समभाव का त्याग एवं अन्य धर्मो के प्रति अनुदारता एवं असहिष्णुता का प्रदर्शन।
हिन्दुओं का एक सिख सम्पदाय भारत में शांत भाव से जीवन-यापन कर रहा था। मगर राजनीतिक कारणों ने सिखों को उग्र बना दिया। पंजाब में निर्दोष हिन्दुओं की हत्या और आतंक के कारण वहाँ मरघट-सी शांति छा जाती थी। पराजित उग्रवादियों ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक की हत्या कर दी।
विश्व में मुस्लिम राष्ट्र धनाढ्य हैं, क्योंक तेल स्रोत पर यवनो का अधिकार है। वे अरबों रुपया हर वर्ष धर्म के नाम पर खर्च करते हैं।
दूसरा विश्व धर्म ईसाई है। ये सामूहिक धर्म परिवर्तन में विश्वास करते हैं। हिन्दू जब जाग्रत हुए तो इस धर्म-परिवर्तन के विरोध में विद्रोह उठ खड़ा हुआ। जाति-उपजाति की साम्प्रदायिकता ने शूद्र और पिछड़ी जातियों में संघर्ष और सवर्णों में आपस के संघर्ष को जन्म दिया। पिछड़ी जतियों को हर क्षेत्र में प्राथमिकता देकर वर्ग-संघर्ष की भावना को अंकुरित किया गया, जिसने साम्पदायिकता का रूप ले लिया। सवर्णों के परस्पर संघर्ष ने मिथ्या स्वाभिमान तथा झूठे अहम्को जन्म दिया।
साम्पदायिकता की भावना इस युग में खूब फल-फूल रही है। कोई भी धर्म संकीर्णता और अनुदारता को वकालत नहीं करता, किन्तु कोई भी धर्मावलम्बी दूसरों के प्रति घृणा, अविश्वास और असहिष्युता की भावना सं मुक्त नहीं हैं। साम्प्रदागिन्क टंगों का कारण यही है। कहते सभी हैं- ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना” मगर वैर-भावना से कोई मुक्त नहीं है।
नैतिकता का पतन रदायिकता की वृद्धि में सहायक हुआ है। साम्पदायिकता से बचना है तो मानवता के महामंत्र का प्रचार होना चाहिए।
एक कवि कहता है –
“‘मैं न बँधा हूँ देश-काल की जंग लगी जंजीर में। मैं न खड़ा हूँ जाति-पाँति की ऊँची-नीची भीड़ में। मेरा तो आराध्य आदमी, देवालय हर द्वार है। कोई नहीं पराया मेरा घर सारा संसार है।”
बढ़ती जनसंख्या – एक अभिशाप
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- भारत की जनसंख्या
- जनसंख्या वृद्धि के कारण
- जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणाम
- समाधान के उपाय
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- भारत की अनेक समस्याओं में जनसंख्या की समस्या सबसे अधिक विकराल है। आजादी के बाद केवल इसी समस्या के कारण भारतवर्ष में गरीबी, बेरोजगारी तथा अन्य समस्याएँ आज तक सुलझ नहीं पाई हैं। भारत की जनसंख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यहाँ प्रत्येक मिनट सैंतालीस बच्चे पैदा होते हैं।
भारत की जनसंख्या :- आज विश्व का हर छठा नागरिक भारतीय है। चीन के बाद भारत की आबादी विश्व में सर्वाधिक है। एक अरब भारतीयों के धरती, खनिज और अन्य साधन वही हैं, जो आज से पाँच दशक पूर्व थे। लोगों के पास भूमि कम, आय कम और समस्याएँ अधिक बढ़ती जा रही हैं। बेरोजगारों, अशिक्षितों की संख्या बढ़ती जा रही है। बेरोजगारों की संख्या 6 करोड़ से अधिक हो गई है।
जनसंख्या-वृद्धि के कारण :- जनसंख्या वृद्धि के अनेक कारण हैं। भारत की अधिकांश जनता ग्रामों में निवास करती है। यहाँ लड़कियों को कम ही पढ़ाया जाता है। बेचारी कन्याएँ 14-15 वर्ष की आयु में ही मातृत्व के बोझ से दब जाती हैं। गरीब लोग बच्चों को आय का सोत मानकर अधिक बच्चे पैदा करते हैं। इसीलिए देश की आबादी बढ़ती जाती है।
जनसंख्या-वृद्धि के दुष्परिणाम :- जनसंख्या के बढ़ने से अनेक बुराइयों का जन्म होता है। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी ग्रामीण जनता में अंधविश्वासो का बोलबाला है। भारत में अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, रोग, भषष्टाचार, अनाचार आदि की समस्याएँ दिनों-दिन बढ़ती जा रही हैं। देश की जनसंख्या का अधिकांश भाग गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करता है। चारों ओर आलस्य, दरिद्रता, कलह, रोग, अनाचार, साप्रदायिकता, भ्षष्टाचार, महँगाई, चोरी, डकैतियाँ, लूटपाट तथा अन्य असामाजिक एवम् आर्थिक बुराइयों का बोलबाला है।
जनसंख्या-वृद्धि के कारण भारत की सारी योजनाएँ विफल हो जाती हैं। देश का उचित विकास नहीं हो पा रहा है। खुशहाली की जगह लाचारी बढ़ रही है। रोजगारी से पेरशान लोग हिंसा, उपद्रव और चोरी-डकैती करने लगते हैं। देश में अपराध बढ़ने लगते हैं तथा नैतिकता का पतन होता है, जिससे देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो जाती है तथा राष्ट्रीय चरित्र की क्षति होती है। अधिक संतान उत्पन्न करने से माँ तथा बच्चे का स्वास्थ्य बिगड़ता है और देश की कार्य-क्षमता एवं राष्ट्रीय आय में कमी आती है।
समाधान के उपाय :- जनसंख्या-वृद्धि रोकना सबसे आवश्यक कदम है। प्रत्येक नागरिक अपने परिवार को नियोजित करें। केवल एक या दो बच्चे ही पैदा करे। लड़का-लड़की को समान दृष्टि से देखा जाए तो भी जनसंख्या पर नियत्रण पाया जा सकता है। जन-संचार माध्यमों तथा समाज-सेवी संस्थाओं के माध्यम से परिवार-नियोजन का व्यापक प्रचार किया जा रहा है। लड़के-लड़की की विवाह की आयु बढ़ाकर क्रमश: 21 वर्ष तथा 18 वर्ष कर दी गई है। इस कानून के बाद भी अनेक स्थानों पर बाल-विवाह हो रहे हैं। परिवार-नियोजन के साधनों के उचित उपयोग से जन्म-दर को मनचाहे समय तक रोका जा सकता है।
भारत में परिवार-कल्याण का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। हर्ष का विषय है कि भारतीय अब इसका महत्व समझने लगे हैं।
उपसंहार :- परिवार-नियोजन के महत्व को अच्छी प्रकार समझ लेने पर ही देश की प्रगति सम्भव है। परिवारकल्याण के साथ ही देश-कल्याण भी जुड़ा है। प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह जनसंख्या वृद्धि की समस्या के प्रति सावधान हो तथा राष्ट्र-हित में परिवार-नियोजन को अपनाए। जनसंख्या की समस्या कानून द्वारा नहीं, अपितु जनजागरण तथा शिक्षा द्वारा हल करना संभव है।
भ्रष्टाचार
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- भष्टाचार की पृष्ठभूमि
- भ्रष्टाचार के विविध रूप
- भ्रष्टाचार के कारण
- भष्टाचार दूर करने के उपाय
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- भारत में स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद से ही भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया है। इस भ्रष्टाचार रूपी दानव ने संपूर्ण भारत को अपनी चपेट में ले रखा है। भ्रष्टाचार आज केवल भारत की नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व की समस्या है। इस दानव से छुटकारा पाना ही आज संपूर्ण मानव समाज की समस्या बन चुकी है।
भ्रष्टाचार का अर्थ :- भ्रष्टाचार का अर्थ है – भषष्ट आचरण। भ्षष्टाचार किसी की हत्या, मार-काट, लूट-पाट, हेरा-फेरी कुछ भी करा सकता है। भ्रष्टाचार ने अपने देश, जाति और समाज को अवनति के गड्ढे में ढकेल दिया है।
भ्रष्टाचार की पृष्ठभूमि :- भषष्टाचार का मूल रूप में उदय कहाँ से हुआ यह तथ्य तो सष्ट नहीं है, किन्तु यह स्पष्ट है कि स्वार्थ-लिप्सा इसकी जननी तथा भौतिक ऐश्वर्य की चाह इसका पिता है। पुरातन युग में दक्षिणा, मध्यकाल में भेंट तथा आर्धुनिक काल में उपहार आदि सभी भ्रष्टाचार के विभिन्न रूप हैं।
भ्रष्टाचार के विविध रूप :- आज भारतीय जीवन का कोई क्षेत्र, सरकारी अथवा गैर-सरकारी, सार्वजनिक या निजी ऐसा नही जा भ्रष्टाचार से अछूता रहा हो। कितु फिर भी हम इसे तीन प्रमुख वर्गों में विभक्त कर रहे हैं।
राजनैतिक भ्रष्टाचार :- यह भ्रष्टाचार का प्रमुख रूप है। भ्रष्टाचार के सारे रूप इसके ही संरक्षण में पनपते हैं। इसके अंतर्गत लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव जीतने के लिए अपनाया गया भ्रष्ट आचरण आता है।
प्रशासनिक भ्रष्टाचार :- इसके अंतर्गत उच्च पदों पर आसीन सचिव, अधिकारी, कार्यालय अधीक्षक, अधिशासी अभियन्ता, पुलिस अधिकारी, बाबू, चपरासी सभी आते हैं। कितना भी कठिन कार्य हो पैसा हाजिर तो कार्य भी फटाफट हों जाता है।
व्यावसायिक भ्रष्टाचार :- इसके अंतर्गत खाद्य पदार्थों में मिलावट, घटिया व नकली औषधियाँ निर्माण, जमाखोरी, चोरी तथा अन्यान्य भषष्ट तरीके देश तथा समाज को कमजोर बनाने के लिए अपनाए जाते हैं। मसालों में मिलावट, दाल-चावलों में पत्थर, घी में चर्बी, सरसां के तेल में अर्जीमोन की मिलावट, पैट्रोल में कैरोसीन की मिलावट आदि व्यावसायिक श्रष्टाचार के अंतर्गत ही आते हैं।
भ्षष्टाचार के कारण :- भषष्टाचार के इतने अधिक फैलने के कारण हैं – ‘यथा राजा तथा प्रजा।’ जब आज के नता तथा प्रशासक सभी भ्रष्ट हैं तो अधीनस्थ कर्मचारी भी जी भर कर भ्रष्टाचार में डूबे रहते हैं। पैसा सभी को प्रिय होता है। बहती गंगा में सभी हाथ धो रहे हैं।
भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय :- भ्रष्टाचार दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं :-
भारतीय संस्कृति की ओर ध्यान आकृष्ट करना :- संस्कृत और देशी भापाओं का शिक्षण अनिवार्य करना आवश्यक है। इससे जीवन के मूल्य दृढ़ तथा पोषक बनेंगे। लोग धर्म-भीरु इनेंगे तथा दुगचार से घृणा करेंगे। टी. वी. पर भारतीय संस्कृति का प्रचार होना चाहिए।
चुनाव -प्रक्रिया को बदलना :- भ्रष्टाचार को हटाने के लिए वर्तमान चुनाव-पद्धति में परिवर्तन आवश्यक है। जनता ईमानदार प्रत्याशियों को विजयी बनाए। चुनाव आयोग तथा राजनीतिक दलों को मिलकर ऐसे नियम बनाने चाहिए कि स्वच्छ छवि वाले तथा शिक्षित लोग ही चुनाव लड़ सकें तथा उनके चुनाव का पूरा खर्च सरकार को वहन करना चाहिए। इससे चुनावी भ्रष्टाचार मिट सकता है। राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले धन पर पाबन्दी लगनी चाहिए।
कर-प्रणाली में सुधार :-सरकार अनेक प्रकार के करों को समाप्त कर तीन या चार आवश्यक करें ही जनता पर लगाए और कर-प्रणाली को इतनी सरल बना दे कि सामान्य तथा अशिक्षित लोग भी वांछित कर आसानी से अदा कर सकें।
शासन -व्यय में कटौती :-शासन-व्यय में कटौती करके सबके सामने सादगी का आदर्श रखा जाए। भारतीय जीवन-पद्धति की यह विशेषता है कि वह हमेशा त्यागोन्मुखी रही है, इसलिए तड़क-भड़क तथा अनावश्यक व्यय में कटौती की जानी चाहिए।
देश-भक्ति की भावना पैदा करना :-प्रत्येक नागरिक राष्ट्र को महान समझकर सदैव उसके गौरव को बनाए रखने के लिए तत्पर रहे।
स्वदेश चिंतन अपनाना :-प्रत्येक भारतवासी को स्वदेशी वस्तुओं को ही क्रय करना है-ऐसी भावना प्रत्येक नागरिक में आनी चाहिए। इससे देश का धन देश में ही रहेगा तथा देश की समृद्धि बढ़ेगी।
कठोर कानून बनाना :- कानून को इतना कठोर बना दिया जाए कि हर अपराधी को उसके अपराध की उचीत सजा मिल सके।
सामाजिक बहिष्कार :- भ्रष्ट व्यक्ति का समाज से बहिष्कार किया जाए, उनके साथ रोटी-रोजी आदि किसी प्रकार का व्यवहार न किया जाए।
उपसंहार :- सदाचार रामबाण औषधि और परम धन है। आज हमारे देश में भ्रष्टाचार मिटाना है तो सदाचारी, सरल, सादगी-प्रिय लोगों का सादर अभिनंदन किया जाना चाहिए। इससे दुराचार मिटेगा तथा सदाचार की पुन : प्रतिष्ठा हो सकेगी। देश भी विकास के मार्ग पर प्रगति करता हुआ अग्रसर होगा।
भारतीय जीवन पर पाश्चात्य प्रभाव
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- पश्चिमी प्रभाव
- परिणाम
- उपसंहार।
जब दो भिन्न सभ्यता – संस्कृतियाँ आमने-सामने अर्थात् सम्पर्क में आया करतो हैं, तब दे दोनों सामान्य स्तर पर एकदूसरे का कुछ-न-कुछ प्रभाव भी अवश्य ही ग्रहण किया करते हैं। यह अलग बात है कि उनमे से जो दुर्बल और पराजित सभ्यता-संस्कृति हुआ करती है, वह सबल और विजेता संस्कृति का कुछ अधिक ही प्रभाव ग्रहण करती है। लंकिन जहाँ तक भारतीय जीवन, समाज और सभ्यता – संस्कृति का प्रश्न है ; इसमें तो पाश्चात्य प्रभाव ग्रहण करने में कमाल ही कर दिया है।
भारतीय जन – समाज का ऐसा एक भी क्षेत्र अपनी सभ्यता-संस्कृति के तत्त्वों के लिए सुरक्षित रह पाया हो, ऐसा कहीं भूल से भी दिखाई नहीं देता। हमारी भाषा, हमारी वेश-भूषा, हमारा रहन-सहन, खान-पान और आम व्यवहार सभी कुछ इस सीमा तक पश्चिमी हो चुका है कि उसमें यदि कहीं कभी कुछ भारतीय दीख भी जाता है, तो वह बदरंग एवं बदरूप-सा, अजीब एवं अजनबी-सा प्रतीत होता है। उस सब में पहुँच कर लगने लगता है, जैसे हम अपने देश या घर में होकर कहीं विदेश में किसी पराए घर में आ गए हैं।
आज हम पश्चिम ही का खा-पी, पहन, ओढ़ और सभी कुछ कर रहे हैं। यहाँ तक कि हमारी संस्कृति की पहचान तक गायब हो गई है। उसमें पश्चिम के अपतत्वों का सम्मिश्रण इस सीमा तक हो चुका है कि खोजने की चेष्टा करने पर भी अपना कुछ नहीं मिल पाता। अपनी भाषाएँ तो अपनी रही ही नहीं, उनमें लिखे जा रहे साहित्य ने व्यक्त हो रहे भावविचार और वर्णित पर्यावरण तक उधार के लगते हैं। कला के अन्य किसी भी रूप में भारतीयता नहीं रह गई, बल्कि उसका भीतर – बाहर का सभी कुछ पश्चिमी रंग में रंग चुका है।
पश्चिम ने भारत को जो आधुनिक ज्ञान-विज्ञान दिया है, एक राष्र्रीयता एवं एक जातीयता की भावना दी है, उस सब के कारण हमें उस का आभारी भी होना चाहिए। आधुनिक प्रौद्योगिकी, तकनीक आदि देकर भी पश्चिम ने निश्चय ही हमें बहुत उपकृत किया है। काम के समय काम, विश्राम के समय विश्राम, आनन्द-मौज के समय आनन्द-मौज, अनेक तरह को अन्ध धारणाओं के प्रति अस्वीकार, राष्ट्रीय चरित्र और व्यवहार जैसा और भी कुछ अच्छा है पश्चिम में। लेकिन सखेद स्वीकार करना पड़ता है कि हम भारतीय उस अच्छे को अपनाने की तरफ ध्यान नहीं दे सके।
भारतीय नारी पर पाश्चात्य प्रभाव
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- पश्चिमी अनुकरण
- उपभोक्ता सामग्री
- उपसंहार।
पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति ने यों तो भारतीय जीवन और समाज के किसी भी अंग को अछूता नहीं रहने दिया ; पर लगता है कि भारतीय नारी-समाज, उसका प्रत्येक अंग उससे सर्वाधिक प्रभावित हुआ है। इसी कारण वह आज सर्वाधिक प्रताड़त एवं प्रपीड़ित भी है। पाश्चात्य नारी समाज और उसकी सभ्यता-संस्कृति, पाश्चात्य शिक्षा और रीति नीतियों के प्रभाव से आज की नारी ने स्वतंत्रता तो प्राप्त कर ली है, पर सखेद स्वीकार करना पड़ता है कि उसने न तो स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ ही समझा है और न अनुशासन ही सीखा है।
शिक्षा, स्वावलम्बन, आर्थिक स्वतंत्रता, घर से बाहर निकल कर जीवन-समाज को नेतृत्व दे पाने की क्षमता, घर की चार-दीवारी और चूल्हे-चौके तक ही अपने को सीमित न रख जीवन के किसी भी उद्योग-धंधे या व्यवसाय में अपनी दक्षता का परिचय देना जैसी अनके बातें भारतीय नारी ने पश्चिम से सीखी हैं। उन सभी बातों को शुभ परिणामदायक कहा जा सकता है। इस से भारतीय नारी के जीवन में नया आत्मविश्वास जागा है।
उसे नये क्षितिजों के उद्घाटन करने में काफी सफलता प्राप्त हुई है। यह भी पश्चिम का ही प्रभाव है कि आज भारतीय नारी घूँघट के भीतर सिकुड़ी छुई मुई बनी रहने वाली नहीं रह गई, न ही वह कल की तरह पुरुषों को देख कर लज्जा से सिकुड़ कुमड़े की बेल-सी ही बनी रह गई हैं। आज वह धड़ल्ले से हर विषय पर, हर किसी के साथ बातचीत कर सकती है। वह पुरुषों की तरह एवरेस्ट की चोटी पर तो अपने पाँव रख ही आई है, चन्द्रलोक की यात्रा भी कर आई है। इन सभी बातो को भारतीय नारी-जीवन के लिए अच्छा एवं सुखद कहा जा सकता है।
इन अच्छाइयों के साथ-साथ भारतीय नारी ने पश्चिम से कुछ ऐसी बातें भी सीखीं या ऐसे प्रभाव भी ग्रहण किए हैं, जिन्हें भारतीय सभ्यता-संस्कृति की दृष्टि से उचित एवं अच्छा नहीं माना या कहा जा सकता। उस तरह के पाश्चात्य प्रभावों ने नारी को एक प्रकार का चलता- फिरता मॉडल इश्तिहार या पोस्टर या फिर उपभोक्ता सामग्री बना कर रख दिया है। परम्परागत शब्दों में कहा जाए, तो एक बार फिर वह भोग्या मात्र बन कर रह गई है।
फैशन में अंधी आज की नारी ने आज अपना अंग-प्रत्यंग तक सभी कुछ उधाड़ कर रख दिया है। इस सीमा तक वह उघड़ने लगी है कि उस का सौन्दर्य भदेस, सुकुमारता माँस का लजीीज़ टुकड़ा और तन-बदन नग्न होकर अश्लीलता का प्रतिरूप-सा प्रतीत होता है। वह किसी भी तरह से अपने उपयोग करने देने के लिए तैयार हो जाती है कि जब उसे कड़क नोटों की खड़क या चमकीले सिक्को की खनक सुन पड़ती है।
कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि अभी तक तो भारतीय नारी न तो पूर्णतया पाश्चात्य ही बन पाई है और न अपने भारतीय स्वरूपाकार को ही निखार पाई है। वह एक ऐसे दोराहे पर पहुँच चुकी है, जहाँ से आगे किधर अच्छाया बुरा है ; वह न तो अभी तक समझ पा रही है और न निर्णय ही कर पा रही है।
बाल-मज़दूर समस्या
अथवा, बाल श्रमिक समस्या
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- मानवता के नाम पर कलंक
- दयनीय जीवन
- उपसंहार।
इब्ने इशा की एक कविता का अंश –
यह बच्चा कैसा बच्चा है
जो रेत पे तनहा बैठा है
ना इसके पेट में रोटी है
ना इसके तन पर कपडा है
ना इसके पास खिलौनों में
कोई भालू है कोई घोड़ा है
ना इसका जी बहलाने को
कोई लोरी है, कोई झूला है।
आज परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बन गईं और बन रही हैं कि ऐसे बच्चे हर कहीं शडर हो या ग्राम, बाजार हो या मुहल्ला सब जगह देखने को मिल जाते हैं जिनके हाथ-पैर रात-दिन की कठिन मेहनत-मजदूरी के लिए विवश होकर धूलधूसरित तो हो चुके होते हैं, अक्सर कठोर एवं छलनी भी हो चुके होते हैं। चेहरों पर बालसुलभ मुस्कान के स्थान पर अवसाद की गहरी रेखाएँ स्थायी डेरा डाल चुकी होती हैं।
फूल की तरह ताजा गन्ध से महकते रहने योग्य फेफड़ों में धूल, धुआँ, रोएँ-रेशे भरकर उसे अस्वस्थ एवं दुर्गन्धित कर चुके होते है। गरीबीजन्य बाल-मजदूरी करने की विवशता ही इसका एकमात्र कारण मानी जाती है। ऐसे बाल मज़दूर कई बार तो डर, भय, बलात् कार्य करने जैसी विवशता के बोझतले दबे- घुटे प्रतीत हुआ करते हैं और कई बार बड़े बूढ़ों की तरह दायित्व-बोध से दबे हुए भी। कारण कुछ भी हो, बाल-मज़दूरी न केवल किसी एक स्वतंत्र राष्ट्र बल्कि समूची मानवता के माथे पर कलंक है।
छोटे – छोटे बालक मज़दूरी करते हुए घरों, ढाबों चायघरों, छोटे होटलों आदि में तो अक्सर मिल ही जाते हैं, छोटीबड़ी फैक्टरियों के अस्वस्थ वातावरण में भी मज़दूरी का बोझ ढोते हुए दीख जाया करते हैं। काश्मीर का कालीन-उद्योग, दक्षिण भारत का माचिस एवं पटाखे बनाने वाला उद्योग ; महाराष्ट्र, गुजरात और बंगाल की बीड़ी-उद्योग तो पूरी तरह से टिका ही बाल-मजदूरों के श्रम पर हुआ है।
बाल-मज़ूरों का एक अन्य वर्ग भी है। कन्धे पर झोला लादे इस वर्ग के मजदूर इधर-उधर फिके हुए गन्दे, फटे, तुड़ेमुड़े कागज बीनते दिखाई दे जाते हैं या फिर पोलिथीन के लिफाफे तथा पुराने प्लास्टिक के टुकड़े एवं दूटी-चप्पलें-जूते आदि। कई बार गन्दगी के ढेरों को कुरेद कर उनमें से टिन, प्लास्टिक, लोहे आदि की वस्तुएँ चुनते, राख में कोयले के टुकड़े बीनते हुए भी इन्हें देखा जा सकता है। ये सब चुन कर कबाड़खानों पर जा कर बेचने पर इन्हें बहुत कम दाम मिल पाता है जबकि ऐसे कबाड़ खरीदने वाले लखपति-करोड़पति बन जाया करते हैं। बाल-मज़ूरों के इस तरह के और वर्ग भी हो सकते हैं।
आखिर में बाल-मजदूर आते कहाँ से हैं ? सीधा-सा उत्तर है कि एक तो गरीबी की मान्य रेखा से भी नीचे रहने वाले घर-परिवारों से आयाा करते हैं। फिर चाहे ऐसे घर-परिवार ग्रामीण हों या नगरीय झुग्गी-झोंपड़ पट्टियों के निवासी, दूसरे अपने घर-परिवार से गुमराह होकर आए बालक। पहले वर्ग की विवशता तो समझ में आती है कि वे लोग मजदूरी करके अपने घर-परिवार के अभावों की खाई पाटना चाहते हैं। दूसरे उन्हें पढ़ने-लिखने के अवसर एवं सुविधायें ही नहीं मिल पाती।
लेकिन दूसरं गुमराह होकर मज़ूरी करने वाले बाल-वर्ग के साथ कई प्रकार की कहानियाँ एवं समस्याएँ जुड़ी रहा करती हैं। जैसे पढ़ाई में मन न लगने या पनुतीर्ण हो जाने पर मार के डर से घर-परिवार से दूर भाग आना ; सौतेली माँ यामाता-पिता के सौतले एवं कठोर व्यवहार से पीड़ित होकर घर त्याग देना, बुरी आदतों और बुरे लोगों की संगत के कारण घरों में न रह पाना या फिर कामचोर होना आदि कारणों से घरों से भाग कर और नगरों में पहुॅच कई बार अच्छे घर-परिवार के बालकों को भी विषम परिस्थितियों में मजदूरी करने के लिए विवश हो जाना पड़ता है। और भी कई वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं।
देश का भविष्य कहे-माने जाने वाले बच्चों-बालकों को किसी भी कारण से मज़दूरी करनी पड़े, इसे मानवीय नहीं कहा जा सकता। एक तो घरों में बालकों के रह सकने योग्य सुविधाएँ-परिस्थितियाँ पैदा करना आवश्यक है, दूसरे स्वयं राज्य को आगे बढ़कर बालकों के पालन की व्यवस्था सम्हालनी चाहिए। सभी समस्या का समाधान सभ्वव हो सकता है।
भिखारी-समस्या
अथवा, भिक्षावृत्ति
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- कारण
- उपसंहार।
भारत में, भारत की राजधानी दिल्ली में भी भीख माँगना कानूनी दृष्टि से अपराध है। स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ वर्ष बाद ही इस प्रकार के कानून का प्रावधान किया गया था कि जिस के अन्तर्गत भीख माँगना या मँगवाना दोनों को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया था। इस घोषणा के बाद ऐसे भिखारी-निरोधक घर भी बनाए गये थे कि जहाँ भीख माँगने वाले शरण पा सके। वहाँ रह कर अपनी योग्यतानुसार कोई काम-धन्धा सीख कर बाहर आएँ और काम कर के अपना जीवन-यापन सम्मानपूर्वक कर सकें। लेकिन इस भारी कानून व्यवस्था का प्रावधान एवं कानून का प्रभाव बहुत ही कम समय तक रहा। धीरेधीरे फिर उसी प्रकार, बल्कि पहले से भी कहीं अधिक, प्रत्येक स्थान पर भिखारियों की भीड़ बढ़ने लगी।
ये भिखारी कहाँ से आते हैं, और इन के विरुद्ध कानून के रक्षक एवं ठेकेदार पुलिस वाले कोई कार्यवाही क्यों नहीं करते, ‘नवभारत टाइम्स’ को प्रकाशित रिपोर्ट में अच्छा प्रकाश डाला गया है। उसके अनुसार – “बच्चों को अगवा कर के, अनाथ बच्चों, बेसहारा औरतों, अपाहिजों को डरा-धमका कर भीख माँगने के लिए मजबूर करने वाले माफिया गैंग दिन-प्रतिदिन फल-फूल रहे हैं और इसके पोषण में पुलिस की भागीदारी भी समान रूप से है। दिल्ली के विभिन्न इलाकों में पुलिस का भिखारियों या इस व्यवसाय के माफिया गिरहों से हफ्ता तक बन्धा हुआ है।’ बहुत पहले स्व० श्रीमती महादेवी वर्मा ने एक चीनी भाई के संस्मरण में भी इस प्रकार के भीख मंगवानेवाले माफिया गिरोह का सजीव वर्णन किया है।
दिल्ली-समेत प्राय: समस्त नगरों-महानगरों में ऐसे इलाके अवस्थित हैं कि जहाँ भीख माँगने का बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाता है। प्रशिक्षण के दौरान भिखारी जैसे रूप बनाना, विशेष दयनीय स्वर निकालना, हाथ-पैर हिलाकर करुणा उभार भीख देने को विवश कर देना आदि सभी कुछ सिखाया जाता है। अनकेशः अच्छे भले लोगों और स्वस्थ बच्चों तक को अपाहिज बना कर भीख मंगवाई जाती है। बूढ़े-बूढ़ी अपनी असमर्थता जता कर, बच्चे वाली औरतें बच्चों के अनाथ होने और पालन का दायित्व निभाने जैसी बातें कह कर ऐसे हाव-भाव प्रदर्शित करती है, अनके तो हाथ धोकर पीछे ही पड़ जाती हैं कि कुछ देकर ही पीछा छुड़ाना संभव हो पाता है।
देवी-देवताओं-विशेषकर शनि-मंगल और माता के नाम पर भी भीख माँगी जाती है। शनि-मंगल के चित्र लेकर और माता के भजन गाकर बच्चों-औरतों को चौराहों पर, बसों में भीख मांगते हुए अक्सर देखा जा सकता है, इस प्रकार भीख मांगने के अनेक तरीके हैं। भिखारी समस्या के अनेक रूप हैं ; क्योंकि अब लोग इन हत्थकण्डों को अक्सर समझने लगे हैं, इस कारण जो वास्तव में अपाहिज एवं बेसहारा होने के कारण भीख पाने के अधिकारी हैं, कई बार उन्हें भी वंचित रह जाना पड़ता है। यों किसी भी हालत में भीख मांगना अच्छा नहीं होता है।
वृक्षारोपण
अथवा, वृक्षारोपण : सांस्कृतिक दायित्व
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- वृक्षों का महत्व
- वृक्षों के प्रति मानव की निर्दयता
- सांस्कृतिक दायित्व
- उपसंहार।
वृक्षारोपण का सामान्य अर्थ है – वृक्ष लगाना। प्रयोजन है – वन-सम्पदा के रूप में प्रकृति से हमें जो कुछ भी प्राप्त होता आ रहा है, वह नियमपूर्वक हमेशा आगे भी प्राप्त होता रहे ; ताकि हमारे जीवन-समाज का सन्तुलन, हमारे पर्यावरण की पवित्रता और सन्तुलन नियमित बने रह सकें। वृक्षारोपण करना एक प्रकार का सहज सांस्कृतिक दायित्व स्वीकार किया गया है।
वृक्षारांपण मानव-समाज का सांस्कृतिक दायित्व है, इसे अन्य दृष्टि से भी देखा और प्रमाणित किया जा सकता है। मानव सभ्यता का उदय और आरम्भिक आश्रय प्रकृति यानि वन-वृक्ष ही रहे हैं। उसकी सभ्यता-संस्कृति के आरम्भिक विकास का पहला चरण भी वन-वृक्षों की सघन छाया में ही उठाया गया। यहाँ तक कि उसकी समृद्धतम साहित्य-कला का सृजन और विकास ही वनालियों की सघन छाया और प्रकृति की गोद में ही सम्भव हो सका, यह एक पुरातत्त्व एवं इतिहास-सिद्ध बात है।
प्राचीन काल में हरे वृक्ष को काटना पाप समझा जाता था, सूखे वृक्ष भले ही घरेलू उपयोग के लिए काटे जाते थे। कदम्ब वृक्ष को भगवान कृष्ण का प्रिय समझकर श्रद्धा दी जाती थी। अशोक का वृक्ष शुभ और मंगलदायक माना जाता था। तभी तो सीता ने अशोक वृक्ष से प्रार्थना की थी – “तस अशोक मम करहु अशोका।” यह था प्राचीन भारत में वन संम्पदा का महत्व। आरम्भ मे ग्रन्थ लिखने के लिए कागज के समान जिस सामग्री का प्रयोग किया गया, वे भूर्ज या भोजपत्र भी तो विशेष वृक्षों के पत्ते ही थे।
संस्कृति की धरोहर माने जाने वाले कई ग्रन्थो की भाजपत्रों पर लिखो गई पाण्डुलिपियाँ आज भी कहीं-कहीं उपलब्ध हैं। सांस्कृतिक भाव धारा की बुनियाद ही जब वन-वृक्षों की छाया में रखी गई और विकास कर पाई, तब यदि वृक्षारोपण को एक सांस्कृतिक दायित्व कहा-माना जाता है, तो यह उचित ही है।
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ होने से पहले तक देश में आरक्षित-अनारक्षित सभी तरह के वृहद वनों की भरमार रही। परन्तु बीसवीं शती के स्वार्थान्ध मानव ने वनों का दोहन कर के धन कमाने का मार्ग तो अपना लिया, पर नए वृक्षारोपण के दायित्व को कतई भुला दिया। इसी कारण आज मानव-सभ्यता को पर्यावरण-सम्मन्धी कई तरह की समस्याओं से दोचार होना पड़ रहा है।
जो हो, अभी भी बहुत देर नहीं हुई है। अब भी निरन्तर वृक्षारोपण और उनके रक्षण के सास्कृतिक दायित्व का निर्वाह कर सृष्टि को अकाल भावी-विनाश से बचाया जा सकता है। व्यक्ति और समाज दोनों स्तरों पर इस और प्राथमिक स्तर पर ध्यान दिया जाना परम आवश्यक है।
आधुनिक जीवन और कंप्यूटर (माध्यमिक परीक्षा – 2011)
आधुनिक यंत्र-पुरुष-कंप्यूटर (मॉडल प्रश्न – 2007)
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- कंप्यूटर की परिभाषा
- कंप्यूटर के उपयोग
- कंप्यूटर और मानव-मस्तिष्क
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- गत कुछ वर्षों से कंप्यूटर की चर्चा जोर-शोर से सारे विश्व में हो रही है। देश को कंप्यूटरकृत करने के प्रयास किए जा रहे हैं। अनेक उद्योग-धंधों और संस्थानों में कंप्यूटर का प्रयोग होने लगा है। कंप्यूटरों के उन्मुक्त आयात के लिए देश के द्वार खोल दिए गए हैं।
कंप्यूटर क्या है ? :- हमारे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन पर छा जाने वाला कंप्यूटर एक ऐसा यांत्रिक मस्तिष्क है, जिसमें विभिन्न गणित संबंधी सूत्रों और तथ्यों के संचालन का कार्यक्रम पहले ही समायोजित कर दिया जाता है। इसके आधार पर कंष्यूटर न्यूनतम समय में गणना कर तथ्यों को प्रस्तुत कर देता है। कप्यूटर का हिंदो नाम संगणक है।
चार्ल्स वेबेज पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 19 वीं शताब्दी के प्रारंभ में पहला कंप्यूटर बनाया था। वह कप्यूटर लम्बी गणनाएँ कर सकता था और उनके परिणामों को मुद्रित कर देता था। कप्यूटर स्वयं ही गणना करके जटिल-से-जटिल समस्याओं के हल मिनटों और सेकेण्डों में निकाल सकता है।
कम्यूटर के उपयोगों को इन शीर्षकों में बाँटकर देखा जा सकता है –
बैंकिंग के क्षेत्र में :- भारतीय बैंक में खातों के संचालन और उनका हिसाब-किताब रखने के लिए कंप्युटर का प्रयोग आरम्भ हो चुका है। प्राय: सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों ने चुंबकीय संख्याओं वाली पास बुक जारी की है।
प्रकाशन के क्षेत्र में :- समाचार-पत्रों तथा पुस्तकों के प्रकाशन में कंप्यूटर का विशेष योगदान है। अब तो कंप्यूटर से संचालित फोटो कम्पोजिंग मशीन के माध्यम से छपने वाली समग्री को टंकित किया जा सकता है। कंप्यूटर में संचित होने के बाद सारी सामग्री एक छोटी चुंबकीय डिस्क पर अंकित हो जाती है। फोटो कंपोजिंग मशीन इस डिस्क के अंकींय संकेतों को अक्षरीय संकेतों में बदल देती है जिससे उनका मुद्रण हो सके।
सूचना और समाचार-प्रेषण के क्षेत्र में :- दूरसंचार की दृष्टि से भी कंप्यूटर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। अब तो ‘कंप्यूटर नेटवर्क’ के माध्यम से देश के प्रमुख नगरों को एक-दूसरे से जोड़ने की व्यवस्था की जा रही है।
डिजायनिंग के क्षेत्र में :- प्राय: ऐसा माना जाता है कि कंप्यूटर अंकों और अक्षरों को ही प्रकट कर सकते हैं। आधुनिक कप्यूटर के माध्यम से भवनों, मोटर-गाड़यों, हवाई जहाजों आदि के डिजाइन तैयार करने में कंप्यूटर ग्राफिक का प्रयोग हो रहा है।
कला के क्षेत्र में :- कंप्यूटर अब कलाकार या चित्रकार की भूमिका भी निभा रहे हैं। अब कलाकार को न तो कैनवास की आवश्यकता है न रंग की, न बुशों की। कंप्यूटर के सामने बैठा कलाकार अपने ‘नियोजित प्रोग्राम’ के अनुसार स्कीन पर चित्र बनाता है और स्कीन पर निर्मित यह चित्र प्रिंट की ‘कुँजी’ (Key) दबाते ही प्रिटर द्वारा काग़ज पर अपने उन्हीं वास्तविक रंगों के साथ प्रिंट हो जाता है।
रेलवे के क्षेत्र में :- कंप्यूटर द्वारा रेलवे संपूर्ण देश के संपर्क में रहता है। कंप्यूटर से आप कहीं से कहीं तक का भी आरक्षण करा सकते हैं, उस आरक्षण को कहीं पर भी रद्द करा सकते हैं।
वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में :- कंप्यूटरों से वैज्ञानिक अनुसंधान का स्वरूप ही बदलता जा रहा है। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में कंप्यूटर ने कान्ति पैदा कर दी है। उसके माध्यम से अंतरिक्ष के व्यापक चित्र उतारे जा रहे हैं तथा इन चित्रों का विश्लेषण भी कंप्यूटर के माध्यम से हो रहा है। आधुनिक वेधशालाओं के लिए कव्यूटर सर्वाधिक आवश्यक हो गए हैं।
औद्योगिक क्षेत्र में :- विशाल कारखानों में मशीनों के संचालन का कार्य अब कंप्यूटर द्वारा किया जा रहा है। कंप्यूटरों से जुड़कर रोबोट ऐसी मशीनों का नियंत्रण कर रहे हैं, जिनका संचालन मानव के लिए अत्यधिक कठिन था। भयकर शीत और जला देनेवाली गर्मी भी उन पर कोई प्रभाव नहीं डालती।
युद्ध क्षेत्र में :- वस्तुतः कंप्यूटर का अविष्कार युद्ध के एक साधन के रूप में ही हुआ था। अमेरिका में जो पहला इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटर बना था, उसका उपयोग एटम-बम से संबंधित गणनाओं के लिए ही हुआ था। जर्मन सेना के गुप्त संदेशों को जानने के लिए अंग्रेजों ने ‘कोलोसस’ नामक कंप्यूटर का प्रयोग किया था। अमेरिका की ‘स्टार-वार्स’ योजना कंप्यूटरों के नियन्त्रण पर ही आधारित हैं।
कंप्यूटर और मानव-मस्तिष्क :- प्राय : मन में यह प्रश्न उठता है कि कंप्यूटर और मानव-मस्तिष्क में श्रेष्ठ कौन है ? मानव-मस्तिष्क की अपेक्षा कंप्यूटर समस्याओं को बहुत कम समय में हल कर सकता है, कितु वह मानवीय संवेदनाओं, अभिरुचियों और चिन्तन से रहित यंत्र-पुरुष है। कंप्यूटर केवल वही कार्य कर सकता है जिसके लिए उसे निर्देशित (Programmed) किया गया हो।
उपसंहार :- भारत तीव्र गति से कंप्यूटर-युग की ओर बढ़ रहा है। हम अपना जीवन कंप्यूटर के हवाले करते जा रहे हैं। कंप्यूटर द्वारा विदेशों में बैठे मित्रों से पत्र-व्यवहार हो रहा है, परीक्षा-परिणामों की जानकारी ले रहे हैं। कंप्यूटर हमें बोलना, व्यवहार करना, जीवन को जीने का ढंग, मित्रों से मिलना, उनके विषय में ज्ञान प्राप्त करना आदि सब कुछ बताएगा। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि कंप्यूटर द्वारा हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग दिया जा रहा है। अब कंप्यूटर हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग बन चुका है।
प्रदूषण : समस्या और समाधान (मॉडल प्रश्न – 2007)
अथवा, प्रदूषण से मुक्ति के उपाय (माध्यमिक परीक्षा – 2010)
रूपरेखा :
(1) प्रस्तावना
(2) प्रदूषण का अर्थ
(3) प्रदूषण के प्रकार
(4) प्रदूषण पर नियंत्रण
(5) उपसंहार।
प्रस्तावना :- प्राचीनकाल से ही गंगाजल हमारी आस्था और हमारे विश्वास का प्रतीक इसी कारण से रहा है क्योंकि वह सभी प्रकार के प्रदूषणों से मुक्त था, किंतु आज अनियन्त्रित औद्योगिक वृद्धि के कारण अन्य नदियों की तरह गंगा भी प्रदूषित हो रही है। यदि प्रदूषण इसी प्रकार बढ़ता रहा तो ‘गंगा तेरा पानी अमृत’ वाला मुहावरा निरर्थक हो जाएगा।
प्रदूषण का अर्थ :- विकास और व्यवस्थित जीवन-क्रम के लिए जीवधारियों को संतुलित वातावरण की आवश्यकता होती है। संतुलित वातावरण में प्रत्येक घटक एक निश्चित मात्रा में उप्थित रहता है। कभी-कभी वातावरण में एक अथवा अनेक घटकों की मात्रा कम अथवा अधिक हो जाया करती है अथवा वातावरण में अनेक हानिकारक घटकों का प्रवेश हो जाता है। फलत: वातावरण दूषित हो जाता है, जो जीवधारियों के लिए किसी-न-किसी रूप में हानिकारक सिद्ध होता है। इसे ही प्रदूषण कहते हैं।
प्रदूषण के प्रकार :- प्रदूषण की समस्या का जन्म जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ हुआ है। विकासशील देशों में औद्योगिक एवं रासायनिक कचरों ने जल, वायु तथा पृथ्वी को भी प्रदूषित किया है।
विकसित एवं विकासशील सभी देशों में निम्न प्रकार के प्रदूषण विद्यमान हैं :-
वायु-प्रदूषण :- वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसें एक विशेष अनुपात में विद्यमान हैं, अपनी क्रियाओं द्वारा जीवधारी वायुमंडल में ऑक्सीजन और कार्बन-डाई-आक्साइड छोड़ते रहते हैं। प्रकाश की उपस्थिति में हरे पौधे प्रकाश-संश्लेषण क्रिया द्वारा कार्बन-डाई-ऑक्साइड को ग्महण करते हैं तथा ऑक्सीजन छोड़ते हैं। इस प्रकार ऑवसीजन और कार्बन-डाई-ऑक्साइड, नाइट्रोजन-ऑक्साइड, कार्बन-मोनो-ऑक्साइड, सल्फर-डाई-ऑक्साइड तथा सिलिकॉनटेट्राफ्लोराइड मुख्य हैं।
जल-प्रदूषण :- सभी जीवधारियों के लिए जल अत्यंत महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। पौधे अपना भाजन जल में घुली हुई अवस्था में ही प्राप्त करते हैं। जल में अनेक प्रकार के खानिज तत्व, कार्बनिक-अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें घुली रहती हैं। यदि जल में ये पदार्थ आवश्यकता से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाते हैं, तो जल प्रदूषित होकर हानिकारक हो जाता है।
ध्वनि प्रदूषण :- अनेक प्रकार के वाहनों, जैसे-कार, स्कूटर, मोटर, जेट विमान, ट्रैक्टर आदि तथा लाउडस्पीकर, बाजे, कारखानों के सायरन और मशीनों से भी ध्वनि-प्रदूषण होता है। अधिक तेज ध्वनि से मनुष्य की सुनने की शक्ति भी कम हो जाती है तथा उसे ठीक प्रकार से नींद नहीं आती, यहाँ तक कि कभी-कभी पागलपन का रोग भी उत्पन्न हो जाता है।
रासायनिक प्रदूषण :- प्रायः कृषक अधिक पैदावार के लिए कीटनाशक और रोगनाशक दवाइयों तथा रसायनों का प्रयोग करते हैं। इनका स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। जब ये रसायन वर्षा के जल के साथ बहकर नदियों द्वारा सागर में पहुँच जाते हैं तो, ये वहाँ रहने वाले जीवों पर घातक प्रभाव डालते हैं। इतना ही नहीं मानव-देह पर भी इसका प्रभाव पड़ता है।
रेडियोधर्मी प्रदूषण :- परमाणु शक्ति उत्पादन केंद्रों तथा परमाणविक परीक्षण से भी जल, वायु तथा पृथ्वी का प्रदूषण होता है, जो देश की वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ भावी पीढ़ी के लिए भी खतरनाक है। परमाणु विस्फोट के स्थान पर तापक्रम इतना अधिक बढ़ जाता है कि धातु भी पिघल जाती है। पोखराण में परमाणु परीक्षण के समय भारत में भी ऐसा ही हुआ था।
प्रदूषण पर नियंत्रण :- पर्यावरण में होने वाले प्रदूषण को रोकने तथा उसकी रक्षा के लिए गत वर्षों में सारे विश्व में एक चेतना पैदा हुई है। भारत सरकार ने 1947 ई० में ‘जल-प्रदूषण निवारण एवम् नियंत्रण अधिनियम’ लागू किया था। इसी के अंतर्गत एक केंद्रीय बोर्ड’ तथा सभी प्रदेशों में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड गठित किए गए हैं। इन बोर्डों ने प्रदूषणनियंत्रण की योजनाएँ तैयार की हैं।
उपसंहार :- सरकार प्रदूष्षण की रोकथाम हेतु निरन्तर प्रयास कर रही है। पर्यावरण के प्रति जागरुकता से ही हम भाविष्य में और अधिक अच्छा स्वास्थ्य तथा जीवन जी सकेंगे तथा भविष्य में आने वाली पीढ़ी को प्रदूषण के अभिशाप से मुक्ति दिला सकेंगे।
एड्सः एक चुनौती
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- एडस की जानकारी
- एड्स के कारण
- एड्स से बचाव के उपाय
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- H.I.V. (एच. आई. वी.) अर्थात् एड्स (Aids) भारत और पूरी दुनिया के लिए एक चुनौती बन चुका है। भारत में आज करोड़ो लोग एच आई. वी. से सक्रमित हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा उपलब्ध कराए गए आँकड़ों से पता चलता है कि दुनिया में 3 करोड़ 80 लाख वयस्क और करीब 15 लाख बच्चे एच.आई. वी. की चपेट में आ चुके हैं। सन् 1991 में इसकी संख्या आधी थी। भारत में H.I.V. संकमित लोगों की अनुमानित संख्या 3.85 मिलियन है। महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध-प्रदेश, कर्नाटक, मणिपुर तथा नागालैंड में एक प्रतिशत से अधिक लोग H.I.V. संक्रमित हैं। इसने गत वर्ष विश्व में लगभग 30 लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिए। आज विश्व का प्रत्येक देश एइस की चपेट में है।
एड्स का अर्थ :- एड्स’ का पूरा अर्थ है-
- A – Acquired-एक्वायर्ड-प्राप्त किया हुआ।
- I – Immuno (इम्युनो)-शरीर के रोगों से लड़ने की क्षमता।
- D – Deficiency (डेफिसिएंसी)-कमी।
- S – Syndrome (सिंड्रोम)-लक्षणों का समूह।
एड्स की जानकारी :-एड्स एक ऐसी भयंकर बीमारी है जो एच. आई. वी. (H.I.V.) नामक वायरस विषाणु के द्वारा फैलती है। ये वायरस अत्यंत सूक्ष्म तथा बीमारी पैदा करने वाले जीव हैं। इन्हें केवल अत्यंत शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यंत्र की सहायता से ही देखा जा सकता है। I.I.V. वायरस के शरीर में प्रवेश करने के बाद मरीज की रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता समाप्त होने लगती है।
इस प्रकार रोगी साधारण रोगों से मुकाबला नहीं कर पाता है। एच आई. वी. संक्रमण और एडस के अंतर को आम व्यक्ति नहीं समझ पाता है। एच आई. वी. संक्रमण उसे कहते हैं जब वायरस शरीर के अंदर प्रवेश कर जाता है। तब वह व्यक्ति एच आई. वी. सक्रमित व्यक्ति कहलाता है तथा ऐसे व्यक्ति को 7 से लेकर 10 वर्षो तक कोई बीमारी नहीं होती। वह दूसरे लोगों की तरह सामान्य नज़र आता है। इसके बाद वह संकमित व्यक्ति एइस की बीमारी से घिर जाता है। एक बार शरीर में वायरस प्रवेश कर जाए तो फिर इस बीमारी से मुक्ति सम्भव नहीं है।
एड्स के कारण :- एडस रोग मूल रूप से एक यौन रोग है। इसके प्रमुख कारण हैं-
(अ) एच आई. वी. ग्रस्त व्यक्ति के साथ शारीरिक संबंध रखने से। यौन संबंधों से यह रोग संक्रमिक पुरुष से महिला को, संक्रमित महिला से पुरुष को तथा संक्रमित पुरुष से पुरुष को हो सकता है।
(ब) डॉक्टरों द्वारा प्रदूषित सुइयों का प्रयोग करने से, मादक पदार्थों का सेवन करने वालों द्वारा दूषित सुइयों के प्रयोग से, शरीर पर गुदाई करने वालों द्वारा अख्वच्छ औजारों का प्रयोग करने से तथा संक्रमित व्यक्ति के रेजर से बाल अथवा दाढ़ी बनाने से।
एड्स से बचाव के उपाय :- सरकार विभिन्न संचार माध्यमों के द्वारा जनता को एइस की जानकारी दे रही है। एइस के सामान्य लक्षणों की जानकारी सभी को होनी चाहिए। एइस के रोग से ग्रस्त रोगी का वजन निरंतर कम होता जाता है। उसकी गर्दन, बगल अथवा जांघों की ग्यंथियों में सूजन आ जाती है। उसे लगातार बुखार भी रहता है। मुंह तथा जीभ पर सफेद चकत्ते पड़ जाते हैं, लेकिन इन लक्षणों का अर्थ यह नहीं है कि ऐसे लक्षणों वाले सभी व्यक्तियों को एड्स ही है। तपेदिक रोग में भी ऐसे लक्षण हो सकते हैं।
एड्स रोग का निदान एलिसा टेस्ट (Elisa Test) तथा वेस्टर्न ब्लॉट (Western Blot) नामक रक्त जाँच से किया जाता है। लाल रिबन एड्स का अंतर्राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न है। प्रतिवर्ष एक दिसम्बर को विश्व एड्स दिवस मनाया जाता है। इस दिन सभी लोग एड्स का अंतर्राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न पहनकरे एडस के विरुद्ध अपनी मुहिम चलाते हैं। एक दिसम्बर (विश्व एड्स दिवस) विश्व के सभी देशों के बीच आपसी विश्वास, करुणा, समझ और एकजुटता विकसित करने का संदेश देता है। एड्स के विरुद्ध विश्वव्यापी अभियान का प्रारंभ 1977 ई० से हुआ है। सभी देशों की यही धारणा है कि विश्व के लोग इस बीमारी की गंभीरता को समझें। संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक दिसंबर को ‘विश्व एड्स दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की है।
उपसंहार :- याद रहे अभी तक इसका कोई इलाज नहीं है, कोई दवा नहीं है। अत: इससे बचाव हेतु इसकी पूर्ण जानकारी जनता को होनी चाहिए। एड्स की जानकारी में ही बचाव है। व्यक्ति को रक्त चढ़व्राते समय, इंजेक्शन लगवाते समय, नाई से बाल कटवाते समय नई सुई तथा ब्लेड का प्रयोग करना चाहिए। ऐसी जानकारी जनता को हो तथा वह शारीरिक संबंधों में सतर्कता रखें तो एड्स नहीं फैलेगा तथा सभी भारतवासी अथवा विश्व के लोग दुश्चिन्ताओं से मुक्त रहेंगे।
इण्टरनेट और विश्व गाँव की संकल्पना
(गलोबलाइजेशन)
रूपरेखा :
- भूमिका
- कम्यूटर के माध्यम से समग्र विश्व और गाँव को जोड़ने का प्रयास।
- इण्टरनेट की लोकप्रियता
- उपसंहार।
भौगोलिक सीमाओं से आबद्ध व्यक्ति सूचना प्रौद्योगिकी और संचार प्रौद्योगिकी के सदुपयोगी संगम से एक सुगम व्यवस्था की ओर अग्रसर हो रहा है। यह व्यवस्था अपने विस्तृत आलिंगन से समूचे वसुधा को समेट रही है। वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी विकास के इस परिप्रेक्ष्य में इस पृथ्वी पर प्रत्येक व्यक्ति दूर-दराज के क्षेत्र में स्थित दूसरे व्यक्तियों से बौद्धिक सम्पर्क स्थापित कर रहा है। स्पष्टत: मानवीय सम्बन्ध एक आशाजनक उज्जवल परिवर्तन की स्थिति से गुजर रहा है। कम्य्यूटर के माध्यम से सूचना के राजमार्ग इण्टरनेट पर चलकर समस्त मानव-जाति एकीकरण के लिए प्रयत्नशील है।
मानव-जीवन की सभी गतिविधियां यथा – राजनीतिक, व्यापारिक, सांस्कृतिक आदि इलेक्ट्रॉनिक सुविधाओं से लाभान्वित हो रही हैं। नेटवर्क के इस विशाल पर्यावरण में कोई सीमा नहीं। कोई सरहद नहीं, कोई बंधन नहीं। विचारकों का उन्मुक्त संचालन-प्रसारण विश्व ग्राम योजना का प्रमुख चरित्र है और इण्टरनेट इसकी सम्पूर्ण व्यवस्था है। इण्टरनेट व्यवस्था के अन्तर्गत लाखों-करोड़ों कम्यूटरों का संजाल बनता जा रहा है, जो सूचनाओं के आवागमन को सुलभ करता है।
इसकी संरचना वस्तुतः प्रजातांत्रिक है, जो सूचना शक्ति को विकेन्द्रित करती है। दुनिया के किसी भी कोने में बैठा कोई भी व्यक्ति अपने कम्यूटर को इण्टरनेट से जोड़कर सूचना सम्माद बन सकता है। इण्टेरनेट से जुड़ा कम्यूटर होस्ट कहलाता है। इस सामाज्य में राजा व रंक सभी अपने होस्ट कम्प्यूटर से सूचनाओं का आदान-प्रदान कर सकते हैं। इण्टरनेट का जन्म शीत-युद्ध के गर्भ से अमेरिका में हुआ है।
1960 ई० में सोवियत संघ के परमाणु आक्रमण से चिंतित अमेरिकी सरकार ने एक ऐसी व्यवस्था की संरचना चाही, जिसमें अमेरिकी शक्ति किसी एक जगह पर केन्द्रित न रहे। विकेन्द्रित सत्ता वाले नेटवर्क से यह आशा थी कि शक्ति के बिखरे स्वरूप से उसे आक्रमण का शिकार होने से बचाया जा सकेगा। इस नेटवर्क में कम्यूटर शक्ति से सम्बन्धित समस्त सूचनाओं को संग्रहीत रखा जा सकेगा। इस प्रकार, कुछ कम्प्यूटरों के नष्ट हो जाने के बावजूद भी कुछ कम्यूटर, शेष कम्य्यूटर रक्षात्मक कदमों के लिए संग्रहीत सूचनाओं के साथ मार्गदर्शन करेंगे।
सत्तर के दशक में अमेरिका की रक्षा उन्नत अनुसंधान परियोजना एजेंसी ने अपने प्रयत्न में सफलता प्राप्त की और इस नेटवर्क का उदय हुआ। जो कम्प्यूटरों के बीच संयोजित पैकेट संजालों में सूचनाओं का आदान-प्रदान कराने लगा। ये अंतर-नैटिंग परियोजना परिष्कृत होकर इण्टरनेट के नाम से विख्यात हुई। अनुसंधान से विकसित प्रोटोकोल को नियंत्रण प्रोटोकोल (टी.सी.पी.) और इण्टरनेट प्रोटोकोल (आई. बी.) कहा गया। इण्टरनेट से सम्बन्धित दस्तावेजों के प्रकाशन और प्राटोकल संचालन के लिए इण्टरनेट कारवाई बोर्ड होता है जो प्रयोक्ताओं को इण्टरनेट रजिस्ट्री डोमेन नेम और उसके द्वारा डाटाबेस का आबटन और वितरण करता है।
विश्व समाज प्रौद्योगिकी सुविधाओं का सदुपयोग सभी पारम्परिक दूरियाँ खत्म करने के लिए कर गहा है। व्यक्तिगत लाभ से लेकर जनकल्याण तक की दृष्टि से इण्टरनेट एक उपयोगी उपलब्धि के रूप में प्रकट हों रहा है। भविष्य में इण्टरनेट से जुड़ा विश्व समुदाय एक प्रजातांत्रिक वैज्ञानिक व्यवस्था में सूचना शक्ति का बराबर हकदार होगा। लेकिन कठिनाई उन विकासशील देशों के लिए होगी, जहाँ आधारभूत संरचना का अभाव है।
भारत जैसे देश में जहाँ अभी भी बिजली, पानी, टिकाऊ आवास, साक्षरता, स्वास्थ्य सुविधा, पोषक भोजन आदि की समस्या है, इलक्ट्रोनक जीवन स्वप्नातीत हैं। गाँवों में सामुदायिक कम्यूटर के लिए भी निर्बाध बिजली की आवश्यकता होगी।-ई-गर्वेंस के लिए भी उचित वातावरण चाहिए। यह आवश्यक है कि सूचना क्रान्ति के इस लाभदायक क्षण में लाभान्वित हो रहा धनाद्य वर्ग अपन सामाजिक कर्तव्यों का निर्वाह करे। स्पष्ट है कि इण्टरनेट विश्व में सभी समुदायों से सम्बद्ध मामलों पर विचार-विमर्श के रूप में पूरी दुनिया में सूचना का कारगर प्रसारण बन सकता है।
हम इण्टरनेट पर दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाले अपने मित्र से बातचीत कर सकते हैं। विभिन्न दुकानों में बिकने वाली वस्तुओं को देख सकते हैं और ऑर्डर दे सकते हैं। मण्डियों और शेयर बाजार पर नजर रख सकते हैं। अपने उत्पादन और सेवाओं का विज्ञापन कर सकते हैं। इण्टरनेट पर हम न केवल अखबार पढ़ सकते हैं, बल्कि पुस्तकालयों से जरूरी सूचनाएं प्राप्त कर सकते हैं। दुनिया से हम सलाह मांग सकते हैं, और अपना विचार दुनिया के सामने रख सकते हैं। जिस प्रकार गाँव के अन्दर सूचना का आदान-प्रदान बड़ी तेजी से होता है, ठीक उसी प्रकार इण्टरनेट के द्वारा पूरे विश्व में कहीं से किसी कोने में सूचना तीव्र गति से दिया और लिया जा सकता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इण्टरनेट विश्व गाँव की संकल्पना को साकार कर सकता है।
दूरदर्शन (टेलिविज़न)
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- अविष्कार
- कार्य-प्रणाली
- उपयोगिता
- उपसंहार।
दूरदर्शन आधुनिक विज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण विधा है मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा देने, जानकारी बढ़ाने, प्रचार और प्रसार का भी एक महत्त्वपूर्ण सशक्त माध्यम है। इस माध्यम में जैसे रोडियो और सिनेमा की श्रव्य-दृश्य विधियाँ मिल कर एक हो गई हैं। इसे बेतार-संवाद प्रेषण का अभी तक का सर्वोत्तम उपलव्ध वैज्ञानिक साधन माना जाता है। टेलिफोन और रेडियां के आविष्कार के पहले तक जैसे आम आदमी ने कभी कल्पना तक नहीं की थी कि कभी वह दूर-दूराज़ स्थित लोगों की आवाज़ सुन कर उन्हें अपने समीप अनुभव कर सकेगा, उसी प्रकार बोलने वाले को कभी देख भी सकेगा, यह सोचना भी कल्पना से परे था। लेकिन दूरदर्शन के आविष्कार ने असम्भव या कल्पनातीत समझी जाने वाली उन सभी बातों को आज साकार एवं सम्भव कर दिखाया है।
इस वैज्ञानिक चमत्कार यानि दूरदर्शन का आविष्कार सन् 1926 ई० में सम्भव हो पाया था। इस का आविष्कारकर्ता का नाम है जॉन एल० बेयर्ड। भारत में इस चमत्कारी दृश्य श्रव्य प्रसारण विधा का आगमन सन् 1964 ई० के बाद ही सम्भव हों पाया। भारत में पहले दूरदर्शन-प्रसारण केन्द्र की स्थापना सन् 1965 में ही हो पाई। धीरे-धीरे इसका प्रचलन और प्रसारण इस सीमा तक बड़ा कि आज दूर-पास सर्वन्र इसे देखा-सुना जा सकता है। राजभवन से लेकर झोंपड़ी तक में यह पहुँच चुका है। पहले इस का श्वेत-श्याम स्वरूप ही प्राप्त था, जबकि आज भारत-समेत सारे विश्व में दूरदर्शन रंगीन दुनिया में प्रवेश कर चुका है।
आजकल भारत में उपग्रह की सहायता से दूरदर्शन के कार्यक्रम देश के प्रत्येक कोने में सरलता से पहुँचने लगे हैं। अब तक डेढ़-दो दर्जन तक प्रसारन केन्द्र तथा सैंकड़ों रिले केन्द्र स्थापित हो चुके हैं। दूरदर्शन-ट्राँसमिशन की संख्या भी दिन-प्रतिदिन लगातार बढ़ती ही जा रही है। आधुनिक विज्ञान ने टेलिविजन का प्रयोग भिन्न-भिन्न दिशाओं में सम्भव बना दिया है। दूरदर्शन अन्तरिक्ष-विज्ञान की भी कई तरह से सहायता कर रहा है। सुदूर ग्रहों की जानकारी इस के कैमरे सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। कृत्रिम उपग्रह अन्तरिक्ष में भेजने और वहाँ उन पर नियंत्रण रखने के कार्य में भी दूरदर्शन बड़ा सहायक सिद्ध हो रहा है।
दूरदर्शन तरह-तरह के मनोरंजन का एक सर्वसुलभ घरेलू साधन है ही, इससे, शिक्षा के प्रचार-प्रसार, निरक्षरता हटाने जैसे कार्यों में भी पर्याप्त सहायता ली गई और ली जा रही है। विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को शिक्षा के साथ-साथ किसानों को कृषि कार्यों को शिक्षा के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार दूरदर्शन प्रचार-प्रसार का भी अच्छा माध्यम है। सो स्वास्थ्य-सुधार, जनसंख्या-नियंत्रण, शिशु-संवर्द्धन-रक्षा जैसे कार्य भी यह कर रहा है। और भी कई प्रकार के घरेलू तथा व्यावसायिक शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए इस का व्यापक प्रयोग किया जा रहा है। देश-विदेश के समाचारों की दृश्य-श्रव्य योजना, समाचार-समीक्षा, गोष्ठियाँ, वार्त्ताएँ, कवि-सम्मेलन-मुशायरे, प्रदर्शनियाँ और तरह-तरह के उत्पादों के विज्ञापन जैसे अनेक कार्य इस से लिए जा रहे हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि आज दूरदर्शन हमारे व्यापक जीवन का एक व्यापक एवं व्यावहारिक अंग बन चुका है। हाँ, अपसंस्कृति के प्रचार का माध्यम बनने से इसे रोकना आवश्यक है, नहीं तो देश-काल के अनुरूप इस की वास्तविक उपयोगिता व्यर्थ हो कर रह जाएगी।
कम्प्यूटर : मशीनी मस्तिष्क
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- कम्यूटूर-प्रणाली
- उपयोगिता
- उपसंहार।
आधुनिक ज्ञान-विज्ञान ने किस सीमा तक प्रगति एवं विकास कर लिया है, किस तरह वह एक-के बाद-एक नए आविष्कार कर के मानव की सभी तरह की कार्य-शक्तियों के लिए एक चुनौती बनता जा रहा है ; कम्प्यूटर का आविष्कार इसका एक नवीनतम उदाहरण है।
कम्प्यूटर को आज प्रत्येक क्षेत्र की प्रगति एवं द्रुत विकास के लिए आवश्यक माना जाने लगा है। शिक्षा, व्यवसाय, शास्त्र-प्रशासन सभी में आज कम्प्यूटर-प्रणाली की न केवल महती आवश्यकता ही अनुभव की जा रही है ; बल्कि यथासम्भव अपनाया भी जा रहा है। यहीं तक नहीं, देश की सुरक्षा-प्रणाली की दृढ़ता के लिए भी आज कम्प्यूटर एक तरह की अनिवार्यता है। मानव-मस्तिष्क से भी बढ़ कर तीव्र गति से कार्य करने वाला कम्य्यूटर वास्तव में अंक-गणितपद्धति के विकास की एक महत्त्वपूर्ण आधुनिक देन है। ईसा से लगभग चार हजार वर्ष पहले गणक-पटल नामक अंक गणित की जिस विद्या का विकास हुआ था, जिसके द्वारा तारों में मोती जैसे डालकर आज भी बच्चों को गिनती सिखाई जाती है, उसका विकसित एवं यंत्रीकृत परिवर्द्धित रूप है कम्यूटर।
यह कम्यूटर-प्रणाली मुख्यत पाँच भागों में विभाजित रहा करती है – (1) स्मरणयंत्र, इसमें सभी तरह की सूचनाएँ भर दी जाती हैं। इन्हीं के आधार बनाकर कम्यूटरी-गिनती हुआ करती है। (2) नियंत्रणकक्ष, इसी से गिनती के गुण-दोष अर्थात् ठीक-गलत का पता चल पाता है।(3) अंक गणित भाग, इसमें यह भाग गिनती की सारी क्रियाप्रक्रिया को सम्पन्न किया करता है।(4) आन्तरिक यन्त्र भाग, इसमें सभी प्रकार के संकेत, निर्देश और जानकारियाँ संकलित एवं संचित रहा करती हैं। (5) बाह्य यंत्र भाग, उपर्युक्त अंगों के क्रियाकलापों से प्राप्त निर्देशों-सूचनाओं का विवेचन-विश्लेषण का परिणाम बताने का कार्य यह भाग सम्पन्न किया करता है।
कम्प्यूटर की अपनी एक अलग भाषा है। उसी में सभी तरह के संकेत, सूचनाएँ आदि उसमें भरे जाते हैं। कम्प्यूटर की तकनीकी भाषा में उन्हे क्रमश: आफ, आन, शून्य, एक या फिर द्विचर संख्या कहा जाता है। इन्हीं के द्वारा ही भाषा को अंकों में बद्ल दिया जाता है इन्हें ‘बिद्स’ भी कहा गया है। ये बिट्स छ: होते हैं, जिन का प्रयोग करके ही किसी बात का अन्तिम परिणाम प्राप्त किया जाता है। इन सब की तकनीक सर्वथा भिन्न प्रकार की है।
आज सरकारी-गैरसरकारी प्रत्येक क्षेत्र में बड़े व्यापक स्तर पर कम्यूटर का प्रयोग किया जाने लगा है। प्रत्येक गणितीय हिसाब-किताब, लेखा-जोखा, अनुभव, परीक्षण आदि योजनाओं की रूपरेखा तैयार करने, उनकी परिणति का फलाफल जानने के लिए कम्यूटर का प्रयोग अनिवार्यत: किया जाने लगा है। इतना ही नहीं, सामान्य जमा-तफरीक, गुणा या भाग, यहाँ तक कि अन्तरिक्ष और मौसम-विज्ञान की भविष्यवाणियाँ भी इसी के माध्यम से की जाने लगी हैं।
चिकित्सा-प्रणालियों और ऑपरेशनों में भी इसकी सहायता ली जाती है। समाचारपप्रों के प्रकाशन और समूचे क्रियाकलापों का आधार तो कम्यूटर बन ही चुका है, पुस्तक-प्रकाशन व्यवसाय भी धीरे-धीरे सम्पूर्णतः इसी पर आश्रित होता जा रहा है।
आज कई प्रकार के अनुसन्धान कार्य भी कम्यूटर से किए जा रहे हैं। टेलिफोन, बिजली-विभाग, बैंक आदि भी बिल बनाने तथा अन्य लेन-देन के कार्यों में इस का प्रयोग करने लगे हैं। इस प्रकार आज कम्प्यूटर-प्रयोग व्यापक होता जा रहा है। इसके साथ कई तरह के खतरे भी बढ़ते जा रहे हैं। मानव-मस्तिष्क का व्यर्य और बेकार हो जाना पहला खतरा है। इसी तरह के और भी कई खतरे हैं। तो चाहे कुछ भी हो जाए, यह मशीनी मस्तिष्क वास्तविक मानव-मस्तिष्क जैसा तो कतई नहीं बन सकता।
धर्म और विज्ञान
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- धर्म और विज्ञान का पारस्परिक संबंध
- दोनों में सामंज्यस
- उपसंहार।
जीवन को सत्य का पालन करने का आधार, आदर्श व्यवहार के प्रति आस्था और विश्वास जैसे सात्विक एवं उदात गुणों को धारण करने की प्रेरणा एवं शक्ति जिससे प्राप्त हुआ करती है, उसे धर्म कहते हैं।
धर्म के विपरीत विज्ञान का मूल आधार भी विशेष प्रकार का ज्ञान ही हुआ करता है। विज्ञान भी मूल रूप से सत्य का अनवरत अन्वेषक होता है। लेकिन उस का आधार ठोस, नापे-तोले जा सकने वाले भौतिक पदार्थ हुआ करते हैं। वह धर्म की तरह अनैतिक आत्म तत्त्व का चिन्तक एवं विवेचक न होकर भौतिक तथ्यों का अन्वेषण किसी अन्य लोक में उद्धार पाने के लिए नहीं किया करता ; बल्कि इस दृश्य और पंचभौतिक संसार की सुख-समृद्धि पाने के लिए ही किया करता है।
धर्म और विज्ञान का प्रेरणा-स्रोत एक ही है। लक्षित उद्देश्य भी एक ही है और वह मानव-जीवन की सुख-समृद्धि की कामना और उस कामना को पूर्ण करने की वेश्ष। मानव-कल्याण की लक्ष्य-साधना एक समान दोनों में विद्यमान दोनों यानी धर्म और विज्ञान जब अपने मूल लक्ष्य की साधना की राह से भटक जाया करते हैं, तो स्वयं अपने लिए और पूरे जीवन-समाज के लिए तरह-तरह के व्यवधानों, संकटों, अपकृत्यों अैर अपरूपों की सृष्टि का कारण बन जाया करते हैं। इतना अन्तर अवश्य रहता है कि धर्म लक्ष्य से भष्ट हो या अधर्म बनकर लोक-परलोक दोनों के नाश का कारण बन जाया करता है ; जबकि विज्ञान राह से भटक कर मुख्यत: भौतिक या इहलौकिक विनाश का कारण ही उपस्थित किया करता है।
मानव-समाज की सर्वागीण उन्नति तभी हो सकती है जब धर्म और विज्ञान में सामंज्यस हो। जिस प्रकार अकेलाविज्ञान संसार को शांति नहीं प्रदान कर सकता उसी प्रकार अकेला धर्म भी संसार को समृद्ध नहीं बना सकता। दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक हैं। आवश्यकता इस बात का है कि धर्म और विज्ञान – दोनों का एक-दूसरे पर अंकुश रहे।
इससे स्सष्ट है कि यदि मानव विवेक से काम ले, अपने आचरण-व्यवहार से विवेक को हाथ से न निकलने दे, तो धर्म और विज्ञान दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।
शिक्षा और विज्ञान
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- पारस्परिक संबंध
- लक्ष्य-हित साधन
- उपसंहार।
शिक्षा का चरम लक्ष्य मानव-जाति और समाज को हर प्रकार से विवेक सम्मत राह पर चलाना ही हुआ करता है। इस प्रकार विज्ञान का कार्य भी व्यक्ति और समाज के जीवन को विकास के नये-नये आयाम प्रदान कर उसे एक सुखसुविधापूर्ण सन्तुलन प्रदान करना ही है। इसी प्रकार उसकी दृष्टि को व्यापक बनाना, मन-मस्तिष्क के बन्द पड़े या संकीर्ण द्वारों में खुलापन लाना भी विज्ञान का ही एक कार्य है।
अब देखना यह है कि शिक्षा और विज्ञान में क्या कोई सीधा सम्बन्ध स्थापित भी किया जा सकता है ? इन प्रश्नों पर दो तरह से विचार करना सम्भव हो सकता है।
पहली दृष्टि यानि कि समूची शिक्षा, उसके सभी विषयों को बाद में देकर केवल विज्ञान-सम्बन्धी शिक्षा को ही लागू कियाजजाए ; यह उचित प्रतीत नहीं होता। जीवन में कोमलता, कोमल पक्षों और स्नेह-सम्बन्धों से पले रिश्ते-नातों का महत्त्व समाप्त हो जाएगा। दूसरे केवल विज्ञान पढ़ एवं सीख लेने से जीवन का काम भी नहीं चल सकता। जीवन और उसके व्यवहारों-व्यापारों को चलाने के लिए अन्याय विषयों की शिक्षा एवं जानकारी उतनी ही आवश्यक है कि जितनी वैज्ञानिक विषयों की। सभी की शिक्षा को उचित एवं व्यावहारिक सन्तुलन देने से ही उसका अपना और जीवन का वास्तविक महत्त्व बना रहा सकता है।
अब दूसरी दृष्टि पर विचार करें। वह यह है कि समूची शिक्षा-पद्धाति एवं पढ़ाए जाने विषयों को पढ़ाते समय वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि अपनायी जाए। हमारे अपने विचार में भी यह दृष्टि और धारणा उचित प्रतीत होती है। आज हम जिस युगजीवन में जी रहे हैं, उसमें वैज्ञानिक दृष्टि अपनाए बिना ठीक ढंग से जी पाना कतई संम्भव नहीं। ऐसा होने पर ही एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति स्वयं जीवन के जीवन्त सन्दर्भों के साथ जुड़ कर जीवन को उचित दृष्टि से देख सकेगा।
विज्ञान हो या शिक्षा, दोनों को सहयोगी बना कर या मान कर इन दोनों की सफलता-सार्थकता तभी प्रमाणित की जा सकती है, जब ये आत्यान्तिक तौर पर मानव-कल्याण करें। प्रोफेसर अल्बर्ट आइन्स्टीन का यह कथन यथार्थ है “‘हमारे इस जड़वादी युग में केवल जिज्ञासु वैज्ञानिक अन्वेषकों में ही गहरी धार्मिकता है।’ कुछ इसी प्रकार की बात स्वामी विवेकानंद ने भी कही थी – ” आधुनिक विज्ञान सच्ची धार्मिक भावना का ही प्रकटीकरण है क्योंकि उसमें सत्य को सच्ची लगन से समझने की कोशिश है।”
राष्ट्र की प्रगति में विज्ञान की भूमिका (माध्यमिक परीक्षा – 2009)
अथवा, भारत में विज्ञान के बढ़ते चरण
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- अणुशक्ति
- विशेष शक्ति
- उपलब्धियाँ
- उपसंहार।
स्वतंग्रता – प्राप्ति से पहले तक आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में भारत की अपनी गति- दिशा शून्य थी। सूई से लेकर हवाई जहाज़, रेलवे इंजिन, यहाँ तक कि रेल के डिब्बे भी आयात किये जाते थे। उस आयात किए वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से ही इस देश का परिचय आधुनिक विज्ञान के साथ संभव हो पाया था। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद आज स्थिति यह है कि छोटे-बड़े प्रत्येक सामान, यंत्र, उपकरण आदि का निर्माण भारत में होने लगा है। इतना ही नहीं, आज भारत कई तरह की मशीनरी, यंत्रों एवं वैज्ञानिक उपकरणों का वैज्ञानिक तकनीक का भी आस-पास के अनेक छोटे-बड़े देशों को निर्यात भी करने लगा है।
सर्वप्रथम भारत में सन् 1948 में एक अणुशक्ति आयोग स्थापित किया गया। सन् 1955 ई० में पहले परमाणु रिएक्टर का निर्माण किया। बिजली का उत्पादन अणुर्शक्ति से करने के लिए तारापुर पर माणु बिजली घर स्थापित किया। सन् 1974 में राजस्थान के पोखरण नामक स्थान पर प्रथम भूमिगत अणु-विस्फोट कर भारत ने सारे संसार को चकितविस्मित कर दिया। इसके बाद भारतीय विज्ञान ने उपग्रह-निर्माण एवं उड़ान क्षेत्र में प्रवेश किया। सन् 1975 में ‘आर्यभट्ट’ नामक उपग्रह का प्रक्षेपण कर भारतीय विज्ञान ने संसार की आँखें खोल दीं। यह प्रमाणित कर दिया कि भारत इस क्षेत्र में भी निरन्तर आगे बढ़ते जाने की नीयत से कार्य कर रहा है। यह बात विशेष ध्यातव्य है कि भारतीय वैज्ञानिकों ने परमाणु शक्ति अर्जित कर ली है।
अन्तरिक्ष – अनुसन्धान के वैज्ञानिक क्षेत्र में भी भारत आज एक विशेष शक्ति के रूप में उभर कर सामने आया है। सन् 1975 में ‘आर्यभट्ट’ का और 1979 में ‘भास्कर’ का सफल प्रक्षेपण करने के बाद जब भारतीय रॉकेटों के माध्यम से ‘रोहिणी’ नामक उपग्रह कक्षा में स्थापित किया, तो विश्व ने एक बार फिर चौंक कर भारत की तरफ देखा। सन् 1984 में उपग्रह ‘रोहिणी डी-2’ छोड़ कर अपने अन्तरिक्ष-विज्ञान के कार्यक्रम को आगे बढ़ाया। इसके बाद एपल, भास्कर-द्वितीय, इन्सेट प्रथम-ए, इन्सेट प्रथम-बी, एस० एल० वी- 2 तथा 3 , इन्सेट एफ-डी आदि अनेक उपग्रह अन्तरिक्ष में भेज चुका है और भी भेजने की कई तरह की योजनाओं पर भारतीय वैज्ञानिक नित नए प्रयत्न और प्रयोग कर रहे हैं। इस से भविष्य को परम उज्ज्वल कहा जा सकता है।
बिजली, तार, दूर, संचार, टेलिविजन, सिनेमा और अब कम्प्यूटर आदि के निर्माण में भी भारत अन्य किसी देश से पोछे नहीं है। रेलवं इंजिन, डिब्बे, बस, ट्रक, कार सभी चीजों का निर्माण करके आज भारत अपनी हर प्रकार की आवश्यकताएँ पूरी कर रहा है। अन्य देशों से भी उसे ऐसी सब वस्तुओं के निर्माण के आर्डर लगातार प्राप्त होते रहते हैं। हर दिशा और क्षेत्र में भारत ने यथेष्ठ प्रगति और विकास किया है।
यों भारत के पास अपनी प्राचीन परम्परागत वैज्ञानिक पद्धदियाँ भी अपने संस्कृत साहित्य में सुरक्षित हैं। लेकिन सखेद कहना पड़ता है कि आज भाषा की मारामारी के अभाव और विदेशी भाषा की मानसिकता बन जाने के कारण हम सब से लाभ उठा पाने की स्थिति में नहीं रह गए। जो हो, भारतीय वैज्ञानिकों ने आधुनिक विज्ञान और तकनीक के विकास में सी संसार को बहुत कुछ दिया और दे सकता है।
पेड़-पौधे और पर्यावरण
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- उपयोगिता
- वन-कटाई के दुष्परिणाम
- उपसंहार।
पेड़-पौधे प्रकृति की सुकुमार, सुन्दर, सुखदायक सन्तानें मानी जा सकती हैं। इन के माध्यम से प्रकृति अपने अन्य पुत्रों, मनुष्यों तथा अन्य सभी तरह के जीवों पर अपनी ममता के खज़ाने न्योछावर कर अनन्त उपकार तो किया ही करते हैं। उनके सभी तरह के अभावों को भरने, दूर करने के अक्षय साधन भी हैं। पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ हमें फल-फूल, और्षधियाँ, छाया एवं अनन्त विश्राम तो प्रदान किया ही करते हैं, वे उस प्राण-वायु (ऑक्सीजन) का अक्षय भण्डार भी हैं कि जिस के अभाव में किसी प्राणी का एक पल के लिए जीवित रह पाना भी नितान्त असंभव है।
पेड़-पौधे हमारी ईधन की समस्या का भी समाधान करते हैं। उनके अपने आप झड़ कर इधर-उधर बिखर जाने वाले पत्ते घास-फूँस, हरियाली और अपनी छाया में अपने पनपने वाली नई वनस्पतियों को मुफ्त की खाद भी प्रदान किया करते हैं। उनमें हमें इमारती और फर्नीचर बनाने के लिए कई प्रकार की लकड़ी तो प्राप्त होती ही है, कागज आदि बनाने के लिए कच्ची सामग्री भी उपलब्ध हुआ करती है। इसी प्रकार पेड़-पौधे हमारे पर्यावरण के भी बहुत बड़े संरक्षक हैं.। यों सूर्य-किरणें भी नदियों और सागर से जल-कणों का शोषण कर वर्षा का कारण बना करती हैं ; पर उस से भी अधिक यह कार्य पेड़-पौधे किया करते हैं। सभी जानते हैं कि पर्यावरण की सुरक्षा, हरियाली वर्षा का होना कितना आवश्यक हुआ करता है।
पेड़-पौधे वर्षा का कारण बन कर के तो पर्यावरण की रक्षा करते ही हैं, इनमें कार्बन डाई-ऑक्साइड जैसी विषैली, स्वास्थ्य-विरोधी और घातक कही जाने वाली प्राकृतिक गैसों का चोषण और शोषण करने की भी बहुत अधिक शक्ति रहा करती है। स्पष्प है कि ऐसा करने पर भी वे हमारी धरती के पर्यावरण को सुरक्षित रखने में सहायता ही पहुँचाया करते हैं। पेड़-पौधे वर्षा के कारण होने वाली पहाड़ी चट्टानों के कारण, नदियों के तहों और माटी भरने से तलों की भी रक्षा करते हैं। आज नदियों का पानी जो उथला या कम गहरा होकर गन्दा तथा प्रदूषित होता जा रहा है, उसका एक बहुत बड़ा कारण उनके तटों, निकास-स्थलों और पहाड़ों पर से पेड़-पौधों की अन्धा-धुन्ध कटाई ही है। इस कारण जल स्रोत तो प्रदूषित हो ही रहे हैं, पर्यावरण भी प्रदूषित होकर जान-लेवा बनता जा रहा है।
धरती पर विनाश का यह ताण्डव कभी उपस्थित न होने पाए, इसी कारण प्राचीन भारत के वनों में आश्रम और तपोवनों, सुरक्षित अरण्यों की संस्कृति को बढ़ावा मिला। तब पेड़-पौधे उगाना भी एक प्रकार का सांस्कृतिक कार्य माना गया। सन्तान पालन की तरह उन का पोषण और रक्षा की जाती थी। इसके विपरीत आज हम, कांक्रीट के जंगल उगाने यानि बस्तियाँ बसाने, उद्योग-धन्धे लगाने के लिए पेड़-पौधौं को, आरक्षित वनों को अन्धा-धुन्ध काटते तो जाते हैं पर उन्हें उगाने, नए पेड़-पौधे लगा कर उन की रक्षा और संस्कृति करने की तरफ कतई कोई ध्यान नहीं दे रही।
यदि हम चाहते है कि हमारी यह धरती, इस पर निवास करने वाला प्राणी जगत् बना रहे है, तो हमें पेड़-पौधों की रक्षा और उन के नव-रोपण आदि की ओर प्राथमिक स्तर पर ध्यान देना चाहिए। यदि हम चाहते हैं कि धरती हरी भरी रहे, नदियाँ अमृत जल-धारा बहाती रहें और सब से बढ़ कर मानवता की रक्ष संभव हो सके, तो हमें पेड़-पौधे उगाने, संर्द्धित और संरक्षित करने चाहिए ; अन्य कोई उपाय नहीं।
वन-संरक्षण की आवश्यकता
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- पौराणिक महत्व
- वर्तमान स्थिति
- उठाए गए कदम
- उपसंहार।
प्राचीन भारतीय संस्कृति में वृक्षों को देवता के समान स्थान दिया गया था तथा देवताओं की भांति उनको पूजा की जाती थी। वृक्षों के सूख-दुख का ध्यान रखा जाता था तथा उनके साथ आत्मीयता का संबंध रखा जाता था। मौसम के प्रकोप से उन्हें उसी प्रकार बचाया जाता था, जिस प्रकार माँ-बाप अपने बच्चे को बचाते हैं। इतना ही नहीं, 19 वों तथा 20 वीं शताब्दी के मध्य नुक्ष काटना दण्डनीय अपराध था।
मानव का जन्म, उ. की सभ्यता-संस्कृति का विकास वनों में पल-पुसकर ही हुआ था। उस की खाघ्य, आवास आदि सभी समस्याओं का समाधनन करने वाले तो वन थे ही, उसकी रक्षा भी वन ही किया करते थे। वेदों, उपनिषदों की रचना तो वनों में हुई ही, आरण्यक जैसे ज्ञान-विज्ञान के भण्डार माने जाने वाले महान् ग्रन्थ भी अरण्यों यानि वनों में लिखे जाने के कारण ही ‘आरण्यक कहलाए। यहाँ तक कि संसार का आदि महाकाव्य माना जाने वाला, आदि महाकवि वाल्मीकि द्वारा रचा गया ‘रामायण’ नामक महाकाव्य भी एक तपोवन में ही लिखा गया।
आज जिस प्रकार की नवीन परिस्थितियाँ बन गई हैं, जिस तेज़ी से नए-नए कल-कारखानों, उद्योग-धन्धां की स्थापना हो रही है, नए-नए रसायन, गैसें, अणु, उद्जन, कोबॉल्ट आदि बम्बों का निर्माण और निरन्तर परीक्षण जारी है, जैविक शस्तास्त्र बनाए जा रहे हैं ; इन सभी ने धुएँ, गैसों और कचरे आदि के निरन्तर निसरण से मानव तां क्या सभी तरह के जीव-जन्तुओं का पर्यावरणण अत्यधिक प्रदूषित हो गया है।
केवल बम ही है, जो इस सारे वैषैले और मारक प्रभाव से प्राणी जगत् की रक्षा कर सकते हैं। उन्हीं के रहते समय पर उचित मात्रा में वर्षा होकर धरती की हरियाली बनी रह सकती है। हमारी सिंचाई और पेय जल की समस्या का समाधान भी वन-संरक्षण से ही सम्भव हो सकता है। वन हैं तो नदियाँ भी अपने भीतर जल की अमृतधारा संजो कर प्रवाहित कर रही हैं। जिस दिन वन नहीं रह जाएँगे, सारे प्राणी-प्रजातियों, अनेक वनसतियाँ एवं अन्य खनिज तत्व्व अतीत की भूली-बिसरी कहानी बन चुके है, यदि आग की तरह ही निहित स्वार्थों की पूर्ति, अपनी शानो-शौकत दिखाने के लिए वनों का कटाव होता रहा, तो धीरे-धीरेर अन्य सभी का भी सुनिश्चित अन्त हो जाएगा।
वन-संरक्षण जैसा महत्तपपूर्ण कार्य वर्ष में वृक्षारोपण जैसे सप्ताह मना लेने से संभव नहीं हो सकता।इसके लिए वास्तव में आवश्यक योजनाएँ बनाकर कार्य करने की जरूरत है। वह भी एक-दो सप्ताह या मास-वर्ष भर नहीं ; बल्कि वर्षों तक सजग रहकर प्रयत् करने की आवश्यकता है।
जिस प्रकार बच्चे को मात्र जन्म देना ही काफी नहीं हुआ करता ; बल्कि उसके पालन-पोषण और देख-रेख की उचित व्यवस्था करना-व भी दो-चार वर्षों तक नहीं, बल्कि उसके पालन-पोषण और देख-रेख की उचित व्यवस्था करना-वह भी दो-चार वर्षों तक नहीं ; बल्कि उनके बालिग होने तक आवश्यक हुआ करती है ; उसी प्रकार की व्यवस्था, सतर्कता और सावधान वन उगाने, उनका संरक्षण करने के लिए भी किया जाना आवश्यक है। तभी धरती और उसके पर्यावरण की, जीवन एवं हरियाली की रक्षा संभव हो सकती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वृक्षों से हमारे देश की नैतिक, सामाजिक और आर्थिक समृद्धि भी होती है क्योंकि –
वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर।
परमारथ वे कारने साधुन धरा शरीर।।
भारतीय स्वतन्त्रता के अड़सठ वर्ष
रूपरेखा :
- भूमिका
- स्वतन्न्रता के लिये संघर्ष
- संविधान का गठन
- स्वतंत्रता का महत्व
- उपसंहार।
15 अगस्त, 1947 ई० के दिन एक लम्बे संघर्ष के बाद भारत ने अपनी खोई हुई स्वतन्त्रता फिर से प्राप्त की। तब से लेकर आज तक लगभग साठ वर्ष बीत चुके हैं, लगता है, तब का बहुत कुछ बदल गया है। इस बदलाव के परिणाम स्वरूप बहुत कुछ अच्छा हुआ है। भारत ने प्रगति और विकास की राह पर कई मील के पत्थर तोड़े भी हैं, कई नये स्थापित भी किए हैं। खोया भी कम नहीं है। क्या खोया है और क्या पाया है, उसका लेखा-जोखा संक्षेप में कर लेना उचित होगा।
अपना संविधान बनाना स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद की पहली उपलब्धि है। तटस्थ विदेश-नीति बनाकर, उस पर आज तक डँटे रहना दूसरी महत्वपूर्ण उपल्धि कही जा सकती है। देश के विकास के लिये योजनाओं को एक के बाद एक लागू कर उसका निर्वाह कर लेना भी उपलब्धि से कम नहीं है। अनेक तरह के भ्रष्टाचारों, विडम्बनाओं और लांछनप्रतिलांछनों के रहते हुए भी लोकतंत्र की नित्यप्रति जर्जरित हो रही नैय्या को भँवरों से पार ले जाने की प्रवृत्ति भी सभी देशी-विदेशियों की दृष्टि में एक आश्चर्यजनक उपलब्धि है।
शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी, उद्योग-धन्धे, कलकारखाने सभी का स्वतंत्र भारत में असीम विस्तार हुआ है और आज भी निरन्तर हो रहा है। रेल, बस, वायुयान तथा अन्य सभी तरह के यानों का उपयोग कर, यातायात के साधनों में भी देश ने बहुत तरक्की की है। मनोरंजन के सभी नवीनतम् साधन भी यहाँ प्रचुरता से बनने लगे हैं। तकनीक और मशीनों का, बढ़िया और सिले-सिलाए कपड़ों, जूतों आदि का निर्यात भी किया जा रहा है। जनसंख्या तो बढ़ी ही है, खाद्य-पदार्थों की भी कमी नहीं – वे बहुत महँंगे मिलते हैं, इस कारण आम आदमी के जीने के लिये नाको चने चबाने पड़ते हैं – अर्थात् जीवन जीने के लिये संघर्ष करना पड़ता है।
आज का युग अणु-र्तिक्त का युग है। अन्त: क्षेत्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय अणु-शक्तियों के विस्तार का है, और इस दिशा में भी भारत किसी से पीछे नहीं है। उसने अन्तर्राष्ट्रीय मिसाइलों का निर्माण तो कर ही लिया है, अन्तरिक्ष ज्ञानविज्ञान और उपग्रह-विज्ञान में भी पीछे नहीं है। कहने का तात्पर्य यह कि स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले जहाँ सूई से लेकर वायुयान तक सभी कुछ दूसरे देशों से आता था, अब वह सब उससे भी कहीं बढ़कर, उन्नत भारत में बनने लगा है। भारत हर चीज का निर्यांत भी कर रहा है। भारत में चिकित्सा-विज्ञान की प्रगति के कारण ही बाल-मृत्यु दर कम, औसत आयु-दर बढ़ गयी है। सभी संघातक बीमारियों के इलाज-उपचार यथा सम्भव होने लगे हैं। इस प्रकार प्रगति के पथ पर बढ़ता भारत इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुका है।
भारत न जो खोया है, उसकी भरपाई कत्तई सम्भव नहीं है। उसने अपना राष्ट्रीय चरित्र खोकर अनेक प्रकार के अनाचार-भ्रष्टाचार का अभिवर्द्धन किया है। धर्म, आध्यात्मिकता, समाज, राजनीति आदि प्रत्येक क्षेत्र को भ्रष्टाचार एवं मूल्य-विहीनता से भर दिया है। चरित्र के साथ-साथ, घर-परिवार और सभी तरह के उदात्त मानवीय मूल्यों का भी विघटन हुआ है। आज का सबसे बड़ा संकट आस्था-विहीनता है, जो कई तरह से पतन का कारण बन गयी है। लगता है कि आज हमारा स्थितियों पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया है। लगता है आचार-विचार, सदाचार, आदर्श एवं मानवीयता की नॉव बीच मँझधार में फँसकर डूब जायेगी। कम से कम इस समय तो उसे पार ले जाने की सामर्ध्य किसी में दिखाई नहीं दे रही है।
हम यह मानते हैं कि – हम स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिक हैं। किन्तु यह सिर्फ भ्रम है – हम शारीरिक रूप से स्वतंत्र तथा आत्मा से परतन्त्र हैं। इस निरीहता भरी स्वतंत्रता से वह घुटती हुई गुलामी ही अच्छी थी, जिसमें कम से कम अपनों के लिये प्रेम की भावना तो थी। हर रिश्ते-नाते को उचित मर्यादा तो मिलती थी। वह गुलामी अंग्रेजों की गुलामी थी, और यह आजाद गुलामो भारतीय अंग्रेजों की है, जिसमें खुलकर साँस लेना भी अपराध है।
इस प्रकार हम देखते हैं प्राय: हर वर्ष हम आजादो की वर्षगाँठ मनाते हैं, लेकिन सही अर्थों में उस पर अमल नहीं करते हैं।
महिला आरक्षण बिल्न
रूपरेखा :
- भूमिका
- समाज में नारी-पुरुष की समानता
- नारी की दुर्दशा
- नारी की उपादेयता
- बिल को मंजूरी
- उपसंहार।
हमारे देश में प्राचीनकाल से ही नारी को समाज में उच्च स्थान प्राप्त है। उस समय नारी के बिना कोई भी धार्मिक कार्य अधूरा माना जाता था। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में भी कहा गया है कि – जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ नारी का निरादर होता है, वहाँ तरह-तरह की परेशानियाँ उत्पन्न होती हैं। देश में विदेशी आक्रमणों के कारण नारी का रूप बदल गया, उसे चहारदीवारी में बन्द होना पड़ा। इस कारण उसे अपने अधिकारों से वंचित रहना पड़ा। लेकिन स्वतन्र्रता प्राप्ति के बाद फिर उसका पुराना समय लौटा। आज नारी का समाज में वही स्थान है जो पुरुष का है।
भारतीय इतिहास नारियों के महान् कर्तव्यों, क्षमताओं तथा वीरता के कर्मों से भरा पड़ा है। नारी भारतीय समाज में हमेशा आदर व सम्मान का पात्र रही है। नारी ममता, प्रेम, वात्सल्य, पवित्रता तथा द्या की मूर्ति है। उसने अनन्त कठिनाइयाँ सहते हुए परिवार तथा समाज एवं राष्ट्र की सेवा की है। दु:ख का विषय यह है कि समाज में नारी को अबला व ‘बेचारी’ जैसे सम्बोधनों से पुकारा जाता है। उसकी इस हालत के लिये हमारा समाज जिम्मेदार है, जिसमें सामाजिक कुरीतियाँ और परम्परागत रूढढ़वादिता आज भी विद्यमान है।
कुछ राजनीतिक दलों का तर्क है कि दलित और पिछड़े वर्ग की महिलाओं को विशेष आरक्षण दिया जाना चाहिये। ऐसा कहकर ये आरक्षण में भी आरक्षण की बात कर रहे हैं। विडम्बना यह है कि महिला आरक्षण विधेयक के किसी भी स्वरूप पर आम सहमति नहीं हो पा रही है। सच्चाई तो यह है कि आम सहमति कायम करने के लिये अब तक कोई ठोस प्रयास भी नहीं किया गया। मार्च, 2003 के लोकसभा में किसी भी राजनीतिक दल ने इस बात के लिये प्रयास नहीं किया कि महिला आरक्षण विषय पर गम्भीर चर्चा हो सके।
ऐसा लगता है कि सभी को, यहाँ तक कि महिला आरक्षण विधेयक पेश करने वालों को भी इस बात का इंतजार था कि इस विधेयक को लेकर हंगामा हो और इसी दहाने विधेयक को आगे के लिये टाल दिया जाये। लेकिन काफी राजनीतिक उठा-पटक के बाद आखिरकार संसद के सन् 2010 के बसंतकालीन सत्र में महिला आरक्षण विधेयक को बहुमत से पारित कर दिया गया। निश्चय ही भारत के संसद में इसे क्रांतिकारी कदम के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि इसके पहले तक महिला-हित की बाते करने वाले नेता भी विधेयक पारित करने के नाम पर बगलें झांकने लगते थे।
महिला विधेयक का प्रारित होना इस बात को दर्शाता है कि नारी के प्रति परम्परागत धारणाओं में भी काफी परिवर्तन आया है, फिर भी अभी तक स्थितियाँ ऐसी नहीं बन पाई हैं कि आज की नारी अपनी हर प्रकार की क्षमता का परिचय खुलकर दे सके।
हमें यह भी न भूलना चाहिए कि अगर महिला आरक्षण विधेयक पारित करने का उद्देश्य केवल महिलाओं के सब्जबाग दिखाना है तो फिर इस विधेयक के पारित होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। उल्लेखनीय है कि महिला आरक्षण विधेयक इस मान्यता पर आधारित है कि लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत स्थान आरक्षित होने से देश की महिलाओं का कल्याण होगा। दुर्भाग्य से यह मान्यता सही नहीं है। इस सन्दर्भ में इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये आरक्षण की व्यवस्था होने के बावजूद उनकी स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं आ सका है, फिर भी महिला-आरक्षण बिल एक क्रांतिकारी कदम अवश्य है।
भारत और प्रजातन्त्र
रूपरेखा :
- भूमिका
- प्रजातंत्र की विशेषता
- प्रजातन्न्र: चरित्र-निर्माण तथा नैतिकता का आधार
- प्रजातंत्र : राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका
- उपसंहार।
संसार में शासन चलाने की जो अनेक प्रणालियाँ प्रचलित हैं, उनमें से लोकतंत्र को जनहित की दृष्टि से श्रेष्ठ प्रणाली माना गया है। इसे प्रजातंत्र और गणतंत्र भी कहा जाता है। इस शासन-प्रणाली की प्रमुख विशेषता इसकी परिभाषा के अनुसार यह मानी जाती है कि इसमें लोक या जन (जनता) के द्वारा चुनी गई सरकार द्वारा जनता के हित-साधन के लिये शासनतंत्र को चलाया जाता है। जन या लोक यदि पाता है कि उसके चुने हुए प्रतिनिधि भ्रष्ट या अयोग्य हैं, शासन की व्यवस्था को चला पाने में समर्थ नहीं हैं तो पाँच वर्षो के बाद मतदान के माध्यम से जनता उन्हें बदल सकती है।
लोकतंत्र या प्रजातंत्र में प्रत्येक बालिग को वोट (मत) देकर अपना प्रतिनिधि चुनने का संवैधानिक अधिकार रहा करता है। प्रत्येक व्यक्ति चुनाव लड़ने का अधिकार रखता है। यह अधिकार वह किसी दल विशेष का सदस्य होने के कारण भी पाता है और स्वतंत्र या निर्दलीय रूप से भी रखता है। मुख्यतया इन्हीं कारणों से राजतंत्र, एकतंत्र या तानाशाही, साम्यवादो समाजतंत्र आदि की तुलना में लोकतंत्र या प्रजातंत्र शासन-प्रणाली को सर्वे त्तम माना गया है।
सन् 1947 ई० में 15 अगस्त के दिन जब भारत स्वतन्त्र हुआ था तब तक यहाँ राजतन्त्र के अन्तर्गत विदेशी सत्ता का शासन चल रहा था। स्वतन्र्रता-प्राप्ति के बाद इस लोकतन्र्रीय व्यवस्था को सबसे अच्छा और जनहितकारी मानकर ही यहाँ इस शासन व्यवस्था को लागू कर भारत को एक गणतांत्रिक राष्ट्र घोषित किया गया। हमारें विचार से ऐसा करते समय जिन दो बुनियादी बातों की आवश्यकता थी, उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया गया।
जनतंत्रीय शासन-व्यवस्था में जनता में अनुशासन और राष्ट्रीय चरित्र का नैतिक आधार रहना परम आवश्यक हुआ करता है। पर भारत के स्वतन्न्र होने के बाद न तो राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण की तरफ किसी प्रकार का ध्यान दिया गया, न जनता को अनुशासन सिखाया गया और न कोई नैतिक आधार ही प्रदान किया गया। यहाँ तक कि स्वतन्न्रता का वास्तविक अर्थ और आधार क्या होता है, स्वतन्त्र राष्ट्र के नागरिकों को किस प्रकार के नियम, अनुशासन में रहने की आवश्यकता हुआ करती है आदि बातें भी नहीं सिखाई गयीं।
सिर्फ पश्चिम की अंधा-धुंध नकल करते हुए, औद्योगीकरण का डंका पीटा गया, किन्तु जनतंत्र के अपेक्षित मानसिक एवं नैतिक धरातल के उन्नयन के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया गया। स्वतन्त्रता की नींव रखने वाली पीढ़ी के परिदृश्य से ओझल होते ही चारों तरफ आपाधापी और लूट-पाट शुरू हो गई। फलस्वरूप लोकतंत्र और उसका बुनियादी भाव दोनों ही सार्थक तो हुआ ही नहीं, उल्टे एक प्रकार का मजाक बनकर रह गये हैं।
भारत की लांकतन्त्रीय शासन-व्यवस्था देखकर वास्तव में नाटककार बर्नार्ड शा का यह कथन सार्थक प्रतीत होता है कि, “इस व्यवस्था में घोड़ा, गाड़ी के आगे नहीं बल्कि गाड़ी, घोड़े के आगे जोती जाती है।” अर्थात् जो होना चाहिये, वह न होकर सभी कुछ उलट-पुलट हुआ करता है। फलस्वरूप अच्छा कार्य भी सफल एवं लाभदायक न होकर आम जनता पर एक प्रकार का बोझ बन जाया करता है।
अब जरा भारतीय लोकतंत्र के अब तक के क्रिया-कलापों पर दृष्टिपात कीजिए – उच्च और समर्थ लोगों की दृष्टि से नहीं बल्कि सामान्य वर्ग दृष्टि से देखिए – जिसके हित-साधन के लिये लोकतन्त्र की अवधारणा अस्तित्व में आई थी, यह तो एकदम स्पष्ट हो जायेगा कि यह शासन-प्रणाली अर्थहीन होकर अपने लक्ष्य से बहुत पीछे रह गयी है। भारत में लोकहित की भावना से जितनी भी योजनाएँ बनीं या कार्य किये गये, उन सब का वास्तविक लाभ या तो सरकारी तंत्र डकार गया या उन कार्यों से सम्बन्धित, ठेकेदार, इन्जीनियर या उसे सप्लाई करने वाला उच्च वर्ग हजम कर गया। ऐसी स्थिति में भारत में लोकतंत्र को कैसे और क्सि प्रकार सार्थक एवं सफल कहा जा सकता है ?
आतंकवाद और भारत
अथवा आतंकवाद : एक चूनौती
रूपरेखा :
- भूमिका
- आतंकवाद एक जटिल समस्या के रूप में
- आतंकवाद से मुक्ति के लिये उचित कदम
- उपसंहार।
आतंकवाद का इतिहास सम्भवतः उतनी ही पुरानी है, जितना पुरानी हमारी सभ्यता का इतिहास है। पूँजीवादी, लोकतान्त्रिक और साम्यवादी शासन व्यवस्थाओं के उदय के पूर्व समाज में उन्हीं का वर्चस्व रहता था जो वास्तव में बाहुबली होते थे। ऐसे लोगों में अधिकांश स्वेन्छाचारी होते थे। उनकी सत्ता को चुनौती देने वाली कोई ताकत कहीं सिर उठाने का साहस न कर बैठे, इसलिये वे हमेशा आतंकवाद का सहारा लेते थे। दहशत और आतंक प्रसारित करने के लिये वे लोग समय-समय पर निरीह जनपदों में हत्या, अपहरण, लूटपाट, आगजनी और विनाश का भैरव राग अलापते रहते थे।
19 वीं शताब्दी के मध्य तक आतंकवाद को संरक्षण देने वाले अक्सर वे लोग होते थे, जिनके हाथों में सत्ता की नकेल होती थी, पर बीसवीं शताब्दी में आतंकवाद के केन्द्र में बदलाव दिखाई पड़ने लगा। बीसवीं शताब्दी में साम्प्रदायिकता, जातीय वैमनस्य, क्षेत्रीयता और आर्थिक वैषम्य से उत्पन्न वर्ग-संघर्ष की भावना से बुरी तरह ग्रस्त, बिकी हुई निष्ठा वाले अपने ही देश के कुछ लोग आतंकवादी संस्थाओं का गठन कर अपने ही राष्ट्र को खंडित करने का प्रयास करने लगे।
विदेशी शासन से मुक्ति की कामना करने वाले राष्ट्र के देशभक्त नवयुवक भी आतंकवाद का प्रयोग एक कारगर हथियार के रूप में करते थे। यद्यापि सभ्य संसार द्वारा अभी तक आतंकवाद की कोई सर्वमान्य परिभाषा तैयार नहीं की गई है, पर मोटे तौर पर इसकी परिसीमा में सभी अवैधानिक और हिंसापरक गतिविधियाँ आती हैं
भारत में आतकवादी आन्दोलन की शुरुआत सन् 1965 ई० के बाद हुई है। पूर्वी पाकिस्तान के बंगलादेश में परिवर्तित हो जाने के बाद पाकिस्तान के मन में यह बात आ गई कि युद्धभूमि में भारत का कुछ बिगाड़ सकने में वह सक्षम नहीं है। यही कारण है कि पाकिस्तान ने आतंकवाद का सहारा लिया।
पूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को पंजाब के आतंकवादी आन्दोलन के कारण अपनी जान गँवानी पड़ी। आतंकवादियों की दृष्टि में मानवता का कोई मूल्य नहीं है। आतंकवाद की आड़ में आज कई अपराधी-गिरोह सक्रिय होकर देश के लोगों की जान-माल को हानि पहुँचा रहे हैं। सरकारी शक्तियाँ अनेक प्रकार के प्रयास करके भी उन्हें काबू नहीं कर पायी हैं।
अभी भी देश के हर कोने में आतंकवाद का जाल फैला हुआ है, जिसके कारण अपहरण, हत्या और लूट-पाट आदि जैसी संगीन अपराध नित्य हुआ करते हैं। इस विषैली बेल का विनाश करना अति आवश्यक है। आतंकवादी संगठनों में जैशे-मुहम्मद, लश्करे-तोयबा और हिजबुल-मुजाहिदीन मुख्य रूप से सकिय हैं।
कश्मीरी आतंकवाद का साहस इस सीमा तक बढ़ चुका है कि उसने प्रतिवर्ष होने वाली अमरनाथ-यात्रा को तो बाधित करने का प्रयास किया ही है, वैष्णो देवी की यात्रा पर भी अपनी कुदृष्टि लगा रखी है। पाकिस्तानी खुफिया एजेन्सी की शह और सहायता से ही तस्करो, माफिया के जाने-माने लोग मुम्बई में विस्फोट करवाकर अढ़ाई-तीन सौ लोगों की जानें लेने के साथ-साथ करोड़ों की सम्पत्ति भी स्वाहा कर चुके हैं। उनके लिए राष्ट्रीयता एवं मानवता का कोई भी मूल्य एवं महत्व नहीं है। देश के महत्त्वपूर्ण स्थलों, यहाँ तक कि राजधानी में भी उनके द्वारा विस्फोट किए जाने और कराए जाने की योजनाएँ अक्सर सामने आती रहती हैं।
यद्यपि काश्मीरी जनता को अब वास्तविकता समझ में आने लगी है। यह भी पता चल चुका है कि उन्हें स्वतंत्रता के सुनहरे सपने दिखाने के नाम पर आतंकवादी किस प्रकार उनकी रोटियों, बेटियों पर भी अपनी बदनीयती के दाँत गड़ाये हुए हैं। यद्यपि आतंकवाद कुछ दबता हुआ प्रतीत हो रहा है, पर यह अब समाप्त ही हो जायेगा, ऐसा कह पाना बहुत कठिन है। कारण स्पष्ट है कि इसकी आड़ में पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध अघोषित युद्ध जो छेड़ रखा है। अत: जब तक भारत भी उसके लिये युद्ध जैसा वातावरण प्रस्तुत नहीं करता, इसे खत्म कर पाने की कल्पना करना सपनों की दुनिया में रहने और अपने आप को धोखा देने जैसा ही है।
विश्व-शान्ति और भारत
रूपरेखा :
- भूमिका
- सम्पूर्ण विश्व आतंक के घेरे में
- आतंक को जड़ से समाप्त करने की पहल
- उपसंहार।
अपने मूल स्वभाव में भारत एक अध्यात्मवादी और शान्तिप्रिय देश रहा है। यह अलग बात है कि आज का भारतीय अधिकाधिक भौतिक साधनों को पाने के लिए आतुर होकर अपनी मूल अध्यात्म चेतना से भटकता जा रहा है, उससे हर दिन दूर होता जा रहा है। पर जहाँ तक शान्तिप्रियता का प्रश्न है, वह आज भी बेकार के लड़ाई-झगड़ों में न पड़कर, सहज शान्ति से ही जीवन जीना चाहता है। यही कारण है कि अपने आरम्भ काल से ही भारत शान्तिवादी रहा है और निरन्तर शान्ति बनाये रखने का आदी रहा है।
इसका यह तात्पर्य नहीं कि भारत ने हर प्रकार के अन्याय और अत्याचार को हमेशा निर्विरोध सहन किया है। यह भी नहीं कि उसने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ नहीं किया। नहीं, ऐसी बात नहीं है, शान्ति का अर्थ अन्याय और अत्याचार को चुपचाप सह लेना नहीं है। शान्ति का अर्थ निष्कियता भी नहीं है। शान्ति का अर्थ है-किसी की कोई हानि नं करना-किसी को कोई कष्ट न देना।
जब हम कोई ऐसा कार्य ही नहीं करेंगे जो किसी को हानि पहुंचाने अथवा उद्विग्न करने वाला हो, तो भला शान्ति भंग होगी ही क्यों ? हाँ, जब भी कभी किसी ने अन्याय और अत्याचार का आश्रय लेकर, हमारी शान्ति भंग करने का प्रयास किया है और हम पर अकारण युद्ध थोपा है, तो हमने उसका मुँहतोड़ उत्तर दिया है और अहिंसा या शान्ति-रक्षा के नाम पर अपने शख्रों को जंग लगने या थोथा नहीं होने दिया है। कभी अपनी राष्ट्रीय सीमाओं का अतिक्रमण कर, दूसरों के राज्यों को हथियाने का प्रयास भी हमने नहीं किया है, इतिहास इस बात का गवाह है। आज स्वतंत्र भारत की तटस्थता की नीति, विदेश-नीति भी उपर्युक्त तथ्यों पर ही अधारित हैं।
भारत की सेनाएँ जब भी कभी अपनी सीमाओं से बाहर गई हैं, या तो आक्रमणकारी को सबक सिखाने के लिए गई हैं अन्यथा फिर किन्हीं युद्धग्तस्त देशों में शान्ति स्थापनार्थ ही गई हैं, चाहे उन्हें इसका कितना भी खामियाजा क्यों न भुगतना पड़ा हो। स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल बाद, युद्धग्रस्त कोरिया में बन्दी सैनिकों के आदान-प्रदान के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के आदेश एवं नेतृत्व में हमारी सेना को वहाँ जाना पड़ा था। उस समय हमारे सैनिक वहाँ शान्ति-सैनिक कहलाये थे और अपनी कार्य क्षमता के कारण, हर प्रकार से यशस्वी बन, वहाँ के दोनों पक्षों और संयुक्त राष्ट्र संघ का भी विश्चास अर्जित करके लौटे थे।
उसके बाद भी हमारी सैन्य-युकड़ियाँ शान्ति कार्यों के लिए अनेक देशों में जाती रहीं हैं। आज भी सोमालिया, रवाण्डा आदि देशों में वे विद्युमान हैं। हालाँकि वहाँ के आतंकवादियों के हाथों कई भारतीय सैनिक और डॉक्टर मारे भी जा चुके हैं, फिर भी भारतीय सेना का मनोबल ज्यों का त्यों बना हुआ है। श्रीलंका के राष्ट्रपति के आग्रह पर, वहाँ श्रान्ति-सेना भेजने के बदले भारत अपना एक युवक प्रधानमन्त्री तक की जान गँवा चुका है, फिर भी विश्व में शांति की रक्षा और शान्ति-क्षेत्रों का विस्तार करने की अपनी बुनियादी नीति-रीति से भारत पूर्णतया प्रतिबद्ध है।
यों तो भारत की विदेश नीति का आधार गुट-निरपेक्षता या तटस्थता है, पर उस तटस्थता का अर्थ निष्कियता नहीं है, यह ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है। तटस्थ नीति अपनाते हुए भी भारत इस बात के लिए प्रतिबद्ध है कि विश्व में शान्ति-रक्षा के लिए जहाँ भी आवश्यकता होगी, वहाँ वह उपस्थित रहेगा। अब तक भारत अपने अनुभव एवं व्यवहार के द्वारा शान्ति की रक्षा और स्थापना के लिए विश्व को बहुत कुछ दे चुका है। सत्य, अहिंसा, प्रेम और परस्पर भाईचारा आदि भारत द्वारा दिखाए गए ऐसे ही रास्ते हैं।
यदि विश्व के सभी देश इन रास्तों पर चलना आरम्भ कर दें तो युद्धों की आवश्यकता ही नहीं रह जायेगी। कवि नीरज ने पूर्ण विश्वास के साथ कहा है ‘“शान्ति-शहीदों का पड़ाव हर मंजिल पर, अब युद्ध नहीं होगा-अब युद्ध नहीं होगा।” विश्व में शान्ति की स्थापना की दिशा में भारत ने संसार के लिये एक अन्य मार्ग भी प्रशस्त किया है। वह है परस्पर संवाद का मार्ग। यदि कहीं शान्ति भंग हो जाने का कोई कारण उपस्थित भी हो जाता है, तो शस्र बल से नहीं, बातचीत की मेज पर बैठ कर, चाय की चुस्कियाँ लेते हुए उस का समाधान खोजा जा सकता है।
आज विश्व निश्धय ही बारूद के ढेर पर खड़ा है। कोई सिरफिरा राष्ट्र नेता कभी भी बारूद के उस ढेर को पलीता लगाने की मूर्खता कर सकता है। सदियों के अनुसंधानों और परिश्रम से बनाई गई हमारी दुनिया का नाश देखते-हीदेखते हमारी आँखों के सामने ही हो सकती है। उस विनाश से बचने के सर्वथा उपयुक्त वही मार्ग हो सकते हैं जिन पर भारत आरम्भ से ही चलता आ रहा है। वे सिद्धांत हैं, अहिंसा और विश्व-बन्धुत्व के भाव का। सत्य, प्रेम, अहिंसा, भाईजारे और पारस्परिक सहयोग के मार्ग पर चलना ही विश्व-शान्ति का मार्ग है। भारत द्वारा सुझाये और अपनाये गए इन्हीं रास्तों पर चलकर विश्व-शान्ति की रक्षा हो सकती है और विश्व-मानव को संत्रास की पोड़ा से मुक्त किया जा सकता है।
नक्सलवाद
1960 में नक्सलवाद बंगाल के दार्जिलिंग जिले में किसान आन्दोलन के रूप में प्रारम्भ हुअ।1967 में इसे नक्सली आन्दोलन कहा गया। 1969 में सी०पी०आई० की स्थापना हुई।
नक्सलवादी आन्दोलन के तीन घोषित उद्देश्य थे –
- खेत जोतने वाले को खेत का हक मिले।
- विदेशी पूँजी की ताकत समाप्त की जाये।
- वर्ग और जाति के विरुद्ध संघर्ष प्रारम्भ किया।
1960-70 के दशक में मूल नक्सली आन्दोलन के कुचलने के बाद इसमें बिखराव हुआ।
प्रमुख नक्सली संगठन तथा उनके संस्थापन
संगठन | संस्थापन/नेता | स्थान |
1. पीपुल्स वार, ग्रुप | सीता रमैया | आन्ध प्रदेश |
2. माओवादी कम्युनिस्ट सेन्टर | कन्हाई चटर्जी | बंगाल |
3. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) | मुथ्याला लक्ष्मण | बिहार |
4. रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट | उर्फ गणपति | यू०पी०, पंजाब उत्तरांचल |
प्रभावित राज्य – आन्ध प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार।
कुल मौतें – नक्सली हिंसा से 2005 में 669 मौतें।
नक्सली हिंसा से निपटने के लिए सरकार की रणनीति –
नक्सलियों और आधारभूत ढाँचे व सहायक प्रणाली के विरुद्ध एक समन्वित प्रभावी पुलिस कार्यवाही को प्रभावी बनाने के लिये सम्मुन्नत सूचना संग्रहण और साझा तन्त्र का निर्माण करना।
नक्सली हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में वृद्धि करने सहित त्वरित सामाजिक, आर्थिक विकास के उद्देश्य से जन शिकायतों के प्रभावी निराकरण व समुन्नत वितरण तन्र्र सुनिश्चित करने के लिये प्रशासनिक मशीनरी का सुदृढ़ीकरण करना तथा उसे अधिक पारदर्शी उत्तरदायी व संवेदनशील बनाना और स्थानीय समूहों को प्रोत्साहित करना जैसे – छत्तीसगढ़ का सल्वा जुड़म अभियान।
प्रभावित राज्यो द्वारा नक्सली गुटों के साथ शांति वार्ता करना यदि हिंसा का रास्ता छोड़ने और हथियार त्यागने के लिये तैयार हों।
पंचायती राज
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- स्वरूप
- पंचायतों के अधिकार और कर्त्तव्य
- महत्व
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- भारत के राष्ट्रपिता, महात्मा गाँधी ने हम भारतवासियों को सिखाया है कि – “केन्द्र में बैठे केवल बीस व्यक्ति सच्चे लोकतंत्र को नहीं चला सकते। इसको चलाने के लिए निचले स्तर पर प्रत्येक गाँव के लोगों को शामिल करना पड़ेगा।” भारत में भारत की जनता का शासन है, किसी राजा का नहीं। यहाँ के लोग ही उन थोड़े से लोगों का चुनाव करते हैं जो देश के शासन को चलाते हैं। भारत की राजधानी दिल्ली है और हमारी सरकार का मुख्य कार्यालय भी दिल्ली है। सारा देश, प्रान्तों, जिलों और गाँवों में बँ है।
प्रान्तों की जनता अपने-अपने प्रान्त के लिये भी उन लोगों का चुनाव करती है जो प्रान्त का शासन चलाते हैं। दिल्ली की सरकार को केन्द्रीय सरकार और प्रान्तों की सरकार को प्रान्तीय या राज्य सरकार कहते हैं। शासन का सारा कार्य इन दोनों सरकारों के बीच बँटा हुआ है। इसी तरह प्रत्येक जिले और प्रत्येक गाँव में भी वहाँ की जनता द्वारा चुने हुए लोग उस जिले और गाँव के शासन कायों-को केन्द्र और प्रान्त की सरकारों की सहायता से चलाते हैं। गाँव के लोगों की पंचायत होती है जो गाँव की देखभाल करती है और उसकी उन्नति के लिये आवश्यक कदम उठाती है। जिस देश में ऐसा होता है, उस देश का शसन ही “पंचायती राज” कहलाता है।
स्वरूप :- पंचायती राज में प्रत्येक गाँव की अपनी पंचायत होती है। पंचायत के सदस्यों, अर्थात् पंचों का चुनाव गाँव की जनता करती है। यह चुनाव एक निश्चित अवधि के लिये, सामान्यतः पाँच वर्षों के लिये होता है। इसके सदस्यों में सभी वर्ग के लोग होते हैं। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, महिलाओं तथा अन्य अल्पसंख्यकों को अपने-अपने सदस्य चुनने का अधिकार दिये जाने की चेष्टा की जा रही है। ऐसा होने पर ही पंचायत सभी लोगों की समस्याओं को समझ सकेगी और उनका उचित समाधान निकाल सकेगी।
18 वर्ष की आयु का कोई भी व्यक्ति, जो उस गाँव का स्थायी निवासी है, ग्राम-पंचायत का सदस्य बन सकता है। पंचायत अपने बीच से एक सभापति, उप-सभापति तथा सचिव का चुनाव करती है। इनके अतिरिक्त, पंचायत के अधीन काम करने वाले कुछ छोटे-छोटे कर्मचारी होते हैं जिन्हें वेतन दिया जाता है। पंचायत के सदस्यों को कोई वेतन नहीं दिया जाता है। उन्हें सर कार और समाज की ओर से कार्य करने के सभी अधिकार तथा सुविधाएँ दी जाती हैं। पंचायत के सदस्यों की संख्या 15 से 30 तक होती है।
पंचायतों के अधिकार और कर्त्तव्य :- पंचायतों को इस बात का पूर्ण अधिकार होता है कि वे स्वतन्र्र होकर अपनी इच्छानुसार अपने क्षेत्र के बहुमुखी विकास कार्य को जारी रख सकें। किसी गाँव या क्षेत्र की विशेषताओं, अभावों तथा आवश्यकताओं से उस गाँव के निवासी ही अच्छी तरह परिचित होते हैं। इसलिए उन्हें ही यह अधिकार दिया जाना चाहिये कि वे अपने गाँव की सुरक्षा और उन्नति के लिये योजना बनायें और उसे पूरा करें।
अपनी योजनाओं की पूर्ति के लिये वे सरकार का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं और केन्द्र तथा राज्य सरकारों का भी यह कर्त्तव्य होता है कि वे उनकी यथासंभव सहायता करें। ब्लाक, तहसील, जिला तथा प्रान्तीय स्तरों पर उनकी सहायता के लिये कई विभाग एवं कर्मचारी हैं, जिनसे ग्राम पंचायतें आवश्यक सलाह और सहयोग ले सकती हैं। ग्रामोन्नि के लिये वेष्टा करने के साथसाथ पंघायतों को यह भी अधिकार है कि वे दोषी व्यक्ति को अर्थ-दण्ड दे सकती हैं, किन्तु दण्ड की राशि 50 रुपये से अधिक नहीं होगी।
पंचायत के फैसले की अपील अदालतों में की जा सकती है। अपने गाँव के कल्याण हेतु पंचायत कुछ नियम-कानून भी बना सकती है, किन्तु ये कानून भारतीय संविधान को भंग करने वाले नहीं हो सकते। कई पंचायतों को मिलाकर न्याय-पंचायत का निर्माण किया जाता है जो फौजदारी, दीवानी और नागरिक के साधारण मुकदमों का फैसला करती है।
पंचायती राज का महत्व :- पंचायती राज एक ऐसी कान्ति है जो हमारे लोकतन्र्र को करोड़ो देशवासियों तक पहुँचा देगी। इस कान्ति के सफल होने पर देश के करोड़ों दलित, शोषित गरीब वर्ग के लोग, अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लोग शासन कार्यों में स्वतन्र होकर भाग ले सकेंगे और अपने हाथों अपने भाग्य का निर्माण कर सकेंगे। इस क्रान्ति के द्वारा भारत की महिलाओं को भी औरों की भाँति देश के प्रशासन एवं सामाजिक विकास के कार्यों में बेरोकटोक भाग लेने की सुविधा प्राप्त होगी। गाँधीजी ने कहा है-“सच्चा स्वराज्य केवल चन्द लोगों के सत्ता में आ जाने से नहीं, बल्कि इसके लिये सभी में क्षमता आने से आयेगा।”
उपसंहार :- हमारे देश में आज भी पंचायती राज की स्थापना पूर्णत: नहीं हो पायी है। गाँधी और नेहरू केस्वराज्य का स्वप आज भी अधूरा है। यद्याप पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र जैसे कुछ प्रान्तों में, वहाँ की सरकारों े पेंायती राज की स्थापना की है, तथापि देश के बहुत बड़े हिस्से में पंचायतों का गठन नहीं हो पाया है। आवश्यकता है कि देश के प्रत्येक क्षेत्र में पंचायतों की स्थापना की जाय तथा उन्हें आवश्यक अधिकार और उत्तरदायित्व सौपे जायें। इससे लोगों में राष्ट्र के प्रति दायित्व एवं कर्त्तव्य की भावना का विकास होगा और भारत एक शक्ति सम्पन्न, सुखी तथा उन्नतशील राष्ट्र बन सकेगा।
वर्तमान शिक्षा-प्रणाली
रूपरेखा :
- भूमिका
- दोष
- परिणाम
- सुधार की आवश्यकता
- उपसंहार।
कोई भी शिक्षा-प्रणाली तभी अच्छी, सफल एवं सार्थक कही जाती है, जब वह शिक्षा-पाने वालों का वास्तविक हितसाधन कर सके। जहाँ तक भारतीय शिक्षा-बोर्डों और विश्वविद्यालयों में चल रही वर्तमान शिक्षा-प्रणाली का प्रश्न है ; वह आज के सन्दर्भो से सर्वथा कही हुई, पुरानी और इस सीमा तक घिस-पिट चुकी है कि आज उसका इसके सिवा और कोई मूल्य एवं महत्त्व नहीं रह गया है कि वह पढ़ने वालों को कुछ विषयों के नाम रटा उनकी जानकारी करा दे या फिर अधिक-से-अधिक यही कि साक्षर बना दे – बस! इससे अधिक और कुछ नहीं।
वर्तमान शिक्षा-प्रणाली ने हमें अपने जीवन, अपनी सभ्यता-संस्कृति और उस के मूल्यों-मानों से तो तोड़ कर अलग कर ही दिया है ; सामान्य एवं व्यावहारिक जीवन से भी सम्बन्धित नहीं रहने दिया। यहाँ तक कि पढ़ने वाले से उसका अपनापन भी छीन लिया है। बदले में दिया है उसे शिक्षित होने का कोरा दम्भ, अहंकार और आडम्बर। वर्तमान शिक्षा के साथ हमारे जीवन का निविड़ मिलन होने की कोई स्वाभाविक संभावना नहीं है।
दोनों के बीच एक व्यवधान है। हमारी शिक्षा जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर पाती। जहाँ हमारे जीवन वृक्ष की जड़े हैं, वहाँ से सौ गज दूर हमारी शिक्षा की वर्षा होती है। लार्ड मैकाले द्वारा चलाई इस शिक्षा-पद्धति ने उससे यानि पढ़ने वाले से भारतीयता ही नहीं छीनी, उससे उसकी ऊर्जा, श्रम करके आगे बढ़ पाने की मानसिकता तक छीन ली है। उसे मात्र नौकरी से प्राप्त होने वाली कुर्सी पाने की इच्छा का गुलाम बना दिया है, फिर चाहे वह कुर्सी एक क्लर्क या चपरासी की ही क्यों न हो।
इसे वर्तमान शिक्षा-प्रणाली का ही परिणाम एवं ताल-लय-हीनता कहा जाएगा कि आज का युवक जीवन के प्रन्द्रहसोलह वर्ष गँवा कर, हाथों में डिग्री-डिप्लोमा के नाम पर एक मोटा कागज लेकर विद्यालय-विश्वविद्यालय से बाहर आता है, तो अपने-आप को नितान्त अकेला, असहाय एवं निराश पाता है। उसके पास भावी का निश्चित कार्यक्रम तो क्या गति-दिशा का ज्ञान तक नहीं रहता। धीरे-धीरे कई तरह की कुण्ठाएँ आकर उसे घेरने लगती हैं। तब वे सभी तरह की अराजकताएँ और बुराइयाँ जन्म लेती हैं कि जिन के कारण आज पढ़े-लिखो की दुनिया में चारों तरफ हाहाकार मच रहा है। नशाखोरी, जुआ, शराब, सिगरेट, रिश्वत, चोरी-चकारी का बाजार गर्म हो रहा है चारों तरफ। इस का मूल कारण मात्र सपने बेचने वाली यह शिक्षा-प्रणाली ही है, जो व्यक्ति को इच्छाओं-उच्छृंखलताओं का गुलाम बना रही है।
स्वतंत्र भारत के लिए किस तरह की शिक्षा-प्रणाली की आवश्यकता है, कैसी शिक्षा समय के अनुसार लोक-हित साधन कर सकती है, इस की तरफ कतई कोई ध्यान नहीं दिया गया। अत: आज सब से पहली आवश्यकता वर्तमान ढाँचे को बदल, उसे समय एवं उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप बनाने की है। शिक्षा को बुनियादी तौर पर व्यवसायोन्मुख बनाना भी आवश्यक है। उसे सस्ती, नैतिक उत्थान करने तथा अपनापन प्रदान कर पाने में समर्थ बनाना भी बहुत आवश्यक है। स्वतंत्रता प्राप्त किए आधी शती हो या खो चुकी है बेकार के ऊहापोहों में। यदि अब भी वर्तमान महँगी, ऊबाऊ और परीक्षणों से खरी न उतर सकने वाली शिक्षा-पद्धति को न बदला गया तो भगवान् ही रक्षक है इस देश का।
शिक्षा किस प्रकार राष्ट्रीय एकता के दृढ़ीकरण और देश की सर्वतोन्मुखी उन्नति में सहायक हो, यह हमारे सामने ज्वलंत प्रश्न है। अपनी तमाम खामियों के बावजूद हमारी इस शिक्षा-प्रणाली ने हमें अनेक लाभ पहुँचाए हैं, अतः इसके प्रति हमारा दृष्टिकोण रचनात्मक होना चाहिए, विध्वंसात्मक नहीं। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों में हम यह आशा कर सकते हैं कि “हमारे प्रयास जीवन के साथ-साथ बढ़ते चलेंगे। इनमें संशोधन होगा। इनका विस्तार होगा। बाधाओं के बीच से गुजरकर ये प्रबल होंगे, संकोच के बीच ही विकसित होंगे तथा भ्रम से उत्तीर्ण होकर ही उनका सत्य सार्थक हो उठेगा।”
वर्तमान परीक्षा-प्रणाली
रूपरेखा :
- भूमिका
- प्रचलित परीक्षा-प्रणाली
- दोष
- उपसंहार।
जिस प्रकार वर्तमान शिक्षा-प्रणाली गुलाम भारत पर शासन करने वाले ब्रिटिश राज की देन है, उसी ग्रकार वर्तमान परीक्षा-प्रणाली भी तभी से प्रचलित चली आ रही है। हमें विचार इस बात पर करना है कि क्या यह परीक्षा-प्रणाली पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं की वास्तविक योग्यता की परीक्षा या जाँच परख करने के लिए समर्थ और उपयुक्त भी है कि नहीं। वर्तमान में स्वतंत्र भारत की जो आवश्यकताएँ हैं, पढ़ने वाले युवकों की वास्तविक योग्यता की जाँच जिस प्रकार से होनी चाहिए, क्या वर्तमान परीक्षा-प्रणाली उन सारी आवश्यकताओं-अपेक्षाओं के अनुरूप है? यदि अनुभव, यथार्थ और व्यावहारिक दृष्टि से देखा और कहा जाए, तो एक वाक्य में यही कहना युक्तिसंगत एवं उचित प्रतीत होता है कि वर्तमान परीक्षा-प्रणाली इस सीमा तक घिस-पिट एवं छिद्रपूर्ण हो चुकी है कि इसे पढ़ने-लिखने वाले छात्रों की योग्यता की सही जाँच-परख कर पाने में समर्थ कतई और किसी भी तरह नहीं कहा जा सकता। इस मान्यता के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष कई कारण हैं, उन पर दृष्टिपात कर लेना आवश्यक है।
सब से पहली बात और कारण तो वही लेते है कि जो आजकल प्रतिवर्ष का परीक्षाओं के समय का एक आवश्यक एवं निरन्तर चलने वाला फीचर बन गया है। वह है – परीक्षाओं से प्रश्नपत्रों का लीक हो जाना। जिस दिन किसी विषय की परीक्षा होनी होती है, उससे दो-चार दिन या चौबीस घण्टे पहले उस प्रश्नपत्र की प्रतियाँ सैंकड़ों, हजारों रुपयों के बदले खुले बाजार में उपलब्ध कराई जाने लगती हैं। इस सारे कार्य व्यापार में कहीं-न-कहीं पढ़ाने और परीक्षा लेने वाले भी संलिप्त रहा करते हैं।
सो इस तरह की परीक्षा की सार्थकता क्या रह जाती है ? निश्चय ही कुछ नहीं। दूसरे, परीक्षाओं में प्रश्न पूछने का ढंग और भाषा तो अत्यधिक घिस-पिट चुके ही हैं, पूछे जाने वाले प्रश्न भी वही पुराने और घिसे-पिटे ही पूछे जाते हैं। फलस्वरूप कोई भी छात्र विगत दस वर्षों में पूछे गये प्रश्न ही तैयार कर के योग्यता का प्रमाणपत्र पा सकता है। यहाँ तक कि आजकल अधिकतर अध्यापक-प्राध्यापक कक्षाओं में दस साल के प्रश्न रटने की स्पष्ट घोषणा और सिफारिश करते ही हैं, स्वयं भी वही बारम्बार पूछे गए प्रश्न भर करा देते हैं।
तीसरे आज का विद्यार्थी उपस्थितियाँ पूरी करने के लिए चाहे कक्षा में जाना आवश्यक समझता हो ; पर अध्यापकवर्ग क्या पढ़ा-लिखा रहे हैं, उसे पढ़ना-सुनना या नोट्स लेना वह बेकार मानता है। उसे पता है कि बाजार में कुँजियों-गाइडों के रूप में पका-पकाया तैयार माल उपलब्ध है। परीक्षा से कुछ पहले उनमें दिए अत्यावश्यक मार्क वाले प्रश्न रट-रटा कर परीक्षा की वैतरणी पार कर लेगा।
इसी तरह आज कल मिल-मिला या डरा-धमका कर सामूहिक एवं व्यक्तिगत स्तर पर नकल करने की प्रवृत्ति ने भी इस परीक्षा-प्रणाली को एकदम नाकारा एवं व्यर्थ बना दिया है। इस प्रणाली में अक्सर यह होते देखा गया है कि साल भर मन लगा कर मेहनत करने वाले छात्र तो प्राय: पिछड़ जाते हैं, कई बार अनुत्तर्ण तक घोषित कर दिए जाते हैं ; जबकि कुंजी-गाइड मास्टर एवं नकलची प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण घोषित कर दिये जाते हैं। किसी परीक्षा-प्रणाली की इस से बड़ी त्रासद व्यर्थता और क्या हो सकती है ?
स्पष्ट है कि वर्तमान परीक्षा-प्रणाली पढ़ने वाले युवा छात्र-छात्रा की सही योग्यता जाँच पाने में असमर्थ है। जब तक शिक्षा और परीक्षा दोनों वर्तमान प्रणालियों को पूर्णतया बदल कर योग्यता नापने और शिक्षा देने का कोई अन्य कारगर मार्ग नहीं अपनाया जाता, शिक्षा और शिक्षार्थी दोनों का वास्तावक हित-साधन संभव नहीं हो सकता।
भारत के गौरव : स्वामी विवेकानन्द
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- जन्म
- वंश-परिचय तथा शैक्षणिक जीवन
- रामकृष्ण परमहंस देव का सान्निध्य
- परिवाजक विवेकानन्द
- शिकागो विश्वधर्म सभा में विवेकानन्द
- साहित्य कृति
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- दंड-कमंडलु हाथ में लिए एक युवा सन्यासी भारत भ्रमण के लिए निकले हैं। उनका अभीष्ट है भारत की आत्मा के यथार्थ स्वरूप की खोज। पर यह कौन-सा भारतवर्ष देख रहे हैं ? कहाँ गया भारत का वह गौरवमय अतीत? किस अन्धकार के गर्त में डूब गया भारत का उज्ज्वल मानव प्रेम का आदर्श ? भारत में सर्वत्र दारिद्रता, पराधीनता, अंधानुकरण प्रवृत्ति, दाससुलभ दुर्बलता और छूआछूत का कलंक देखकर युवा सन्यासी की आत्मा रो उठी। कौन है यह सन्यासी, जिसने दरिद्र में ही नारायण (ईश्वर) के अस्तित्व का अनुभव किया ? कौन है यह महासाधक, जिसने देशवासियों को बताया – “भूलना मत, नीच, मूर्ख, दरिद्र, भंगी, चमार आदि तुम्हारे ही अपने भाई हैं।”
जन्म, वंश-परिचय तथा शैक्षणिक जीवन :-उत्तर कलकत्ता के सिमलापाड़ा के विख्यात दत्त परिवार में सन् 1863 में विवेकानन्द का जन्म हुआ। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के नामी एटर्नीं थे। माता थीं धर्मप्राण भुवनेश्वरी देवी। विवेकानन्द का बचपन का नाम था वीरेश्वर। बालक वीरेश्वर शुरू से ही बहुत साहसी था। अत्यन्त मेधावी था वह। बड़ा होने पर ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा प्रतिष्ठित मेट्रोपालीटन स्कूल में भर्ती हुआ।
यहाँ उसका नाम था नरेन्द्रनाथ। प्रथम श्रेणी में प्रवेशिका (एन्ट्रेन्स) परीक्षा पास करके प्रेसीडेन्सी कॉलेज में दाखिल हुए। बाद में उसे छोड़कर जनरल एसेम्बली कॉलेज (स्कॉटिश चर्च कॉलेज) से एफ०ए० पास किया और दर्शनशास्त्र लेकर पढ़ने लगे थे। बड़े मधुर कंठ के अधिकारी थे तरुण नरेन्द्रनाथ। संगीत, खेलकूद, वाद-विवाद प्रतियोगिता और व्यायाम में बहुत रुचि थी उनकी।
रामकृष्ण परमहंस का सान्निध्य :- नरेन्द्रनाथ के घर के पास ही रहते थे सुरेन्द्रनाथ मिश्र। एक दिन रामकृष्ण परमहंस वहाँ आये। भजन गाने के लिए नरेन्द्रनाथ को बुलाया गया। प्रथम दर्शन में ही विस्मय विमुग्ध हो गये ठाकुर रामकृष्ण। नरेन्द्रनाथ भी अभिभूत हुए परमहंस देव को देखकर। नरेन्द्रनाथ को दक्षिणेश्वर आने का आमंत्रण दिया ठाकुर ने।
नरेन्द्रनाथ के मन में तब भगवान के विषय में तरह-तरह के प्रश्न उठ रहे थे और संशय भी जगा था। तभी ठाकुर रामकृष्ण के दिव्य सान्निध्य का लाभ हुआ। दक्षिणेश्वर का आकर्षण तीव्र हो उठा उनके लिए। उसी समय उनके पिता की अकस्मात् मृत्यु हो गयी। घोर अर्थ-संकट में पड़ गये। दक्षिणेश्वर मन्दिर में माँ काली से अर्थ माँगने जाकर भी उन्होंने श्रद्धा और भक्ति की याचना की। नरेन्द्रनाथ तब आधे संन्यासी बन चकु थे।
परिव्राजक विवेकानन्द :- परमहंस देव का शिष्यत्व ग्रहण करके सन्यासी बन गये नरेन्द्रनाथ। नाम हुआ ‘विवेकानन्द’। सन् 1886 में श्री रामकृष्ण परमहंस देव ने महाप्रस्थान किया। भारत पर्यटन के लिए निकल पड़े परिव्वाजक विवेकानन्द। हिमालय से कन्याकुमारी तक पूरे देश में घूमे। हिन्दू, मूसलमान, अछूत, दरिद्र, निरक्षर सबसे मिलकर निपीड़ित और पददलित लोगों की हुदय-पीड़ा को समझा। सोया भारत जाग उठा। भविष्य के भारत के स्वपद्रष्ठा, विवेकानन्द ने देशवासियों को नवजीवन का जागरण मंत्र सुनाया।
शिकागो विश्वधर्म सभा में विवेकानन्द :- इसके बाद सन् 1893 का वह स्मरणीय दिन। अमेरिका के शिकागो शहर में विश्वधर्म सम्मेलन का आयोजन हुआ। विवेकानन्द के पास भी इस सम्मेलन की खबर पहुँची। पर वे अनाहूत थे वहाँ। कुछ भक्तों और प्रशंसकों के विशेष अनुरोध से अमेरिका चल पड़े। उनका उद्देश्य था वेदान्त धर्म का प्रचार। भगवा वस्त्र और पगड़ी पहने सन्यासी के वेश में वे शिकागो जा पहुँचे। लेकिन सम्मेलन में भाग लेने की अनुमतिपत्र नहीं था उनके पास। अन्त में कुछ सहृदय अमेरिकावासियों की सहायता से केवल पाँच मिनट के लिए भाषण देने की अनुमति लेकर विवेकानन्द ने सम्मेलन में प्रवेश किया।
इसके बाद बड़ी आत्मीयता से उन्होंने श्रोताओं को इस प्रकार सम्बोधन किया, ‘अमेरिकावासी भाइयों और बहनें ! इस सम्बोधन को सुनकर श्रोताओं ने करतल ध्वनि से अभिनंदित किया प्राच्य के इस संन्यासी को। उन्होंने अपने भाषण में कहा, ‘ईसाइयों को हिन्दू या बौद्ध बनने की आवश्यकता नहीं, हिन्दुओं और बौद्धों को भी ईसाई बनने की जरूरत नहीं।………..आध्यात्मिकता, पवित्रता और उदारता पर केवल किसी विशेष एक धर्म का एकाधिकार नहीं है।
प्रत्येक धर्म की पताका पर लिखना पड़ेगा, युद्ध नहीं सहयोग, ध्वंस नहीं आत्मीयकरण, भेद-द्वंद नहीं सामञ्ञस्य और शान्ति।’ धर्मसभा में उन्होंने दृढ़ विश्वास के साथ भविष्य में संसार के लोगों के महामिलन की घोषणा की। सुनकर अभिभूत हो गये श्रोतागण। संसार भर में उनकी शोहरत फैल गयी और चारों ओर से उन पर प्रशंसा की वर्षा होने लगी। शिष्या के रूप में उन्हें मिस मार्गरेट नोकल मिलीं जो बाद में भारत की भूमि पर ‘भगिनी निवेदिता’ बनीं।सन् 1896 में विवेकानन्द भारत लैटे।
साहित्यकृति :- केवल कर्मक्षेत्र में ही नहीं, वैचारिक क्षेत्र में भी इनका अवदान महतवपूर्ण था। उनकी परिवाजक, ‘विचारणीय बातें, प्राच्य और पाश्चात्य’, वर्तमान भारत’ आदि रचनायें उल्लेखनीय हैं। इनके अलावा उनके बहुत से लेख और विभिन्न समय में विभिन्न व्यक्तियों को लिखे अनेक पत्रों का संकलन भी प्रकाशित हुए हैं।
उपसंहार :- आधुनिक भारत के भागीरथ थे स्वामी विवेकानन्द। दुर्बल और हीनता की ग्रन्थि से प्रस्त लोगों को मानव जाति के कल्याण मंच में दीक्षित करना ही उनके जीवन का लष्ष्य था। उन्होंने धर्मान्ध देशवासियों को स्पष्ट स्वर में कहा था, दरिद्र, निपीड़ित, आर्त्त मनुष्यों की सेवा ही ईश्वर-साधना है। असहाय मनुष्य ही हमारे भगवान हैं १ फिर, उन्होंने आदर्शहीन भारतीयों को स्मरण कराया था, ‘आज से पचास साल तक तुम्हारे उपास्य और कोई देवदेवी नहीं हैं, उपास्य है केवल जननी-जन्मभूमि यह भारतवर्ष।’
डॉ. अबुल पकीर जैनुलाबदीन अब्दुल कलामं (डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम)
रूपरेखा :
- परिचय
- कर्म ही पूजा है -जीवन का मूल-मंत्र
- शिक्षा-दीक्षा
- वैज्ञानिक रूप में कार्य
- इसरो (ISRO) की स्थापना
- एस. एल वी. के प्रबंधक के रूप में
- भारत-रत्न की उपाधि से अलंकृत
- राष्ट्रपति के रूप में कार्य करना
- उपसंहार।
परिचय :- 25 जुलाई, 2002 को राष्ट्रपति पद की शपथ लेने वाले डॉ॰ए. पी.जे अब्दुल कलाम भारत के बारहवें राष्ट्रपति थे। वे भारत के ऐसे प्रथम राष्ट्रपति थे, जो इस पद पर आने से पूर्व ही भारत-रल से अलंकृत हो चुके थे। वे पहले ऐसे राष्ट्रपति थे, जो जीवन-भर राजनीति से दूर रहकर देश के सर्वोच्च सिंहासन पर आसीन हुए थे।
डॉ. अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्तूबर, सन् 1931 में रामेश्वरम् (तमिलनाडु) में हुआ। उनका बचपन मतापिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों के साथ रामेश्वरम् की मस्जिद गली स्थित अपने घर में ही बीता। उनके माता-पिता के विचार अत्यंत उच्च कोटि के थे तथा उनका परिवार मध्यमवर्गीय था। उनकी माता को लोग अन्नपूर्णा कहते थे, क्योंक उनके यहाँ अतिथियों को उचित मान-सम्मान मिलता था। इनकी शिक्षा वहीं की एक प्रारंभिक पाठशाला में हुईं।
‘कर्म ही पूजा है’ :-यह गुरुमंत्र कलाम को अपने पिता से विरासत में मिला था, जो पारिवारिक उत्तरदायित्वों हेतु प्रातः चार बजे से ही अपनी दैनिक चर्या प्रारंभ करते थे। डॉ० कलाम ने अपनी आत्मकथा ‘विंग्स ऑफ फायर’ में लिखा है कि ”मुझे विरासत में पिता से ईमानदारी और आत्मानुशासन तथा माता से भलाई में विश्वास तथा गहरी उदारता मिली है। मैं अपनी सुजनशीलता का श्रेय बिना किसी झिझक के बचपन में मिली उनकी संगति को देता हूँ।’
शिक्षा-दीक्षा :-हाई स्कूल की शिक्षा पूरी करते हुए कलाम ने पिता की इच्छा के अनुरूप विज्ञान विषय लेकर तिरुचिरापल्ली के सेंट जोसेफ कॉलेज में प्रवेश लिया। छात्रावास में रहते हुए उन्होंने अंग्रेजी साहित्य तथा भौतिक विज्ञान में विशेष रुचि दिखाई। बी एस.सी. की डिमी के बाद कलाम ने इंजीनियर बनने का मन बना लिया था। उस समय मद्रास (चेन्नई) स्थित मद्रास इंस्टिद्यूट ऑफ टेक्नालॉजी को दक्षिण भारत में तकनीकी शिक्षा का’मुकुट मणि’ माना जाता था।
कॉलेज में प्रतिभा के बल पर प्रवेश तो मिला, किंतु शुल्क के लिए उस समय एक हजार रुपए चाहिए थे जिसके लिए उनकी वहन जोहरा को अपने जेवर गिरवी रखने पड़े। इसी कारण कलाम साहब आज भी परिश्रिमी तथा मितव्ययी हैं। इंजीनियरिंग के दूसरे वर्ष में उन्होंने विमानिकी इंजीनियरिंग को चुना। प्रो. श्री निवासन् की इच्छा पर केवल तीन दिन के अंदर उन्होंने एक प्रोजेक्ट बनाकर पूर्ण किया था।
वैज्ञानिक रूप में कार्य :- छात्र-जीवन से ही कलाम व्यस्त रहने के अभ्यस्त हो गए थे। इसी कारण सजने-संवरने का उनके पास न तो समय था और न ही ऐसे विचार थे। जब वे रक्षा प्रयोगशाला, डी.आर. डी. एल. हैदराबाद में निदेशक थे तो अपने एक कमरे के आवास से लगभग दो किलोमीटर दूर स्थित अपने कार्यालय पैदल ही जाते थे। साधारण कमीज़, खाकी हॉफ पेंट और चपल पहनकर वे मिसाईल संबंधी चर्चा करने किसी भी वैज्ञानिक के पास पहुँच जाते थे. एम. आई.टी. से शिक्षा ग्रहण कर कलाम एक प्रशिक्षु के रूप में एच ए. एल बंगलौर (हिंदुस्तान एअरोनॉटिक्स लिमिटेड) पहुँचे। उनके अनुसार निपुणता तभी मिलती है जब हम व्यावहारिक धरातल पर कार्य सम्पन्न करते हैं।
इसरो (ISRO) की स्थापना :- सन् 1958 में वे रक्षा मंत्रालय के तकनीकी विकास और उत्पादन निदेशालय (वायु) में वरिष्ठ वैज्ञानिक सहायक के पद पर नियुक्त हुए। तीन वर्ष बाद बंगलौर में एअरोनॉटिकल डिवलेपमेंट इस्टैब्लिशमेंट (ए.डी.ई.) की स्थापना हुई और इनका इस प्रयोगशाला में तबादला हो गया। ए.डी.ई. में उन्हें तीन वर्ष के अंदर ‘हॉवरक्राफ्ट’ विकसित करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया जिसे कलाम साहब की टीम ने.समय से पहले ही पूरा कर दिया।
इसी समय भारत में Indian Space Research Organisation (ISRO) (भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन) की स्थापना हुई। इस संगठन हेतु थुंबा में सेस साइंस एंड टेक्नोलॉजी सेंटर बनाया गया। दिसम्बर, 1971 में डॉ. साराभाई के निधन के बाद प्रोफेसर सतीश धवन इसरो के अध्यक्ष बने तथा अंतरिक्ष अनुसंधान संबंधी अनेक इकाइयों को मिलाकर विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र की स्थापना की गई। इस केंद्र के प्रथम निदेशक के रूप में प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ० बह्म प्रकाश की नियुक्ति हुई।
एस. एल. वी. के प्रबंधक के रूप में :- प्रोफेसर धवन और डॉ॰ कलाम को उपप्रह प्रक्षेपण यान (सैटेलाइट लांच वीहिकल-एस. एल.वी.) विकसित करने संबंधी परियोजना के प्रबंधक के पद पर नियुक्त कर दिया गया। इसका मुख्य उद्देश्य एक मानक एस एल .वी. प्रणाली का डिजाईन, विकास और संचालन करना था। डॉ. कलाम के नेतृत्व में तैयार एस. एल. वी- 3 की प्रथम परीक्षण उड़ान 10 अगस्त, 1979 को थी।
तेईस मीटर लंबा तथा सत्रह टन वजन वाला SLV-रॉंकेट उस दिन प्रात: 7 बजकर 58 मिनट पर प्रमोचित (लांच) किया गया। नियंत्रण-व्यवस्था में खराबी आने के कारण यह नियत मार्ग से भटक कर बंगाल की खाड़ी में गिर गया। दूसरा परीक्षण 18 जुलाई, 1980 को प्रातः 8.03 बजे श्रीहरिकोटा के थार केंद्र से प्रमोचित भारत का एस. एल वी-3 रॉकेट रोहिणी’ उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने में सफल हुआ।
संपूर्ण राष्ट्र ने भारतीय वैज्ञानिक की सफलता पर गर्व महसूस किया तथा भारत ‘विश्व अन्तरिक्ष क्लब’ का सम्मानित सदस्य बन गया।
भारत-रल की उपाधि से अलंकृत :- डॉ॰ कलाम की यात्रा जारी रही तथा भारत सरकार ने सन् 1998 में उन्हें राष्ट्र के सर्वोच्च नागरिक अलंकर ‘भारत-रत् से सम्मानित किया। डॉ० कलाम को भारत सरकार ने सन् 1981 में पद्मभूषण, सन् 1990 में पद्मविभूषण और सन् 1998 में ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया। अनेक विश्वविद्यालय रांकेट तथा मिसाइल कार्यक्रम की सफलता हेतु उन्हें डॉक्टर ऑफ साइंस तथा अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित कर चुके हैं।
उपसंहार :- डॉ० कलाम ऐसे आदर्श है जो युवा पीढ़ी के मस्तिष्क में राष्ट्र निर्माण की चिंगारी पैदा करने हेतु आतुर हैं। उनके अनुसार उच्च स्तर का चिंतन करो फिर उसकी पूर्ति हेतु कठिन परिश्रम करो। वे अपने वेतन का कुछ हिस्सा सामाजिक संस्थाओं को भी देते हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं – अग्नि की उड़ान, तेजस्वी मन, Wing of Fire, India 2020-A vision for the new millennium आदि। डॉ० कलाम यह मानते हैं कि जो हो रहा है अच्छे के लिए हो रहा है जो होगा वह भी अच्छा होगा। यही उनके जीवन दर्शन का आधार है।