Students should regularly practice West Bengal Board Class 7 Hindi Book Solutions Poem 3 भारत वर्ष to reinforce their learning.
WBBSE Class 7 Hindi Solutions Poem 3 Question Answer – भारत वर्ष
वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
निर्वासित राजकुमार कौन थे?
(क) अशोक
(ख) राम
(ग) दधीचि
(घ) सिद्धार्थ
उत्तर :
(ख) राम
प्रश्न 2.
भारतवर्ष कविता के कवि हैं :
(क) रामधारी सिंह दिनकर
(ख) रामनरेश त्रिपाठी
(ग) जयशंकर प्रसाद
(घ) सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’
उत्तर :
(ग) जयशंकर प्रसाद
प्रश्न 3.
रताकर का शाब्दिक अर्थ है :
(क) गागर
(ख) सागर
(ग) नदी
(घ) रत्न का आकार
उत्तर :
(ख) सागर
प्रश्न 4.
दधीचि कौन थे?
(क) एक राजा
(ख) बौद्ध भिक्षु
(ग) एक ऋषि
(घ) एक भिखारी
उत्तर :
(ग) एक ऋषि
प्रश्न 5.
जयशंकर प्रसाद का जन्म कहाँ हुआ था?
(क) इलाहाबाद
(ख) काशी
(ग) महिषादल
(घ) दरभंगा
उत्तर :
(ख) काशी ।
प्रश्न 6.
जयशंकर प्रसाद का जन्म कब हुआ था?
(क) सन् 1889 में
(ख) सन् 1890 में
(ग) सन् 1891 में
(घ) सन् 1888 में
उत्तर :
(क) सन् 1889 में।
प्रश्न 7.
जयशंकर प्रसाद के पूर्वज किस नाम से प्रसिद्ध थे?
(क) मुरली बाबू
(ख) सुंघनी साहू
(ग) मंगल्ला बाबू
(घ) जीवन बाबू
उत्तर :
(ख) सुंघनी साहू।
प्रश्न 8.
जयशंकर प्रसाद किस वाद के कवि हैं?
(क) छाम्यावाद
(ख) प्रगतिवाद
(ग) प्रयोगवाद
(घ) जनवाद
उत्तर :
छायावाद।
प्रश्न 9.
हिमालय का औँगन किस देश को कहा गया है ?
(क) भारतवर्ष
(ख) श्रौलंका
(ग) नेपाल
(घ) भूटान
उत्तर :
(क) भारतवर्ष
प्रश्न 10.
‘रत्नाकर’ का शाब्दिक अर्थ है –
(क) रत्न में आकार
(ख) सागर
(ग) नदी
(घ) रत्ल का आकार
उत्तर :
(ख) सागर
प्रश्न 11.
किसने पहनाया हीरक हार ?
(क) तम ने
(ख) उषा ने
(ग) मोहन ने
(घ) साहेब ने
उत्तर :
(ख) उषा ने
प्रश्न 12.
महर्षि दधीचि ने देवराज इन्द्र को क्या दान दिया ?
(क) हड्डुयाँ
(ख) रल
(ग) देवलोक
(घ) जल
उत्तर :
(क) हड्डियाँ
लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
द्धीचि ने क्या दान किया था तथा क्यों?
उत्तर :
दर्धीचि ने अस्थि दान किया था। उनकी हड्डी से इन्द्र ने वज का निर्माण कर वृत्रासुर का वध किया। अत: देवताओं की विजय तथा असुरों की पराजय के लिए दधीचि ने अपनी हड्डियों का दान किया।
प्रश्न 2.
बौद्ध भिभ्यु बनकर घूमनेवाले राजा कौन थे? इसका कारण क्या था?
उत्तर :
बौद्ध भिक्षु बनकर घूमने वाले राजा अशोक थे। बौद्ध धर्म के प्रचार तथा मानवता के कल्याण के लिए सम्वाट अशोक घर-घर जाकर दौन-दुखियों के प्रति द्या तथा करुण भावना व्यक्त करते थे।
प्रश्न 3.
निर्वासित राजा की प्रसिद्धि का क्या कारण है ?
उत्तर :
निर्वांसित राजकुमार राम ने रावण का विनाश करने के लिए तथा देवताओं, ॠषियों, और मानवता के संकट को दूर करने के लिए सागर की छाती पर सेतु का निर्माण तथा रावण को पराजित कर देव संस्कृति की रक्षा की। यही उनकी प्रसिद्धि का कारण है।
प्रश्न 4.
हिमालय का आँगन किसे और क्यों कहा गया है ?
उत्तर :
हिमालय का आँगन भारतवर्ष को कहा गया है, क्योंकि भारत हिमालय के चरणों में स्थित है। हिमालय भारत का गौरव है । हिमालय का सांस्कृतिक महत्त्व है।
प्रश्न 5.
जयशंकर प्रसाद की मृत्यु कब हुई ?
उत्तर :
जयशंकर पसाद की मृत्यु 1937 ई० में हुई थी ।
प्रश्न 6.
जयशंकर प्रसाद के पिता का क्या नाम था ?
उत्तर :
जयशांकर प्रसाद के पिता का नाम सुँघनी साहू था।
प्रश्न 7.
सुष्टि का बीज किसने बचाया ?
उत्तर :
सृष्टि का बौज मनु ने बथाया।
प्रश्न 8.
पुरन्द्र किसे कहा जाता है ?
उत्तर :
पुरन्दर इन्द्र को कहा जाता है।
बोधमूलक प्रश्नोत्तर
(क) भारत के प्राचीन गौरव का वर्णन कीजिए ।
उत्तर :
कविवर जयशंकर म्रसाद ने ‘भारतवर्ष’ कविता में भारत के अतीत का गौरवमय चित्रण किया है। सर्वम्मथम हिमालय की गोद में स्थित भारत में ही सभ्यता और ज्ञान की किरणें फूटीं। संगीत के सात स्वरो को सरस्वती ने वीणा के तारों से झंकृत किया। सामवेद की रचना इसी भारत भूमि में हुई । हमारे आदि पुरुष मनु ने बीज रूप में सृष्टि को बचाया। महर्षि दर्धीचि का अस्थिदान हमारी जातीयता के विकास का उदाहरण है।
उनकी अस्थि से देवराज इन्द्र ने वज्र बनाकर वृत्रासुर का वध किया। इस प्रकार देव-संस्कृति की रक्षा हुई। निर्वासित होते हुए भी त्री राम ने राक्षसी संस्कृति के विनाश तथा रावण को पराजित करने के हेतु समुद्र पर सेतु का निर्माण कर दिया। भगवान बुद्ध और महावीर ने धर्म के नाम पर हो रही नर बलि तथा पशु बलि को समाप्त कर विश्व को शांति और अहिसा का संदेश दिया। भारतीय वीरों ने तलवार के द्वारा विजय के स्थान पर धर्म और प्रेम की विजय को विश्व में प्रचारित किया।
सामाट अशोक भिक्षु बनकर घूम-घूम कर शांति, अहिंसा और प्रेम का प्रचार करते रहे। सम्माट चन्द्रगुप्त ने युद्ध में यवन सेनापति सेल्युकस को पराजित करके भी उसे प्राण दान देकर अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। हमारे पूर्वज भारतवासी चरित्रवान, शक्तिशाली, दृढ़ प्रतिश तथा परोपकारी थे। शब्ति सम्पन्न होकर भी विनप्र थे।
(ख) ‘पुरंदर ने पवि से है लिखा अस्थियुग का मेरे इतिहास’ में वर्णित इस पौराणिक कथा का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
देवासुर संग्राम की घटना का युग अस्थियुग था। देवताओं के राजा इन्द्र संग्राम में असुरों के सेनापति वृत्रासुर से भयमीत थे। जहा के निर्देश से वे महर्धि दधीचि के पास आए, क्योंकि दधीचि की हद्धियों से निर्मित अस्व से ही वृद्रासुर का वध हो सकता था। राक्षस राज वृश्रासुर के संहार के लिए देवराज इन्द्र ने महार्षि दधीीचि से अस्थिदान की माँग की। महर्षि ने देवत्व की रक्षा के लिए सहर्ष इन्द्र का प्रस्ताव स्वीकार कर प्राण त्यागकर अपनी हड्डियाँ दे दीं। इन्द्र ने उनकी अस्थि से वज्र का निर्माण कर राक्षस राज वृत्रासुर का संहार किया। दधीचि का यह अस्थि त्याग भारतीय जाति के त्याग का अनुपम उदाहरण है।
(ग) ‘भारतवर्ष’ कविता का मूल सार अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
प्रसादजी ने प्रस्तुत कविता में भारत के अतीत का गौरव, भारतीयों की जातीय, चारिप्रिक विशेषताओं का वर्णन किया है।
सर्वपथम उषा ने हिमालय की गोद में स्थित भारत को अपनी स्वर्णिम किरणों का उपहार दिया। सर्वप्रथम भारतवासी ही ज्ञान संपन्न हुए और विश्व के अन्य भागों में भी ज्ञान का विस्तार और प्रसार किए। हमारे आदि पुरुष मनु ने पेलय से सृष्टि को यनाया। यहीं पर सरस्वती की वीणा के तारों से संगीत के सातों स्वर फूटे। सामवेद की रचना इसी भारत भूमि में हुई। महार्षि दर्धीचि ने अस्थिदान देकर राक्षस राजा वृन्रासुर का संहार किया था।
राजकुमार राम ने सागर की छाती पर सेतु का निर्माण कर रावणत्व का समूल नाश किया। भगवान बुद्ध तथा स्वामी महावीर ने पशु बलि प्रथा को बन्द कर विश्व को प्रेम, शांति, अहिंसा का उपदेश दिया। सम्माट अशोक ने भिक्षु बनकर घर-घर जाकर दया, करुणा का पाठ पदा़ाया। समाट चन्द्रगुप्त ने रणक्षेत्र में यवन सेनापति सेल्युकास को पराजित करके भी प्राणदान दे दिया। हमने चीन को धर्म दृष्टि, लंका तथा सिंहल को शील की शिक्षा दी।
जातियों का उत्थान-पतन यहाँ होता रहा। विदेशियों के बर्बर आक्रमणों को झेलते हुए भी हम अडिग बने रहे । हमारी जन्मभूमि यही है, हम कहीं बाहर से नहीं आए हैं। हमने किसी का कुछ भी छीना नहीं। हम परोपकारी अतिधि सेवी, दृढ़, प्रतिश, साहसी तथा शांति के हिमायती रहे। हम भारत के गौरव की रक्षा के लिए सर्वस्व त्याग के लिए मस्तुत रहेंगे। इस प्रकार इस कविता में देश प्रेम तथा राष्ट्रोय भावना का चित्रण हुआ है।
(घ) निम्नलिखित पंक्तियों की व्याख्या ससन्दर्भ कीजिए ।
प्रश्न 1.
हमारे संचय में था दान अतिधि थे सदा हमारे देव।
उत्तर :
यह अंश कविवर जयशंकर प्रसाद की रचना ‘भारतवर्ष’ कविता से उद्धृत है। इस पंक्ति में कवि ने अतीत मे भारतीयों की दानशीलता तथा उदारता का चिद्रण किया है। हमारे पूर्वज अपने सुख के लिए, भोग की कामना के लिए धन-संचय नही करते थे। अपने अर्जित धन से गरीबों-अनाधों को दान देकर उनकी सहायता करते थे। उनमे परोपकार की भावना थी। अतिथियों का देवतुल्य सत्कार करते थे। वे सच्चे अर्थों में अतिथि सेवी थे। अतिथि देवो भव’ उनका सिद्धांत था।
प्रश्न 2.
बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय की शीत।
उत्तर :
हमारे आदि पुरुष ने बीज रूप में सृष्टि की रक्षा की। प्रलय के समय सबय कुछ जल- मग्न हो गया। अकेले मनु एक नाव में बैठकर हिमालय की चोटी पर पहुँच गए। प्रयय कालीन शीत लहरी को सहकर भी निडर बने रहे। श्रद्धा के सहयोग से उन्होंने सृष्टि को बचाया।
प्रश्न 3.
जिएँ तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष।
उत्तर :
यह अंश ‘भारतवर्ष’ कविता से उद्धृत है। इसके कवि श्री जयशंकर प्रसाद है।
यहाँ कवि की राष्ट्रीय भावना तथा देश प्रेम की इच्छा व्यक्त हुई है। कवि का कथन है कि हमारा जीवन स्वदेश भारतवर्ष के लिए है। अतः हम जोएँ तो भारत के लिए और मरें तो भारत के लिए। हमें इस बात का अभिमान तथा हर्ष होना चाहिए कि हमारा जीवन अपने देश के लिए ही है। हमें स्वदेश के लिए अपना तन, मन, धन अर्थात् सर्वस्व अर्षण कर देने के लिए सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
दधीचि के त्याग को कवि ने जातीयता का विकास क्यों कहा है?
उत्तर :
दधीचि एक महान त्यागी-तपस्वी कषि थे। भारत के इतिहास में वह युग अस्थियुग था। देवराज इन्द्र असुरों के सेनापति वृत्रासुर से संत्रस्त थे। उसे पराजित करने के लिए इन्द्र दधीचि ॠषि के पास जाकर उनसे उनकी अस्थियों (हड्युयों) की याचना की। देव जाति की रक्षा के लिए महर्षि दरीचि अपनी अस्थियों का दान देकर अनुपम त्याग का परिचय दिया।
दधीचि की अस्थियों से वज्र बनाकर इन्द्र ने वृत्रासुर का वध कर देवजाति की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र ने अस्थियुग के इतिहास को वज्र से लिखा। ॠषि दधीचि के इस अनुपम त्याग और बलिदान से स्षष्ट हो जाता है कि उस युग में सामाजिक स्तर पर भारतीय जाति कितनी विकसित, कितनी महान तथा आदर्शमयी थी।
प्रश्न 2.
कवि ने भारत को प्रकृति का पालना क्यों कहा है?
उत्तर :
हमारा देश प्राकृतिक शोभा तथा सुषमा का आँगन है। यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता निराली है। पर्वतों, वन प्रदेशों, नदियों तथा शस्य-श्यामला धरती का सौन्दर्य अतीव मोहक एवं निराला है। षड्कतुओं की शोभा अपने आप में चित्ताकर्षक है। इसीलिए कवि ने इसे प्रकृति का पालना कहा है।
प्रश्न 3.
पाठ में आए पौराणिक तथा ऐतिहासिक पुरुषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मनु – पौराणिक कथाओं के अनुसार मनु हमारे आदि पुरुष हैं। प्रलय काल में सृष्टि के जलमग्न हो जाने पर मनु एक नाव पर सवार हो गए। उनकी नाव उस बाढ़ में उत्तर गिरि से टकराई। वहाँ उतर कर मनु ने श्रद्धा के संपर्क से बीज रूप में सृष्टि को बचाया।
पुरन्दर (इन्द्र) – ये देवताओं के अधिपति तथा स्वर्ग के राजा थे। देवासुर संग्राम में वे देवजाति के सेनापति थे। वृत्रासुर का वध कर इन्होंने देवजाति की रक्षा की।
राम – अयोध्यापति महाराज दशरथ के पुत्र राम भगवान के अवतार माने जाते है। निर्वासित होते हुए भी राम ने सागर की छाती पर सेतु का निर्माण कर रावण को समाप्त कर देवत्व की रक्षा की।
बुद्ध – कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन के पुत्र राजकुमार गौतम ज्ञान प्राप्ति के बाद भगवान बुद्ध कहलाए। इन्हें भगवान का अवतार माना जाता है। ज्ञान प्राप्ति के बाद इन्होंने अपना पहला उपदेश सारनाथ (वाराणसी) में दिया।
अशोक – ये भारत के प्रसिद्ध सम्राट थे। प्रजा की भलाई के लिए इन्होंने अनेक कल्याण- कारी योजनाओं को मूर्तरूप दिया। बौद्ध धर्म स्वीकार कर ये भिक्षु बनकर, करुणा, दया तथा प्रेम का संदेश देने लगे।
चन्द्रगुप्त – चन्द्रगुप्त भारत के प्रतापी सम्माट थे। महान् नीतिज्ञ चाणक्य के शिष्य थे। सम्राट अशोक इनके पौत्र थे। चन्द्रगुप्त यवन सेनापति सेल्युकस को युद्ध में पराजित कर उसे प्राण दान दिया। सेल्युकस की पुत्री राजकुमारी हेलेन (कार्नेलिया) से शादी की। इस प्रकार उन्होंने यवन को दया का दान दिया।
भाषा-बोध
(क) उपसर्ग एवं मूल शब्द अलग कीजिए ।
(ख) संधि विच्छेद कर संधि का नाम लिखिए।
हिमालय – हिम + आलय – स्वर संधि
संसृति – सम् + सृति – व्यंजन संधि
निर्वासित – नि: + वासित – विसर्ग संधि
संचय – सम् + चय – व्यंजन संधि
रत्नाकर – रत्न + आकर – स्वर संधि
(ग) सामासिक पदों का विग्रह कर समास का नाम लिखिए ।
सप्त स्वर – सात स्वरों का समाहार – द्विगु समास
उत्थान-पतन – उत्थान और पतन – द्वनन्द् समास
शान्ति संदेश – शांति का संदेश – तत्पुरुष समास
अस्थियुग – अस्थि का युग – तत्पुरुष समास
(घ) प्रत्ययों से बने शब्द –
इत – निर्वासित
ता – जातीयता, नम्रता
यों – जातियों
ई – हमी, वही
आ- लिखा
(ङ) अर्थ लिखकर वाक्य प्रयोग कीजिए-
पुरन्दर – इन्द्र – पुरन्दर ने वज्र से वृत्रासुर का वध किया।
रत्नाकर – समुद्र – राम ने रत्नाकर की छाती पर पुल बना दिया।
सर्वस्व – सबकुछ – हमें स्वदेश पर सर्वस्व न्योछावर कर देना चाहिए।
नम्रता – विनय – हमारे पूर्वजों में सदा नम्रता बनी रही।
अभिनंदन – प्रशंसा, स्वागत-हमें महान पुरुषों का अभिनंदन करना चाहिए।
WBBSE Class 7 Hindi भारत वर्ष Summary
जीवन वरचचय
जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1889 ई० में वाराणसी के एक सुप्रसिद्ध वैश्य कुल में हुआ था। स्कूली शिक्षा मात्र सातवीं कक्षा तक मिली, तदनंतर घर पर ही इन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, बंगला आदि का अध्ययन किया।1937 ई० में इनका देहावसान हो गया। घरेलू समस्याओं के बावजूद प्रसादजी अध्ययन, मनन, पर्यवेक्षण तथा लेखन से विमुख न हुए। इन्हें जन्म से ही कवि हृदय मिला था। प्रसादजी की भाषा साहित्यिक, परिमार्जित, संस्कृत निष्ठ होते हुए भी बोधगम्य है।
उसकी सरलता तथा प्रवाह मन को मुग्ध कर लेता है। ये छायावाद के प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध हैं। प्रसादजी बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न साहित्यकार थे। शब्द विन्यास, वस्तु चयन, अलंकार योजना, भाषा की सरलता आदि सभी दृष्टियों से प्रसाद जी का काव्य हिन्दी में सर्वश्रेष्ठ स्थान रखता हैं। प्रसादजी अपने युग के सबसे बड़े पौरुषवान कवि थे।
इनकी काव्य रचनाएँ- लहर, झरना, आँसू, महाराणा का महत्त्व तथा कामायनी आदि हैं। नाटक-स्कदंगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुव स्वामिनी, जनमेजय का नागयज्ञ आदि। कहानी संग्रह-छाया, प्रतिध्वनि, इन्द्रजाल आँधी, आकाशदीप। उपन्यास-कंकाल, तितली, इरावती। प्रसादजी की रचनाओं में प्रेम-सौन्दर्य तथा देश प्रेम की मनोरम झाँकी मिलती है।
पद – 1
हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार,
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक हार।
जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक,
व्योम तम पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक।।
शब्दार्थ :
- किरण – रश्मि व्योम – आकाश
- उपहार – भेंट
- आंगन – प्रांगण
- हीरक-हीरा
- किरणों का उपहार – ज्ञान का प्रकाश
- संसृति – संसार, सृष्टि
- हम – भारतवासी
- तम पुंज – अंधकार का समूह
- आलोक-प्रकाश
- अखिल – संपूर्ण, समस्त
- अशोक – शोक रहित, खुश
- उषा- प्रभात, अरुणोदय
सन्दर्भ – प्रस्तुत अंश ‘भारतवर्ष’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके कवि श्री जयशंकर प्रसाद हैं।
प्रसंग – इस अंश में कवि ने भारत के गौरवपूर्ण अतीत का वर्णन किया है। सर्वप्रथम भारत में ही ज्ञान-विज्ञान का प्रकाश फैला।
व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि का कथन है कि सर्वप्रथम हिमालय प्रांगण भारत में ज्ञान रूपी सूर्य का उदय हुआ। प्रभात की किरणों ने हँसकर हीरों का हार पहनाकर उसका स्वागत किया। भारत ही सर्वपथम ज्ञान की ज्योति से सुशोभित हुआ। भारतवासियों ने ज्ञान संपन्न होकर सारे विश्व में ज्ञान का प्रकाश फैलाया। सारा संसार ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो उठा। सारे विश्व का अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट हो गया। संपूर्ण संसार शोक रहित हो गया। सर्वत्र प्रसन्नता का वातावरण छा गया।
पद – 2
विमल वाणी ने वीणा ली, कोमल-कमल-कर में सप्रीत।
सप्तस्वर सप्तसिन्धु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम संगीत।
बचाकर बीज-रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत।
अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ में हम बढ़े अभीत।।
शब्दार्थ :
- विमल – स्वच्छ, निर्मल
- वाणी – सरस्वती
- कर – हाथ
- सम्रीत – प्रेमपूर्वक
- सप्तस्वर – संगीत के सात स्वर
- वरुण पथ – जल मार्ग
- साम संगीत – साम वेद का संगीत
- सृष्टि – संसार
- प्रलय – सर्वनाश
- अरुण केतन- लाल पताका
- सप्त सिन्धु – सप्त सैन्धव प्रदेश
- अभीत – निडर
व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि का कथन है कि ज्ञान की देवी दिव्य रूप वाली सरस्वती ने अपने कमल के समान कोमल हाथों में वीणा धारण कर सर्वप्रथम संगीत के स्वर निःसृत की। उनकी वीणा से नि:सृत संगीत के सातों स्वर इसी आर्यावर्त (सप्त सिन्धु – सप्त सैन्धव) में गूँज उठे। संगीत शास्त्र के आदि ग्रंथ सामवेद की रचना इसी देश में हुई। सामवेद के संगीत के स्वर सर्वप्रथम इसी देश में प्रसारित हुए। प्रलयकालीन जल प्लावन के समय भारतपुत्र मनु बीज के रूप में सृष्टि को विनाश से बचाये। नाव पर बैठ कर प्रलयकालीन शीत लहरी को सहते हुए उन्होंने सृष्टि का उद्धार किया। हमारे पूर्वज भारतवासी ने स्वदेश की लाल पताका लेकर जल मार्ग से जाकर प्रेम, सद्भावना का संदेश दिया।
पद – 3
सुना है दधीचि का वह त्याग, हमारा जातीयता-विकास।
पुरन्दर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरे इतिहास।
सिन्धु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह।
दे रही अभी दिखायी भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह ।।
शब्दार्थ :
- जातीयता – जाति का भाव, गुण
- निर्वासित – निकाला हुआ (राम)
- पवि – वज्र
- अस्थि – हड्डी
- राह – रास्ता, मार्ग
- पुरन्दर – इन्द्र
- उत्साह – जोश
- भग्न – डूबे हुए
- रत्नाकर – समुद्र
- भग्न-खण्डहर
व्याख्या – दधीचि एक महर्षि थे। देवासुर संग्राम में असुरों के सेनापति वृत्रासुर के संहार के लिए इन्द्र ने महर्षि दधीचि से उनकी अस्थियों (हड्डियों) की माँग की। उनकी हड्डी से वज्र का निर्माण कर इन्द्र ने वृत्रासुर का वध किया। दधीचि का यह अस्थि त्याग अत्यंत महत्वपूर्ण रहा। महर्षि दधीचि ने सहर्ष अस्थिदान कर यह स्पष्ट कर दिया कि त्याग, बलिदान आदि गुणों के क्षेत्र में यह त्याग जातीयता के विकास को प्रमाणित करता है। इन्द्र ने वज्र से वृत्रासुर का संहार कर अस्थियुग के इतिहास को अमर बना दिया। निर्वासित राम का उत्साह सागर की भाँति अथाह और असीम था। राम ने रावण का विनाश करने के लिए सागर की छाती पर सेतु बाँध कर लंका पर चढ़ाई की थी। सागर में सेतु के भग्नावशेष आज भी जल में दिखाई पड़ते हैं।
पद – 4
धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि, कर दी बन्द।
हमीं ने दिया शान्ति-सन्देश, सुखी होते देकर आनन्द।
विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम ।
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम ।।
शब्दार्थ :
- बलि – वह पशु जो किसी देवता के निमित्त मारा जाए
- भिक्षु – संन्यासी
- धूम – प्रसिद्धि
- सम्राट – महाराजाधिराज
- आनंद – खुशियाँ
व्याख्या – प्राचीन काल में यज्ञों में देवताओं को प्रसन्न करने के लिए धर्म के नाम पर पशुबलि की प्रथा प्रचलित थी। धर्म के नाम पर होने वाली इस बलि-प्रथा को भगवान बुद्ध तथा महावीर ने अपने उपदेशों द्वारा बन्द करवाया। सारे विश्व को हमने प्रेम, शांति तथा अहिंसा का दिव्य संदेश दिया। हम भारतवासी दूसरों को आनंद प्रदान कर स्वयं सुखी होते थे।
तलवार द्वारा बर्बरतापूर्ण विजय में विश्वास नहीं करते थे, बल्कि धर्म के प्रचार-प्रसार से विश्व में अपनी कीर्ति स्थापित करते थे। इसी देश में सम्राट आशोक बौद्ध धर्म स्वीकार कर भिक्षु के रूप में घूम-घूम कर धर्म का प्रचार करते रहे। वे घर-घर जाते और सभी को दया तथा करुणा का उपदेश देते थे।
पद – 5
यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि ।
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि ।
किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं ।
हमारी जन्म भूमि थी यहीं, कहीं से हम आये थे नहीं ।।
शब्दार्थ :
- यवन – यूनान के निवासी स्वर्ण
- भूमि – वर्मा, सुमात्रा
- रत्न – मणि
- पालना – झूला
- शील – उत्तम स्वभाव, आचरण
- सृष्टि – संसार
व्याख्या – भारतवर्ष के सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने युद्ध भूमि में यवन सेनापति सेल्युकस को पराजित कर उस पर दया दिखलाते हुए प्राण दान दिया। चीन को धर्म-दृष्टि, वर्मा, सुमात्रा को, त्रित्न (ज्ञान, दर्शन, चरित्र) की तथा लंका को शील की शिक्षा देकर उपकृत किया। भारतीयों ने किसी भी देश या जाति से बलपूर्वक कुछ नहीं प्राप्त किया। यह देश प्राकृतिक शोभा, सुंदरता तथा सुषमा का आंगन है। यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता अनुपम है । हम भारतीय इसी देश के मूल निवासी हैं। हम आर्यों की संतान हैं। आर्य बाहर से यहाँ आए, यह कथन भ्रमपूर्ण तथा असत्य है। अत: आर्यों का मूल देश भारत ही है। हम कहीं बाहर से नहीं आए थे।
पद – 6
जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ झड़ीं प्रचण्ड समीर ।
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर ।
चरित के पूत, भुजा में शक्ति, नप्रता रही सदा सम्पन्न ।
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न ।।
शब्दार्थ :
- उत्थान – प्रगति
- पतन – विनाश
- पूत – पवित्र नम्रता – विनय
- गौरव – बड़प्पन, आदर
- विपन्न – दु:खी
- प्रचंड – उग्र, भयंकर
- समीर – हवा
- गर्व – स्वाभिमान
- सम्पन्न – धनी, परिपूर्ण
व्याख्या – हमारे देश में कई जातियों का विकास हुआ, लेकिन कालक्रम से वे नष्ट भी हो गये। इस देश पर कई बार विदेशी लुटेरों तथा विजय एवं धन की कामना करने वाले विजेताओं के आक्रमण हुए। हमने अशांति, संकट और आक्रमण रूपी आँधियों तथा तूफानों का सामना किया। वीर भारतवासी उन भयंकर संकटों को सहते रहे, हँसते हुए जूझते रहे। पर कभी डरे नहीं, साहस नहीं छोड़े, सदा स्थिर बने रहे। वीरतापूर्वक मुकाबला करते रहे। हम प्रलय जैसी विभीषिका को भी पार कर चुके हैं। हमारा चरित्र पवित्र था। हम शारीरिक शक्ति से भी सम्पन्न थे। फिर भी अतिशय विनम्र तथा शालीन बने रहे। हृदय में स्वाभिमान की भावना भरी हुई थी। हम किसी की विपन्नता, अभाव को नहीं देख सकते थे। पर सेवा तथा परोपकर की भावना से परिपूर्ण थे।
पद – 7
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव ।
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव ।
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा मान ।
वही है शान्ति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-सन्तान ।
जिएँ तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष ।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।
शब्दार्थ :
- संचय – संग्रह
- वचन – वाणी
- टेव – हठ, दृढ़ता
- अभिमान – गर्व
- निछावर-उत्सर्ग
- अतिथि – मेहमान
- प्रतिज्ञा – प्रण, शपथ
- दिव्य – भव्य, अलौकिक
- हर्ष – खुशी, आनंद
- सर्वस्व – सब कुछ
व्याख्या – हम भारतवासी परोपकार तथा दान के लिए धन-संग्रह करते थे। स्वार्थ के लिए नहीं। अतिथि का सम्मान देवता की तरह करते थे। हमारी वाणी में सत्य का संचार था। हृदय में तेजस्विता थी, प्रतिज्ञा में दृढ़ता थी। प्राण देकर की हुई प्रतिज्ञा का पालन करते थे। हम भारतवासी आर्यों की मूल संतान हैं। हमारी नसों में उन्हीं का खून विद्यमान है। उन्हीं की भाँति हममें साहस तथा ज्ञान है। हम उन दिव्य आर्यों के वंशज हैं, इसलिए हम में वही शान्ति तथा शक्ति है। हममें हर्ष तथा स्वाभिमानपूर्वक यह भाव होना चाहिए कि हमारा जीवन स्वदेश भारत के लिए है। हम अपना तन, मन, धन अर्थात् सर्वस्व प्यारे स्वदेश के लिए न्योछावर कर दें। यही प्यारा देश हमारी जन्मभूमि है।