WBBSE Class 9 Hindi रचना भावार्थ

Students should regularly practice West Bengal Board Class 9 Hindi Book Solutions and रचना भावार्थ to reinforce their learning.

WBBSE Class 9 Hindi रचना भावार्थ

किसी दिए गये गद्यांश अथवा पद्यांश के अवतरण को समझना तथा उसके अन्दर छिपे हुए मुख्य भाव को संक्षेप में लिखना भावार्थ-लेखन कहलाता है। इसे लिखते समय न तो हर शब्द का अर्थ लिखना पड़ता है और न ही लच्छेदार साहित्यिक भाषा की जरूरत पड़ती है।

भावार्थ-लेखन हेतु आवश्यक निर्देश –

  1. दिए गये अवतरण को ध्यान से पढ़ें और उसमें छिपे भाव को समझने की कोशिश करें।
  2. फिर उस भाव का अति संक्षिप्त रूप अपने शब्दों में लिख जाएँ।
  3. इसमें अनावश्यक शब्दों या बातों का प्रयोग न करें।
  4. इसकी भाषा अलंकारहित, स्पष्ट एवं सरल रखें।
  5. इसमें लंबी-चौड़ी भूमिका की कोई आवश्यकता नहीं होती है।
  6. भावार्थ को मूल अवरतण से छोटा रखें।
  7. ध्यान रहे, इसमें मूल भाव का कोई भी अंश छूटने न पाये।

भावार्थ-लेखन के कुछ उदाहरण –

अवतरण 1.
आज की कॉन्वेन्टी शिक्षा-पद्धति में बच्चों को तीन वर्ष की उप्र से स्कूल भेजा जाता है। क्या यह कदम उचित और विकासोन्मुख है ? उन्हें सुबह-सुबह तैयार कर बड़े से थैले के साथ विद्यालय भेज दिया जाता है। जिस उग्र में उन्हें स्नेहपूर्ण व्यवहार की आशा रहती है, उसमें उन्हें कुछ निर्दय शिक्षकों एवं शिक्षिकाओं से पाला पड़ जाता है। ये बच्चे पढ़ेंगे क्या, उन्हें तो ठीक से चड्डी पहनने का भी होश नहीं रहता है। तर्क यह है कि बच्चे कच्ची उप्र से ही शिक्षा का महत्व समझने लगेंगे। पर क्या, उनका मानसिक स्तर ऐसी बातों को समझने लायक होता है ?

भावार्थ :- कच्ची उम्न में बच्चों को परिवार के स्नेह की जरूरत होती है, न कि पुस्तकों से भरे थैले के साथ विद्यालय जाकर माथा-पच्ची करने की। कम उम्र में विद्यालय भेजा जाना, बच्चों की विकास प्रक्रिया में बाधक भी हो सकता है।

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अवतरण 2.
कोई प्रदेश कितना विकसित हो सकता है, इसे आँकने के लिए वहाँ की प्राकृतिक बनावट, जलवायु और पर्यावरण पर ध्यान देना होता है। विकास के लिए वहाँ के उपलब्ध कच्चे माल, श्रमशक्ति एवं शक्ति के साधनों का पूरा-पूरा उपयोग करना आवश्यक होता है। यदि निर्मित माल की खपत के लिए बाजार नजदीक हो, तो यह सोने में सुहागा वाली कहावत को चरितार्थ करता है। अच्छी सड़कें एवं समुचित यातायात-व्यवस्था भी विकास की आवश्यक शर्ते हैं।

भावार्थ :- औद्यांगिक विकास के लिए भौगोलिक परिस्थितियों के साथ कच्चे माल, शक्ति, श्रम और यातायात के साधनों का समुचित उपयोग आवश्यक है।

अवतरण 3.
एक ही समाज में रहनेवाले लोग मानसिक-स्तर पर भिन्न-भित्र होते हैं। इस स्तर का प्रत्यक्ष संबंध होता है – संगति से। व्यक्ति जिस प्रकार की संगति में जीता है, पलता है और बड़ा होता है, उसके अन्दर वैसे ही गुण पनपते हैं। साधुओं के साथ उठने-बैठनेवाला व्यक्ति सद्भाव से अवश्य ही ओत-प्रोत हो जाता है जबकि चोर-उचक्कों की संगति में रहनेवाला निश्चित तौर पर समाज के लिए कलंक ही साबित होता है।

भावार्थ :- संगति के कारण ही एक ही समाज में तरह-तरह के लोग होते हैं। साधुओं की संगति में बैठने वाला साधु प्रकृति का तथा दुष्टों की संगति मे बैठने वाला समाज के लिए कलंक होता है।

अवतरण 4.
भारतवर्ष की शस्य-श्यामला-भूमि अपनी विशेष उर्वरता के कारण कृषि-कार्य के लिए व्ररदान है। तभी तो कृषि-कार्य में यहाँ की कुल आबादी का लगभग 70% संलग्न है। कृषि को सर्वप्रमुख उद्योग का दर्जा प्राप्त होना चाहिए क्योंक यही कुल राष्ट्रीय आय की रीढ़ है। आधुनिक तकनीकी प्रयोग ने कृषि-कार्य का सम्मान और भी बढ़ा दिया है। यह राष्ट्रीय आय के साथ ही विदेशी मुद्रा के अर्जन का भी मुख्य साधन बन गया है। फिर भी सरकार इसे उस रूप में ध्यान नहीं देती जिस रूप में उसे देना चाहिए।

भावार्थ :- भारत में कृषि को सर्वपमुख उद्योग का दर्जा मिलना चाहिए क्योंकि यहाँ की 70 % राष्ट्रीय आय का स्रोत कृषि ही है। फिर भी सरकार कृषि तथा कृषक की ओर समुचित ध्यान नहीं देती।

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अवतरण 5.
अनुशासन मानव-जीवन के अपरिहार्य तत्व है। यह प्रगति और खुशहाली की सीढ़ी है। यह ऐसी सीढ़ी है जिस पर चढ़े बिना कोई भी व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में उन्नति नहीं कर सकता। विश्व के सभी महापुरूषों में अन्य गुणों के अतिरिक्त अनुशासनरूपी गुण हमेशा पाया गया है। यहाँ तक कि प्रकृति भी अनुशासन की डोर से बंधी रहती है। अगर प्रकृति इसे छोड़ दे, तो प्रलय को कौन रोक सकता है? इसके महत्व को समझनेवाला व्यक्ति ही सफलता का स्वाद चखता है।

भावार्थ :- अनुशासन जीवन का अनिवार्य तत्व है। दुनिया के प्रत्येक महापुरूषों ने अपने जीवन में अनुशासन को महत्व दिया है। अनुशासन के महत्व को समझनेवाला ही सफलता का स्वद चखता है।

अवतरण 6.
वह तोड़ती पत्थर।
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर
नहीं छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार

भावार्थ :- कवि कहते हैं कि मैंने पत्थर तोड़ने वाली युवती को इलाहाबाद के पथ पर देखा। जिस पेड़ के नीचे बैठकर उसने पत्थर नोड़ना स्वीकार किया, वह पेड़ भी छायादार नहीं था।

अवतरण 7.
चढ़ रही धूप; गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप, उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्यों जलती हुई भू, गर्द चिनगी छा गई
प्राय: हुई दुपहर-वह तोड़ती पत्थर।

भावार्थ :- दिन चढ़ने के साथ-साथ हर क्षण धूप तेज होती जा रही थी। गर्मी के दिन थे। दिन अपने तमतमाते रूप में था। तभी शरीर को झुलसा देनेवाला लू भी चलने लगी। सूर्य की प्रचण्ड ताप से धरती भी रूई के समान जल रही थी! चारों ओर छा गए धूल के कण भी चिनगारी के समान छा गए थे और इन्हीं के बीच वह युवती पत्थर तोड़ रही थी।

अवतरण 8.
नव गति, नव लय, ताल छन्द नव,
नवल कण्ठ, नव जल्द-मन्द्र रव;
नव नभ के नव विहग-वृन्द को;
नव पर नव स्वर दे।

भावार्थ :- हे सरस्वती, तुम मेरे जीवन में नयी, गति, नई आवाज, नए ताल छंद और नए स्वर भर दो, जो बादल के गंभीर गर्जन के समान हो। नए आकाश के नए पक्षियों को मुक्त उड़ान भरने के लिए नए पंख और नए स्वर दो।

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अवतरण 9.
मैं अकेला;
देखता हूँ, आ रही
मेरे दिवस की सांध्य बेला।
पके आधे बाल मेरे
हुए निष्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मन्द होती आ रही,
हट रहा मेला।

भावार्थ :- कवि कहते हैं कि मैं अकेला पड़ गया हूँ। मैं देख रहा हूँ कि मेरे जीवन की संध्या बेला आ चुकी है। मेरे बाल आधे पक चुके हैं, गालों को लालिमा खत्म होकर झुर्रियाँ भर रही हैं, मेरे पैरों में भी पहलेवाली शक्ति नहीं रही। मेरे आसपास से अब लोगों का मेला भी हटने लगा है।

अवतरण 10.
सिंही की गोद से
छीनती रे शिशु कौन?
मौन भी क्या रहती वह
रहते प्राण? रे अजान।
एक मेषमाता ही
रहती है निर्निमेष
दुर्बल वह –

भावार्थ :- कवि कहते हैं कि सिंहनी की गोद से कोई उसका शिशु नहीं छीन सकता। और अपने प्राण रहते वह ऐसा होने भी नहीं देगी। केवल भेड़ की माता ही अपने शिशु को छीन लिए जाने पर भी केवल आँसू बहाकर रह जाती है क्योंकि वह दुर्बल है।

अवतरण 11.
भीष्म हों अथवा युधिष्ठिर या कि हों भगवान,
बुद्ध हों कि अशोक, गाँधी हों कि ईसु महान,
सिर झुका सबको, सभी को श्रेष्ठ निज से मान
मात्र वाचिक ही उन्हें देता हुआ सम्मान।

भावार्थ :- कवि कहते हैं कि इस संसार में चाहे भीष्म पितामह हों, युधिष्ठिर हों, कृष्ण हों, बुद्ध हों, अशोक हों, महात्मा गाँधी हों या फिर ईसा मसीह हों सबने अपने से इन्हें श्रेष्ठ माना। लेकिन केवल मौखिक स्तर पर ही। उनके वचनों को अपने जीवन में नहीं उतारा।

अवतरण 12.
यह मनुज ज्ञानी, श्रृंगालों, कुक्करों से हीन
हो, किया करता अनेकों क्रूर कम्र मलीन।
देह ही लड़ती नहीं, है जूझते मन-प्राण,
साथ होते ध्वंस में इसके कला-विज्ञान

भावार्थ :- यह ज्ञानी मनुष्य सियारों और कुत्तों से भी गया-गुजरा और नीच बनकर बहुत से गंदे और निर्दयी काम करता है। जब वह युद्ध करता है तो केवल इसका शरीर ही युद्ध में हिस्सा नहीं लेता बल्कि इसके विनाशकारी कार्यों में इसका साथ कला और विज्ञान भी देते हैं।

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अवतरण 13.
साँप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया
एक बात पूछूँ- (उत्तर दोगे ?)
तब कैसे सीखा डंसना
विष कहाँ पाया।

भावार्थ :- कवि नगरवासियों पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि साँप! तुम तो सभ्य नहीं हुए, न तो तुम्हें नगर में बसना ही आया। क्या मेरी एक बात का उत्तर दोगे ? तब तुमने डंसना कैसे सीखा। विष कहाँ से पाया?

अवतरण 14.
मनमोहिनी प्रकृति की जो गोद में बसा है।
सुख स्वर्ग सा जहाँ है, वह देश कौन-सा है।।
जिसके चरण निरन्तर रत्नेश धो रहा है।
जिसका मुकुट हिमालय, वह देश कौन-सा है।

भावार्थ :- कवि भारत के बारे में कहते हैं कि जो मन को मोहनेवाली प्रकृति की गोद में बसा है, जहाँ का सुख स्वर्ग के समान है, जिसके चरणों को सागर धोता है तथा जिसका मुकुट हिमालय है- वह देश कौन-सा है?

अवतरण 15.
“यह जीवन क्या है निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है।
सुख-दु:ख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है।
पथ में रोड़ों से लड़ता, वन के पेड़ों से टकराता।
बढ़ता चट्टानों पर चढ़ता, चलता यौवन से मदमाता।
चलना ही चलना है, जीवन चलता ही रहता है।
मर जाना ही रुक जाना है, नर्झर यह झरकर कहता है।”

भावार्थ :- कवि कहता है कि मानव के जीवन में झरने के जल की तरह मस्ती, उल्लास और आनन्द है। जिस तरह झरना का जल रास्ते में दोनों तटों पर कभी पत्थर से तो कभी बन से टकराता हुआ मस्ती में प्रवाहित होता है, उसी तरह मनुष्य भी अपने जीवन में सुखों-दुःखों के बीच जीवन व्यतीत करता है। मानव को झरना संदेश देता है कि जीवन में रुकना मृत्यु का सूचक है अत: जीवन में निरन्तर गतिशील बने रहो।

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अवतरण 16.
सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही।
संघर्ष से हटकर जिए, तो क्या जिए हम या कि तुम।
जो नत हुआ, वह मृत हुआ, ज्यों वृन्त से झरकर कुसुम। (मॉडल प्रश्न – 2007)

भावार्थ :- जीवन का नाम ही संघर्ष है। संघर्ष के बिना मानव-जीवन का कोई महत्त्व नहीं है। जो व्यक्ति जीवन में हार मान लिया वह झेरे हुए फूल की तरह मृतक के समान है।

अवतरण 17.
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखत न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।।

भावार्थ :- उद्धृत अंश में गरीबों, सुविधाहीन वर्ग की स्थिति को रूपायित किया गया है। यह वर्ग सभी की और आशापूर्ण नेत्रों से देखता है लेकिन इन पर कोई दया दृष्टि नहीं डालता, जो लोग इन पर दया दृष्टि डालते हैं वे लोग दीनबंधु (गरीबों के मित्र या भगवान) की तरह सम्माननीय हो जाते हैं।

अवतरण 18.
जे गरीब पर हित करें, ते रहीम बड़ लोग।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्णा मिताई जोग।।

भावार्थ : यहाँ मध्यकालीन भक्त रहीम दोहे के माध्यम से बताते हैं कि गरीबों पर स्नह लुटाने वाला उनसे प्रेमपूर्ण व्यवहार करने वाला ही वास्तविक अर्थ में बड़ा होता है। इसी कथन को उन्होंने कृष्ण भगवान और सुदामा की मित्रता का उदाहरण देकर दिखाया है।

अवतरण 19.
दूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि-फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार।।

भावार्थ :- इस दोहे में रहीम अच्छे लोगों (सज्जनों) के रूठ जाने पर भी हर प्रयत्न करके उन्हे मना लेने को कहते हैं, क्योंकि सज्जन व्यक्ति हमारे शुभेच्छु होते हैं, उनके प्रत्येक आचरण में हमारा कल्याण छिपा रहता है।

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अवतरण 20.
विद्याधन उद्यम बिना, कहो जु पावै कौन।
बिना डुलाए ना मिले, ज्यों पंखा को पौन।।

भावार्थ :- इस दोहं में श्रम की महत्ता को व्यंजित किया गया है। बिना परिश्रम के सफलता प्राप्त नहीं हो सकती, अतः मनुष्य को सफलता प्राप्त करने के लिए परिश्रम करना चाहिए। इसी भाव को ध्यान में रखकर दोहे में कहा गया है कि-विद्या तथा धन (या विद्यारूपी धन) बिना परिश्रम के काई नहीं पा सकता, जैसे पंखा को बिना हिलाए हवा नहीं मिल सकती।

अवतरण 21.
कारज धीरे होतु है, काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फलै, केतक सींचो नीर।।

भावार्थ :- मनुष्य का स्वभाव अत्यन्त चंचल है, वह किसी भी कार्य का त्वरित परिणाम चाहता है, जबकि यथार्थ में ऐसा नहीं होता है। त्वरित परिणाम वाले कार्य की पूर्णता में सन्देह बना रहता है साथ ही वे हमारे लिए हानिकारक भी होते हैं। प्रस्तुत दोहे में यही भाव व्यंजित है कि-किसी कार्य में विलम्ब होने पर अधीर नहीं होना चाहिए। समय पर ही पेड़ पर फल लगेंगे चाहे हम उसे कितना ही सींचें।

अवतरण 22.
लोग यों ही झिझकते सोचते,
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर।
किंतु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें,
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।।

भावार्थ :- इस संसार का नियम है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है, कुछ पकड़ने के लिए कुछ छोड़ना पड़ता है। इस पाने-खोने या पकड़ने-छोड़ने की प्रतिक्रिया में ही मनुष्य की प्रगति का रहस्य छुपा हुआ है। इसी प्रसंग में उक्त अंश उद्धत है, जिसका अर्थ है-अक्सर लोग घर को छोड़ने में झझझके हैं। लेकन जिसने भी महान् लक्ष्य के लिए घर छोड़ा, वे स्वाति नक्षत्र की बूँद की तरह मोती में बदल जाते हैं।

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अवतरण 23.
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है,
वह नर नहीं, नर-पशु निरा है, और मृतक समान है।

भावार्थ :- संसार के प्रत्येक देश क निवासियो में अपने देश के लिए स्वाभाविक प्रेम होता है, उन्हें अपनी संस्कृति और सभ्यता का गर्व होता है। ऐसा होना भी स्वाभाविक है। जिस मनुष्य में अपने देश या संस्कृति के प्रति सम्मान या गौरव की भावना नहीं पायी जाती, वह मनुष्य विवेकशून्य होता है। जिस व्यक्ति को अपन तथा अपने देश पर अभभमान नहीं है, वह मनुष्य नहीं, मनुष्य के रूप में पशु तथा मृतक के समान है।

अवतरण 24.
देखो कृषक शोणित सुखाकर, हल तथापि चला रहे
किस लोभ में इस आँच में वे, जिन शरीर जला रहे।

भावार्थ :- कृषक देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं। वे समस्त देश में खाद्य उत्पादन को बनाये रखते हैं। कृषकों का स्वयं का जीवन अत्यन्त दुरूह तथा कष्टकर होता है, लेकिन फिर भी धरतीपुत्र होने के कारण, नि:स्वार्थ भाव से वे अपने कर्म में लगे रहते हैं। इस कार्य में उनके घर के अन्य प्राणी भी सहयोग करते हैं। किसान कड़ी धूप में अपना खून जलाकर भी हल चला रहे हैं। पता नहीं, इस धूपरूपी आँच में किस लोभवश वे अपना शरीर जला रहे हैं ?

अवतरण 25.
मध्याह्न है उनकी स्त्रियाँ, ले रोटियाँ पहुँची वहीं,
हैं रोटियाँ रूखी, है खबर शाक को उनकी नहीं।
संतोष से खाकर उन्हें फिर, काम में वे लग गए,
भरपेट भोजन पा गए तो, भाग्य मानो जग गए।

भावार्थ :- उद्धृत अंश में किसानों के निस्वार्थ कर्म, सरल स्वभाव तथा कठिन जीवन- परिस्थितियों की ओर संकेत किया गया है। किसान पूरे देश में खाद्यपूर्ति करते हैं, लेकिन स्वयं आधा-अधूरा भोजन भी भगवान का प्रसाद समझकर ग्रहण करते हैं और फिर अपने कर्म में लग जाते हैं
। दोपहर में किसानों की पत्नी रूखी रोटियाँ लेकर खेत में आती हैं। रोटियाँ बिना शाक की हैं। वही रूखी रोटियाँ खाकर किसान संतोषपूर्वक अपने काम में लग जाता है। भरपेट रोटियाँ मिल जाय, यही उनका सौभाग्य है।

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अवतरण 26.
वह्लि, बाढ़, उल्का, झंझा की भीषण भू पर
कैसे रह सकता है कोमल मनुज कलेवर ?
निष्ठुर है जड़ प्रकृति, सहज भंगुर जीवित जन,
मानव को चाहिए यहाँ मनुजोचित साधन।

भावार्थ :- मनुष्य को जीवन संघर्ष में बचे रहने या विजयी बनने के लिए प्रकृति के कोप (आग, बाढ़, तूफानों इत्यादि) से बचने के लिए उचित संसाधनों की खोज करनी चाहिए-अन्यथा वह इस संघर्ष में नष्ट हो जायेगा। आग, बाढ़, बिजली तथा तूफानों की विभीषिका के बीच भला कोमल मनुष्य कैसे रह सकता है ? प्रकृति निष्ठुर है और मानव क्षणभंगुर। प्रकृति के कोप से बचने के लिए उचित साधनों का होना मनुष्य के लिए आवश्यक है।

अवतरण 27.
जीवन की क्षण-धूलि रह सके, जहाँ सुरक्षित
रक्त मांस की इच्छाएँ जन को हों पूरित !
मनुज प्रेम से जहाँ रह सकें – मानव ईश्वर !
और कौन-सा स्वर्ग चाहिए तुझे धरा पर ?

भावार्थ :- इस संसार में सामंजस्यपूर्ण स्थिति पैदा करके इस धरती को ही स्वर्ग के रूप में बदला जा सकता है। मनुष्य स्वर्ग-प्राप्ति की इच्छा करता है। यदि सभी लोग एक-दूसरे की इच्छाओं का सम्मान करते हुए प्रेमपूर्ण ढंग से आपस में आचरण करें, तो इस धरती को ही स्वर्ग के रूप में बदल दिया जा सकेगा। जहाँ मानव के क्षणभंगुर जीवन की सुरक्षा हो, जहाँ उसकी इच्छाएँ पूरी हो तथा आपस में प्रेम से रह सके, तो इससे अलग कौन-सा स्वर्ग धरती पर हो सकता है ?

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अवतरण 28.
पक्षी और बादल,
ये भगवान के डाकिए हैं,
जो एक महादेश से
दूसरे महादेश को जाते हैं,
हम तो समझ नहीं पाते हैं,
मगर उनकी लायी चिट्वियाँ
पेड़, पौधे, पानी और पहाड़ बाँचते हैं।

भावार्थ :- इस संसार में जितने भी प्राणी हैं उन सभी के सन्दनों की भाषा प्रकृति समझती है। एक देश का मनुष्य दूसरे देश या क्षेत्र की या पशु-पक्षियों की भाषा नहीं समझ पाता। इस धरती पर सभी सजीव प्रकृति की संतान हैं, अत: प्रकृति उनकी भाषा समझ लेती है और वैसा ही आचरण करती है। पक्षी और बादल केवल प्रकृति के अंग नहीं, बल्कि भगवान के संदेशवाहक हैं। ये भगवान का संदेश लेकर एक महादेश से दूसरे महादेश जाते हैं। इनके द्वारा लाए संदेशों को हम भले न बाँच पाएँ लेकिन पेड़, पौधे, पानी और पहाड़ इन संदेशों को बाँचकर हम तक पहुँचाते हैं।

अवतरण 29.
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ;
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

भावार्थ :- मनुष्य अत्यन्त महत्वाकांक्षी होता है। वह केवल कल्पनाएँ करना ही नहीं जानता है, बल्कि उन कल्पनाओं को विधिन्न उपादानों के द्वारा साकार करना भी जानता है। आज मनुष्य की प्रर्गति इसी कहानी को सुना रही है। यह मनुष्य साधारण मनुष्य नहीं, बल्कि उस मनु का पुत्र है। जो केवल कल्पना या विचारों की दुनिया में नहीं जीता। वह अपने स्वप्न को साकार करने का भी सामर्थ्य रखता है।

अवतरण 30.
स्वर्ग के सप्राट को जाकर खबर कर दे,
“रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने, इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं।”

भावार्थ :- इस अंश में मनुष्य की सतत्रप्रगति तथा उसकी महत्वाकांक्षा की ओर संकेत किया गया है। मनुष्य की महत्वाकांक्षाएँ नित नवीन रूप धारण करती हैं, जिन्हें वह पूरा करने का प्रयास करता है। कवि इन्द्र को सावधान करते हुए कहता है कि मनुष्य ने असीम लालसा और बुद्धि का उपयोग कर केवल धरती ही नहीं, आकाश पर भी अपना अधिपत्य जमा लिया है। यदि इन्हें रोका नहीं गया, तो एकदिन ये स्वर्ग पर भी अधिकार जमा लेंगे।

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अवतरण 31.
है अनिश्चित, किस जगह पर
बाग, वन सुन्दर मिलेंगे,
किस जगह यात्रा खतम हो
जायेगी, यह भी अनिश्चित,
अनिश्चित कल सुमन, कब
कंटकों के शर मिलेंगे,
कौन सहसा छूट जाएँगे
मिलेंगे कौन सहसा
आ पड़े कुछ भी, रुकेगा
तू न, ऐसी आन कर ले।

भावार्थ :- कवि जीवन-पथ पर चलने के संदर्भ में यह कह रहा है कि जीवनरूपी यात्रा में कब सुन्दर बाग-वन मिलेंगे और कब यात्रा खत्म हो जायेगी, यह अनिश्चित है। कभी फूल तो कभी काँटे की तीखी धार भी मिलेगी। हो सकता है कि कोई साथी सहसा हमसे छूट जाय या नये साथी मिल जाएँ। चाहे कुछ भी हो, हमें यह प्रण कर लेना है कि हम अपने कदम को रुकने न देंगे।

अवतरण 32.
जो धर्मो के अखाड़े हैं
उन्हें लड़वा दिया जाये।
जरूरत क्या कि हिन्दुस्तान पर
हमला किया जाये !!

भावार्थ :- किसी देश को कमजोर बनाने का सबसे सरल तरीका है वहाँ के निवासियों को कमजोर बना देना। निवासियों को कमजोर बनाने का तरीका है उनमें आपस में फूट डाल देना और उनमें फूट धर्म के माध्यम से ही डाली जा सकती है। हमारे शत्रुओं की यह साजिश है कि धर्म के नाम पर भारत के लोगों को आपस में लड़ा दिया जाय। इससे जो नुकसान होगा वह किसी हमले से कई गुणा बड़ा होगा, फिर हिन्दुस्तान पर हमला कंरने की जरूरत ही क्या है !

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अवतरण 33.
ये मुल्क इतना बड़ा है
यह भी बाहर के
हमले से,
न सर होगा !
जो सर होगा तो बस
अन्दर के फितने से।

भावार्थ :- कोई भी देश या व्यक्ति बाहरी आघातों या आक्रमणों से कमजोर या नष्ट नहीं होता है। देश या व्यक्ति को नष्ट होने में आन्तरिक कारक ही मुख्य भूमिका निभाते हैं। यदि देश या व्यक्ति आन्तरिक रूप से मजबूत रहे, तो उसे नष्ट करने की शक्ति किसी में नहीं है। भारत इतना विशाल है कि बाहरी हमले इसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। यदि यह नष्ट होगा तो केवल आंतरिक कलह से – कवि का ऐसा कहना है।

अवतरण 34.
वो टक्कर हो कि सब कुछ
युद्ध का मैदान
बन जाए !
कभी जैसा नहीं था, वैसा
हिन्दुस्तान बन जाए।

भावार्थ :- किसी देश की प्रगति से ईर्ष्याभाव रखनेवाली शक्तियाँ चाहती हैं कि यह देश इतनी गिरी हुई हालत में चला जाए, जितना अतीत में न हुआ हो। इस अंश में भी यही भाव भारत. देश के सन्दर्भ में व्यंजित हुआ है। यहाँ कवि आतंकवादियों एवं शत्रु देशों की मंशा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि भारत में कुछ धार्मिक, राजनैतिक, भाषाई तथा प्रांतीयता के झगड़े बो दिए जायं। ऐसा करने से शांति और अहिंसा का यह हिन्दुस्तान युद्ध-क्षेत्र में बदल जायेगा।

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अवतरण 35.
लेकिन उनसे कौन कहे –
प्रगति, पिछलग्गूपन नहीं है
और जीवन, आगे बढ़ने के लिए
दूसरों का मुँह नहीं ताकता !

भावार्थ :- जो लोग यह समझते हैं कि किसी के विचारों से प्रभावित होकर उसके पीछे चलना ही प्रगतिशीलता है, तो यह गलत है। प्रगतिशील होने का अर्थ पिछलग्गू होना नहीं, बल्कि स्वयं को आगे बढ़ाना है और इसके लिये किसी का मुँह ताकने की आवश्यकता नहीं है।

अवतरण 36.
हाय ! मृत्यु का ऐसा अमर, पार्थिव पूजन ?
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन !
संग-सौध में हो श्वृंगार मरण का शोभन
नग्न, क्षुधातुर वास विहीन रहें जीवित जन।

भावार्थ :- कवि कहते हैं कि हाय ! मृत्यु का ऐसा अमर और अपार्थिव पूजन हो रहा है। कैसा आश्चर्य है कि मनुष्य तो बेचारा नगा, भूख से आकुल-व्याकुल और आवास-विहीन रहे और मृतक का संगमरमर के वैभवपूर्ण भवन में भृंगार होता रहे।

अवतरण 37.
भले बुरे सब एक सौं, जौ लौ बोलत नाहिं।
जानि परतु है काक-पिक, ॠतु बसंत के माहिं।।

भावार्थ :- मौन गंभीर पुरुषों का आभूषण है। जो व्यक्ति जितना ही धैर्यवान और गंभीर होगा, वह उतना ही मितभाषी होगा। ऐसे पुरुषों के वचन अत्यन्त मृदु और स्नेहयुक्त होते हैं। मनुष्य को चाहिए कि वह हमेशा “सत्य वद् प्रियंवद्” सिद्धान्त पर अमल करे। प्रिय या मधुर बोलने वाला व्यक्ति सभी का प्रिय पात्र होता है। यही बात प्रस्तुत दोहे के माध्यम से कही गई है कि-जब तक व्यक्ति बोलता नहीं, उसके भले -बुरे की पहचान नहीं होती, जिस प्रकार कौए और कोयल की पहचान बसंत ऋतु में ही होती है।

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अवतरण 38.
सबै सहायक सबल के, कोड न निबल सहाय।
पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय।।

भावार्थ :- इस संसार का नियम है कि सभी लोग बलवानों की ही सहायता करते हैं, क्योंकि उनसे लोगो को भय होता है। इसी तथ्य को गोस्वामी जी ने ‘रामचरितमानस’ में भी कहा है ‘भय बिनु होय न प्रीति’। इसी भावना को यह दोहा भी व्यक्त करता है कि-सब सबल की ही सहायता करते हैं, निर्बल की सहायता कोई नहीं करता। जिस प्रकार पवन दीपक को बुझा देता है, लेकिन आग को और भी बढ़ा देता है।

अवतरण 39.
अपनी पहुँच बिचारि के, करतब करिए दौर।
तेते पाँव पसारिए, जेती लांबी सौर।।

भावार्थ :- मनुष्य को अपनी हैसियत (स्थिति) का अन्दाजा लगाकर ही कोई कार्य करना चाहिए, अन्यथा मुसीबतों का सामना करना पड़ सकता है। जो व्यक्ति विवेकवान् हैं, वे समय के पलड़े में अपने और अपनी परिस्थित्यो को तौलकर ही कोई कार्य करते हैं। प्रस्तुत दोहे का निष्कर्ष भी यही है कि-मनुष्य को अपनी सामर्थ्य का विचार करके ही कोई कार्य करना चाहिए। उसे उतना ही पैर फैलाने चाहिए, जितनी लम्बी चादर हो।

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