Students should regularly practice West Bengal Board Class 10 Hindi Book Solutions and रचना सूक्तिपरक निबंध to reinforce their learning.
WBBSE Class 10 Hindi रचना सूक्तिपरक निबंध
‘सादा जीवन, उच्च विचार’
‘सादा जीवन, उच्च विचार’, यह सूक्ति जीवन के दो अलग तथ्यों, रूपों को प्रदर्शित करने वाली होते हुए भी मूलत: एक ही सत्य को स्वरूपाकार देने या उजागर करने वाली है । सादा जीवन उन्हीं का हुआ करता है कि जो उच्च विचारशील व्यक्ति हुआ करते हैं या फिर उच्च विचार वाले व्यक्ति ही सादगी का रहस्य पहचान कर जीवन के रहन-सहन, खान-पान, कार्य-पद्धति आदि को सादा बना कर व्यवहार किया करते हैं। ऐसा कर के वे संसार के लिए आदर्श तो स्थापित करते ही हैं, आदरणीय एवं चिरस्मरणीय भी बन जाते हैं।
सादा जीवन जीने पर विश्वास करने वाला व्यक्ति ईर्ष्या-द्वेष जैसे उन मनो-विकारों से भी बचा रहता है कि जिन्होंने आज पूरी मानवता को आक्रान्त कर रखा है । उन निहित-स्वार्थों से भी सादगी पसन्द आक्रान्त नहीं हुआ करता कि जो अनेक प्रकार के भ्रष्टाचारों के कारण बन कर केवल अपने प्रति ही नहीं, सारे विश्व की मानवता के प्रति हीन और आक्रामक बना दिया करते हैं । स्पष्ट है कि सादे जीवन का मानवीय मूल्यों की दृष्टि से बहुत अधिक महत्व है । इसीलिए हम प्रत्येक ज्ञानी सन्त के जीवन को एकदम सीधा-सादा पाते हैं। आधुनिक युग पुरुष महात्मा गाँधी से बढ़ कर सादगी का और अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है ?
बिना विचारों की उच्चता के न तो आदमी की आत्मा ही ऊँची उठ सकती है और न ही वह कोई ऊँचा या महत्वपूर्ण कर्म करने के लिए ही अनुपाणित हो सकता है । उच्च विचारों से रहित व्यक्ति न तो स्वयं सामान्य स्तर से; सांसारिक ईर्ष्याद्रेष. माया-मोह आदि के मनोविकारों और स्वार्थों से, दुनिया की झँझटों से छुटकारा पा सकता है । वह छोटी चीजों और बातों के लिए स्वयं तो झगड़ता रहेगा ही, दूसरों को भी लड़ाता-भिड़ाता रहेगा। इसी कारण सन्तजन सादगी के साथ-साथ विचार भी उच्च बनाए रखने की बात कहा और प्रेरणा दिया करते हैं।
संसार ने आज तक आध्यात्मिक, भौतिक, वैज्ञानिक क्षेत्रों में जितनी और जिस प्रकार की भी प्रगति की हैं; वह उच्च विचार एवं धारणाएँ बना कर ही की है । धारणाओं और विचारों को उच्च बनाए बिना जीवन-संसार के छोटे-बड़े किसी भी तरह के किसी आदर्श को प्राप्त कर पाना कतई संभव नहीं हुआ करता । श्रेष्ठ एवं उच्च विचार होने पर सहज सामान्य को तो पाया ही जा सकता है । उच्च शिखर का लक्ष्य सामने रख कर चढ़ाई कर देने पर यदि उसे नहीं, तो उससे कम ऊँचे शिखर तक तो पहुँचा ही जा सकता है । इसलिए उन्नति और सफलता के इच्छुक व्यक्ति को अपनी चेतना को हीन भावों-विचारों से ग्रस्त कभी नहीं होने देना चाहिए ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि शीर्षक-सूक्ति के दोनों भाग ऊपर से अलग-अलग प्रतीत होते हुए भी अपनी अन्तरात्मा में एक ही सत्य को निहित किए हुए हैं । वह सत्य केवल इतना ओर यही है कि जीवन में सादगी अपना कर ही उच्च विचार बनाए और पाए जा सकते हैं। इस प्रकार के सादगी और उच्च विचारों से सम्पन्न कर्मयोगियों ने ही संसार को भिन्न आध्यात्मिक एवं भौतिक क्षेत्रों में हुई प्रगति के आदान दिए हैं ।
‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई’
परहित सरिस धरम नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।
तुलसीदास की यह चौपाई इस कथन का रूपान्तर है –
अष्ठादश पुरापेषु व्यासस्य वचनद्वयम
परोपकार पुण्याय पापाय परपीडनम् ।।
अठारह पुराणों में व्यास ने दो ही बातें कही हैं – “परोपकार से पुण्य प्राप्त होता है और दूसरों को कष्ट पहुँचाने से पाप होता है ।’’
आज का नव धनाठ्य वर्ग परोपकार को घृणा की दृष्टि से देखता है फिर भी वह दिखावे के लिए कुछ परोपकार का कार्य करता है ताकि आयकर में चोटी की जा सके। धर्म का वास्तविक अर्थ हुआ करता है उदात्त मानवीय सद्गुणों का विकास कर उन्हें अपने में धारण करने की क्षमता अर्जित करना । तभी तो ‘धर्म’ की परिभाषा की जाती है कि’धारयते इतिह धर्म:’ अर्थात् जिसमें धारण कर पाने की शक्ति हो वही धर्म है, यह सफल-सार्थक हो सकती है।
सभी तरह के उदात एवं उदार सुदुगुणों को धारण कर पाने की शक्ति । इस शक्ति से सम्पन्न रहने के कारण ही मनुष्य अपने भीतर भिन्न प्रकार की धार्मिक प्रवृत्तियों का विकास कर पाता है। उन वृत्तियों में एक महानतम वृत्त है परोपकार करने की । कविवर तुलसीदास ने इसी प्रवृत्ति को महत्व देते हुए, महत्वपूर्ण मानते हुए अपनी महानतम रचना ‘रामचरितमानस’ में एक विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न पात्र के मुख से यह कहलवाया है कि- ‘पर-हित सरिस धर्म नहिं भाई ।’ अर्थात् हे भाई, परोपकार से बढ़ कर मनुष्य के लिए अन्य कोई धर्म नहीं । संस्कृत में भी इस प्रकार की एक सूक्ति मिलती है । उसके अनुसार – ‘परोपकाराय सत्तां विभूतयः’ अर्थात् सज्जनों द्वारा अर्जित सभी प्रकार की सम्पत्तियाँ अपने सुख-भोग के लिए न होकर परोपकार या पर-हित-साधन के लिए ही हुआ करती है ।
मानव-जीवन की सार्थकता का वास्तविक मानदण्ड यही है कि वह पर-हित-साधन में इस सीमा तक आगे बढ़े कि दूसरों को भी अपने समान, अपने जैसा यानि साधन-सम्पन्न बना दे । शास्त्रीय शब्दों में मानवता का ॠण से मुक्ति पाने का प्रयास परोपकार है और परोपकार सब से बड़ा धर्म । ऐसा धर्म कि जिस की साधना के लिए कहीं जाने आने की कतई कोई जरूरत नहीं, जो सहज साध्य एवं सर्वसुलभ है ।
आज दुःखद स्थिति है कि परोपकार के नाम पर लोगों को उल्लू बनाया जा रहा है। इस भ्रष्ट व्यवस्था में परहित की बात कौन करे वश चले तो देश को भी बेच डालने में परहेज नहीं । शिकायत किससे की जाय क्योंकि –
बरबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था ।
अंजामे गुलिस्तां क्या होगा, हर शाख पे उल्लू बैठा है ।
‘जो तोकूँ काँटा बुए, ताही बोई तू फूल’
सूक्तिपरक शीर्षक पंक्ति सन्त कबीर के एक प्रसिद्ध दोहे की पंक्ति है –
“जो तोवू काँटा बुए, ताही बोई तू पूल ।
तोके फूल-तो-पूल हैं, वाको हैं तिरशूल” ।।
अर्थात् यदि तेरी राह में कोई काँटे बोता है, तो भी तू बदला लेने की इच्छा से उसकी राह में काँटे मत बो; बल्कि काँटों के स्थान पर अपनी तरफ से फूल ही बोने का प्रयास कर । ऐसा करने पर तुझे तो फूल बोने के कारण बदले में फूल ही फूल प्राप्त होंगे, जबकि काँटे बोने वाले को बदले में काँटे ही मिल पाएँगे । इस सामान्य अर्थ से प्राप्त होने वाला व्याख्यापरक ध्वन्यर्थ यह है कि संसार में रहते हुए यदि कोई व्यक्ति तुम्हारा उपकार या बुरा करता है, तब भी तुम उसका अपनी ओर से भला ही करो । अन्ततोगत्वा भला करने वाले का भला होगा, जबकि बुरा करने वाला अपने बुरे किए का फल बुरा प्राप्त करेगा । इस उक्ति का अर्थ और प्रयोजन व्यक्ति की चेतना को बुरों और बुराइयों से विमुख कर अच्छों और अच्छाइयों की तरफ उन्मुख करना ही है । व्यक्ति को अपने भले के लिए, अन्तिम लाभ के लिए सन्मार्ग पर चलने, कुमार्ग का त्याग करने की प्रेरणा देना ही है ।
प्रकृति का सामान्य नियम भी यही है कि बबूल बोने पर आम खाने के लिए नही मिल सकते । आम खाने की इच्छा हो, तो आम के पौधे ही रोपने पड़ेंगे ।
आदमी स्वभाव, गुण और कर्म से वास्तव में बड़ा दुर्बल प्राणी है । उसपर बुराई का प्रभाव बड़ी जल्दी पड़ा करता है, जब अच्छाई का प्रभाव पड़ते-पड़ते ही पड़ा करता है । अच्छाई साधना और तत्पश्चर्या से प्राप्त हुआ करती है, जब की गण्डाई या दुष्टता यों ही प्राप्त हो जाया करती है । स्वभाव से पानी की तरह ढलान यानि सरलता की ओर अच्छा बन कर मौनभाव से अच्छाई करते जाने का मार्ग काफी कठिन एवं कष्ट साध्य है । इसी कारण व्यक्ति अच्छा करते-करते अकसर फिसल जाया करता है । बुरे मार्ग पर चलने और बुरा करने के लिए सरलता से तत्पर हो जाया करता है । सो सूक्तिकार व्यक्ति को चारित्रिक दृढ़ता का उपदेश देकर सभी के हित और सुख-साधन की कामना से अनुप्राणित होकर ही काँट बोने अर्थात् बुरा करने वालों की राह में भी फूल बोने अर्थात् भलाई और प्यार करने की प्रेरणा देना चाहता है।
कटुता से कटुता बढ़ती है, क्रोध से क्रोध बढ़ता है । बैर को प्रेम से ही जीता जा सकता है । जो किसी के बारे में बुरा नहीं सोचता, वही वास्तविक सुख और शांति का अनुभव करता है । ईष्या की आग और द्वेष का धुआँ उससे कासों दूर रहता है । कवि रहीम ने भी लिखा है –
प्रीति रीति सब सों भली, बैर न हित मित गोत ।
रहिमन याही जनम में बहुरि न संगति होत ।।
‘नर हो, न निराश करो मन को’
जब हम महापुरुषों के जीवन-चरित को पढ़ते हैं तब हमें आश्चर्य होता है कि इन व्यक्तियों में ऐसी कौन-सी शक्ति थी जो उन्होंने कल्पनातीत कार्य कर दिखाया । पता चलता है कि वह शक्ति थी – उनका मनोबल, जिसने उन्हें असाधारण व्यक्तियों की श्रेणी में लाकर खड़ाकर दिया। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या थोड़े से वीर मरहठो को लेकर वीर शिवाजी और कंकाल के पुतले महात्मा गाँधी वह सब कर पाते जो उन्होंने कर दिखाया। ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य अपने जीवन में जो कुछ करता है उसके पीछे उसकी मानसिक शक्ति ही होती है । अगर मानसिक शक्ति दृढ़ तो एक बार मौत भी हार जाती है ।
जिस दिन नर मनुष्य निराश या सन्तुष्ट होकर बैठ जाएगा, उस दिन वास्तव में सृष्टि का विकास ही रुक जाएगा, इस बात में तनिक भी सदेह नहीं । निराशा या उदासी यदि जीवन के तथ्य होते, तो आज तक विश्व में जो प्रगति एवं विकास संभव हो पाया है, कदापि न हो पाता । नरता का पहला और अनिवार्य लक्षण है हर हाल में, हर स्थिति में निरन्तर आगेही-आगे बढ़ते जाना ‘जिस तरह जल की नन्हीं, कोमल एवं स्वच्छ धारा अपने निकास-स्थान से निकलकर एक बार जब चल पड़ती है, तो सागर में मिले बिना कभी रुकती या विश्राम नहीं लिया करती; उसी प्रकार नरता भी कभी लक्ष्य पाए बिना रुका नहीं करती।
नर प्राणी किसी बात से निराश होकर बैठ जाए, यह उसे कतई शोभा नहीं देता । निराश होकर बैठ जाना हार तो है ही, श्रेष्ठता से विमुख होना या उसे काल के हाथों गिरवी रखना भी है । किसी भी वस्तु को गिरवी रखने वाला व्यक्ति मान-सम्मान एवं आत्मविश्वास के साथ-साथ लोक विश्वास से भी हाथ धो बैठता है । ऐसा होना दूसरे शब्दों में निराशात्तिरेक में उसका नरता से पतित होना है । अपने-आप को कहीं का भी नहीं रहने देने जैसा है ।
सो नर मनुष्य होकर कभी भूल से भी इस तरह की स्थिति, पतन और गिरावट मत आने दो । बुद्धिमान व्यक्ति को आशावादी होना चाहिए, ताकि वह अपना और अपने देश का कल्याण कर सके । कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपना मनोबल बनाए रखना चाहिए क्योंकि मनोबल से ही सफलता कदम चूमती है । जिस व्यक्ति का मनोबल गिर जाता है, वह जीतेजी पशु के समान हो जाता है ।
‘मनुष्यहै वही कि जो मनुष्य के लिए मरे’
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा परिकल्पित एवं विरचित ‘रामचरितमानस’ में दी गई इस सूक्ति का सम्मूर्ण स्वरूप इस प्रकार है:
“जहाँ सुमति तहाँ सम्पत्रि नाना ।
जहाँ कुमति तहाँ विपत्ति निधाना ।।”
अर्थात् जहाँ यहा जिस व्यक्ति के हुदय एवं समस्त किया-व्यापारों में सुमति या सुबुद्धि का निवास अथवा आग्रह रहा करता है, वहीं पर सभी तरह की सुख-सम्पत्तियाँ सुलभ रहा करती हैं ।
यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे ।
मनुष्य और पशु में यदि कोई अंतर है तो यह है कि पशु परहित की भावना से शून्य होता है । उसके जितने भी कार्य होते हैं वे सभी अपने तक सीमित रहते हैं। यदि मनुष्य भी मनुष्य के साथ ऐसा व्यवहार करे तो फिर मनुष्य और पशु में अंतर ही क्या रह जाएगा । हमारी संस्कृति में मानव-मात्र की कल्याण-भावना निहित है तथा यह संस्कृति ‘वसुधैव कुटंबकम्’ की पवित्र भावना पर आधारित है । सच तो यही है कि संसार में परोपकार के समान न कोई दूसरा धर्म है, न पुण्य ।
इस तथ्य को उजागर करने एवं सन्देश को प्रसारित करने के लिए तुलनात्मक दृष्टि अपना कर कवि ने परस्पर विलोम रहने वाले दो शब्दों का बारी-बारी से प्रयोग किया है । एक सुमति-कुमति, दूसरा सम्पत्ति-विपत्ति । ‘सुमति’ का सम्बन्ध ‘सम्पत्ति’ से बताया है; जबकि ‘कुमति’ का सम्बन्ध ‘विपत्ति’ से बताया गया है । मनुष्य क्योंकि सामाजिक, सर्वश्रेष्ठ एवं विचारवान् प्रणी है, इस कारण कवि ने उस से सुमति के द्वारा सम्पत्ति की ओर जाने का आग्रह किया है। व्यक्ति को कुमति का मार्ग त्याग देना चाहिए; क्योंकि वह तरह-तरह की विपत्तियों की ओर ले जाने वाला होता है।
सुमति से काम लेकर सुविचारित ढंग से चलने का मार्ग कठिन हो सकता है, प्राय: हुआ भी करता है । लेकिन जब मनुष्य उस कठिन मार्ग पर साहस और सुविचार से चल कर उसे पार कर लिया करता है, तब जिस सुख एवं आनन्द की अनुभूति हुआ करती है । इसी तरह कुमति सेरेरित हो और अविचार या कुविचार का दामन थाम कर चलने से अन्ततोगत्वा जिस प्रकार की आत्मपीड़ा ओर आत्मसंन्ताप झेलना पड़ा करता है, उसे भी शब्दों द्वारा आकार दे पाना संभव नही हुआ करता। वह तो मात्र झेलने वाला ही हर पल पश्चाताप की आग ने झुलसते रह कर अनुभव कर पाता है।
मानव जीवन का उद्देश्य केवल इतना नहीं है कि खाओ, पीओ और मस्त रहो । गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है-
“एहि तन कर फल विषय न भाई, सब छल छांड़ि भजिय रघुराई ।।”
अर्थात् इस जीवन का लक्ष्य केवल विषय-वासनाओं में लिप्त नहीं, बल्कि निष्कपट होकर भगवान की भक्ति है । भक्ति भी तभी सफल हो सकती है जब हम दूसरे मानवमात्र के साथ सहानुभूति, सहयोग और संवेदना के साथ पेश आएं। अंग्रेजी का एक कथन है – “The best way to pray to God is to love His creation.”
‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’
हार-जीत तो आरम्भ से ही जीवन के साथ लगी हुई है, लगी रहती है और आगे भी लगी ही रहेगी। यह जीवन का एक निश्चित एवं परीक्षित सत्य है । सफलता प्राप्त करने की प्रेरणा लक्ष्य को हासिल करने की गहरी इच्छा शक्ति से आती है । नेपोलियन ने लिखा था – “इंसान जो सोच सकता है और जिसमें यकीन करता है वह उसे हासिल भी कर सकता है ।”
सभी कामयाबियों की शुरुआत उन्हें पूरा करने की गहरी इच्छा शक्ति से ही होती है। जिस तरह थोड़ी-सी आग ज्यादा गर्मी नहीं दे सकती, उसी प्रकार कमजोर इच्छा से बड़ी कामयाबियाँ नहीं मिल सकती। असफलता के डर से कुछ लोग कोशिश ही नहीं करते, और साथ ही पीछे न छूट जायं इस डर से वे पीछे भी रहना नहीं चाहते । ऐसे लोग जीतना तो चाहते हैं लेकिन हारने के डर से अपनी मानसिक क्षमताओं का इस्तेमाल नहीं कर पाते । वे अपनी क्षमता इस चिंता में गंवाते हैं कि कहीं हार न जाएँ, बजाए इसके कि जीतने की कोशिश में उसे लगाएँ
मानव-समाज ने अपने आरम्भ काल से लेकर आज तक जितनी प्रगति, जितना विकास किया है, उसके लिए जाने कितनी विघ्न-बाधाएँ सहीं, कितनी-कितनी असफलताएँ झेली और कितनी बार असफल परीक्षण किए, कहाँ है उस सब का हिसाब-किताब ? यदि वह कुछ विघ्न-बाधाएँ देख कर, कुछ असफल परीक्षणों के बाद ही मन मार कर बैठ जाता, तो आज तक की उन्नत यात्रा भला कैसे और क्यों कर के कर पाता ? वहीं अन्धेरी गुफाओं और घने जंगलों के सघन वृक्षों की डालियों में ही उछल-कूद न मचा रहा होता ? पर नहीं, मनुष्य के लिए हार मान हाथ-पर-हाथ धर कर बैठ जाना कतई संभव ही नहीं हुआ करता ।
मानव-मन हार को हार मान ही नहीं सकता । सच्चे मनुष्य का मन तो हमेशा जीत के आनन्दोल्लास से भरा रहता है । उत्साह से भरे उसके कर्मठ मन को बढ़ाता हुआ हर कदम जीत या सफलता को निकटतर खींचता हुआ प्रतीत होता है। तभी तो वह गर्मी-सर्दी, वर्षा-बाढ़ आदि किसी की भी परवाह न करते हुए, वसन्त या शरद की सुन्दरता की ओर आकर्षित होते हुए भी उन की अपेक्षा करते हुए अपने गन्तव्य की ओर कदम-दर-कदम हमेशा बढ़ता रहता है-तब तक कि जब तक उस तक पहुँच कर अपना विजय-ध्वज नहीं फहरा देता ।
इन तथ्यों के आलोक में शीर्षक-सूक्ति में व्यंजित सत्य को नतमस्तक होकर स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि हारजीत दोनों मन के व्यापार हैं।