Students should regularly practice West Bengal Board Class 9 Hindi Book Solutions and रचना साहित्यिक निबंध to reinforce their learning.
WBBSE Class 9 Hindi रचना साहित्यिक निबंध
निबंध उस गद्य-रचना को कहते है जिसमें किसी विषय का वर्णन किया गया हो । निबंध के माध्यम से लेखक उस विषय के बारं में अपने विचारों और भावों को बड़े प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने की कोंशिश करता है। एक श्रेष्ठ, सुगठित एवम् व्यवस्थित निबं-लेखक को विषय का अच्छा ज्ञान होना चाहिए, उसको भाषा पर अच्छी पकड़ होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अभिव्यक्ति होती है । इसलिए एक ही विषय पर हमें अलग-अलग तरीको से लिखे गए निबध मिलतं हैं ।
किसी एक विषय पर विचारों को कमबद्ध कर सुंदर, सुगठित और सुबोध भाषा में लिखी गई रचना को निबंध कहते हैं। अनेक विद्वानों ने निबंध शब्द की पृथक्-पृथक् व्याख्या की है –
- निबंध अनियमित, असीमित और असंबद्ध रचना है ।
- निबंध वह लंख है जिसमे किसी गहन विषय पर विस्तृत और पांडित्यपूर्ण विचार किया जाता है।
- मन की उन्मुक्त उड़ान निबंध कहलाती है ।
- मार्नसिक विश्व का बुद्धि-विलास ही निबंध है।
- सीमित समय और सीमित शब्दों में क्रमबद्ध विचारों की अभव्यक्ति ही निबंध है
अच्छे निबंध की विशेषताएँ-
एक अच्छ//श्रषष्ठ निबंध की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
- निबंध की भाषा विषय के अनुरूप होंनी चाहिए ।
- विचारों में परस्सर तारतम्यता होनी चाहिए।
- विषय सं संबंधित सभी पहलुओं पर निबंध में चर्चा की जानी चाहिए।
- निबंध के अंतिम अनुच्छेद में ऊपर कही गई सभी बातों का सारांश होना चाहिए ।
- वर्तनो शुद्ध हानी चाहिए तथा उसमें विराम-चिह्नों का उचित प्रयांग किया जाना चाहिए ।
- निबध लिखतं समय शब्दों की सीमा का अवश्य ध्यान रखना चाहिए
- निबंध किसी निश्चित उद्देश्य तथा एक विषय को लेकर लिखा जाना चाहिए।
- निब्रंध में लंखक का व्यक्तित्व प्रतिफलित होना आवश्यक है।
- निबंध अधिक विस्तृत न होकर संक्षेप में होना चाहिए।
- निबंध-लंखन विचारों की एक अखंड धारा होती है, उसका एक निश्चित परिणाम होना चाहिए।
प्रस्तुतिकरण की दृष्टि से निबंध निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –
- वर्णनात्मक (माघ मेले का वर्णन, यात्रा का वर्णन, किसी त्योहार का वर्णन, विविध आयोजनों का वर्णन आदि)।
- विवरणात्मक (ताजमहल, हिमालय आदि) ।
- भावप्रधान (मँरी माँ, मेरा प्रिय मित्र आदि) ।
- विचारप्रधान (समय नियोजन, सच्ची मित्रता, स्वदेश प्रेम आदि) ।
निबंध-लेखन : पूर्व तैयारी :
निबंध लेखन सं पूर्व विषय के विभिन्न बिंदुओं/पक्षो पर गहराई से विचार करना अपेक्षित है । विषय की निश्चित धारणा मन में बना लनी चाहिए ताकि कोई आवश्यक बिंदु न छूटने पाए । इस दृष्टू से लेखक को अपने साथियों से चर्चा करके निबंध की रूपरेखा तैयार कर लेना उपयुक्त रहता है ।
रूपरेखा-निर्माण के बाद विषय संबंधी सामग्री तथा विभिन्न सोतों का संचयन करना उपयोगी होता है। उद्धरणों, विषयानुकूल उदाहरण सूक्तियों, तकों, प्रमाणों का संकलन कर लेना चाहिए ताकि उनका उपयुक्त प्रयोग किया जा सके।
निबंध लिखने के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए।
- विभिन्न सोतों से विषय संबंधी जानकारी प्राप्त की जानी चाहिए ।
- छात्रों द्वारा अपने अध्यापक के साथ विषय पर चर्चा करने के उपरांत विषय की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए।
- रूपरेखा के आधार पर निबंध लिखते समय छात्रों द्वारा यथा-प्रसंग अपने निजी अनुभवों का उल्लेख किया जाना चाहिए।
निबंध का गठन : निबंध के तीन अंग होते हैं – (क) प्रस्तावना या भूमिका (ख) विषय का प्रतिपादन (ग) उपसंहार ।
यह पहले से निश्चित कर लेना चाहिए कि जितनी जानकारी विषय के संबंध में है, उसमें से कितनी प्रस्तावना में रहनी चाहिए, कितनी निबंधों के मुख्य अंश में और कितनी उपसंहार में ।
(क) प्रस्तावना :- प्रस्तावना ऐसी हो जो पाठक के मन में निबंध के विषय के प्रति उत्सुकंता उत्पन्न कर दे । प्रस्तावना लंबी नहीं होनी चाहिए । कुछ ही वाक्यों के बाद विषय पर पहुँच जाना चाहिए ।
(ख) विषय का प्रतिपादन :- विषय के प्रतिपादन की दृष्टि से तथ्यों, भावों और विचारों का तर्कसंगत रूप में संयोजन किया जाना चाहिए । साथ ही उनकी क्रमबद्धता और सुसंबद्धता का ध्यान रखा जाना अपेक्षित है।
निबंध के मुख्य अंश में सभी बातें और सभी विचार अलग-अलग अनुच्छेदों में लिखने चाहिए । एक अनुच्छेद में सामान्यत: एक ही बात या विचार रखा जाए । बातों और विचारों को प्रस्तुत करने में एक निश्चित कम होना चाहिए । सभी अनुच्छेद आपस में संबद्ध होने चाहिए, जिससे विचारों की एक श्रृंखला बनी रहे । ऐसा करने से ही निबंध सुगठित होता है और उसमें कसावट आती है।
जहाँ आवश्यकता हो उद्धरण वहीं देना चाहिए । उद्धरण गद्य तथा पद्य दोनों में हो सकते हैं।
निबंध की भाषा शुद्ध, प्रांजल और विषय के अनुकल होनी चाहिए। यदि भाषा में किसी प्रकार की शिथिलता या कमजोरी रह जाती है तो निबंध का वांछित प्रभाव पाठक पर नहीं पड़ता।
(ग) उपसंहार :- निबंध के अंत में, विषय-विवेचन के आधार पर निश्चित निष्कर्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए । इसका अंत इस प्रकार लिखा जाए कि निबंध का पाठक पर स्थायी प्रभाव पड़े।
प्रारंभ में सामान्य और परिचित विषयों पर निबंध लिखने का अभ्यास करना चाहिए । फिर गंभीर विषयों पर निबंध लिखने चाहिए । यहाँ कुछ निबंधों के उदाहरण दिए गए हैं –
साद्रित्यिक निबंध :
मेरी प्रिय पुस्तक ‘श्रीरामचरितमानस’
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- श्री रामचरितमानस की विशेषताएँ
- उपसंहार ।
प्रस्तावना :- जिस प्रकार मनुष्य की आँखें आकाश में असंख्य तारों के होते हुए भी धुव तारे को ही खोजती हैं। उपवन में अनेक प्रकार के पुष्यों के होते हुए भी गुलाब का अपना महत्व है । उसी प्रकार हिंदी साहित्य में हजारों गंथों के होते हुए भी ‘श्रोरामचरितमानस’ सबसे अधिक लोकप्पिय ग्रंथ है। यही वह महान ग्रंथ है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को उचित दिशा प्रदान करता है। आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व इस महाकाव्य की रचना हुई तथा आज भी इस महान रचना का महत्व सर्वाधिक है। यह एक विश्व्पसिद्ध साहित्यिक एवं आध्यात्मिक ग्रंथ है । यही एकमात्र हिंदी का ऐसा ग्रंथ है जो हिंदी एवं अहिंदी भाषी सभी का प्रिय एवं सम्माननोय ग्रंथ है।’श्रीरामचरितमानस’ सदियों से एक महान ग्रंथ के रूप में स्वीकृत एवम् लोकप्रिय बना हुआ है।
‘श्रीरामवरितमानस’ में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के पावन चरित्र की झाँकी प्रस्तुत की गई है । महाकवि तुलसीदास ने संवत् 1631 में इसे लिखना प्रारंभ किया तथा यह महान ग्रंथ संवत्1 633 में लिखकर पूरा हुआ । इस ग्रंथ की रचना अवधी भाषा में हुई है। इसमें सात कांड हैं-बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किन्धाकांड, सुंदरकांड, लंकाकांड और उत्तरकांड।
तुलसीदास द्वारा रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ एक ऐसा ग्रंथ है जिसके अध्ययन से प्रत्येक व्यक्ति को संतुष्ट, सुखी तथा सर्वहितकारी जीवन व्यतीत करने में सहायता मिलती है।
श्रीरामचरितमानस सदाचार की शिक्षा देने वाला एक महाकाव्य है। इस ग्रंथ के प्रारंभ में ही कवि ने सदाचार के संबंध में कहम है कि, वे ही व्यक्ति वन्दनीय हैं जो दुःख सहकर भी दूसरों के दोषों को प्रकट नहीं करते –
जे सहि दुख परछिद्र दुरावा । वंदनीय जेहिं जग जस पावा ।।
तुलसीदास जो का दृष्टिकोण व्यापक था। उन्होंने उसी व्यक्ति और वस्तु को सर्वश्रेष्ठ माना है, जिससे सबका हित होता हो, किसी एक का नहीं –
कीरति भनिति भूति भल सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई ।।
‘श्रीरामचरितमानस’ में तुलसीदास ने जिन पात्रों की सृष्टि की है वे मानव-जीवन के आदर्श पात्र हैं।श्रीरामचरितमानस’ में आदर्श भाई, आदर्श पत्नी, आदर्श पुत्र, आदर्श माता, आदर्श पिता, आदर्श सेवक, आदर्श राजा एवं आदर्श प्रजा को प्रस्तुत करके तुलसीदास जी ने उच्चस्तरीय मानव-आदर्श की कल्पना की है ।
‘श्रीरामचरितमानस’ में एक ऐसे राज्य की कल्पना की गई है जिसमें कोई किसी से वैर नहीं करता । जिसमें सभी प्रेम के साथ रहते हैं तथा अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं । जहाँ सभी उदार हों, कोई भी निर्धन न हो, कोई भी अज्ञानी न हो, किसी को भी दु:ख न हो, किसी को रोग न हो । आजादी के बाद गाँधीजी ने भी भारत में ऐसे ही रामराजय की कल्पना की थी ।
‘श्रीरामचरितमानस’ का स्थान हिंदी-साहित्य में ही नहीं, जगत् के साहित्य में निराला है । इसके जोड़ का ऐसा ही सर्वांसुंदर उत्तम काव्य के लक्षणों से युक्त भगवान की आदर्श मानव-लीला तथा उनके गुण, प्रभाव, रहस्य और प्रेम के गहन-तत्व को अत्यंत सरस, रोचक एवं ओजस्वी शब्दों में व्यक्त करने वाला कोई दूसरा ग्नन्थ हिंदी-भाषा में ही नहीं, कदाचित् संसार की किसी भी भाषा में आज तक नहीं लिखा गया।
उपर्युक्त गुणों के कारण ही ‘श्रीरामचरितमानस’ मेरा सर्वाधिक प्रिय ग्रंथ है।
मेरे प्रिय कवि : तुलसीदास
अथवा, लोकनायक तुलसीदास
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- तुलसीदास के जन्म की पृष्ठ-भूमि
- तुलसीदास : एक लोकनायक के रूप में
- तुलसीदास की निष्काम भक्ति-भावना
- तुलसी की समन्वय साधना
- तुलसी के दार्शनिक विचार
- तुलसीकृत रचनाएँ
- उपसंहार ।
राम छोड़कर और की जिसने करी न आस ।
रामचरितमानस-कमल, जय हो तुलसीदास ।।
– जयशंकर प्रसाद
प्रस्तावना :- मैंन हिंदी साहित्य के अंतर्गत कबीर, सूर, तुलसी, देव, घनानंद, बिहारी आदि अनेक कवियों का अध्ययन किया । आधुनिक कवि प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा तथा दिनकर का भी अध्ययन किया है कितु भक्तकवि तुलसीदास ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया । तुलसी के काव्य की अलौकिकता के समक्ष मैं सदैव नत-मस्तक होता रहा हूँ । उनकी भक्ति-भावना, समन्वयात्मक दृष्टिकोण तथा काव्य-सौष्ठव ने मुझे स्वाभाविक रूप से आकृष्ट किया है ।
तुलसीदास का जन्म ऐसी विषम परिस्थितियों में हुआ जब हिंदू समाज अशक्त होकर विदेशी चंगुल में फँस चुका था। हिंदू समाज की संस्कृति और सभ्यता प्राय: विनष्ट हो चुकी थी तथा कहीं कोई आदर्श नहीं रह गया था। इस काल में मन्दिरों का विध्वंस हो रहा था, ग्रामों तथा नगरों का विनाश हुआ वहीं संस्कारों की भ्रष्टता भी चरम सीमा पर थी । तलवार के दबाव से हिंदुओं को मुसलमान बनाया जा रहा था ।
लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास ने अंधकार के गर्त में डूबी हुई जनता के सामने भगवान राम का लोकमंगलकारी रूप प्रस्तुत किया । इससे जनता में आशा और शक्ति का संधार हुआ । युगद्रष्टा गोस्वामी तुलसीदास ने अपनेरामचरितमानस द्वारा भारतीय समाज में व्याप्त विभिन्न मतों, संप्रदायों तथा धाराओं का समन्वय किया । उन्होंने उस युग को नवीन दिशा, नई गति तथा नवीन प्रेरणा प्रदान की । उन्होंने सच्चे लोकनायक के समान वैमनस्य की चौड़ी खाई को भरने का सफल प्रयास किया ।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, “लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके क्योंकि भारतीय समाज में नाना प्रकार की विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचार-निष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। भगवान बुद्ध समन्वयकारी थे, ‘गीता’ ने समन्वय की चेष्टा की और तुलसीदास समन्वयकारी थे ।”
जब ईश्वर के सगुण एवं निर्मुण दोनों रूपों से संबंधित विवाद, दर्शन एवं भक्ति दोनों ही क्षेत्रों में प्रचलित था तो तुलसीदास ने कहा-
सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा । गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ।।
साहित्यिक क्षेत्र में भाषा, छंद, रस तथा अलंकार आदि की दृष्टि से भी तुलसी ने अनुपम समन्वय स्थापित किया। उस समय साहित्यिक क्षेत्र में विभिन्न भाषाएँ विद्यमान थीं । विभिन्न छन्दों में रचनाएँ की जाती थीं । तुलसी ने अपने काव्य मे संस्कृत, अवधी तथा ब्रजभाषा का अद्भुत समन्वय किया।
तुलसी के बारह ग्रंथ प्रामाणिक माने जाते हैं । ये ग्रंथ हैं-श्रीरामचरितमानस’, विनय-पत्रिका, गीताक्ली’, कवितावली, ‘दोहावली’, रामललानहछू’, पार्वतीमंगल’, जानकीमंगल’, बरवै रामायण, ‘वैराग्य संदीपनी’, ‘श्रीकृष्णगीतावली’ तथा रामाज्ञाप्रश्नावली’ । तुलसीदास की ये रचनाएँ विश्व-साहित्य की अनुपम एवम् अमूल्य निधि हैं।
उपसंहार :- तुलसी ने अपने युग और भविष्य, स्वदेश और विश्व तथा व्यक्ति और समाज आदि सभी के लिए महत्वपूर्ण सामग्री दी है । तुलसी को आधुनिक दृष्टि ही नहीं, प्रत्येक युग की दृष्टि मूल्यवान मानेगी, क्योंकि मणि की चमक अंदर से आती है बाहर से नहीं । वस्तुत: तुलसीदास हिंदी साहित्य के सर्वाधिक प्रतिभासंपन्न तथा युग को नवीन दिशा प्रदान करने वाले महान कवि हैं।
कबीर दास
अथवा
मेरे प्रिय भक्त कवि
रूपरेखा :
- जन्मकालीन परिस्थितियाँ
- जीवन वृत्त
- समाज सुधार ।
- धार्मिक सिद्धान्त
- हिन्दी साहित्य में कबीर का स्थान
- उपसंहार ।
महात्मा कबीर का जन्म संवत् 1456 में हुआ था । कबीर पंथियों ने इनके जन्म के सम्बन्ध में यह दोहा लिखा है
चौदह सौ छप्पन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ भए ।
जेठ सुदी बरसाइत की, पूरनमासी प्रकट भए ।।
किंवदती के अनुसार कबीर किसी विधवा बाहाणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । लोक-लाज के कारण वह इन्हें लहरतारा नामक तालाब के किनारे छोड़ आई थी । वहाँ से नीमा और नीरू नामक जुलाहा दम्पत्ति इन्हें ले आये, जिनके द्वारा इनका पालन-पोषण हुआ । कबीर के बाल्यकाल का विवरण अभी तक अज्ञात ही है पर इतना अवश्य है कि उनकी शिक्षा-व्यवस्था यथावत् नहीं हुई थी । उन्होंने स्वयं लिखा है –
मसि कागद छूऔ नहि, कलम गही नहिं हाथ ।
संक्रांतिकाल में पथ-प्रदर्शन करने वाले किसी भी व्यक्ति को जहाँ जनता के अंधविश्वासों और मूर्खतापूर्ण कृत्यों का खण्डन करना पड़ता है, वहाँ उसे समन्वय का एक बीच का मार्ग भी निकालना पड़ता है। यही कार्य कबीर को भी करना पड़ा है । जहाँ इन्होंने पण्डितों, मौलवियों, पीरों, सिद्धों और फकीरों को उनके पाखण्ड और ढोंग के लिये फटकारा, वहाँ उन्होंने एक ऐसे सामान्य धर्म की स्थापना की जिसके द्वार सबके लिए खुल गये थे । एक ओर इन्होंने हिन्दुओं के तीर्थ, वृत्त, मठ, मन्दिर, पूजा आदि की आलोचना की तो दूसरी ओर मुसलमानों के रोजा, नमाज और मस्जिद की भी खूब निन्दा की । माला फेरने वाले पण्डित-पुजारियों के विषय में उन्होंने कहा-
माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर ।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर ।।
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जप माला छापा तिलक, सरै न एको काम ।
मन काँचे नाचे वृथा, साँचे राँचे राम ।।
कबीर निर्गुणकारी थे, साकार भक्ति में उन्हें विश्वास नहीं था, इसलिए स्थान-स्थान पर उन्होंने मूर्ति-पूजा का विरोध किया –
पाहन पूजै हरि मिलें, तो, मैं पूजूँ पहार ।
चाकी कोई न पूजई, घीस खाय संसार ।।
कवि के लिए प्रतिभा, शिक्षा, अभ्यास ये तीनों बातें आवश्यक होती हैं । कबीर ने न तो कहीं शिक्षा प्राप्त की थी और न किसी गुरु के चरणों में बैठकर काव्य-शास्त्र का अभ्यास ही किया था, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वे ज्ञान से शून्य थे । भले ही उनमें परावलम्बी ज्ञान न रहा हो, परन्तु स्वावलम्बी ज्ञान की उनमें कमी नहीं थी। उन्होंने सत्संग से पर्याप्त ज्ञान संचय किया था। वे बहुश्रुत थे, उनके काव्य में विभिन्न प्रतीकों तथा अलंकारों की छटा दिखाई पड़ती है । उनके रूपक और उलटबांसियों के विरोधाभास तो अद्वितीय हैं। भाषा सधुक्कड़ी होने पर भी अभिव्यक्तिपूर्ण है।
कबीर को कोई-कोई विद्वान केवल समाज सुधारक और ज्ञानी मानते हैं, परन्तु कबीर में समाज-सुधारक, ज्ञानी और कवि, तीनों रूप मिलकर एकाकार हो गये हैं। वे सर्वप्रथम समाज-सुधारक थे, उसके पश्चात् ज्ञानी और उसके पश्चात् कवि । कबीर ने अपनी प्रखर भाषा और तीखी भावाभिव्यक्ति से साहित्यिक मर्यादाओं का अतिक्रमण भले ही कर दिया हो परन्तु उन्होंने जो काव्य-सृजन किया, उसके द्वारा साहित्य तथा धर्म में युगान्तर अवश्य उपस्थित हुआ ।
महाकवि सूरदास
अथवा
मेरे प्रिय कवि
रूपरेखा :
- भूमिका
- जीवन-परिचय
- साहित्य-सेवा
- उपसंहार ।
वात्सल्य भाव के अमर गायक महाकवि सूरदास मध्यकाल में चलने वाली सगुण भक्तिधारा के अन्तर्गत चलने वाली कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख एवं प्रतिनिधि कवि थे। इन्हें हिन्दी-साहित्य-आकाश का सूर्य एवं एक अमर विर्भूति माना जाता है।
महाकवि सूरदास का जन्म सम्बत् 1535 में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्माण-परिवार में हुआ मान जाता है । इस बात में मत- भेद पाया जाता है कि सूरदास जन्मान्ध थे या नहीं । एक मत के लोग मानते है कि सूरदास जन्म से ही अन्धे थे ।
कविवर सूरदास गोस्वामी वल्लभाचार्य के परम शिष्य, उनके पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ द्वारा स्थापित ‘अष्टछाप’ के कवियों में सर्वप्रमुख कवि थे । उनके आदेश से श्रीनाथ जो के मन्दिर में स्वरचित पद गाकर भजन-कीर्तन किया करते थे। सूरदास की रचनाओं की संख्या तेईस-चौबीस तक कही जाती है ; पर उपलब्ध और मुख्य तीन रचनाओं के नाम हैं – सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी । इन की कीर्ति का आधार स्तम्भ है – सूरसागर । सूरसागर में कवि ने श्रीमद्भगवत पुरान के दशम स्कन्ध के आधार पर कृष्ण-लीलाओं का गायन करते हुए भी अपनी अद्भुत मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है । इनमें राधा की परिकल्पना तो कवि की अपनी देन है ही, सूरसागर में संकलित ‘भ्रमरगीत’ को भी कवि ने अपनी मौलिक कल्पना से नया रूप-रंग प्रदान कर दिया है और भी अनेक मौलिक उद्भावनाओं से कृष्ण-जीवन को नया स्वरूप प्रदान किया है । सूरकाव्य में वात्सल्य रस प्रधान है।
वात्सल्य के बाद ‘सूरसागर’ का दूसरा प्रमुख रस है श्शृंगार । शृंगार के संयोग एवं वियोग दोनों पक्षों का वर्णन अत्यन्त सजीव एवं ताजगी लिए हुए है । ‘भ्रमरगीत’ प्रसंग की रचना इन्होंने निर्गुण-निराकारवाद, ज्ञान-योग के खण्डन के लिए तो की ही थी, वियोग श्रृंगार का उत्कर्ष दिखाना भी उसका उद्देश्य प्रतीत होत है । अपने लीला के पदों में कविवर सूरदास ने सख्यभाव का भी उत्कर्ष दिखाया है । सूरदास की दूसरी रचना ‘सूर सारावली के 1103 पदों में सूरसागर का सार संकलित किया गया है । हँ, कृष्ण लीला के जो प्रसंग सूरसागर में नहीं आ पाए, कुछ ऐसे प्रसंग भी इसमें वर्णित हैं।
सुरदास का समस्त काव्य मनोविज्ञान का सुंदर अध्ययन है, विशेषकर वात्सल्य वर्णन। सूर के वात्सल्य वर्णन के बारे में डाँ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है – ”यशोदा के वात्सल्य में सब कुछ है, जो माता शब्द को इतना महिमामय बनाए हुए है । यशोदा के बहाने सूरदास ने मातृ-हृदय का ऐसा स्वाभाविक, सरल और हृदयग्राही चित्र खींचा है कि आश्चर्य होता है। माता संसार का ऐसा पवित्र रहस्य है, जिसे कवि के अतिरिक्त किसी को व्याख्या करने का अधिकार नहीं । सूरदास जहाँ पुत्रवती जननी के प्रेम-पोषक हृदय को छूने में समर्थ हुए हैं, वहाँ वियोगिनी माता के करुणा विगलित हृदय को छूने में भी समर्थ हुए हैं ।”
प्रेम-दीवानी मीरांबाई
रूपरेखा :
- भूमिका
- जीवन-परिचय
- भक्ति-साहित्य में योगदान
- उपसंहार ।
महान् कवयित्री, कृष्ण-प्रेम में दीवानी बन जाने वाली मीरांबाई का जन्म मारवाड़-प्रदेश के राज्य जोधपुर के अन्तर्गत बसे मेड़ता नामक स्थान पर सन् 1516 में, राव दूदा जी के चतुर्थ पुत्र राव रत्नसिंह के यहाँ हुआ था । उन दिनों वे कुड़की नामक गाँव में निवास कर रहे थे । मीरां अपने पिता की एकमात्र सन्तान थी । बचपन में ही माता का देहान्त हो जाने के कारण मीरां का पालन पूर्णतया वैष्णव-कर्म वाले दादा राव दूदाजी ने किया था।फलत: मीरां में भी पूर्ण वैष्णव संस्कार स्वत: ही आ गए। वह कृष्ण को आराध्य मान कर उन की भक्ति-भावना में लीन रहने लगी। उसका ध्यान सांसारिकता की ओर मोड़ने के लिए ही दादा ने मात्र बारह वर्ष की आयु में ही मीरां का विवाह चित्तौड़ के महाराणा संग्राम सिंह के बड़े बेटे भोजराज के साथ कर दिया । पति भी मीरां का ध्यान सांसारिक सुख-भोग की आर आकर्षित न कर सके और कुछ ही वर्षों बाद स्वर्गवासी हो गए । फलत: अब उस ओर से भी निश्चित होकर मीरा आठो याम श्रीकृष्ण की भक्ति- भावना में, साधुओं की संगति में लीन रहने लगी।
यहीं से मीरां के जीवन में कष्टों का नया दौर भी आरम्भ हुआ। उसके ससुराल वालों को उसका साधु-मण्डली में बैठना, नाचना-गाना आदि कतई स्वीकार न था । यह सब वंश-मर्यादा के विपरीत लगता था। अतः पहले तो मीरां को रोका-टोका जाने लगा; पर बाद में अनेक प्रकार के कष्ट दिए जाने लगे । यहाँ तक कि उपाय करके उसे मारने का प्रयास भी किया गया ; पर उन सभी से बच कर, केवल कृष्ण को ही अपना पति एवं सर्वस्व घोषित करते हुए मीरां ने स्पष्ट कहा –
“मेरो तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई ।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ।।”
मीरा की रचनाओं में जो प्रमुख रचनाएँ मानी जाती हैं, उनके नाम है क्रमशःनरसी जी का मायरा, गीत गोबिन्द की टीका, मीरां की गरबी, राग गोबिन्द, राग सोरठ, मीरां के पद । इनमें से ‘गीत गोबिन्द की टीका’ अभी तक अप्राप्त है । ‘नरसी जी का मायरा’ में नरसी भक्त के भात करने की कथा का वर्णन है। ‘राग सोरठ के पद’ में मीरां के रचे गेय पद तो संकलित हैं ही, नामदेव, कबीर आदि संतों के पद भी संकलित किए गए हैं। ‘मीरां की गरबी’ में रास-मण्डलियों में गाए जाने वाले गेय मुक्तक पर संकलित किए गए हैं।
मीरां चूँकि मूलत: मारवाड़ की निवासिनी थी, सो प्रमुखत: इसने मारावाड़ी भाषा का ही प्रयोग किया था। हमारे विचार में हिन्दी में जो मीरां पर उपलब्ध हैं और हिन्दी के माने जाते हैं, उनमें भाषायी स्तर पर कई तरह का सुधार किया गया है । जो हो, कृष्ण के प्रति आत्म-निवेदन, आत्मसमर्पण, प्रेम-निवेदन, प्रेम-विरह की पीड़ा ही मीरां-काव्य का प्रमुख वर्ण्यविषय एवं स्वर है । उसके स्वर में कभी तो निर्गुणवादी मिलन-सुख की अनुभूति होती दीख पड़ती है और कभी विरहवेदना का चरम रूप हत्कम्पित करने लगता है । इस प्रकार का विरोधाभास इनके जीवनकाल की परिस्थितियों एवं अन्तर्दून्द्ध का परिणाम ही कहा जा सकता है । लेकिन मीरां की भावाविल निश्छलता, दृढ़ता, तल्लीनता एवं सर्मर्षण की अन्य भावना किसी भी प्रकार के द्वद्धात्मक सन्देह से सर्वथा ऊपर की वस्तु है।
रससिद्ध कवि बिहारीलाल
अथवा
मेरे प्रिय कवि
रूपरेखा :
- भूमिका
- जीवन-परिचय
- रससिद्ध कवि
- उपसंहार ।
रीतिकालीन कवि बिहारी के बारं में गोस्वामी राधाकृष्ण ने लिखा है – “यदि सूर-सूर तुलसी शशी, उडगन केशवदास हैं, तो बिहारी पीयूषवर्षी मेघ हैं, जिनके उदय होते ही प्रकाश आच्छन्न हो जाता है। फिर उसकी वृष्टि से कवि कोकिल कुहुकने, मन मयूर नृत्य करने और चातक चहकने लगते हैं।’ बिहारी का हिन्दी साहित्य में क्या स्थान है, इन पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है।
जाति के माधुर चौबे कविवर बिहारी का जन्म ग्वालियंर के पास स्थित बिसुआ गोविंद पुर नामक गाँव में सम्वत् 1660 में हुआ माना जाता है । सो मथुरा-वृन्दावन में निवास करते समय इन की भेंट मुगल बादशाह शाहजहाँ से हुई। इस की काव्य-प्रतिभा से प्रभावित होकर वे कवि को अपने दरबार आगरा ले गए । यहाँ पर कवि को पण्डितराज जगन्नाथ जैसे संस्कृत के उद्भट विद्वान कवि से तो मिलने का अवसर प्राप्त हुआ ही, महाराज जयसिंह से भी कभी जयपुर आने का निमंत्रण मिला ।
अनेक राजाओं के यहाँ थाड़ा-थोड़ा समय बिताते हुए बिहारी अन्त में जयपुर के महाराजा जयसिंह के दरबार में पहुँचे। पता चला, वृद्धावस्था में विवाह कर महाराजा नई रानी के प्रेमजाल में कुछ इस प्रकार से फँस रहे है कि दरबार में भी नहीं आते। तब मंत्रियों आदि की सलाह से कविवर बिहारो ने एक दोहा लिखकर महाराजा के पास भिजवाया । उसका जादू का असर हुआ। महाराजा तत्काल राजदरबार में भागे आए। आकर बिहारी का सम्मान तो किया ही, राजकवि के पद पर भी प्रतिष्ठित किया। तब से बिहारी वहीं रहने लगे । ये प्रतिदिन राजदरबार में एक दोहा सुनाया करते, बदले में इन्हें एक अशर्फी प्राप्त हुआ करती।
कविवर बिहारी की एक ही रचना उपलव्ध है – ‘बिहारी सतसई’ !इसमें इनके रचे कुल सात सौ तेरह आस-पास संख्या में रचे हुए दोहे संकलित हैं। इसे कविवर बिहारी को हिन्दी-साहित्य को एक अनोखी और बेजोड़ देन स्वीकार किया गया है। इसमें प्रधानत: शृंगार रस के दोहे संकलित हैं। रस-परिपाक की दृष्टि से इस तरह का प्रत्येक दोहा रस में डूबा हुआ तो है ही, अपना गहरा प्रभाव भी छोड़ जाने वाले है। भाव-वर्णन या वर्ण्य-विषय की दृष्टि से ‘बिहारी सतसई’ में मुख्यतया तीन प्रकार के दोहे प्राप्त होते हैं – शृंगार, भक्ति और तीसरे व्यवहार-नीति सम्बन्धी। प्रधानता शृंगार रस प्रधान दोहों की ही है।
इसके अलावे बिहारी के काव्य में लांक-व्यवहार, ज्योतिष तथा भक्ति से परिपूर्ण दोहे भी हैं। जहाँ तक अलंकारिकता की बात है, बिहारी के काव्य में चमक, श्लेष, अनुप्रास, असंगति आदि अलकार के अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं। अपनी समास-शक्ति और समाहार-योजना के अद्वितीय पांडित्य के कारण बिहारी ने निस्संदेह गागर में सागर भर दिया है । इस्सालए बिहारी के दोहों के बारे में कहा गया है –
”सतसैया के दोहरे ; ज्यों नावक के तीर ।
देखन में छोटे लगे, घाव करें गम्भीर ।।”
मेरा प्रिय साहित्यकार (माध्यमिक परीक्षा – 2011)
अथवा
युग-प्रवर्त्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
रूपरेखा :
- जन्मकालीन परिस्थितियाँ
- जीवन वृत्त
- रचनायं
- भाषा के क्षेत्र में नवयुग प्रवर्त्तक
- बहुमुखी साहित्य सेवा –
- (क) काव्यकार
- (ख) युग प्रवर्त्तक
- (ग) नाटक कार ।
- उपसंहार ।
भारतेन्द्र हरिश्चन्द्र का जन्म झतिहास प्रसिद्ध सेठ अमीचन्द के वंश में हुआ था । इनके पिता बापू गोपालचन्द्र (उपनाम गिरधरदास) बजभाषा के प्रतिभा सम्पन्न कवि थे । भारतेन्दु जी पर घर के साहित्यिक वातावरण का प्रभाव था । उन्होंने पाँच वर्ष की अवस्था में निम्नलिखित दोहे की रचना की थी
लै ब्यौडा ठाड़े भये, श्री अनुरूद्ध सुजान ।
वाणासुर की सेन को, हनन लगे भगवान ।।
उन्होंने अंग्रेजी, हिन्दी और उर्दू की शिक्षा घर पर ही प्राप्त की थी। दस वर्ष की अवस्था में ही उनके माता-पिता का देहांत हो गया था । फलस्वरूप शिक्षा का कम बीच में ही दूट गया । तेरह वर्ष की अवस्था में इनका विवाह हो गया। जीवन के अन्तिम दिनों में भारतेन्दु आर्थिक कष्टों से दब गये थे, उन्हें क्षय रोग हो गया था। सम्वत् 1941 में हिन्दी साहित्य का यह प्रकाश-पुंज सदैव के लिए समाप्त हो गया ।
भारतेन्दु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, उन्होंने साहित्य की प्रत्येक दिशा को नई गति और नई चेतना प्रदान की। नाटक, काव्य, इतिहास, निबन्ध, व्याख्यान आदि सभी विषयों पर अधिकारपूर्वक लिखा। अपने सत्रह-अठारह वर्ष के साहित्यिक जीवन में भारतेन्दु ने अनेक ग्रन्थों की रचना की। भारतवीणा, वैजयन्ती, सुमनांजलि, सतसई, भृंगार, प्रेमप्रताप, होली आदि भारतेन्दु जी के उत्कृष्ट काव्य-प्रन्थ हैं। भारतेन्दु जी की सबसे बड़ी देन नाटकों के क्षेत्र में है ।
‘चन्द्रावली’, ‘भारत दुर्दशा’, नील देवी, ‘अंधेर नगरी, प्रेम यांगिनी’, ‘विषम्य विषमौषधम’, और ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’, आदि भारतेन्दु जी के मौलिक नाटक हैं। ‘विद्या सुन्दर, ‘पाखण्ड विडम्बन’, ‘धनंजय विजय, ‘कर्पूरमंजरी’, ‘मुद्रा राक्षस’, ‘सत्य हरिश्चद्र’, और ‘भारत जननी’ आपके अनुदित नाटक हैं । सुलोचना, शीलवती आदि आपके आख्यान है । परिहास पंचक’, हास्य-रस सम्बन्धी गद्ध है । ‘काश्मीर कुसुम, और बादशाह दर्पण आपके इतिहास सम्बन्धी ग्रन्थ हैं। भारतेन्दु जी ने अपने अल्पकाल में सौ से अधिक ग्रन्थों की रचना की ।
हिन्दी के उत्थान कें लिए भारतेन्दु ने अपना तन, मन, धन सब कुछ समर्पित कर दिया था। मातृ-भाषा के विषय में उन्होंने बहुत कुछ लिखा है –
अंग्रेजी पढ़ कै जदपि सब गुन होत प्रवीन ।
पै निज भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।।
x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र गद्य की भाँति हिन्दी नाटकों के भी जन्मदाता हैं। वास्तव में उनसे पूर्व नाटकों का क्षेत्र बिल्कुल शून्य था। जो दो-चार नाटक थे भी, उनमें न तो मौलिकता थी और न शास्त्रीय नाटकीय तत्व। मुसलमानों के आधिपत्य के कारण भारतेन्दु से पूर्व नाटकों का समुचित विकास नहीं हो पाया था, क्योंकि मुसलमानों की दृष्टि में किसी भी आधिभौतिक शक्ति का मंच पर लाना कुफ समझा जाता था। भारतेन्दु के समय में कुछ नाटक कम्पनियाँ थीं, जो अश्लील अभिनयों से जनरुचि को विकृत करने में प्रयत्नशील थी । भारतेन्दु जी नाटक की रचना में बंगला से सबसे अधिक प्रभावित हुए । उन्होंने हिन्दी में भी नाटक लिखने का निश्चय किया । उनके अनुवादित और मौलिक नाटकों की संख्या चौदह है। प्रायः ये सभी नाटक अपने समय के लोकप्रिय नाटक थे तथा वे अपने नाटकों का निर्देशन और अभिनय का स्थान सर्वश्रेष्ठ है ।
भारतेन्दु जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न कलाकार थे । उन्होंन धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, भावात्मक आदि सभी विष्यों पर लेखनी चलाई । उनकी प्रतिभा से हिन्दी साहित्य का कोना-कोना प्रकाशित हुआ । खेद है कि मात्र 35 वर्ष की अल्पायु में ही वे काल कवलित हो गये ।
राष्ट्रकव मैथिलीशरण गुप्त
रूपरेखा :
- जीवन वृत्त
- काव्य की पृष्ठभूमि
- रचनायें
- काव्य की विशेषतायें
- उपसंहार ।
वर्तमान काव्यधारा के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त का जन्म संवत् 1943 में झाँसी जिले के चिरगाँव नामक स्थान में हुआ था । उनके पिता का नाम सेठ रामचरण था। वैष्णव भक्त होने के साथ-साथ सेठ जी का कविता के प्रति भी असीम अनुराग था । वे कनकलता के नाम से कविता किया करते थे । गुप्त जी का पालन-पोषण भक्ति एवम् काव्यमय वातावरण में ही हुआ । वातावरण के प्रभाव से गुप्त जी बाल्यावस्था से ही काव्य रचना करने लगे थे ।
गुप्त जी की शिक्षा-व्यवस्था घर पर ही हुई । अंग्रजी की शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे झाँसी आये किन्तु वहाँ उनका मन न लगा। काव्य-रचना की और प्रारम्भ से ही उनकी प्रवृति थी । एक बार अपने पिता जी की उस कॉपी में, जिसमें वे कविता किया करते थे, अवसर पाकर एक छप्पय लिख दिया । पिता जी ने जब कॉपी खोली और उस छण्पय को पढ़ा, तब वे बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंन मैथिलीशरण को बुलाकर महाकवि होने का आशीर्वाद दिया।
गुप्त जी की प्राराम्भिक रचनायें कलकत्ता के ‘जातीय पत्र’ में प्रकाशित हुआ करती थी। पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आने पर उनकी रचनायें ‘सरस्वती’ में प्रकाशित होने लगीं । द्विवेदी जी ने समय-समय पर उनकी रचनाओं में संशोधन किया और उन्हें ‘सरस्वती’ में प्रकाशित कर उन्हें प्रोत्साहन दिया। द्विवेदी जी से प्रोत्साहन पाकर गुप्त जी की काव्य-प्रतिभा जाग उठी और शने -शनै: उसका विकास होने लगा । आज के हिन्दी साहित्य को गुप्त जी की काव्यप्रतिभा पर गर्व है ।
गुप्त जी अपने जीवन के प्रथम चरण से ही काव्य रचना में प्रवृत्त रहे । राष्ट्र प्रेम, समाज प्रेम, राम, कृष्ण तथा बुद्ध सम्बन्धी पौराणिक आख्याओं एवं राजपूत, सिक्ख तथा मुस्लिम संस्कृति प्रधान ऐतिहासिक कथा ओों को लेकर गुप्त जो ने लगभग चालीस काव्य-ग्रन्थों की रचना की है । गुप्त जी ने मॉलिक ग्रन्थों के अतिरिक्त बंगला के काव्य-पन्थों का अनुपम अनुवाद भी किया है । अनुवादित रचनायें मधुप के नाम से हैं। उन्होंने फारसी के विश्व-विश्रुत कवि उमर खैयाम की रुबाइयों का अनुवाद भी अंग्रेजी के द्वारा हिन्दी में किया है । रंग में भंग, जयद्रथ बध, भारत भारती, शकुन्तला, वैतालिका, पद्भावती, किसान, पंचवटी, स्वदेशी संगीत, हिन्दू-शक्ति, सौरन्ध्री, वन वैभव, वक संहार, झंकार, अनघ, चन्द्रहास, तिलोत्तमा, विकट भट, मंगल घट, हिडिम्बा, अंजलि, अर्ध्य, प्रदक्षिणा और जय भारत उनके काव्य हैं । ‘साकेत’ पर हिन्दी साहित्य सम्मलन की आर से उन्हें मंगला प्रसाद पारितोषिक भी प्राप्त हुआ था। ‘जय भारत’ उनकी नवीनतम कृति थी।
गुप्त जी की ‘भारत-भारती’ में देश-प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है । अंग्रेजी शासन के विरोध में होंन के कारण यह पुस्तक कुछ समय तक जब्न भी रही थी । इसमें उन्होंने अतीत गौरव की भव्य झाँकी प्रस्तुत की है। भारतवर्ष की तत्कालीन दुर्दशा पर दु:ख प्रकट करतं हुए आपन लिखा है –
हम कौन थे क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी ।
आओ विचारें आज मिलकर, ये समस्यायें सभी ।।
भारतवर्ष में खी जाति चिरकाल से उपेक्षित रही है । गुप्त जी उनकी इस दशा पर दु खी हो उठते हैं-
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ।
गुप्त जी की कविता की भाषा सरल और सुबांध है । उसे साधारण से साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है । गुप्त जी की कविता में कोमलता और माधुर्य का अभाव है । कहीं कहीं तो रुखा गद्य-सा जान पड़ता है । इनकी कविता की सफलता का रहस्य भाषा तथा भावों की सुबोधता है न कि उनका काव्य-सौन्दर्य । एक आलोचक का विचार है, कि गाँधी जी जो कुछ भी अपने भाषणों में कह देते थे, प्रेमचन्द जी उसे अपने उपन्यासों में और मैथिलीशरण उसे अपनी कविता में ज्यों का त्यों कुछ उलट-फेर करके उतार दिया करते थे ।
उपन्यास-सम्राट प्रेमचन्द
अथवा
मेरे प्रिय लेखक (मॉडल प्रश्न – 2007)
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- जीवन परिचय
- साहित्य सेवा
- रचनागत विशेषताएँ
- उपसंहार ।
प्रेमचन्द का जन्म बनारस के निकट लमही नामकं गाँव में सन् 1880 में हुआ था । उनके पिता मुंशी अजायब राय डाकखाने के एक साधारण लिपिक थे, अतः परिवार की आर्थिक स्थिति सामान्य थी। धनपत राय था । इनकी साहित्यिक प्रतिभा से प्रभावित होकर दयाराम निगम नामक एक उर्दू लेखक ने इनका नाम प्रेमचन्द रखा ।
प्रेमचन्द जी महान कथा-शिल्पी थे । उपन्यास तथा कहानियों के अतिरिक्त उन्होंने नाटक, निबन्ध आदि भी लिखे । उनकी प्रारम्भिक रचनाएँ उर्दू में लिखी गयीं, किन्तु कुछ समय बा़ ही वे हिन्दी में लिखने लगे । यही कारण है कि प्रेमचन्द जी को हिन्दी तथा उर्दू भाषा-भाषियों में समान रूप से लोकप्रियता मिली । प्रेमचन्दजी के साहित्य को हम निम्न रूप में श्रेणीबद्ध कर सकते हैं :-
उपन्यास :- सेवासदन, कर्मभूमि, कायाकल्प, निर्मला, प्रतिज्ञा, प्रेमाश्रय, वरदान, रंगभूमि, गबन तथा गोदान आदि।
कथा-संग्रह :- सप्त सरोज, प्रेम पचीसी, प्रेम प्रसूना, प्रेम पूर्णिमा, प्रेमतीर्थ, प्रेम प्रमोद, प्रेम द्वादशी, प्रेम प्रतिज्ञा, कफन, नवनिधि, पाँच फूल, मानसरोवर के 8 खण्ड आदि ।
नाटक :- प्रेम की वेदी, कर्बला, संग्राम, रूठी रानी ।
निबन्ध संग्रह :- कुछ विचार तथा निबन्ध-संग्रह ।
जीवनी :- कलम, त्याग और तलवार, दुर्गादास और महात्मा शेखसादी ।
बाल-साहित्य :- दत्ते की कहानी, जंगल की कहानियाँ, रामचर्चा और मनमोदक ।
अनुवाद :- टाल्स्ट।य की कहानियाँ, सुखदास, चाँदी की डिबिया, हड़ताल आदि ।
रचनागत विशेषताएँ :- प्रेमचन्द जी ने अपनी कला को जीवन के प्रति समर्पित किया, अतः उनके प्रत्येक शब्द और वाक्य में जीवन की अनुगूँज सुनाई देती है । उनकी रचनाएँ भारत के दीन-दु:खी किसानों, शोषित मजदूरों, सामाजिक दुष्पवृत्तियों की शिकार अबलाओं की मर्मव्यथा का सजीव चित्र देकर पाठकों के हृदय में सच्ची सहानुभूति जगाती हैं तथा उनसे जटिल समस्याओं का निदान ढूँढ़ने की प्रेरणा देती हैं।
उपसंहार :- प्रेमचन्द जी हिन्दी साहित्य की अमर विभूति हैं। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द जी का स्थान विश्व साहित्यकला शिल्पियों की प्रथम श्रेणी में प्रतिष्ठित हो चुका है । शोषितों, दलितों तथा दीन-दुखियों को कथानायक बनाकर एवं उनकी मूक व्यथा को वाणी प्रदान कर प्रेमचन्द जी ने जैसी लोकप्रियता अर्जित की है वह बाद के किसी भी हिन्दी लेखक को प्राप्त नहीं हो सकी।