Students should regularly practice West Bengal Board Class 10 Hindi Book Solutions and रचना सामाजिक-सांस्कृतिक निबंध to reinforce their learning.
WBBSE Class 10 Hindi रचना सामाजिक-सांस्कृतिक निबंध
मँहगाई बहुत बड़ी समस्या
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- महँगाई के कारण
- महँगाई के कारण आने वाली समस्या
- महँगाई को दूर करने का उपाय
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- भारत की आर्थिक समस्याओं के अन्तर्गत महँगाई सबसे प्रमुख समस्या है। वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि इतनी तेजी से हो रही है कि आज जब किसी वस्तु को पुन: खरीदने जाते हैं तो उस वस्तु का मूल्य पहले से अधिक बढ़ा हुआ होता है ।
महँगाई के कारण :- वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि, अर्थात् महँगाई के अनेक कारण हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :-
(क) जनसंख्या में तेजी से वृद्धि :- भारत में जनसंख्या के विस्फोट ने वस्तुओं की कीमतों को बढ़ाने की दृष्टि से बहुत अधिक सहयोग दिया है। जितनी तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, उतनी तेजी से वस्तुओं का उत्पादन नहीं हो रहा है, जिससे अधिकांश वस्तुओं के मूल्यों में निरतंतर वृद्धि हो रही है ।
(ख) कृषि उत्पादन-व्यय में वृद्धि :- भारत कृषि-प्रधान देश है । यहाँ की अधिकाश जनसंख्या कृषि पर निर्भर है । गत अनेक वर्षों से खेती में काम आने वाले उपकरणों, उर्वरकों आदि के मूल्यों में वृद्धि हुई है, फलतः उत्पादित वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होती जा रही है। अधिकांश वस्तुओं का मूल्य प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि-पदार्थों के मूल्यों से संबंधित है। इसी कारण जब कृषि-मूल्यों में वृद्धि होती है तो देश में प्राय: सभी वस्तुओं के दाम बढ़ जाते हैं।
(ग) कृत्रिम रूप से वस्तुओं की आपूर्ति में कमी :- वस्तुओं का मूल्य माँग और पूर्ति पर आधारित है। बाजार में वस्तुओं की कमी होते ही उनके मूल्य में वृद्धि हो जाती है । अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से भी व्यापारी वस्तुओं का कृत्रिम अभाव पैदा करके महँगाई बढ़ा देते हैं।
महँगाई के कारण होने वाली समस्याएँ :- महँगाई नागरिकों के लिए अभिशापस्वरूप है । भारत एक गरीब देश है । यहाँ की अधिकांश जनसंख्या के आय के साधन सीमित हैं । इस कारण साधारण नागरिक और कमजोर वर्ग के व्यक्ति अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते । बेरोजगारी इस कठिनाई को और भी अधिक जटिल बना देती है ।
महँगाई को दूर करने के उपाय :- यदि महँगाई इसी दर से बढ़ती रही तो देश के आर्थिक विकास में बहुत बड़ी बाधा उपस्थित हो जाएगी। इससे अनेक प्रकार की सामाजिक बुराइयाँ जन्म लेंगी। अतः महँगाई की इस समस्या को अमूल नष्ट करना अति आवश्यक है ।
महँगाई को दूर करने के लिए सरकार को समयबद्ध कार्यक्रम बनाना होगा । किसानों को सस्ते मूल्य पर खाद, बीज और उपकरण उपलब्ध कराने होंगे, ताकि कृषि-उत्पादन का मूल्य कम हो सके । मुद्रा-प्रसार को रोकने के लिए घाटे की व्यवस्था समाप्त करनी होगी तथा घाटे को पूरा करने के लिए नए नोट छापने की प्रणाली बंद करना होगा । जनसंख्या की वृद्धि को रोकने के लिए निरंतर प्रयास करने होंगे, ताकि वस्तुओं का उचित बँटवारा हो सके ।
उपसंहार :- महँगाई के कारण हमारी अर्थव्यवस्था में अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। घाटे की अर्थव्यवस्था ने इस समस्या को और अधिक बढ़ा दिया है । यद्यपि सरकार की ओर से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में किए जाने वाले प्रयासों द्वारा महँगाई की इस प्रवृत्ति को रोकने का प्रयास निरंतर किया जा रहा है, तथापि इस दिशा में अभी तक पर्याप्त सफलता नहीं मिल सकी है। यदि समय रहते महँगाई की इस समस्या पर नियंत्रण नहीं किया गया तो हमारी अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी और हमारी प्रगति के सारे रास्ते बंद हो जाएँगे, भुष्टाचार अपनी जड़ें जमा लेगा और नैतिक मूल्य पूर्णतया समाप्त हो जाएँगे।
बेरोजगारी
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- बेरोजगारी-एक प्रमुख समस्या
- बेरोजगारी-एक अभिशाप
- बेरोजगारी के कारण
- बेरोजगारी दूर करने के उपाय
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर रोजगार की तलाश में भटकते हुए नवयुवक के चेहरे पर निराशा और चिंता के भाव आजकल देखना सामान्य-सी बात हो गयी है। कभी-कभी रोजगार की तलाश में भटकता हुआ युवक अपनी डिग्रियाँ फाड़ने अथवा जलाने के लिए विवश दिखाई देता है। वह रात को देर तक बैठकर अखबारों के विज्ञापनों को पढ़ता है, आवेदन-पत्र लिखता है। साक्षात्कार देता है और नौकरी न मिलने पर पुनः रोजगार की तलाश में भटकता रहता है। युवक अपनी योग्यता के अनुरूप नौकरी खोजते रहते हैं। घर के लोग उसे निकम्मा समझते हैं, समाज के लोग आवारा कहते हैं, जबकि स्वयं बेचारा निराशा की नींद सोता है और आँसुओं के खारेपन को पीकर समाज को अपनी मौन-व्यथा सुनाता है ।
बेरोजगारी का अर्थ :-बेरोजगारी का अभिप्राय उस स्थिति से है जब कोई योग्य तथा काम करने के लिए इच्छुक व्यक्ति प्रचलित मजदूरी की दरों पर कार्य करने के लिए तैयार हो और उसे काम न मिलता हो। बालक, वृद्ध, रोगी, अक्षम एवं अपग व्यक्तियों को बेरोजगार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । जो व्यक्ति काम करने के इच्छुक नहीं हैं और परजीवी हैं, वे भी बेरोजगारों की श्रेणी में नहीं आते ।
एक प्रमुख समस्या :- भारत की आर्थिक समस्याओं के अंतर्गत बेरोजगारी एक प्रमुख समस्या है । वस्तुत: यह एक ऐसी बुराई है, जिसके कारण केवल उत्पादक मानव-शक्ति ही नष्ट नहीं होती वरन देश का भावी आर्थिक विकास ही अवरुद्ध हो जाता है । जो श्रमिक अपने कार्य द्वारा देश के आर्थिक विकास में सक्रिय सहयोग दे सकते थे, वे कार्य के अभाव में बेरोजगार रह जाते हैं। यह स्थिति हमारे विकास में बाधक है ।
एक अभिशाप :- बेरोजगारी किसी भी देश या समाज के लिए अभिशाप है। इससे एक ओर निर्धनता, भुखमरी तथा मानसिक अशांति फैलती है तो, दूसरी ओर युवकों में आक्कोश तथा अनुशासनहीनता बढ़ती है। चोरी, डकैती, हिंसा, अपराध-वृत्ति एवं आत्महत्या आदि समस्याओं के मूल में एक बड़ी सीमा तक बेरोजगारी ही विद्यमान है । बेरोजगारी एक ऐसा भयंकर विष है जो संपूर्ण देश के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन को दूषित कर देता है। अतः उसके कारणों को खोजकर उनका निराकरण अत्यधिक आवश्यक है।
बेरोजगारी के कारण :- भारत में बेरोजगारी के अनेक कारण हैं जिनमें प्रमुख निम्न हैं :-
(क) जनसंख्या में वृद्धि :-बेरोजगारी का प्रमुख कारण है जनसंख्या में तीव्र वृद्धि । विगत कुछ दशकों में भारत में जनसंख्या का विस्फोट हुआ है।
(ख) दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली :-भारतीय शिक्षा सैद्धांतिक अधिक है, लेकिन व्यावहारिकता में शून्य है । इसमें पुस्तकीय ज्ञान पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है ।
(ग) कुटीर उद्योगों की उपेक्षा :-अंग्रेजी सरकार की कुटीर उद्योग विरोधी नीति के कारण देश में कुटीर उद्योगधंधों का पतन हो गया, जिससे अनेक कारीगर बेकार हो गए ।
(घ) औद्योगीकरण की मंद प्रक्रिया :-विगत पंचवर्षीय योजनाओं में देश में औद्योगिक विकासके लिए प्रशंसनीय कदम उठाए गए हैं, किंतु समुचित रूप से देश को औद्योगीकरण नहीं किया जा सका है ।
(ङ) कृषि का पिछड़ापन :- भारत की लगभग 72 % जनता कृषि पर निर्भर है । कृषि के क्षेत्र में अत्यंत पिछड़ी हुई दशा के कारण कृषि बेरोजगारी व्यापक हो गई है।
बेरोजगारी दूर करने के उपाय :-बेरोजगारी दूर करने में निम्नलिखित उपाय सहायक सिद्ध हो सकते हैं –
(क) जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण :-जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि ही बेरोजगारी का मूल कारण है । अत: इस पर निय्यंत्रण बहुत आवश्यक है। जनता को परिवार-नियोजन का महतव समझाते हुए उसमें छोटे परिवार के प्रति चेतना जाग्रत करनी चाहिए।
(ख) शिक्षा-प्रणाली में व्यापक परिवर्तन :-शिक्षा को व्यवसाय-प्रधान बनाकर शारीरिक श्रम को उचित महत्व दिया जाना चाहिए।
(ग) कुटीर उद्योगों का विकास :-सरकार द्वारा कुटीर उद्योगों के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
(घ) औद्योगीकरण :- देश में व्यापक स्तर पर औद्योगीकरण किया जाना चाहिए । इसके लिए विशाल उद्योगों की अपेक्षा लघुस्तरीय उद्योगों का अधिक विकास करना चाहिए।
(ङ) सहकारी खेती :- कृषि के क्षेत्र में अधिकाधिक व्यक्तियों को रोजगार देने के लिए सहकारी खेती को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
(च) राष्ट-निर्माण संबंधी विविध कार्य :- देश में बेरोजगारी को दूर करने के लिए राष्ट्र-निर्माण संबंधी विविध कार्यों का विस्तार किया जाना चाहिए, जैसे – सड़कों का निर्माण, रेल-परिवहन का विकास, पुल-निर्माण, बाँध-निर्माण तथा वृक्षारोपण आदि ।
उपसंहार :- भारत सरकार बेरोजगारी के प्रति जागरुक है तथा इस दिशा में महत्त्पपूर्ण कदम भी उठा रही है । परिवार-विनियोजन, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, कच्चा माल एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने की सुविधा, कृषि-भूमि की हदबन्दी, नए-नए उद्योगों की स्थापना, अप्रंटिस (शिक्षु) योजना, प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना, आदि अनेकानेक कार्य ऐसे हैं जो बेरोजगारी को दूर करने में एक सीमा तक सहायक सिद्ध हुए हैं।
सांप्रदायिकता : कारण व समाधान
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- सम्पदायिकता का कारण
- सांपदायिक संघर्ष के कारण
- भारत में संप्यदायिकता
- साप्पदायिक घटनाएँ
- सांपदायिकता के दुष्षरिणाम
- सांप्रदायिकता का समाधान
- उपसंहार ।
प्रस्तावना :- भारत एक अरब से भी अधिक आबादी वाला विशाल देश है। यह स्वयं में एक संसार है। इसमें अनेक भाषाओं, अनेक जातियों और अनेक धर्मों के लोग रहते हैं। उनके खान-पान, वेश-भूषा और रीति-रिवाज भी अलग-अलग हैं। यह एक मात्र ऐसा देश है, जहाँ सबसे अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं। यहाँ हिंदू बहुसंख्यक हैं, किंतु साथ ही मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी आदि सभी यहाँ के समान स्तर के समान अधिकार के नागरिक हैं । सभी धर्मावलंबी यहाँ अपने तौर-तरीके, रीति-रिवाज और परंपराओं का पालन करते हैं। इतनी सब भिन्नताओं के होते हुए भी उनमें एक मूलभूत एकता है और वह यह है कि ये हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई बाद में हैं, पहले भारतीय हैं। कोई भी सम्र्रदाय अथवा धर्म मानव-मानव को लड़ाई की बात नहीं कहता।
उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल ने कहा था-
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ।
हिंदी हैं, हमवतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा ।।
सांप्रदायिकता का कारण :- जब कोई सम्रदाय अथवा धर्म स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और अन्य संप्रदायों को निम्न मानने लगता है, तब उसके मन में अपने सम्रदाय के प्रति एक अहंकार की बू आने लगती है। इसी कारण वह दूसरे सम्र्रदाय के प्रति घृणा, विद्वेष और हिंसा का भाव रखने लगता है ।
सांप्रदायिक संघर्ष के कारण :- भारत में संप्रदायिकता की समस्या प्रारंभ से ही धार्मिक की अपेक्षा मुख्यतः: राजनीतिक रही है । कुछ स्वार्थी राजनेता अपने अथवा अपने दल के लाभ हेतु भड़काऊ भाषण देकर आग में घी डाल देते हैं । परिणामस्वरूप संप्रदाय के अंधे लोग अन्य धर्माधों से भिड़ जाते हैं और सारा जनजीवन दूषित कर देते हैं।
भारत में सांप्रदायिकता :- भारत में सांप्रदायिकता का प्रारंभ मुसलमानों के आगमन से हुआ। शासन और शक्ति पाकर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने धर्म को आधार बनाकर हिंदू जन-जीवन को रौंद डाला। हिंदुओं के धार्मिक तीर्थो को तोड़ा, देवी-देवताओं को अपमानित किया, बहू-बेटियों को अपवित्र किया, जान-माल का हरण किया । परिणामस्वरूप, हिंदू जाति के मन में उन पाप-कर्मों के प्रति गहरी घृणा भर गई, जो आज तक भी जीवित है । छोटी-छोटी घटना पर हिंदूमुस्लिम संघर्ष का भड़क उठना उसी घृणा का सूचक है ।
सांप्रदायिक घटनाएँ :- संप्रदायिकता को भड़काने में अंग्रेज शासकों का गहरा घडयंत्र था। आजादी से पूर्व अनेक खूनी-संघर्ष हुए । आजादी के बाद तो विभाजन का जो संघर्ष हुआ, भीषण नर-संहार हुआ । उसे देखकर समूची मानवता बिलख-बिलखकर रो पड़ी थी।
सांप्रदायिकता के दुष्परिणाम :- सांप्रदायिकता का उन्माद देश में कभी-कभी ऐसी कटुता पैदा कर देती है कि आये दिन हिंदू-मुस्लिम दंगे होते हैं । इसके द्वारा तोड़-फोड़, आगजनी और नर-संहार का ऐसा तांडव होता है कि मानवता का सिर शर्म से झुक जाता है।
सांप्रदायिकता का समाधान :- भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है । हमारे अपने देश में सां्रदायिकता की समस्या का समाधान कठिन अवश्य है, किंतु असंभव नहीं । संपदायिकता का अन्धापन अज्ञान तथा अविवेक से पैदा होता है। इसलिए शिक्षा का प्रसार सर्वोत्तम उपाय है।
देश में कानून का शासन स्थापित किया जाय, अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति चाहे हिंदू हो या मुसलमान, सिख हो या ईसाई, समान कानून का पालन करे । कानून का उल्लंघन करने पर द््ड भी समान रूप में दिया जाए । साम्र्रदायिकता फैलाने वाले को दंडित किया जाए । जनसंचार के माध्यमों द्वारा सांपदायिकता विरोधी कार्यक्रम प्रसारित किए जाएं ।
उपसंहार :- प्रत्येक मानव का यह अधिकार है कि वह अपनी इच्छानुसार धर्म का पालन करे। किसी मानव को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने धार्मिक अन्धविश्वास के कारण दूसरों की उन्नति के मार्ग की बाधा बन जाए। यदि कोई सांप्रदायिकता की संकुचित भावना से प्रेरित होकर अपने धर्म का विकास तथा दूसरे धर्म का उपहास करता है तो इससे निश्चय ही राष्ट्र, विश्व तथा संपूर्ण मानवता को क्षति पहुँचेगी । अतः सांपदायिकता के अभिशाप को समाप्त किए बिना मानवता की सुरक्षा संभव नहीं है।
राष्ट्रीय एकता
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- भारत में अनेकता के विविध रूप
- राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता
- राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ
- जातिवाद
- राष्ट्रीय एकता बनाए रखने के उपाय-सर्वधर्म समभाव
- समष्टि-हित की भावना
- एकता का विश्वास, शिक्षा का प्रसार
- राजनैतिक वातावरण की स्वच्छता
- उपसंहार ।
प्रस्तावना :- भारत अनेक धर्मों, जातियों और भाषाओं का देश है । धर्म, जाति एवं भाषाओं की दृष्टि से विविधता होते हुए भी भारत में प्राचीनकाल से ही एकता की भावना विद्यमान रही है। जब कभी किसी ने उस एकता को खंडित करने का प्रयास किया है, भारत का एक-एक नागरिक सजग हो उठा है । राष्ट्रीय एकता को खंडित करने वाली शक्तियों के विरुद्ध आंदोलन आरंभ हो जाता है । राष्ट्रीय एकता हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है और जिस व्यक्ति को अपने राष्ट्रीय गौरव का अभिमान नहीं है, वह नर नहीं, नर-पशु है –
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है ।
वह नर नहीं नर-पशु निरा है और मृतक समान है ।
-मैथिलीशरण गुप्त
राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय :- राष्ट्रीय एकता का अभिपाय है-संपूर्ण भारत की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक एकता । हमारे कर्मकांड, पूजा-पाठ, खान-पान, रहन-सहन और वेश-भूषा में अंतर हो सकता है । इनमें अनेकता भी हो सकती है, किंतु हमारे राजनीतिक और वैचारिक दृष्टिकोण में एकता है। इस प्रकार अनेकता में एकता ही भारत की प्रमुख विशेषता है ।
भारत में अनेकता के विविध रूप :- भारत जैसे विशाल देश में अनेकता का होना स्वाभाविक ही है । धर्म के क्षेत्र में हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि विविध धर्मावलंबी यहाँ निवास करते हैं । इतनी विविधताओं के होते हुए भी भारत अत्यंत प्राचीनकाल से एकता के सूत्र में बँधा रहा है ।
राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता :- राष्ट्र की आंतरिक शक्ति तथा सुव्यवस्था और बाह्य सुरक्षा की दृष्टि से राष्ट्रीय एकता की परम आवश्यकता होती है। भारतवासियों में यदि जरा-सी भी फूट पड़ेगी तो अन्य देश हमारी स्वतंज्रता को हड़पने के लिए तैयार बैठे हैं ।
राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ :- राष्ट्रीय एकता की भावना का अर्थ मात्र यह नहीं है कि हम एक राष्ट्र से संबद्ध हैं । राष्ट्रीय एकता के लिए एक-दूसरे के प्रति भाईचारे की भावना आवश्यक है । आजादी के समय हमने सोचा था कि पारस्परिक भेदभाव समाप्त हो जाएगा किंतु संप्रदायिकता, क्षेत्रीयता, जातीयता, अज्ञानता और भाषागत अनेकता ने अब तक पूरे देश को आक्रांत कर रखा है ।
राष्ट्रीय एकता को छिन्न-भिन्न कर देने वाले कारण निम्न हैं :-
(i) सांप्रदायिकता :- राष्ट्रीय एकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा सांपदायिकता की भावना है। संप्रदायिकता एक ऐसी बुराई है जो मानव-मानव में फूट डालती है, समाज को विभाजित करती है। जहाँ भी द्वेष, घृणा और विरोध है, वहाँ धर्म नहीं है । राष्ट्रवादी शायर इकबाल ने कहा है –
“मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ।
हिंदी हैं हम वतन है हिंदोस्तां हमारा ।।”
संप्रदायिक कटुता को दूर करने के लिए हमें परस्पर सभी धर्मों का आदर करना चाहिए।
(ii) भाषागत विवाद :- भारत बहुभाषी राष्ट्र है । विभिन्न प्रांतों की अलग-अलग बोलियाँ और भाषाएँ हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी भाषा को श्रेष्ठ और उसके साहित्य को महान मानता है ।
मातृभाषा को सीखने के बाद संविधान में स्वीकृत 18 भाषाओं में से किसी भी भाषा को सीख लें तथा राष्ट्रीय एकता के निर्माण में सहयोग प्रदान करें ।
(iii) प्रांतीयता अथवा प्रादेशिकता की भावना :- प्रांतीयता अथवा प्रादेशिकता की भावना भी राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है । कभी-कभी किसी अंचल विशेष के निवासी अपने लिए पृथक् अस्तित्व की माँग रखते हैं।
(iv) जातिवाद :- भारत में जातिवाद सदैव प्रभावी रहा है । कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था टूटी है और जातिप्रथा कहर रूप से उभरी है । जातिवाद ने भारतीय एकता को बुरी तरह प्रभावित किया है ।
राष्ट्रीय एकता बनाए रखने के उपाय :- वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं :-
- सर्वधर्म समभाव :- सभी धर्मो की आदर्श एवं श्रेष्ठ बातें समान दिखाई देती हैं । सभी धर्मों का समान रूप से आदर होनी चाहिए ।
- समष्टि-हित की भावना :- हम अपनी स्वार्थ भावना को भूलकर समष्टि-हित का भाव विकसित कर लें ।
- एकता का विश्वास :- भारत की अनेकता में ही एकता का निवास है। सभी नागरिकों को प्रेम और सद्भाव द्वारा एक-दूसरे में अपने प्रति विश्वास पैदा करनी चाहिए ।
- राजनीतिक वातावरण की स्वच्छता :- स्वतंत्रता से पूर्व अंग्रेजों ने तथा स्वतंत्रता के बाद राजनेताओं ने जातीय विद्वेष तथा हिंसा भड़काये हैं। किसी संप्रदाय विशेष का मसीहा बनकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। इन स्वार्थी राजनेताओं का बहिष्कार करना चाहिए ।
उपसंहार :- आज विकास के साधन बढ़ रहे हैं, भौगोलिक दूरियाँ कम हो रही हैं, किंतु आदमी और आदमी के बीच दूरी बढ़ती ही जा रही है । हम सभी को मिलकर राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए। ऐसा करने पर भारत एक सबल राष्ट्र बन सकेगा ।
इक्कीसवीं सदी का भारत
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- परिवर्तनशील भारत
- इक्कीसवीं सदी का भारत
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- लगभग 25-30 वर्ष पूर्व अंग्रेजी साहित्य के एक लेखक ने ‘इक्कीसवीं सदी की दुनिया’ नामक लेख लिखा था, जिसमें यह बताया गया था कि इक्कीसवीं सदी में मानव-समाज औद्योगिकता की अनेक मंजिलें तय करते हुए उस जगह तक जा पहुँचेगा, जहाँ आदमी शून्य होगा और मशीनें सर्वे त्तम । यह चाँद तक पहुँचेगा तथा आकाश पर जगमगाते सितारों की खोज करेगा किंतु मशीनों के माध्यम से । यह वह समय होगा जब मानव की समस्त वौद्धिक शक्तियाँ मशीन के कलपुर्जों को समर्पित कर दी जाएँगी । विकास के अंतिम चरण में मनुष्य स्वनिर्मित मशीनों का दास होकर रह जाएगा ।
इक्कीसवीं सदी का भारत :- कल्पना में जब भी इक्कीसवीं सदी का भारत उभरता है तो उसके दो स्पष्ट छोर दिखाई देते हैं। इनमें से एक आधुनिक और वैज्ञानिक विश्व से जुड़ा है तो, दूसरा काठ के बने गाड़ी के दो पहियों के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ने को विवश है ।
भारत में पंचवर्षीय योजनाओं पर अरबों रुपया खर्च हो रहा है । इससे भारत का आधुनिकीकरण तो हो रहा है, किंतु इसका लाभ देश के अधिकांश वर्ग को नहीं मिल रहा है । इससे यह खतरा भी हो सकता है कि भारत का एक बहुत छोटा वर्ग अति-आधुनिक साधनों और सुविधाओं का भोग कर रहा होगा और एक बहुत बड़ा वर्ग अपनी जीविका के लिए ही संघर्ष कर रहा होगा ।
इक्कीसवीं सदी के भारत के रूप में कल्पना कीजिए कि देश का एक ऐसा वर्ग होगा जो केवल अपने हाथ की एक अँगुली से बटन दबाकर रात का खाना अपनी मेज पर मँगवाएगा तथा दूसरा बटन दबाकर जूठे बर्तन भी साफ कराएगा। इस सदी का व्यक्ति राकेटों पर सवार होकर चंद्रमा की यात्रा करेगा तथा घण्टों या मिनटों में ब्रह्मांड का चक्कर लगाकर वापस अपने घर लौट सकेगा। किसी कार्यालय में बैठे लिपिक को पूरे दिन टाइप करने की आवश्यकता नहीं, अपितु संपूर्ण रिपोर्टिग को कंप्यूटर की मदद से कुछ ही देर में प्रिंटर द्वारा लेखा-जोखा प्रस्तुत कर देगा । दूसरी ओर भारत में एक ऐसा वर्ग भी होगा जो अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा और मकान के लिए दर-दर भटक रहा होगा।
इक्कीसवीं सदी और भारत :- संपन्न देशों की नकल करके इक्कीसवीं सदी की बात करने वाले भारत की इसके क्षेत्र में तैयारी बहुत कम है । हमारे देश में 21 वीं सदी की बात के लिए हड़बड़ाहट अधिक है, तैयारी कम है।
अत्यधिक प्रयासों के बाद भी हम अपनी कृषि को पूर्णत: वैज्ञानिक आधार नहीं दे पाए हैं। अभी भी बहुत कम किसान ऐसे हैं जो कृषि के वैज्ञानिक तरीकों और साधनों का प्रयोग कर पाते हैं, किंतु दस वर्ष बाद हम अवश्य इतने समर्थ हो जायेंगे कि अपने देश की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए खाद्यान्नों का निर्यात भी कर सकें।
हमारे देश में प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है, कमी है तो सिर्फ उनके समुचित दोहन की। इस शताब्दी में हम इन संसाधनों का भरपूर और समुचित उपयोग कर सकने की स्थिति में होंगे ।
उपसंहार :- हमें विश्वास है कि सन् 2010 ई० तक हम विकास की उस निर्णायक स्थिति में अवश्य पहुँच जायेंगे जहाँ भारत का कोई बालक भूखा नहीं सो सकेगा, कोई ऐसा तन नहीं होगा जिस पर वस्त्र नही होगा तथा कोई ऐसा परिवार न होगा जिसके सिर पर छत न हो, अर्थात् प्रत्येक नागरिक को रोटी, कपड़ा और मकान सुलभ होगा ।
दूरदर्शन का प्रभाव
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- दूरदर्शन का आविष्कार, उपयोग, प्रभाव
- दूरदर्शन से लाभ तथा हानियाँ
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- दूरदर्शन अर्थात् टेलीविजन आधुनिक-युग में मनोरंजन के साथ-साथ सूचनाओं की प्राप्ति का भी महत्वपूर्ण साधन है । केवल पच्चीस-तीस वर्ष पहले तक भारतीय समाज में दूरदर्शन का उपयोग महानगरों के कुछ्छ संपन्न परिवार ही कर पाते थे तथा इस पर सीमित कार्यक्रम ही प्रसारित होते थे, कितु आज स्थिति यह है कि दूरदर्शन देश के प्रत्येक शहर तथा गाँव तक पहुँच चुका है । देश की अधिकांश आबादी तक यह कोठियों से लेकर झुग्गी-झोपड़ी तक अपने पैर पसार चुका है । दूरदर्शन के उपग्रह द्वारा प्रसारण संबंधी सुविधा के कारण आजकल सैकड़ों चैनलों एवम् कार्यक्रमों की भरमार है ।
दूरदर्शन का आविष्कार :- 25 जनवरी, सन् 1926 को इंग्लैण्ड में एक इंजीनियर जान बेयर्ड ने रायल इस्स्टीद्यूट के सदस्यों के सामने टेलीविजन का सर्व्यथम प्रदर्शन किया था । उसने कठपुतली के चेहरे का चित्र रेडियो की तरंगों की सहायता से वैज्ञानिकों के सामने प्रदर्शित किया था । विज्ञान के लिए यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी।
दूरदर्शन का उपयोग :- आधुनिक समाज में दूरदर्शन का उपयोग मनोरंजन, शिक्षा, साहित्य, संगीत, सूचना आदि विभिन्न क्षेत्रों के लिए किया जा रहा है । आज यह मनोरंजन का सबसे सस्ता और सुलभ साधन है । अब लोगों को फिल्म देखने के लिए सिनेमा हॉल तक नहीं जाना पड़ता है। क्रिकेट-मैच को देखने के लिए मैदान पर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती । पूरे विश्व के समाचार तथा विभिन्न संस्कृतियों के आधार-व्यवहार आदि का दृश्यावलोकन भी घर बैठे हो जाता है । इसके माध्यम से विभिन्न कक्षाओं के लिए शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण भी किया जाता है, जिससे छात्रों को अध्ययन में सुविधा मिलती है । यू. जी. सी. का कंट्रीवाइड क्लास रूम टीचिंग ऐसा ही कार्यक्रम है तथा दूरदर्शन का ज्ञान-दर्शन चैनल शिक्षा प्रदान करने वाला चैनल है जो बहुत उपयोगी है ।
दूरदर्शन का प्रभाव :- दूरदर्शन आज प्रत्येक परिवार का एक आवश्यक अंग बन गया है, जिसका परिवार तथा समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है । व्यक्ति, परिवार तथा समाज पर दूरदर्शन का प्रभाव लाभकारी है या हानिकारक यह प्रश्न विचारणीय है । अतः लाभ-हानि के दृष्टिकोण से दूरदर्शन के प्रभाव का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है:
दूरदर्शन से लाभ – दूरदर्शन समाज के लिए निम्न क्षेत्रों में उपयोगी है-
दूरदर्शन आज के समय में सबसे सस्ता एवं सुलभ मनोरंजन प्रदान करता है । इसमें केवल बिजली का थोड़ा-सा खर्च लगता है । लोग घर पर बैठकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार कार्यक्रम देखते हैं।
दूरदर्शन के पर्दे पर विश्व मानव समुदाय की विभिन्न संस्कृतियों से संबंधित कार्यक्रम आते रहते हैं, जिससे हम उनकी संस्कृति से परिचित हो जाते हैं। जिन स्थानों पर जाना सम्भव नहीं होता उनकी भी जानकारी मिल जाती है।
दूरदर्शन के माध्यम से हम महत्वपूर्ण व्यावसायिक सूचनाएँ एवं शिक्षा संबंधी अनेक तथ्यों की जानकारियाँ अपने घर में ही प्राप्त कर लेते हैं। इसका लाभ हमें शैक्षणिक एवं व्यावसायिक स्तर पर प्राप्त होता है ।
दूरदर्शन के कारण बच्चों की बुद्धि का विकास भी शीघ्रता से संभव हो गया है । आज उन्हे बाघ और सिंह का अंतर बताने के लिए किसी चिड़ियाघर ले जाने की आवश्यकता नहीं है । हवाई जहाज, हेलीकॉट्टर, रॉकेट आदि को टेलीविजन के पर्दे पर देखकर ही पहचान करना सीख जाते हैं ।
दूरदर्शन से हानियाँ :- जहाँ दूरदर्शन से अनेक लाभ हैं, वहीं दूसरी ओर समाज को इससे अनेक हानियाँ भी हैं, उनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं –
(i) समय की हानि :- मनुष्य के लिए मनोरंजन आवश्यक है, मनुष्य असमय एवं अनावश्यक मनोरंजन में समय नष्ट करता है, इससे उसके कार्य करने की क्षमता में कमी आ जाती है ।
(ii) स्वास्थ्य की हानि :- दूरदर्शन से निकलने वाली प्रकाश की किरणें मनुष्य के नेत्र एवं त्वचा पर अत्यंत हानिकारक प्रभाव डालती हैं, क्योंकि इस प्रकाश की किरणें साधारण प्रकाश की किरणो से भिन्न होती हैं।
(iii) चरित्र का हनन :- दूरदर्शन के कार्यक्रमों से जहाँ एक ओर ज्ञान का विकास होता है, वहीं इसके प्रभाव से समाज का चारित्रिक पतन भी हो रहा है । मनोरंजन के कार्यक्रमों में व्यावसायिकता का बोलबाला है, उनमें नैतिक आदर्शो को छोड़ दिया जाता है । अश्लीन एवं फूहड़ दृश्य, द्विअर्थी गीत-संवाद, हिंसात्मक एवं वीभत्स घटनाओं आदि का प्रसारण मानव-मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालता है । इससे समाज में अपराध तथा अनैतिक कार्य की प्रवृत्ति बढ़ रही है ।
(iv) बच्चों के भविष्य पर कुप्रभाव :- दूरदर्शन का सबसे बुरा प्रभाव बच्चों के कोमल मस्तष्क पर पड़ता है । बच्चे अल्पायु से ही बंदूक का खेल खेलने लगते हैं। कार्टून फिल्मों को देखने में अपना अमूल्य समय नष्ट करते हैं, जिसका सीधा प्रभाव उनकी पढ़ाई पर, उनके भविष्य पर पड़ता है ।
उपसंहार :- दूरदर्शन मानव जीवन का एक अति-आवश्यक अंग है . किंतु इसका संयमित और नियंत्रित उपयोग ही करना चाहिए ।
दहेज-प्रथा ए एक अभिशाप
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- दहेज-प्रथा का प्रारंभ
- दहेज का अर्थ
- दहेज प्रथा के विस्तार के कारण
- दहेज-प्रथा से हानियाँ
- समस्या का समाधान
- उपसंहार ।
कहती है नन्हीं-सी बाला, मैं कोई अभिशाप नहीं ।’
लज्जित होना पड़े पिता को, मैं कोई ऐसा पाप नहीं ।”
“’दहेज बुरा रिवाज है, बेहद बुरा । बेहद बुरा । बस चले तो दहेज लेने वालों और देने वालों को ही गोली मार देनी चाहिए, फिर चाहे फाँसी ही क्यों न हो जाए । पूछो, आप लड़के का विवाह करते हैं कि उसे बेचते हैं।’ – मुंशी प्रेमचंद
दहेज-प्रथा वर्तमान समाज का कलंक बन गई है। भारतीय समाज का यह कलंक निरंतर विकृत रूय धारण करता जा रहा है । समय रहते इस रोग का निदान और उपचार आवश्यक है, अन्यथा समाज की नैतिक मान्यताएँ नष्ट हो जाएँगी और मानव-मूल्य समाप्त हो जायेंगे ।
दहेज-प्रथा का प्रारंभ :-महर्षि मनु ने ‘मनुस्मृति’ में अनेक विवाहों का उल्लेख किया है। बह्म-विवाह के अंतर्गन कन्या को वस्त्र और आभूषण देने की बात कही गई है । कन्या के माता-पिता अपनी सामर्थ्य और इच्छानुसार वस्त्र और अलंकार दिया करते थे, कितु उसमें बड़ी मात्रा में दिए जाने वाले दहेज का उल्लेख नहीं है ।
दहेज का अर्थ :-दहेज का तात्पर्य उन संपत्ति और वस्तुओं से है, जिन्हें विवाह के समय वधू-पक्ष की ओर से वरपक्ष को दिया जाता है । मूल रूप से इसमें स्वेच्छा की भावना निहित है, किंतु आज दहेज का अर्थ बिल्कुल अलग हो गया है, अब तो इसका अर्थ उस संपत्ति अथवा मूल्यवान वस्तुओं से है, जिन्हे विवाह की एक शर्त के रूप मे कन्या-पक्ष द्वारा वर पक्ष के प्रति विवाह से पूर्व अथवा बाद में पूरा करना पड़ता है ।
दहेज-प्रथा के विस्तार के कारण :- दहेज प्रथा के विस्तार के प्रमुख कारण निम्न हैं-
(i) धन के प्रति अधिक आकर्षण :- वर्तम ान युग भौतिकवादी युग है । समाज में धन का महत्व बढ़ता जा रहा है । धन सामाजिक प्रतिष्ठा और पारिवारिक प्रतिष्ठा का आधार बन गया है। वर-पक्ष ऐसे परिवार में ही संबंध स्थापित करना चाहृता है, जो धनी हो तथा अधिक से अधिक धन दहेज के रूप में दे सके।
(ii) जीवन-साथी चुनने का सीमित क्षेत्र :- भारतीय समाज अनेक जातियों तथा उपजातियों में विभाजित है । सामान्यतः प्रत्येक माता-पिता अपनी पुत्री का विवाह अपनी ही जाति या उससे उच्च जाति के लड़के के साथ करना चाहते हैं । इसी कारण वर-पक्ष की ओर से दहेज की माँग होती है।
(iii) शिक्षा और व्यक्तिगत प्रतिष्ठा :- वर्तमान युग में शिक्षा बहुत महँगी है । इसके लिए पिता को कभी-कभी अपने पुत्र की शिक्षा पर अपनी सामर्थ्य से अधिक धन खर्च करना पड़ता है। इस धन की पूर्ति वह पुत्र के विवाह के अवसर पर दहेज प्राप्त करके करना चाहता है ।
दहेज-प्रथा से हानियाँ :- दहेज-प्रथा ने हमारे समाज को पथश्रष्ट और स्वार्थी बना दिया है । समाज में फैला यह रोग इस तरह जड़ जमा चुका है कि कन्या के माता-पिता के रूप में जो लोग दहेज की बुराई करते हैं वे ही अपने पुत्र के विवाह के अवसर पर मनचाहा दहेज माँगते हैं। इससे समाज में अनेक विकृतियाँ उत्पन्न हो गई हैं तथा अनेक नवीन समस्याएँ विकराल रूप धारण करती जा रही हैं, जैसे –
(क) बेमेल विवाह :- दहेज-प्रथा के कारण निर्धन माता-पिता अपनी पुत्री के लिए उपयुक्त वर प्राप्त नहीं कर पाते और मजबूरी में उन्हें अपनी पुत्री का विवाह अयोग्य लड़के से करना पड़ता है । दहेज देने में असमर्थ माता-पिता को अपनी कम उम्र की लड़कियों का विवाह अधिक अवस्था के पुरुषों से करना पड़ता है ।
(ख) ॠणग्रस्तता :- दहेज-प्रथा के कारण वर-पक्ष की माँग को पूरा करने के लिए कई बार कन्या के माता-पिता को ऋण भी लेना पड़ता है । फलत: वे आमृत्यु ऋण की चक्की में पिसते रहते हैं ।
(ग) कन्याओं का दु:खद वैवाहिक जीवन :- वर-पक्ष की माँग के अनुसार दहेज न देने अथवा उसमें किसी प्रकार की कमी रह जाने के कारण नव वधू को सुसराल में अपमानित होना पड़ता है।
(घ) अविवाहिताओं की संख्या में वृद्धि :- आर्थिक दृष्टि से दुर्बल परिवारों की जागरुक युवतियाँ गुणहीन तथा निम्नस्तरीय युवकों से विवाह करने की अपेक्षा अविवाहित रहना उचित समझती हैं, जिससे अनैतिक संबंधों और यौनकुंठाओं जैसी अनेक सामाजिक विकृतियों को बढ़ावा मिलता है ।
समस्या का समाधान :- दहेज-प्रथा समाज के लिए निश्चित ही एक अभिशाप है । कानून और समाज सुधार कों ने टहेज से मुक्ति के अनेक उपाय सुझाए हैं। प्रमुख उपाय निम्न है-
(क) कानून द्वारा प्रतिबंध :-अनेक लोगों का विचार था कि दहेज के लेन-देन पर कानून द्वारा प्रतिबन्ध लगा दिगा जाय । इसीलिए 9 मई, 1961 ई० को भारतीय संसद ने ‘दहेज निरोधक अधिनियम’ स्वीकार कर लिया गया।
(ख) अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन :-अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देने से वर का चुनाव करने के क्षेत्र में विस्तार होगा तथा युर्वातयों के लिए योग्य वर खोजने में सुविधा होगी। इससे दहेज की माँग में कमी आएगी।
(ग) युवकों को स्वावलंबी बनाया जाए :-स्वावलम्बी होने पर युवक अपनी इच्छा से लड़की का चयन कर सकेंगे । स्वावलंबी युवकों पर माता-पिता का दबाव कम होने पर दहेज के लेन-देन में स्वत: कमी आएगी।
(घ) लड़कियों की शिक्षा :- जब युवतियाँ भी शिक्षित होकर स्वावलंबी बनेंगी तो वे स्वयं नौकरी करके अपना जीवन-निर्वाह करने में समर्थ हो सकेंगी । विवाह एक विवशता के रूप में भी न होगा, जिसका वर-पक्ष प्राय: अनुचित लाभ उठाता है ।
(ङ) जीवन साथी चुनने का अधिकार :- प्रबुद्ध युवक-युवतियों को अपना जीवन-साथी चुनने के लिए अधिक छुट मिलनी चाहिए ।
उपसंहार :- दहेज-प्रथा एक सामाजिक बुराई है, एक कलंक है, हमारे समाज का कोढ़ है । इसके विरुद्ध स्वस्थ जनमत का निर्माण होना चाहिए । जब तक समाज में चेतना नहीं आएगी, दहेज के दैत्य से मुक्ति पाना असंभव है । गाजनेताओं, समाज-सुधारकों तथा शिक्षित युवक-युवतियों आदि सभी के सहयोग से दहेज-प्रथा का अंत हो सकताहै।
भारतीय समाज में नारी का स्थान
अथवा,
भारतीय नारी : दशा और दिशा
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- भारतीय नारी का अतीत
- मध्यकाल में भारतीय नारी
- आधुनिक युग में नारी
- पाश्चात्य प्रभाव
- उपसंहार ।
प्रस्तावना :- मानव-जीवन का रथ सिर्फ एक पहिए से नहीं चल सकता । उसकी समुचित गति के लिए दोनों पहिए होने चाहिए । गृहस्थी की गाड़ी नर और नारी के सहयोग व सद्भावना से प्रगति के पथ पर अविराम गति से बढ़ सकती है । स्त्री केवल पत्नी ही नहीं, अपितु योग्य मित्र, परामर्शदात्री, सचिव, सहायिका, माता के समान उस पर सर्वस्व न्यौछावर करने वाली तथा सेविका की तरह सच्ची सेवा करने वाली है । गृहस्थी का कोई भी कार्य उसकी सम्मति के बिना नहीं हो सकता । कितु भारतीय समाज में नारी की स्थिति सदैव एक समान न रहकर बड़े उतार-चढ़ावों से गुजरी है ।
भारतीय नारी का अतीत :- प्राचीनकाल में स्त्रियों को आदर और सम्मान से देखा जाता था। लोगों की मान्यता थी कि जिस घर में स्त्रियों का सम्मान होता है; वह घर सुखी तथा स्वर्ग बन जाता है । कहा गया है – ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता ।’ भारत का इतिहास पृष्ठ नारी की गौरव-गरिमा से मंडित है।
वेद तथा उपनिषद् काल में नारी को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी । उन्हें समाज में सामाजिक अधिकार प्राप्त थे । याज्ञवल्क्य और गार्गी का शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है । मैत्रेयी विख्यात बह्यवादिनी थीं। मंडन मिश्र की धर्मपत्नी भारत में अपने काल की विख़्यात विदुषी महिला थीं। स्त्रियाँ अपने पति के साथ युद्ध-क्षेत्र में भी जाती थीं ।
मध्यकाल में भारतीय नारी :- मध्यकाल में स्त्रियों की स्थिति बदतर हो गयी थी । स्त्रियों को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा । मुसलमानों के आक्रमण से हिंदू समाज का ढाँचा चरमरा गया । मुसलमानों के लिए नारी भोग-विलास तथा वासना-पूर्ति मात्र की वस्तु थी । इसी कारण नारी का कार्य-क्षेत्र घर की चहारदीरी के भीतर सिमट कर रह गया, जिससे समाज में अशिक्षा, बाल-विवाह प्रथा, सती-प्रथा, परदा-प्रथा का प्रचलन बढ़ा।
आधुनिक युग में नारी :- धीरे-धीरे विचारकों तथा नेताओं ने नारी की स्थिति पर ध्यान दिया। राजा राममोहन राय ने ‘सती-प्रथा’ का अंत कराया। महर्षि दयानंद ने महिलाओं को समान अधिकार दिए जाने की आवाज उठाई । गाँधीजी ने जीवन भर महिला उत्थान का कार्य किया । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नारी वर्ग में चेतना का विशेष विकास हुआ। स्तियाँ समाज में पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर साथ चलने को तैयार हुई । भारतीय संविधान में भी यह घोषणा की गई कि “राज्य, धर्म, जाति, संप्रदाय, लिंग आदि के आधार पर किसी भी नागरिक में विभेद नहीं होगा।”
आज भारतीय नारियाँ जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं । चिकित्सा, मनोविज्ञान, कानून, फिल्म-निर्माण, वायुयान की पायलट, ट्रक-ड्राइवर, खेल का मैदान आदि क्षेत्रों में महिलाएँ पुरुषों से पीछे नहीं हैं। ये ललित कलाओं, जैसे–संगीत, नृत्य, चित्रकला, छायांकन (फोटोग्राफी) में विशेष दक्षता प्राप्त कर रही हैं । वाणिज्य तथा विज्ञान के क्षेत्र में भी स्त्रियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही हैं । स्त्रियों की सामाजिक चेतना जाग उठी है। वे समाज की दुर्दशा के प्रति सजग व सावधान हैं । वे समाज–सुधार के कार्यक्रम में व्यस्त हैं। भारत की वर्तमान समस्याओं-भुखमरी, महँगाई, बेकारी, देहज-प्रथा आदि को सुलझाने के लिए भी वे प्रयत्नशील हैं।
श्रीमती इंदिरा गाँधी, श्रीमती सरोजिनी नायडू, श्रीमती सुचेता कृपलानी, श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित, लता मंगेशकर, श्रामती किरण बेदी, मेधा पाटकर, महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम आदि ऐसी भारतीय नारियाँ हैं जिन पर भारतवर्ष को सदैव गर्व रहेगा ।
पाश्चात्य-प्रभाव :- आजकल अधिकांश स्त्रियाँ पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता से अधिक प्रभावित हैं । वे फैशन व आडंबर को जीवन का सार समझकर भोगवाद की ओर अग्रसर हो रही हैं। वे सादमी से विमुख होकर पैसा कमाने की होड़ में अनैतिकता की ओर उन्मुख हो रही हैं । इस प्रकार वे स्वयं गुड़िया बनकर पुरुषों के हाथों में खेल रही हैं ।
उपसंहार :-नारी को अपने गौरवपूर्ण अतीत को ध्यान में रखकर त्याग, समर्पण, स्नेह, सरलता आदि गुणों को नहीं भूलना है । यूरोपीय संस्कृति के व्यामोह में न फँसकर भारतीयता को बनाये रखना चाहिए । इससे समाज का और उनका दोनों का हित हो सकेगा । नारी के इस चिरकल्याणमय रूप को लक्ष्य कर कवि जयशंकर प्रसाद ने नारी का अत्यंत सजीव चित्रण किया है –
“नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग-पग-तल में,
पीयूष स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में ।”
नारी-शिक्षा का महत्व
रूपरेखा :
- भूमिका
- नारी शिक्षा की आवश्यकता
- उपसंहार।
नारी सेह और सौजन्य की देवी है। वह पशु के समान आचरण करने वाले व्यक्ति को भी मनुष्य बनाती है। मधुर वाणी से वह जीवन को मधुमय बनाती है। मानवीय सदगुणों के पूर्ण विकास, परिवार तथा समाज की शांति, बच्चों के चरित्रनिर्माण और देश के निर्माण में खी की अहम भूमिका है। अत: नारी शिक्षा का महत्व स्वयंसिद्ध है। एक पुरुष की शिक्षा का अर्थ केवल एक व्यक्ति की शिक्षा है, जबकि एक नारी की शिक्षा का अर्थ सम्पूर्ण परिवार की शिक्षा है।
भारतेंदु जी ने स्री शिक्षा के विषय में कहा था, “स्त्री अगर शिक्षित होगी तो वह अपने बच्चों को शिर्षित कर सकती है। अनपढ़ माता की संतान अपना विकास उस तरह नहीं कर सकती, जिस तरह एक शिक्षित माता की संतान कर सकती है। देश के विकास में भी स्त्री शिक्षा सहायक होगी, स्त्री शिक्षित होगी तो देश दोनों हाथों से काम करेगा। देश की उन्नति में कोई संदेह नहीं रहेगा।”
नारी-जीवन मुख्यतः पत्ली, माता, बहन और बेटी में बँटा होता है। शिक्षित पत्ली परिवार को सुंदर ढंग से जीने की कला सिखलाती है। नारी सेह, सुख, शांति और श्री की वृद्धि करती है। परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों में समन्वय, सामंजस्य स्थापित करने में सफल होती है।
शिक्षित नारी अपने अस्तित्व और शक्ति को पहचानने में समर्थ होती है, तब वह शोषण का शिकार कम होती है। अशिक्षित नारी अपने अधिकार तथा शक्ति से अर्नभिज होती है। अशिक्षित नारी स्वभावत: दुर्बल होती है। वह प्राय: जादू-टोना, भूत-प्रेत में विश्वास करती है। प्रगतिशील कदम उठाने में असमर्थ होती है। वह कुरीतियों और कुसंस्कारों की लक्ष्मण रेखा पार करते हुए हिचकती है। इसलिये निरक्षर नारी के जीवन में अंधकार होता है। पुत्री के रूप में वह माता-पिता के लिये बोझ होती है। पत्नी के रूप में उसका पृथक् अस्तित्व नहीं होता। पुत्र के बड़े होने पर वह उसके आश्रय में परमुखापेक्षी जीवन में जीती है।
शिक्षित नारी में आत्मविश्वास जागृत होता है। वह रुढ़ परम्पराओं और कुसंस्कारों को त्याग कर, अपने पैरो पर खड़ी होती है और अपने सम्मान तथा अस्तित्व की रक्षा करती है।
शिक्षित नारी में सभी परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति होती है। स्वियाँ रोजगार कर सकती है और अपने घर की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बना सकती है। अत: नारी के लिये पूर्णतः सुशिक्षित होना अत्यंत आवश्यक है। राष्ट्रनिर्माण के लिए नारी-शिक्षा एक अनिवार्य शर्त है।
राष्ट्र-निर्माण में नारी का योगदान
रूपरेखा :
- भूमिका
- समाज निर्माण तथा
- राष्ट्र निर्माण में सहयोग
- उपसंहार।
राष्ट्रनिर्माण में सहयोग देना हर देशवासी का कर्त्तव्य है। राष्ट्र-निर्माण की प्रकिया आदिकाल से लेकर आज तक नारियों ने पुरुषों का साथ देकर, उसकी जीवन यात्रा को सफल बनाया है और उसके अभिशापों को स्वयं झेलकर अपने नैसर्गिक वरदानों से राप्ट्रीय जीवन में अक्षय शाक्ति का संचार किया है।
अपने-अपने राष्ट्रों के निर्माण में विश्वप्रसिद्ध महिला प्रधानमंत्रियों का योगदान इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। इस सन्दर्भ में भारत की भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, श्रीलंका की सिरीमावो भंडारनायके, वर्तमान राष्प्पति चाद्रका कुमारतुंगे, इजरायल की भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती गोल्डामायर और ग्रेट बिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती मागरेट थैचर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
नारी न हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर राष्ष्र के उत्थान में सक्रिय सहयोग दिया है। शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षिका बन उसने भारत को शिक्षित किया, साथ ही राजनीति के क्षेत्र में प्रधानमंत्री, विधायक, सांसद और मंत्री बन कर ख्याति पाई। न्याय के क्षेत्र में भी उसका योगदान कम नहीं है। हर न्यायालय में महिला वकील पाई जाती है। महिला न्यायाधीशों ने तो अपने जोखिम भरे, साहसपूर्ण और अद्भुत निर्णयों द्वारा समग्र राष्ट्र को चमत्कृत किया है।
कार्यरत् महिलाओं में प्रथम महिला वायु-सुरक्षा अधिकारी प्रेमा माथुर, पहली महिला छाताधारी सैनिक गीता घोष, पहली वायुयान पायलेट रूबी बनर्जी, अत्याधुनिक वायुयान की कमाण्डर सौदामिनी देशमुख, सुख्खा जादव और पहली ट्रेन ड्राइवर मुमताज काटावाला का नाम स्मरणीय है।
पहली भारतीय महिला आई०पी०एस० अधिकारी किरण बेदी ने अपने कार्यकाल में जेल में सुधार लायी, उसके लिये उन्हें मैंगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
भारत की प्रथम महिला डॉं. प्रेमा मुखर्जी और हदययरोग विशेषज्ञा डॉ. पद्मावती तथा दीन-दुखियों की सेविका मदर टेरेसा का नाम कभी भुलाया नहीं जा सकता।
आदिकाल से ही हम देखते हैं कि स्रियों ने देश के निर्माण में निरतर योगदान किया है और भविष्य में भी करती रहेंगी। घर समाज सभी जगह उन्होंने अपनी छवि को आलोकित किया है। शिक्षा का क्षेत्र हो अथवा वाणिज्य का, खेल का हो या संगीत का, ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है जहाँ ख्रियों ने अपनी विशिश्टता का परिचय न दिया हो। अत: हम कह सकते हैं कि राष्ट्र-निर्माण में नारी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है और रहेगा। महिलाओं का यह योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता।
धर्म और साम्रदायिकता
रूपरेखा :
- भूमिका
- भारत में विविध धर्म
- विविध सम्पदाय
- उपसंहार ।
जावन को सुचारु रूप से संचालित करने वाले श्रेष्ठ सिद्धान्तो का समूह धर्म कहलाता है। समस्त मानवीय व्यवहारों का श्रेयस्कर पक्ष ही धर्म है। धर्म व्यक्ति का सहज स्वभाव है, कर्त्तव्य है। अत: धर्म का क्षेत्र व्यापक है।
अपने धर्म के प्रति अटूट आस्था, विश्वास तथा श्रद्धा समर्पित करना साम्प्रदायिकता नहीं, बल्कि दूसरे धर्मों के प्रात असहिष्णुता का भाव ही साम्पदायिकता है। सत्य पर सभी धर्मो का समान अधिकार है, लेकिन जब एक धर्म सत्य पर केवल अपना एकाधिकार स्थापित करना चाहता है तो वह सम्पदायिकता का रूप ले लेता है।
भारत में साम्प्रदायिकता की नई परिभाषा दी जा रही है। धर्म ने सम्पदाय का रूप ले लिया है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का अर्थ है, सर्वधर्म-समभाव का त्याग एवं अन्य धर्मों के प्रति अनुदारता एवं असहिष्णुता का प्रदर्शन।
हिन्दुओं का एक सिख सम्प्रदाय भारत में शांत भाव से जीवन-यापन कर रहा था। मगर राजनीतिक कारणों ने सिखों को उग्र बना दिया। पंजाब में निर्दोष हिन्दुओं की हत्या और आतंक के कारण वहाँ मरघट-सी शांति छा जाती थी। पराजित उग्रवादियों ने प्रधानमंत्री इदिरा गांधो तक की हत्या कर दी।
विश्व में मुस्लिम राष्ट्र धनाढ्य हैं, क्योंकि तेल-स्रोत पर यवनों का अधिकार है। वे अरबां रुपया हर वर्ष धर्म के नाम पर खर्च करते हैं।
दूसरा विश्व धर्म ईसाई है। ये सामूहिक धर्म-परिवर्तन में विश्वास करते हैं। हिन्दू जब जाप्रत हुए तो इस धर्म-परिवर्तन के विरोध में विद्रोह उठ खड़ा हुआ। जाति-उपजाति की साम्पदायिकता ने शूद्र और पिछड़ी जातियों मे संघर्ष और सवर्णों में आपस के संघर्ष को जन्म दिया। पिछड़ी जतियों को हर क्षेत्र में प्राथमिकता देकर वर्ग-संघर्ष की भावना को अंकुरित किया गया, जिसने साम्पदायिकता का रूप ले लिया। सवर्णों के परस्पर संघर्ष ने मिथ्या स्वाभिमान तथा झूठे अहम्को जन्म दिया। साम्पदायिकता की भावना इस युग में खूब फल-फूल रही है। कोई भी धर्म संकीर्णता और अनुदारता की वकालत नहीं करता, किन्तु कोई भी धर्मावलम्बी दूसरों के प्रति घृणा, अविश्वास और असहिष्णुता की भावना से मुक्त नहीं हैं।
साम्र्रायायक दंगों का कारण यही है। कहते सभी हैं-‘मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना’ मगर वैर-भावना से कोई मुक्त नहीं है।
नैतिकता का पतन साम्पदायिकता की वृद्धि में सहायक हुआ है। साम्र्रदायिकता से बचना है तो मानवता के महामंत्र का प्रचार होना चाहिए ।
एक कवि कहता है –
“मैं न बँधा हूँ देश-काल की जंग लगी जंजीर में । मैं न खड़ा हूँ जाति-पाँति की ऊँची-नीची भीड़ में । मेरा तो आराध्य आदमी, देवालय हर द्वार है । कोई नहीं पराया मेरा, घर सारा संसार है ।”
बढ़ती जनसंख्या – एक अभिशाप
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- भारत की जनसंख्या
- जनसंख्या वृद्धि के कारण
- जनसंख्या वृद्धि के दुष्घारणणाम
- समाधान के उपाय
- उपसंहार ।
प्रस्तावना :- भारत की अनेक समस्याओं में जनसंख्या की समस्या सबसे अधिक विकराल है। आजादी के बाद केवल इसी समस्या के कारण भारतवर्ष में गरीबी, बेरोजगारी तथा अन्य समस्याएँ आज तक सुलझ नहीं पाई हैं। भारत की जनसंख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है । यहाँ प्रत्येक मिनट सैंतालीस बच्चे पैदा होते हैं।
भारत की जनसंख्या :- आज विश्व का हर छठा नागरिक भारतीय है । चीन के बाद भारत की आबादी विश्व में सर्वाधिक है । एक अरब भारतीयों के धरती, खनिज और अन्य साधन वही हैं, जो आज से पाँच दशक पूर्व थे । लोगों के पास भूमि कम, आय कम और समस्याएँ अधिक बढ़ती जा रही हैं । बेरोजगारों, अशिक्षितों की संख्या बढ़ती जा रही है । बेरोजगारों की संख्या 6 करोड़ से अधिक हो गई है ।
जनसंख्या-वृद्धि के कारण :- जनसंख्या वृद्धि के अनेक कारण हैं। भारत की अधिकांश जनता प्रामों में निवास करती है । यहाँ लड़कियों को कम ही पढ़ाया जाता है । बेचारी कन्याएँ $14-15$ वर्ष की आयु में ही मातृत्व के बोझ से दब जानी हैं। गरीब लोग बच्चों को आय का स्रोत मानकर अधिक बच्चे पैदा करते हैं। इसीलिए देश की आबादी बढ़ती जाती है ।
जनसंख्या-वृद्धि के दुष्परिणाम :- जनसंख्या के बढ़ने से अनेक बुराइयों का जन्म होता है। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी ग्रामीण जनता में अंधविश्वासों का बोलबाला है । भारत में अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, रोग, भ्रष्टाचार, अनाचार आदि की समस्याएँ दिनों-दिन बढ़ती जा रही हैं । देश की जनसंख्या का अधिकांश भाग गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करता है । चारों ओर आलस्य, दरिद्रता, कलह, रोग, अनाचार, सांपदायिकता, भ्रष्टाचार, महंगाई, चोरी, डकैतियाँ, लूटपाट तथा अन्य असामाजिक एवम् आर्थिक बुराइयों का बोलबाला है ।
जनसंख्या-वृद्धि के कारण भारत की सारी योजनाएँ विफल हो जाती हैं। देश का उचित विकास नहीं हो पा रहा है। खुशहाली की जगह लाचारी बढ़ रही है । रोजगारी से पेरशान लोग हिंसा, उपद्रव और चोरी-डकैती करने लगते हैं । देश में अपराध बढ़ने लगते हैं तथा नैतिकता का पतन होता है, जिससे देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो जाती है तथा राष्ट्रीय चरित्र की क्षति होती है। अधिक संतान उत्पन्न करने से माँ तथा बच्चे का स्वास्थ्य बिगड़ता है और देश की कार्य-क्षमता एवं राष्ट्रीय आय में कमी आती है ।
समाधान के उपाय :- जनसंख्या-वृद्धि रोकना सबसे आवश्यक कदम है । प्रत्येक नागरिक अपने परिवार को नियोजित करे । केवल एक या दो बच्चे ही पैदा करे । लड़का-लड़की को समान दृष्टि से देखा जाए तो भी जनसंख्या पर नियंत्रण पाया जा सकता है । जन-संचार माध्यमों तथा समाज-सेवी संस्थाओं के माध्यम से परिवार-नियोजन का व्यापक प्रचार किया जा रहा है । लड़के-लड़की की विवाह की आयु बढ़ाकर क्रमश: 21 वर्ष तथा 18 वर्ष कर दी गई है । इस कानून के बाद भी अनेक स्थानों पर बाल-विवाह हो रहे हैं । परिवार-नियोजन के साधनों के उचित उपयोग से जन्म-दर को मनचाहे समय तक रोका जा सकता है।
भारत में परिवार-कल्याण का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है । हर्ष का विषय है कि भारतीय अब इसका महत्व समझने लगे हैं ।
उपसंहार :- परिवार-नियोजन के महत्व को अच्छी प्रकार समझ लेने पर ही देश की प्रगति सम्भव है । परिवारकल्याण के साथ ही देश-कल्याण भी जुड़ा है। प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह जनसंख्या वृद्धि की समस्या के प्रति सावधान हो तथा राष्ट्र-हित में परिवार-नियोजन को अपनाए । जनसंख्या की समस्या कानून द्वारा नहीं, अपितु जनजागरण तथा शिक्षा द्वारा हल करना संभव है ।
भ्रष्टाचार
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- भषष्टाचार की पृष्ठभूमि
- भष्टाचार के विविध रूप
- भष्टाचार के कारण
- भष्टाचार दूर करने के उपाय
- उपसंहार ।
प्रस्तावना :- भारत में स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद से ही भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया है। इस भ्रष्टाचाररूपी दानव ने सपूर्ण भारत को अपनी चपें में ले रखा है । भ्रष्टाचार आज केवल भारत की नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व की समस्या है। इस दानव से छुटकारा पाना ही आज संपूर्ण मानव समाज की समस्या बन चुकी है ।
भ्रष्टाचार का अर्थ :- भ्रष्टाचार का अर्थ है – भ्रष्ट आचरण । भ्रष्टाचार किसी की हत्या, मार-काट, लूट-पाट, हंरा-फेरी कुछ भी करा सकता है । भ्रष्टाचार ने अपने देश, जाति और समाज को अवनति के गड्ढे में ढकेल दिया है।
भ्रष्टाचार की पृष्ठभूमि :- भ्रष्टाचार का मूल रूप में उदय कहाँ से हुआ यह तथ्य तो स्पष्ट नहीं है, किन्तु यह स्पष्ट है कि स्वार्थ-लिप्सा इसकी जननी तथा भौतिक ऐश्वर्य की चाह इसका पिता है। पुरातन युग में दक्षिणा, मध्यकाल में भेंट तथा आधुनिक काल में उपहार आदि सभी भ्रष्टाचार के विभिन्न रूप हैं।
भ्रष्टाचार के विविध रूप :- आज भारतीय जीवन का कोई क्षेत्र, सरकारी अथवा गैर-सरकारी, सार्वजनिक या निजी ऐसा नहीं जो भ्रष्टाचार से अछूता रहा हो । किंतु फिर भी हम इसे तीन प्रमुख वर्गों में विभक्त कर रहे हैं ।
(i) राजनैतिक भ्षष्टाचार :- यह भ्रष्टाचार का प्रमुख रूप है । भ्रष्टाचार के सारे रूप इसके ही संरक्षण में पनपते है । इसके अंतर्गत लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव जीतने के लिए अपनाया गया भ्रष्ट आचरण आता है ।
(ii) प्रशासनिक भ्रष्टाचार :- इसके अंतर्गत उच्च पदों पर आसीन सचिव, अधिकारी, कार्यालय अधीक्षक, अधिशासी अभययन्ता, पुलिस अधिकारी, बाबू, चपरासी सभी आते हैं। कितना भी कठिन कार्य हो पैसा हाजिर तो कार्य भी फटाफट हो जाता है ।
(iii) व्यावसयिक भ्रष्टाचार :- इसके अंतर्गत खाद्य पदार्थो में मिलावट, घटिया व नकली औषधियाँ-निर्माण, जमाखोरी, चोरी तथा अन्यान्य भ्रष्ट तरीके देश तथा समाज को कमजोर बनाने के लिए अपनाए जाते हैं। मसालों में मिलावट, दाल-चावलों में पत्थर, घी में चर्बी, सरसों के तेल में अर्जीमोन की मिलावट, पैट्रोल में कैरोसीन की मिलावट आदि व्यावसायिक भ्रष्टाचार के अंतर्गत ही आते हैं ।
भ्रष्टाचार के कारण :- भ्रष्टाचार के इतने अधिक फैलने के कारण हैं-यथा राजा तथा प्रजा। जब आज के नेता तथा प्रशासक सभी भ्रष्ट हैं तो अधीनस्थ कर्मचारी भी जी भर कर भ्रष्टाचार में डूबे रहते हैं। पैसा सभी को प्रिय होता है। बहती गंगा में सभी हाथ धो रहे हैं।
भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय :- भ्रष्टाचार दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं :-
(i) भारतीय संस्कृति की ओर ध्यान आकृष्ट करना :- संस्कृत और देशी भाषाओं का शिक्षण अनिवार्य करना आवश्यक है । इससे जीवन के मूल्य दृढ़ तथा पोषक बनेंगे । लोग धर्म-भीरु बनेंगे तथा दुराचार से घृणा करेंगे । टी.वी. पर भारतीय संस्कृति का प्रचार होना चाहिए ।
(ii) चुनाव -प्रक्रिया को बदलना :-भ्रष्टाचार को हटाने के लिए वर्तमान चुनाव-पद्धति में परिवर्तन आवश्यक है । जनता ईमानदार प्रत्याशियों को विजयी बनाए । चुनाव आयोग तथा राजनीतिक दलों को मिलकर ऐसे नियम बनाने चाहिए कि स्वच्छ छवि वाले तथा शिक्षित लोग ही चुनाव लड़ सकें तथा उनके चुनाव का पूरा खर्च सरकार को वहन करना चाहिए । इससे चुनावी भ्रष्टाचार मिट सकता है । राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले धन पर पाबन्दी लगनी चाहिए ।
(iii) कर-प्रणाली में सुधार :-सरकार अनेक प्रकार के करों को समाप्त कर तीन या चार आवश्यक करें ही जनता पर लगाए और कर-प्रणाली को इतनी सरल बना दे कि सामान्य तथा अशिक्षित लोग भी वांछित कर आसानी से अदा कर सकें।
(iv) शासन -व्यय में कटौती :- शासन-व्यय में कटौती करके सबके सामने सादगी का आदर्श रखा जाए । भारतीय जीवन-पद्धति की यह विशेषता है कि वह हमेशा त्यागोन्मुखी रही है, इसलिए तड़क-भड़क तथा अनावश्यक व्यय में कटौती की जानी चाहिए।
(v) देश-भक्ति की भावना पैदा करना :- प्रत्येक नागरिक राष्ट्र को महान समझकर सदैव उसके गौरव को बनाए रखने के लिए तत्पर रहे ।
(vi) स्वदेश चिंतन अपनाना :- प्रत्येक भारतवासी को स्वदेशी वस्तुओं को ही क्रय करना है-ऐसी भावना प्रत्येक नागरिक में आनी चाहिए । इससे देश का धन देश में ही रहेगा तथा देश की समृद्धि बढ़ेगी ।
(vii) कठोर कानून बनाना :- कानून को इतना कठोर बना दिया जाए कि हर अपराधी को उसके अपराध की उचीत सजा मिल सके ।
(viii) सामाजिक बहिष्कार :- भ्रष्ट व्यक्ति का समाज से बहिष्कार किया जाए, उनके साथ रोटी-रोजी आदि किसी प्रकार का व्यवहार न किया जाए।
उपसंहार :- सदाचार रामबाण औषधि और परम धन है । आज हमारे देश में भ्रष्टाचार मिटाना है तो सदाचारी, सरल, सादगी-प्रिय लोगों का सादर अभिनंदन किया जाना चाहिए । इससे दुराचार मिटेगा तथा सदाचार की पुनः प्रतिष्ठा हो सकेगी । देश भी विकास के मार्ग पर प्रगति करता हुआ अग्रसर होगा।
भारतीय जीवन पर पाश्चात्य प्रभाव
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- पश्चिमी प्रभाव
- परिणाम
- उपसंहार ।
जब दो भिन्न सभ्यता-संस्कृतियाँ आमने-सामने अर्थात् सम्पर्क में आया करती हैं, तब वे दोनों सामान्य स्तर पर एकदूसरे का कुछ-न-कुछ प्रभाव भी अवश्य ही ग्रहण किया करते हैं । यह अलग बात है कि उनमें से जो दुर्बल और पराजित सभ्यता-संस्कृति हुआ करती है, वह सबल और विजेता संस्कृति का कुछ अधिक ही प्रभाव ग्रहण करती है। लेकिन जहाँ तक भारतीय जीवन, समाज और सभ्यता – संस्कृति का प्रश्न है ; इसमें तो पाश्चात्य प्रभाव ग्रहण करने में कमाल ही कर दिया है ।
भारतीय जन-समाज का ऐसा एक भी क्षेत्र अपनी सभ्यता-संस्कृति के तत्वों के लिए सुरक्षित रह पाया हो, ऐसा कहीं भूल से भी दिखाई नहीं देता । हमारी भाषा, हमारी वेश-भूषा, हमारा रहन-सहन, खान-पान और आम व्यवहार सभी कुछ इस सीमा तक पश्चिमी हो चुका है कि उसमें यदि कहीं कभी कुछ भारतीय दीख भी जाता है, तो वह बदरंग एवं बदरूप-सा, अजीब एवं अजनबी-सा प्रतीत होता है । उस सब में पहुँच कर लगने लगता है, जैसे हम अपने देश या घर में होकर कहीं विदेश में किसी पराए घर में आ गए हैं।
आज हम पश्चिम ही का खा-पी, पहन, ओढ़ और सभी कुछ कर रहे हैं। यहाँ तक कि हमारी संस्कृति की पहचान तक गायब हो गई है । उसमें पश्चिम के अपतत्त्वों का सम्मिश्रण इस सीमा तक हो चुका है कि खोजने की चेष्टा करने पर भी अपना कुछ नहीं मिल पाता । अपनी भाषाएँ तो अपनी रही ही नहीं, उनमें लिखे जा रहे साहित्य ने व्यक्त हो रहे भावविचार और वर्णित पर्यावरण तक उधार के लगते हैं। कला के अन्य किसी भी रूप में भारतीयता नहीं रह गई, बल्कि उसका भीतर-बाहर का सभी कुछ पश्चिमी रंग में रंग चुका है ।
पश्चिम ने भारत को जो आधुनिक ज्ञान-विज्ञान दिया है, एक राष्ट्रीयता एवं एक जातीयता की भावना दी है, उस सब के कारण हमें उस का आभारी भी होना चाहिए। आधुनिक प्रौद्योगिकी, तकनीक आदि देकर भी पश्चिम ने निश्चय ही हमें बहुत उपकृत किया है । काम के समय काम, विश्राम के समय विश्राम, आनन्द-मौज के समय आनन्द-मौज, अनेक तरह की अन्ध धारणाओं के प्रति अस्वीकार, राष्ट्रीय चरित्र और व्यवहार जैसा और भी कुछ अच्छा है पश्चिम में । लेकिन सखेद स्वीकार करना पड़ता है कि हम भारतीय उस अच्छे को अपनाने की तरफ ध्यान नहीं दे सके ।
भारतीय नारी पर पाश्चात्य प्रभाव
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- पश्चिमी अनुकरण
- उपभोक्ता सामग्री
- उपसंहार ।
पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति ने यों तो भारतीय जीवन और समाज के किसी भी अंग को अछूता नहीं रहने दिया ; पर लगता है कि भारतीय नारी-समाज, उसका प्रत्येक अंग उससे सर्वाधिक प्रभावित हुआ है । इसी कारण वह आज सर्वाधिक प्रताड़ित एवं प्रपीड़ित भी है । पाश्चात्य नारी समाज और उसकी सभ्यता-संस्कृति, पाश्चात्य शिक्षा और रीति नीतियों के प्रभाव से आज की नारी ने स्वतंत्रता तो प्राप्त कर ली है, पर सखेद स्वीकार करना पड़ता है कि उसने न तो स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ ही समझा है और न अनुशासन ही सीखा है ।
शिक्षा, स्वावलम्बन, आर्थिक स्वतंत्रता, घर से बाहर निकल कर जीवन-समाज को नेतृत्व दे पाने की क्षमता, घर की चार-दीवारी और चूल्हे-चौके तक ही अपने को सीमित न रख जीवन के किसी भी उद्योग-धंधे या व्यवसाय में अपनी दक्षता का परिचय देना जैसी अनके बातें भारतीय नारी ने पश्चिम से सीखी हैं। उन सभी बातों को शुभ परिणामदायक कहा जा सकता है । इस से भारतीय नारी के जीवन में नया आत्मविश्वास जागा है। उसे नये क्षितिजों के उद्घाटन करने में काफी सफलता प्राप्त हुई है ।
यह भी पश्चिम का ही प्रभाव है कि आज भारतीय नारी घूँघट के भीतर सिकुड़ी छुई मुई बनी रहने वाली नहीं रह गई, न ही वह कल की तरह पुरुषों को देख कर लज्जा से सिकुड़ कुमड़े की बेल-सी ही बनी रह गई हैं। आज वह धड़ल्ले से हर विषय पर, हर किसी के साथ बातचीत कर सकती है । वह पुरुषों की तरह एवरेस्ट की चोटी पर तो अपने पाँव रख ही आई है, चन्द्रलोक की यात्रा भी कर आई है। इन सभी बातों को भारतीय नारी-जीवन के लिए अच्छा एवं सुखद कहा जा सकता है ।
इन अच्छाइयों के साथ-साथ भारतीय नारी ने पश्चिम से कुछ ऐसी बातें भी सीखीं या ऐसे प्रभाव भी ग्रहण किए हैं, जिन्हें भारतीय सभ्यता-संस्कृति की दृष्टि से उचित एवं अच्छा नहीं माना या कहा जा सकता । उस तरह के पाश्चात्य प्रभावों ने नारी को एक प्रकार का चलता-फिरता मॉडल इशितहार या पोस्टर या फिर उपभोक्ता सामग्री बना कर रख दिया है । परम्परागत शब्दों में कहा जाए, तो एक बार फिर वह भोग्या मात्र बन कर रह गई है।
फैशन में अंधी आज की नारी ने आज अपना अंग-प्रत्यंग तक सभी कुछ उधाड़ कर रख दिया है । इस सीमा तक वह उघड़ने लगी है कि उस का सौन्दर्य भदेस, सुकुमारता माँस का लजीीज टुकड़ा और तन-बदन नग्न होकर अश्लीलता का प्रतिरूप-सा प्रतीत होता है । वह किसी भी तरह से अपने उपयोग करने देने के लिए तैयार हो जाती है कि जब उसे कड़क नोटों की खड़क या चमकीले सिक्कों की खनक सुन पड़ती है ।
कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि अभी तक तो भारतीय नारी न तो पूर्णतया पाश्चात्य ही बन पाई है और न अपने भारतीय स्वरूपाकार को ही निखार पाई है । वह एक ऐसे दोराहे पर पहुँच चुकी है, जहाँ से आगे किधर अच्छा या बुरा है ; वह न तो अभी तक समझ पा रही है और न निर्णय ही कर पा रही है ।
बाल-मज़दूर समस्या
अथवा,
बाल श्रमिक समस्या
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- मानवता के नाम पर कलंक
- दयनीय जीवन
- उपसंहार।
इब्ने इंशा की एक कविता का अंश –
यह बच्चा कैसा बच्चा है
जो रेत पे तनहा बैठा है
ना इसके पेट में रोटी है
ना इसके तन पर कपड़ा है
ना इसके पास खिलौनों में
कोई भालू है कोई घोड़ा है
ना इसका जी बहलाने को
कोई लोरी है, कोई झूला है ।
आज परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बन गई और बन रही हैं कि ऐसे बच्चे हर कहीं शहर हो या ग्राम, बाजार हो या मुहल्ला सब जगह देखने को मिल जाते हैं जिनके हाथ-पैर रात-दिन की कठिन मेहनत-मज़दूरी के लिए विवश होकर धूलधूसरित तो हो चुके होते हैं, अक्सर कठोर एवं छलनी भी हो चुके होते हैं। चेहरों पर बालसुलभ मुस्कान के स्थान पर अवसाद की गहरी रेखाएँ स्थायी डेरा डाल चुकी होती हैं।
फूल की तरह ताजा गन्ध से महकते रहने योग्य फेफड़ों में धूल, धुआँ, रोएँ-रेशे भरकर उसे अस्वस्थ एवं दुर्गन्धित कर चुके होते है । गरीबीजन्य बाल-मज़ूरी करने की विवशता ही इसका एकमात्र कारण मानी जाती है । ऐसे बाल मज़दूर कई बार तो डर, भय, बलात् कार्य करने जैसी विवशता के बोझातले दबे-घुटे प्रतीत हुआ करते हैं और कई बार बड़े बूढ़ों की तरह दायित्व-बोध से दबे हुए भी। कारण कुछ भी हो, बाल-मज़दूरी न केवल किसी एक स्वतंत्र राष्ट्र बल्कि समूची मानवता के माथे पर कलंक है ।
छोटे-छोटे बालक मज़दूरी करते हुए घरों, ढाबों चायघरों, छोटे होटलों आदि में तो अक्सर मिल ही जाते हैं, छोटीबड़ी फैक्टरियों के अस्वस्थ वातावरण में भी मज़दूरी का बोझ ढोते हुए दीख जाया करते हैं। कश्मीर का कालीन-उद्योग, दक्षिण भारत का माचिस एवं पटाखे बनाने वाला उद्योग ; महाराष्ट्र, गुजरात और बंगाल की बीड़ी-उद्योग तो पूरी तरह से टिका ही बाल-मज़दूरों के श्रम पर हुआ है ।
बाल-मज़दूरों का एक अन्य वर्ग भी है। कन्धे पर झोला लादे इस वर्ग के मजदूर इधर-उधर फिके हुए गन्दे, फटे, तुड़ेमुड़े कागज बीनते दिखाई दे जाते हैं या फिर पोलिथीन के लिफाफे तथा पुराने प्लास्टिक के टुकड़े एवं टूटी-चप्पलें-जूते आदि । कई बार गन्दगी के ढेरों को कुरेद कर उनमें से टिन, प्लास्टिक, लोहे आदि की वस्तुएँ चुनते, राख में कोयले के टुकड़े बीनते हुए भी इन्हें देखा जा सकता है । ये सब चुन कर कबाड़खानों पर जा कर बेचने पर इन्हे बहुत कम दाम मिल पाता है जबकि ऐसे कबाड़ खरीदने वाले लखपति-करोड़पति बन जाया करते हैं । बाल-मज़दूरों के इस तरह के और वर्ग भी हो सकते हैं।
आखिर में बाल-मजदूर आते कहाँ से हैं ? सीधा-सा उत्तर है कि एक तो गरीबी की मान्य रेखा से भी नीचे रहने वाले घर-परिवारों से आया करते हैं । फिर चाहे ऐसे घर-परिवार ग्रामीण हों या नगरीय झुग्गी-झोंपड़ पट्टियों के निवासी, दूसरे अपने घर-परिवार से गुमराह होकर आए बालक । पहले वर्ग की विवशता तो समझ में आती है कि वे लोग मज़दूरी करके अपने घर-परिवार के अभावों की खाई पाटना चाहते हैं । दूसरे उन्हें पढ़ने-लिखने के अवसर एवं सुविधायें ही नहीं मिल पाती ।
लेकिन दूसरे गुमराह होकर मज़ूरी करने वाले बाल-वर्ग के साथ कई प्रकार की कहानियाँ एवं समस्याएँ जुड़ी रहा करती हैं । जैसे पढ़ाई में मन न लगने या पनुतीर्ण हो जाने पर मार के डर से घर-परिवार से दूर भाग आना ; सौतेली माँ यामाता-पिता के सौतले एवं कठोर व्यवहार से पीड़ित होकर घर त्याग देना, बुरी आदतों और बुरे लोगों की संगत के कारण घरों में न रह पाना या फिर कामचोर होना आदि कारणों से घरों से भाग कर और नगरों में पहुँच कई बार अच्छे घर-परिवार के बालकों को भी विषम परिस्थितियों में मज़दूरी करने के लिए विवश हो जाना पड़ता है। और भी कई वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं।
देश का भविष्य कहे-माने जाने वाले बच्चों-बालकों को किसी भी कारण से मज़दूरी करनी पड़े, इसे मानवीय नहीं कहा जा सकता । एक तो घरों में बालकों के रह सकने योग्य सुविधाएँ-परिस्थितियाँ पैदा करना आवश्यक है, दूसरे स्वयं राज्य को आगे बढ़कर बालकों के पालन की व्यवस्था सम्हालनी चाहिए । सभी समस्या का समाधान सभ्वव हो सकता है ।
भिखारी-समस्या
अथवा,
भिक्षावृत्ति
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- कारण
- उपसंहार ।
भारत में, भारत की राजधानी दिल्ली में भी भीख माँगना कानूनी दृष्टि से अपराध है। स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ वर्ष बाद ही इस प्रकार के कानून का प्रावधान किया गया था कि जिस के अन्तर्गत भीख माँगना या मँगवाना दोनों को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया था । इस घोषणा के बाद ऐसे भिखारी-निरोधक घर भी बनाए गये थे कि जहाँ भीख माँगने वाले शरण पा सकें । वहाँ रह कर अपनी योग्यतानुसार कोई काम-धन्धा सीख कर बाहर आएँ और काम कर के अपना जीवन-यापन सम्मानपूर्वक कर सकें। लेकिन इस भारी कानून व्यवस्था का प्रावधान एवं कानून का प्रभाव बहुत ही कम समय तक रहा । धीरे-धीरे फिर उसी प्रकार, बल्कि पहले से भी कहीं अधिक, प्रत्येक स्थान पर भिखारियों की भीड़ बढ़ने लगी ।
ये भिखारी कहाँ से आते हैं, और इन के विरुद्ध कानून के रक्षक एवं ठेकेदार पुलिस वाले कोई कार्यवाही क्यों नहीं करते, ‘नवभारत टाइम्स’ को प्रकाशित रिपोर्ट में अच्छा प्रकाश डाला गया है। उसके अनुसार – ‘बच्चों को अगवा कर के, अनाथ बच्चों, बेसहारा औरतों, अपाहिजों को डरा-धमका कर भीख माँगने के लिए मजबूर करने वाले माफिया गैंग दिन-प्रतिदिन फल-फूल रहे हैं और इसके पोषण में पुलिस की भागीदारी भी समान रूप से है । दिल्ली के विभिन्न इलाकों में पुलिस का भिखारियों या इस व्यवसाय के माफिया गिरहों से हफ्ता तक बन्धा हुआ है।’ बहुत पहले स्व० श्रीमती महादेवी वर्मा ने एक चीनी भाई के संस्मरण में भी इस प्रकार के भीख मंगवानेवाले माफिया गिरोह का सजीव वर्णन किया है ।
दिल्ली-समेत प्रायः समस्त नगरों-महानगरों में ऐसे इलाके अवस्थित हैं कि जहाँ भीख माँगने का बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाता है । प्रशिक्षण के दौरान भिखारी जैसे रूप बनाना, विशेष दयनीय स्वर निकालना, हाथ-पैर हिलाकर करुणा उभार भीख देने को विवश कर देना आदि सभी कुछ सिखाया जाता है । अच्छे-भले लोगों और स्वस्थ बच्चों तक को अपाहिज बना कर भीख मंगवाई जाती है । बूढ़े-बूढ़ी अपनी असमर्थता जता कर, बच्चे वाली औरतें बच्चों के अनाथ होने और पालन का दायित्व निभाने जैसी बातें कह कर ऐसे हाव-भाव प्रदर्शित करती है, अनके तो हाथ धोकर पीछे ही पड़ जाती हैं कि कुछ देकर ही पीछा छुड़ाना संभव हो पाता है ।
देवी-देवताओं-विशेषकर शनि-मंगल और माता के नाम पर भी भीख माँगी जाती है। शनि-मंगल के चित्र लेकर और माता के भजन गाकर बच्चों-औरतों को चौराहों पर, बसों में भीख मांगते हुए अक्सर देखा जा सकता है, इस प्रकार भीख मांगने के अनेक तरीके हैं। भिखारी समस्या के अनेक रूप हैं ; क्योंकि अब लोग इन हथकण्डों को अक्सर समझने लगे है, इस कारण जो वास्तव में अपाहिज एवं बेसहारा होने के कारण भीख पाने के अधिकारी हैं, कई बार उन्हें भी वंचित रह जाना पड़ता है । यों किसी भी हालत में भीख मांगना अच्छा नहीं होता है ।
आधुनिक जीवन और कंप्यूटर
अयवा,
आधुनिक यंत्र-पुरुष-कंप्यूटर
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- कंप्यूटर की परिभाषा
- कंप्यूटर के उपयोग
- कंप्यूटर और मानव-मस्तिष्क
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- गत कुछ वर्षो से कंप्यूटर की चर्चा जोर-शोर से सारे विश्व में हो रही है । देश को कंप्यूटरकृत करने के प्रयास किए जा रहे हैं। अनेक उद्योग-धंधों और संस्थानों में कंप्यूटर का प्रयोग होने लगा है । कंप्यूटरों के उन्मुक्त आयात के लिए देश के द्वार खोल दिए गए हैं ।
कंप्यूटर क्या है ? :- हमारे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन पर छा जाने वाला कंप्यूटर एक ऐसा यांत्रिक मस्तिष्क है, जिसमें विभिन्न गणित संबंधी सूत्रों और तथ्यों के संचालन का कार्यक्रम पहले ही समायोजित कर दिया जाता है । इसके आधार पर कंप्यूटर न्यूनतम समय में गणना कर तथ्यों को प्रस्तुत कर देता है । कंप्यूटर का हिंदी नाम ‘संगणक’ है ।
चार्ल्स वेबेज पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 19 वीं शताब्दी के प्रारंभ में पहला कंप्यूटर बनाया था । वह कंप्यूटर लम्बी गणनाएँ कर सकता था और उनके परिणामों को मुद्रित कर देता था । कंप्यूटर स्वयं ही गणना करके जटिल-से-जटिल समस्याओं के हल मिनटों और सेकेण्डों में निकाल सकता है ।
कम्य्यूटर के उपयोगों को इन शीर्षकों में बाँटकर देखा जा सकता है –
बैंकिंग के क्षेत्र में :- भारतीय बैंक में खातों के संचालन और उनका हिसाब-किताब रखने के लिए कंप्यूटर का प्रयोग आरम्भ हो चुका है। प्राय: सभी राष्ट्रीयकृत बैंको ने चुंबकीय संख्याओं वाली पास बुक जारी की है ।
प्रकाशन के क्षेत्र में :- समाचार-पत्रों तथा पुस्तकों के प्रकाशन में कंप्यूटर का विशेष योगदान है। अब तो कंप्यूटर से संचालित फोटो कम्पोजिंग मशीन के माध्यम से छपने वाली समग्री को टंकित किया जा सकता है । कंप्यूटर में संचित होने के बाद सारी सामग्री एक छोटी चुंबकीय डिस्क पर अंकित हो जाती है । फोटो कंपोजिंग मशीन इस डिस्क के अंकीय संकेतों को अक्षरीय संकेतों में बदल देती है जिससे उनका मुद्रण हो सके ।
सूचना और समाचार-प्रेषण के क्षेत्र में :- दूरसंचार की दृष्टि से भी कंप्यूटर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है । अब तो ‘कंप्यूटर नेटवर्क’ के माध्यम से देश के प्रमुख नगरों को एक-दूसरे से जोड़ने की व्यवस्था की जा रही है ।
डिजायनिंग के क्षेत्र में :- प्राय: ऐसा माना जाता है कि कंप्यूटर अंको और अक्षरों को ही प्रकट कर सकते हैं । आधुनिक कंप्यूटर के माध्यम से भवनों, मोटर-गाड़यों, हवाई जहाजों आदि के डिजाइन तैयार करने में कंप्यूटर ग्राफिक का प्रयोग हो रहा है ।
कला के क्षेत्र में :- कंप्यूटर अब कलाकार या चित्रकार की भूमिका भी निभा रहे हैं। अब कलाकार को न तो कैनवास की आवश्यकता है न रंग की, न बुशों की । कप्यूटर के सामने बैठा कलाकार अपने ‘नियोजित प्रोप्राम’ के अनुसार स्कीन पर चित्र बनाता है और स्कीन पर निर्मित यह चित्र प्रिंट की ‘कुँजी’ (Key) दबाते ही प्रिंटर द्वारा कागज पर अपने उन्हीं वास्तविक रंगों के साथ प्रिंट हो जाता है ।
रेलवे के क्षेत्र में :- कंप्यूटर द्वारा रेलवे संपूर्ण देश के संपर्क में रहता है । कंप्यूटर से आप कहीं से कहीं तक का भी आरक्षण करा सकते हैं, उस आरक्षण को कहीं पर भी रद्द करा सकते हैं।
वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में :- कंप्यूटरों से वैज्ञानिक अनुसंधान का स्वरूप ही बदलता जा रहा है । अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में कंप्यूटर ने क्रान्ति पैदा कर दी है । उसके माध्यम से अंतरिक्ष के व्यापक चित्र उतारे जा रहे हैं तथा इन चित्रों का विश्लेषण भी कंप्यूटर के माध्यम से हो रहा है। आधुनिक वेधशालाओं के लिए कंप्यूटर सर्वाधिक आवश्यक हो गए हैं।
औद्योगिक क्षेत्र में :- विशाल कारखानों में मशीनों के संचालन का कार्य अब कंप्यूटर द्वारा किया जा रहा है। कंप्यूटरों से जुड़कर रोबोट ऐसी मशीनों का नियंग्रण कर रहे हैं, जिनका संचालन मानव के लिए अत्यधिक कठिन था। भयंकर शीत और जला देनेवाली गर्मी भी उन पर कोई प्रभाव नहीं डालती ।
युद्ध क्षेत्र में :- वस्तुत: कंप्यूटर का अविष्कार युद्ध के एक साधन के रूप में ही हुआ था। अमेरिका में जो पहला इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटर बना था, उसका उपयोग एटम-बम से संबंधित गणनाओं के लिए ही हुआ था। जर्मन सेना के गुप्त संदेशों को जानने के लिए अंग्रेजों ने कोलोसस’ नामक कंघ्यूटर का प्रयोग किया था । अमेरिका की स्टार-वार्स योजना कंप्यूटरों के नियन्त्रण पर ही आधारित हैं।
कंप्यूटर और मानव-मस्तिष्क :- प्राय: मन में यह प्रश्न उठता है कि कंप्यूटर और मानव-मस्तिष्क में श्रेष्ठ कौन है ? मानव-मस्तिष्क की अपेक्षा कंप्यूटर समस्याओं को बहुत कम समय में हल कर सकता है, किंतु वह मानवीय संवेदनाओं, अभिरुचियों और चिन्तन से रहित यंत्र-पुरुष है। कंप्यूटर केवल वही कार्य कर सकता है जिसके लिए उसे निर्देशित (Programmed) किया गया हो ।
उपसंहार :- भारत तीव्र गति से कंप्यूटर-युग की ओर बढ़ रहा है । हम अपना जीवन कंप्यूटर के हवाले करते जा रहे हैं । कंप्यूटर द्वारा विदेशों में बैठे मित्रों से पत्र-व्यवहार हो रहा है, परीक्षा-परिणामों की जानकारी ले रहे हैं। कंप्यूटर हमें बोलना, व्यवहार करना, जीवन को जीने का ढंग, मित्रों से मिलना, उनके विषय में ज्ञान प्राप्त करना आदि सब कुछ बताएगा । कुल मिलाकर कह सकते हैं कि कंप्यूटर द्वारा हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग दिया जा रहा है । अब कंप्यूटर हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग बन चुका है ।
वृक्षारोपण
अथवा,
वृक्षारोपण : सांस्कृतिक दायित्व
रूपरेखा :
- पस्तावना
- वृक्षों का महत्व
- वृक्षों के प्रति मानव की निर्दयया
- सांस्कृतिक दायित्व
- उपसंहार।
वृक्षारोपण का सामान्य अर्थ है – वृक्ष लगाना। प्रयोजन है – वन-सम्पदा के रूप में प्रकृति से हमें जो कुछ भी प्राप्त होता आ रहा है, वह नियमपूर्वक हमेशा आगे भी प्राप्त होता रहे ; ताकि हमारे जीवन-समाज का सन्तुलन, हमारे पर्यावरण की पवित्रता और सन्तुलन नियमित बने रह सकें। वृक्षारोपण करना एक प्रकार का सहज सांस्कृतिक दायित्व स्वीकार किया गया है ।
वृक्षारोपण मानव-समाज का सांस्कृतिक दायित्व है, इसे अन्य दृष्टि से भी देखा और प्रमाणित किया जा सकता है । मानव सभ्यता का उदय और आरम्भिक आश्रय प्रकृति यानि वन-वृक्ष ही रहे हैं। उसकी सभ्यता-संस्कृति के आरम्भिक विकास का पहला चरण भी वन-वृक्षों की सघन छाया में ही उठाया गया। यहाँ तक कि उसकी समृद्धतम साहित्य-कला का सृजन और विकास ही वनालियों की सघन छाया और प्रकृति की गोद में ही सम्भव हो सका, यह एक पुरातत्व्व एवं इतिहास-सिद्ध बात है ।
प्राचीन काल में हरे वृक्ष को काटना पाप समझा जाता था, सूखे वृक्ष भले ही घरेलू उपयोग के लिए काटे जाते थे । कदम्ब वृक्ष को भगवान कृष्ण का प्रिय समझकर श्रद्धा दी जाती थी। अशोक का वृक्ष शुभ और मंगलदायक माना जाता था। तभी तो सीता ने अशोक वृक्ष से प्रार्थना की थी – “तस अशोक मम करहु अशोका।” यह था प्राचीन भारत में वन संम्पदा का महत्व। आरम्भ में ग्रन्थ लिखने के लिए कागज के समान जिस सामग्री का प्रयेा किया गया, वे भूर्ज या भोजपत्र भी तो विशेष वृक्षों के पत्ते ही थे। संस्कृति की धरोहर माने जाने वाले कई ग्रन्यों की भोजपत्रों पर लिखी गई पाण्डुलिपियाँ आज भी कहीं-कहीं उपलब्ध हैं। सांस्कृतिक भाव धारा की बुनियाद ही जब वन-वृक्षों की छाया में रखी गई और विकास कर पाई, तब यदि वृक्षारोपण को एक सांस्कृतिक दायित्व कहा-माना जाता है, तो यह उचित ही है ।
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ होने से पहले तक देश में आरक्षित-अनारक्षित सभी तरह के वृहद वनों की भरमार रही परन्तु बीसवीं शती के स्वार्थान्ध मानव ने वनों का दोहन कर के धन कमाने का मार्ग तो अपना लिया, पर नए वृक्षारोपण के दायित्व को कतई भुला दिया। इसी कारण आज मानव-सभ्यता को पर्यावरण-सम्मन्धी कई तरह की समस्याओं से दोचार होना पड़ रहा है।
जो हो, अभी भी बहुत देर नहीं हुई है । अब भी निरन्तर वृक्षारोपण और उनके रक्षण के सांस्कृतिक दायित्व का निर्वाह कर सृष्टि को अकाल भावी-विनाश से बचाया जा सकता है । व्यक्ति और समाज दोनों स्तरों पर इस ओर प्राथमिक स्तर पर ध्यान दिया जाना परम आवश्यक है।
प्रदूषण : समस्या और समाधान
अथवा,
प्रदूषण से मुक्ति के उपाय
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- प्रदूषण का अर्थ
- प्रदूषण के प्रकार
- प्रदूषण पर नियंत्रण
- उपसंहार ।
प्रस्तावना :- प्राचीनकाल से ही गंगाजल हमारी आस्था और हमारे विश्वास का प्रतीक इसी कारण से रहा है क्योंकि वह सभी प्रकार के प्रदूषणों से मुक्त था, किंतु आज अनियन्नित औद्योगिक वृद्धि के कारण अन्य नदियों की तरह गंगा भी प्रदूषित हो रही है । यदि प्रदूषण इसी प्रकार बढ़ता रहा तो गंगा तेरा पानी अमृत’ वाला मुहावरा निरर्थक हो जाएगा ।
प्रदूषण का अर्थ :- विकास और व्यवस्थित जीवन-क्रम के लिए जीवधारियों को संतुलित वातावरण की आवश्यकता होती है । संतुलित वातावरण में प्रत्येक घटक एक निश्चित मात्रा में उपस्थित रहता है। कभी-कभी वातावरण में एक अथवा अनेक घटकों की मात्रा कम अथवा अधिक हो जाया करती है अथवा वातावरण में अनेक हानिकारक घटकों क प्रवेश हो जाता है। फलत: वातावरण दूषित हो जाता है, जो जीवधारियों के लिए किसी-न-किसी रूप में हानिकारक सिद्ध होता है । इसे ही प्रदूषण कहते हैं ।
प्रदूषण के प्रकार :- प्रदूषण की समस्या का जन्म जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ हुआ है। विकासशील देशों में औद्योगिक एवं रासायनिक कचरों ने जल, वायु तथा पृथ्वी को भी प्रदूषित किया है।
विकसित एवं विकासशील सभी देशों में निम्न प्रकार के प्रदूषण विद्यमान हैं :-
वायु-प्रदूछण :- वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसें एक विशेष अनुपात में विद्यमान हैं, अपनी क्रियाओं द्वारा जीवधारी वायुमंडल में ऑक्सीजन और कार्बन-डाई-आक्साइड छोड़ते रहते हैं । प्रकाश की उपस्थिति में हरे पौधे प्रकाश-संश्लेषण क्रिया द्वारा कार्बन-डाई-ऑक्साइड को ग्रहण करते हैं तथा ऑक्सीजन छोड़ते हैं । इस प्रकार ऑक्सीजन और कार्बन-डाई-ऑक्साइड, नाइट्रोजन-ऑक्साइड, कार्बन-मोनो-ऑक्साइड, सल्फर-डाई-ऑक्साइड तथा सिलिकॉनटेट्राफ्लोराइड मुख्य हैं।
जल-प्रदूषण :- सभी जीवधारियों के लिए जल अत्यंत महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। पौधे अपना भोजन जल में घुली हुई अवस्था में ही प्राप्त करते हैं। जल में अनेक प्रकार के खनिज तत्व, कार्बनिक-अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें घुली रहती हैं । यदि जल में ये पदार्थ आवश्यकता से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाते हैं, तो जल प्रदूषित होकर हानिकारक हो जाता है।
ध्वनि प्रदूषण :- अनेक प्रकार के वाहनों, जैसे-कार, स्कूटर, मोटर, जेट विमान, ट्रैक्टर आदि तथा लाउडस्पीकर, बाजे, कारखानों के सायरन और मशीनों से भी ध्वनि-प्रदूषण होता है । अधिक तेज ध्वनि से मनुष्य की सुनने की शक्ति भी कम हो जाती है तथा उसे ठीक प्रकार से नींद नहीं आती, यहाँ तक कि कभी-कभी पागलपन का रोग भी उत्पन्न हो जाता है ।
रासायनिक प्रदूषण :- प्राय: कृषक अधिक पैदावार के लिए कीटनाशक और रोगनाशक दवाइयों तथा रसायनों का प्रयोग करते हैं। इनका स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है । जब ये रसायन वर्षा के जल के साथ बहकर नदियों द्वारा सागर में पहुँच जाते हैं तो, ये वहाँ रहने वाले जीवों पर घातक प्रभाव डालते हैं । इतना ही नहीं मानव-देह पर भी इसका प्रभाव पड़ता है ।
रेडियोधर्मी प्रदूषण :- परमाणु शक्ति उत्पादन केंद्रों तथा परमाणविक परीक्षण से भी जल, वायु तथा पृथ्वी का प्रदूषण होता है, जो देश की वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ भावी पीढ़ी के लिए भी खतरनाक है । परमाणु विस्फोट के स्थान पर तापक्रम इतना अधिक बढ़ जाता है कि धातु भी पिघल जाती है । पोखरण में परमाणु परीक्षण के समय भारत में भी ऐसा ही हुआ था ।
प्रदूषण पर नियंत्रण :- पर्यावरण में होने वाले प्रदूषण को रोकने तथा उसकी रक्षा के लिए गत वर्षों में सारे विश्व में एक चेतना पैदा हुई है । भारत सरकार ने 1947 ई० में ‘जल-प्रदूषण निवारण एवम् नियंत्रण अधिनियम’ लागू किया था । इसी के अंतर्गत एक केंद्रीय बोर्ड’ तथा सभी प्रदेशों में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड गठित किए गए हैं । इन बोर्डों ने प्रदूषणनियंत्रण की योजनाएँ तैयार की हैं।
उपसंहार :- सरकार प्रदूषण की रोकथाम हेतु निरन्तर प्रयास कर रही है । पर्यावरण के प्रति जागरुकता से ही हम भविष्य में और अधिक अच्छा स्वास्थ्य तथा जीवन जी सकेंगे तथा भविष्य में आने वाली पीढ़ी को प्रदूषण के अभिशाप से मुक्ति दिला सकेंगे ।
एड्सः एक चुनौती
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- एड्स की जानकारी
- एड्स के कारण
- एड्स से बचाव के उपाय
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- H.I.V. (एच. आई. वी.) अर्थात् एड्स (Aids) भारत और पूरी दुनिया के लिए एक चुनौती बन चुका है । भारत में आज करोड़ों लोग एच.आई. वी. से संकमित हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा उपलब्ध कराए गए आँकड़ों से पता चलता है कि दुनिया में 3 करोड़ 80 लाख वयस्क और करीब 15 लाख बच्चे एच. आई वी. की चपेट में आ चुके हैं । सन् 1991 में इसकी संख्या आधी थी । भारत में H.I.V. संक्कमित लोगों की अनुमानित संख्या 3.85 मिलियन है । महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र-प्रदेश, कर्नाटक, मणिपुर तथा नागालैंड में एक प्रतिशत से अधिक लोग H.I.V. संक्रमित हैं । इसने गत वर्ष विश्व में लगभग 30 लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिए । आज विश्व का प्रत्येक देश एड्स की चपेट में है।
एड्स का अर्थ :- ‘एड्स’ का पूरा अर्थ है –
- A-Acquired-एक्वायर्ड-प्राप्त किया हुआ ।
- I-Immuno (इम्युनो)-शरीर के रोगों से लड़ने की क्षमता ।
- D-Deficiency (डेफिसिएंसी)-कमी ।
- S-Syndrome (सिंड्रोम)-लक्षणों का समूह।
एड्स की जानकारी :- एड्स एक ऐसी भयंकर बीमारी है जो एच आई वी. (H.I.V.) नामक वायरस विषाणु के द्वारा फैलती है । ये वायरस अत्यंत सूक्ष्म तथा बीमारी पैदा करने वाले जीव हैं। इन्हें केवल अत्यंत शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यंत्र की सहायता से ही देखा जा सकता है ।H.I.V. वायरस के शरीर में प्रवेश करने के बाद मरीज की रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता समाप्त होने लगती है । इस प्रकार रोगी साधारण रोगों से मुकाबला नहीं कर पाता है । एच आई. वी. संक्रमण और एड्स के अंतर को आम व्यक्ति नहीं समझ पाता है। एच. आई. वी. संक्रमण उसे कहते हैं जब वायरस शरीर के अंदर प्रवेश कर जाता है । तब वह व्यक्ति एच आई. वी. सक्रमित व्यक्ति कहलाता है तथा ऐसे व्यक्ति को 7 से लेकर 10 वर्षों तक कोई बीमारी नहीं होती । वह दूसरे लोगों की तरह सामान्य नज़र आता है । इसके बाद वह संक्रमित व्यक्ति एड्स की बीमारी से घिर जाता है । एक बार शरीर में वायरस प्रवेश कर जाए तो फिर इस बीमारी से मुक्ति सम्भव नहीं है ।
एड्स के कारण :- एड्स रोग मूल रूप से एक यौन रोग है । इसके प्रमुख कारण हैं –
(अ) एच.आई. वी. ग्रस्त व्यक्ति के साथ शारीरिक संबंध रखने से । यौन संबंधों से यह रोग संक्रमिक पुरुष से महिला को, संक्रमित महिला से पुरुष को तथा संक्रमित पुरुष से पुरुष को हो सकता है ।
(ब) डॉक्टरों द्वारा प्रदूषित सुइयों का प्रयोग करने से, मादक पदार्थों का सेवन करने वालों द्वारा दूषित सुइयों के प्रयोग से, शरीर पर गुदाई करने वालों द्वारा अस्वच्छ औजारों का प्रयोग करने से तथा संक्रमित व्यक्ति के रेजर से बाल अथवा दाढ़ी बनाने से ।
एड्स से बचाव के उपाय :- सरकार विभिन्न संचार माध्यमों के द्वारा जनता को एड्स की जानकारी दे रही है । एड्स के सामान्य लक्षणों की जानकारी सभी को होनी चाहिए । एड्स के रोग से प्रस्त रोगी का वजन निरंतर कम होता जाता है । उसकी गर्दन, बगल अथवा जांघों की ग्रंथियों में सूजन आ जाती है । उसे लगातार बुखार भी रहता है। मुँह तथा जीभ पर सफेद चकत्ते पड़ जाते हैं, लेकिन इन लक्षणों का अर्थ यह नहीं है कि ऐसे लक्षणों वाले सभी व्यक्तियों को एड्स ही है ।
तपेदिक रोग में भी ऐसे लक्षण हो सकते हैं । एड्स रोग का निदान एलिसा टेस्ट(Elisa Test) तथा वेस्टर्न ब्लॉट (Western Blot) नामक रक्त जाँच से किया जाता है । लाल रिबन एड्स का अंतर्राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न है। प्रतिवर्ष एक दिसम्बर को विश्व एड्स दिवस मनाया जाता है । इस दिन सभी लोग एड्स का अंतर्राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न पहनकर एड्स के विरुद्ध अपनी मुहिम चलाते हैं। एक दिसम्बर (विश्व एड्स दिवस) विश्व के सभी देशों के बीच आपसी विश्वास, करुणा, समझ और एकजुटता विकसित करने का संदेश देता है। एड्स के विरुद्ध विश्वव्यापी अभियान का प्रारंभ 1977 ई० से हुआ है । सभी देशों की यही धारणा है कि विश्व के लोग इस बीमारी की गंभीरता को समझें। संयुक्त राष्ट्र संग ने एक दिसंबर को ‘विश्व एड्स दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की है ।
उपसंहार :- याद रहे अभी तक इसका कोई इलाज नहीं है, कोई दवा नहीं है । अत: इससे बचाव हेतु इसकी पूर्ण जानकारी जनता को होनी चाहिए । एड्स की जानकारी में ही बचाव है । व्यक्ति को रक्त चढ़वाते समय, इंजेक्शन लगवाते समय, नाई से बाल कटवाते समय नई सुई तथा ब्लेड का प्रयोग करना चाहिए। ऐसी जानकारी जनता को हो तथा वह शारीरिक संबंधों में सतर्कता रखें तो एड्स नहीं फैलेगा तथा सभी भारतवासी अथवा विश्व के लोग दुश्चिन्ताओं से मुक्तर रहेंगे ।
इण्टरनेट और विश्व गाँव की संकल्पना
(गलोबलाइजेशन)
रूपरेखा :
- भूमिका
- कम्प्यूटर के माध्यम से समय विश्व और गाँव को जोड़ने का प्रयास।
- इण्टरनेट की लोकपियता
- उपसंहार।
भौगोलिक सीमाओं से आबद्ध व्यक्ति सूचना प्रौद्योगिकी और संचार प्रौद्योगिकी के सदुपयोगी संगम से एक सुगम व्यवस्था की ओर अग्रसर हो रहा है । यह व्यवस्था अपने विस्तृत आलिंगन से समूचे वसुधा को समेट रही है । वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी विकास के इस परिर्रेक्ष्य में इस पृथ्वी पर प्रत्येक व्यक्ति दूर-दराज के क्षेत्र में स्थित दूसरे व्यक्तियों से बौद्धिक सम्पर्क स्थापित कर रहा है। सप्ट्त: मानवीय सम्बन्ध एक आशाजनक उज्जवल परिवर्तन की स्थिति से गुजर रहा है। कम्प्यूटर के माध्यम से सूचना के राजमार्ग इण्टरनेट पर चलकर समस्त मानव-जाति एकीकरण के लिए प्रयत्नशील है ।
मानव-जीवन की सभी गतिविधियां यथा – राजनीतिक, व्यापारिक, सांस्कृतिक आदि इलेक्ट्रॉनिक सुविधाओं से लाभान्वित हो रही हैं। नेटवर्क के इस विशाल पर्यावरण में कोई सीमा नहीं। कोई सरहद नहीं, कोई बंधन नहीं। विचारकों का उन्मुक्त संचालन-प्रसारण विश्व ग्राम योजना का प्रमुख चरित्र है और इण्टरनेट इसकी सम्पूर्ण व्यवस्था है। इण्टरनेट व्यवस्था के अन्तर्गत लाखों-करोड़ों कम्यूटरों का संजाल बनता जा रहा है, जो सूचनाओं के आवागमन को सुलभ करता है ।
इसकी संरचना वस्तुतः प्रजातांत्रिक है, जो सूचना शक्ति को विकेन्द्रित करती है। दुनिया के किसी भी कोने में बैठा कोई भी व्यक्ति अपने कम्यूटर को इण्टरनेट से जोड़कर सूचना समाद् बन सकता है । इण्टेरनेट से जुड़ा कम्पूटर होस्ट कहलाता है। इस साम्राज्य में राजा व रंक सभी अपने होस्ट कम्प्यूटर से सूचनाओं का आदान-प्रदान कर सकते हैं। इण्टरनेट का जन्म शीत-युद्ध के गर्भ से अमेरिका में हुआ है।
1960 ई० में सोवियत संघ के परमाणु आक्रमण से चिंतित अमेरिकी सरकार ने एक ऐसी व्यवस्था की संरचना चाही, जिसमें अमेरिकी शक्ति किसी एक जगह पर केन्द्रित न रहे । विकेन्द्रित सत्ता वाले नेटवर्क से यह आशा थी कि शक्ति के बिखरे स्वरूप से उसे आक्रमण का शिकार होने से बचाया जा सकेगा । इस नेटवर्क में कम्यूटर शक्ति से सम्बन्धित समस्त सूचनाओं को संग्रहीत रखा जा सकेगा। इस प्रकार, कुछ कम्यूटरों के नष्ट हो जाने के बावजूद भी कुछ कम्पूटर, शेष कम्यूटर रक्षात्मक कदमों के लिए संग्रहीत सूचनाओं के साथ मार्गदर्शन करेंगे।
सत्तर के दशक में अमेरिका की रक्षा उन्नत अनुसंधान परियोजना एजेंसी ने अपने प्रयत्न में सफलता प्राप्त की और इस नेटवर्क का उदय हुआ । जो कम्पूटरों के बीच संयोजित पैकेट संजालों में सूचनाओं का आदान-प्रदान कराने लगा। ये अंतर-नैटिंग परियोजना परिक्कृत होकर इण्टरनेट के नाम से विख्यात हुई । अनुसंधान से विकसित प्रोटोकोल को नियंत्रण प्रोटोकोल (टी.सी. पी.) और इण्टरनेट प्रोटोकोल (आई.बी.) कहा गया । इण्टरनेट से सम्बन्धित दस्तावेजों के प्रकाशन और प्रोटोकल संचालन के लिए इण्टरनेट कारवाई बोर्ड होता है जो प्रयोक्ताओं को इण्टरनेट रजिस्ट्री डोमेन नेम और उसके द्वारा डाटाबेस का आबंटन और वितरण करता है ।
विश्व समाज प्रौद्योगिकी सुविधाओं का सदुपयोग सभी पारम्परिक दूरियाँ खत्म करने के लिए कर रहा है। व्यक्तिगत लाभ से लेकर जनकल्याण तक की दृष्टि से इण्टरनेट एक उपयोगी उपलब्धि के रूप में प्रकट हो रहा है । भविष्य में इण्टरनेट से जुड़ा विश्व समुदाय एक प्रजातांत्रिक वैज्ञानिक व्यवस्था में सूचना शक्ति का बराबर हकदार होगा। लेकिन कठिनाई उन विकासशील देशों के लिए होगी, जहाँ आधारभूत संरचना का अभाव है।
भारत जैसे देश में जहाँ अभी भी बिजली, पानी, टिकाऊ आवास, साक्षरता, स्वास्थ्य सुविधा, पोषक भोजन आदि की समस्या है, इलेक्ट्रॉनिक जीवन स्वपातीत हैं। गाँवों में सामुदायिक कम्यूटर के लिए भी निर्बाध बिजली की आवश्यकता होगी। ई-गवर्नेंस के लिए भी उचित वातावरण चाहिए । यह आवश्यक है कि सूचना क्रान्ति के इस लाभदायक क्षण में लाभान्वित हो रहा धनाद्य वर्ग अपने सामाजिक कर्त्त्यों का निर्वाह करे।
सष्ट है कि इण्टरनेट विश्व में सभी समुदायों से सम्बद्ध मामलों पर विचार-विमर्श के रूप में पूरी दुनिया में सूचना का कारगर प्रसारण बन सकता है। हम इण्टरनेट पर दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाले अपने मित्र से बातचीत कर सकते हैं। विभिन्न दुकानों में बिकने वाली वस्तुओं को देख सकते हैं और ऑर्डर दे सकते हैं। मण्डियों और शेयर बाजार पर नजर रख सकते हैं। अपने उत्पादन और सेवाओं का विज्ञापन कर सकते हैं।
इण्टरनेट पर हम न केवल अखबार पढ़ सकते हैं, बल्कि पुस्तकालयों से जरूरी सूचनाएं प्राप्त कर सकते हैं। दुनिया से हम सलाह मांग सकते हैं, और अपना विचार दुनिया के सामने रख सकते हैं। जिस प्रकार गाँव के अन्दर सूचना का आदान-प्रदान बड़ी तेजी से होता है, ठीक उसी प्रकार इण्टरनेट के द्वारा पूरे विश्व में कहीं से किसी कोने में सूचना तीव्र गति से दिया और लिया जा सकता है । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इण्टरनेट विश्व गाँव की संकल्पना को साकार कर सकता है।
इंटरनेट – वरदान या अभिशाप
भौगोलिक सीमाओं से आबद्ध व्यक्ति सूचना प्रौद्योगिकी और संचार प्रौद्योगिकी के सदुपयोगी संगम से एक सुगम व्यवस्था की ओर अग्रसर हो रहा है । यह व्यवस्था अपने विस्तृत आलिंगन से समूचे वसुधा को समेट रही है। वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी विकास के इस परिप्रेक्ष्य में इस पृथ्वी पर प्रत्येक व्यक्ति दूर-दराज के क्षेत्र में स्थित दूसरे व्यक्तियों से बौद्धिक सम्पर्क स्थापित कर रहा है। स्पष्टत: मानवीय सम्बन्ध एक आशाजनक उज्ज्वल परिवर्तन की स्थिति से गुजर रहा है । कम्यूटर के माध्यम से सूचना के राजमार्ग इण्टरनेट पर चलकर समस्त मानव-जाति एकीकरण के लिए प्रयत्नशील है ।
मानव-जीवन की सभी गतिविधियां यथा – राजनीतिक, व्यापारिक, सांस्कृतिक आदि इलेक्ट्रॉनिक सुविधाओं से लाभान्वित हो रही हैं । नेटवर्क के इस विशाल पर्यावरण में कोई सीमा नहीं । कोई सरहद नहीं, कोई बंधन नहीं । विचारों का उन्मुक्त संचालन-प्रसारण विश्व ग्राम योजना का प्रमुख चरित्र है और इण्टरनेट इसकी सम्पूर्ण व्यवस्था है। इण्टरनेट व्यवस्था के अन्तर्गत लाखो-करोड़ों कम्यूटरों का संजाल बनता जा रहा है, जो सूचनाओं के आवागमन को सुलभ करता है ।
इसकी संरचना वस्तुतः प्रजातांत्रिक है, जो सूचना शक्ति को विकेन्द्रित करती है। दुनिया के किसी भी कोने में बैठा कोई भी व्यक्ति अपने कम्प्यूटर को इण्टरनेट से जोड़कर सूचना सम्राट बन सकता है । इण्टेरनेट से जुड़ा कम्प्यूटर होस्ट कहलाता है। इस साम्राज्य में राजा व रंक सभी अपने होस्ट कम्यूटर से सूचनाओं का आदान-प्रदान कर सकते हैं । इण्टरनेट का जन्म शीत-युद्ध के गर्भ से अमेरिका में हुआ है । विश्व समाज प्रौद्योगिकी सुविधाओं का सदुपयोग सभी पारम्परिक दूरियाँ खत्म करने के लिए कर रहा है। व्यक्तिगत लाभ से लेकर जनकल्याण तक की दृष्टि से इण्टरनेट एक उपयोगी उपलब्धि के रूप में प्रकट हो रहा है ।
भविष्य में इण्टरनेट से जुड़ा विश्व समुदाय एक प्रजातांत्रिक वैज्ञानिक व्यवस्था में सूचना शक्ति का बराबर हकदार होगा । लेकिन कठिनाई उन विकासशील देशों के लिए होगी, जहाँ आधारभूत संरचना का अभाव है । भारत जैसे देश में जहाँ अभी भी बिजली, पानी, टिकाऊ आवास, साक्षरता, स्वास्थ्य सुविधा, पोषक भोजन आदि की समस्या है, इलेक्ट्रॉनिक जीवन स्वप्नातीत हैं । गाँवों में सामुदायिक कम्यूटर के लिए भी निर्बाध बिजली की आवश्यकता होगी । ई-गवर्नेंस के लिए भी उचित वातावरण चाहिए। यह आवश्यक है कि सूचना क्रान्ति के इस लाभदायक क्षण में लाभान्वित हो रहा धनाद्य वर्ग अपने सामाजिक कर्तव्यों का निर्वाह करे।
स्पष्ट है कि इण्टरनेट विश्व में सभी समुदायों से सम्बद्ध मामलों पर विचार-विमर्श के रूप में पूरी दुनिया में सूचना का कारगर प्रसारण बन सकता है। हम इण्टरनेट पर दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाले अपने मित्र से बातचीत कर सकते हैं । विभित्र दुकानों में बिकने वाली वस्तुओं को देख सकते हैं और ऑर्डर दे सकते हैं । मण्डियों और शेयर बाजार पर नजर रख सकते हैं । अपने उत्पाद और सेवाओं का विज्ञापन कर सकते हैं । इण्टरनेट पर हम न केवल अखबार पढ़ सकते हैं, बल्कि पुस्तकालयों से जरूरी सूचनाएं प्राप्त कर सकते हैं ।
दुनिया से हम सलाह मांग सकते हैं, और अपना विचार दुनिया के सामने रख सकते हैं। जिस प्रकार गाँव के अन्दर सूचना का आदान-प्रदान बड़ी तेजी से होता है, ठीक उसी प्रकार इण्टरनेट के द्वारा पूरे विश्व में कहीं से किसी कोने में सूचना तीव्र गति से दिया और लिया जा सकता है । इंटरनेट मनोरंजन का भी साधन है । इस पर विश्व की सारी गतिविधियाँ उपलब्ध हैं। अनेक खेल उपलब्ध हैं । मनचाही फिल्में, मनचाहे गाने, चैटिंग और तरह-तरह के सामान इसे लोकप्रिय बनाए हुए हैं। इंटरनेट व्यापार, बैंकिग, आजीविका, टिकटखरीद, होटल बुकिंग, खरीददारी आदि आवश्वक क्षेत्रों में भी हस्तक्षेप रखता है। वास्तव में इंटरनेट की भूमिका आज बहुमुखी हो गई है।
इंटरनेट केवल स्वर्ग के ही द्वार नहीं खोलता, इसकी परेशानियाँ भी अनंत हैं। सबसे बड़ी परेशानी यह है कि यह समय-खाऊ यंत्र है । यह उस भटकाऊ चौराहे की तरह है, जिसपर खड़े होकर आदमी अपना रास्ता भूलकर अन्य आकर्षक रास्तों को निहारने में खो जाता है। इंटरनेट से एक सूचना लेनी हो तो हजारों सूचनाएँ आकर हमें भूलभुलैया में डाल देती हैं। बड़ी मुस्किल से हम वांछित सूचना ले पाते हैं । इस कारण हमारा समय बहुत व्यर्थ चला जाता है ।
इंटरनेट की दूसरी बड़ी कमी यह है कि यह छोटे-बड़े का ख्याल रखे बगैर सारी खबरें, सारी सूचनाएँ, सारे दृश्य लोगों के सामने खोल देता है । अनेक अश्लील और नंगे दृश्य इस पर हमेशा उपलब्ध रहते हैं । इससे विश्व की अनेक मंस्कृतियों में खलल पड़ गया है। अपने बच्चों को हम कुमार्ग से बचाने के लिए जी-जान लगाया करते थे, इंटरनेट उसे हमारे घर में आकर ही परोस देता है। यह घर बैठे-बैठे रष्ट होने का साधन बन गया है।
इंटरनेट का एक बड़ा खतरा यह है कि इसके माध्यम से अनेक चोरियाँ होने लगी हैं। हमारे पते, बैंक-खाते, क्रेडिट कार्ड नंबर चोरी होने लगे हैं, जिसके कारण हमारे खातें से पैसे चोरी हो जाते हैं। एक बड़ा खतरा यह है कि हमारे मेल पर हजारों अवांछित संदेश आते हैं और वे हमारी दिनचर्चा में खलल डालते हैं। कभी-कभी ऐसा वायरस आ जाता है कि हमारी सारी सूचनाएँ नष्ट हो जाती हैं । इंटरनेट के खतरों से बचा जा सकता है। इसके लाभ इतने अधिक हैं कि आज इसके वरदानों से वंचित नहीं हुआ जा सकता।
दूरदर्शन (टेलिविज़न)
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- अविष्कार
- कार्य-पणाली
- उपयोगिता
- उपसंहार ।
दूरदर्शन आधुनिक विज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण विधा है मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा देने, जानकारी बढ़ाने, प्रचार और प्रसार का भी एक महत्वपूर्ण सशक्त माध्यम है । इस माध्यम में जैसे रेडियो और सिनेमा की श्रव्य-दृश्य विधियाँ मिल कर एक हो गई हैं। इसे बेतार-संवाद प्रेषण का अभी तक का सर्वोत्तम उपलब्ध वैज्ञानिक साधन माना जाता है । टेलफोन और रेडियो के आविष्कार के पहले तक जैसे आम आदमी ने कभी कल्पना तक नहीं की थी कि कभी वह दूर-दूराज़ स्थित लोगों की आवाज़ सुन कर उन्हें अपने समीप अनुभव कर सकेगा, उसी प्रकार बोलने वाले को कभी देख भी सकेगा, यह सोचना भी कल्पना से परे था। लेकिन दूरदर्शन के आविष्कार ने असम्भव या कल्पनातीत समझी जाने वाली उन सभी बातों को आज साकार एवं सम्भव कर दिखाया है ।
इस वैज्ञानिक चमत्कार यानि दूरदर्शन का आविष्कार सन् 1926 ई० में सम्भव हो पाया था। इस का आविष्कारकर्ता का नाम है जॉन एल० बेयर्ड। भारत में इस चमत्कारी दृश्य श्रव्य प्रसारण विधा का आगमन सन् 1964 ई० के बाद ही सम्भव हो पाया। भारत में पहले दूरदर्शन-प्रसारण केन्द्र की स्थापना सन् 1965 में ही हो पाई । धीरे-धीरे इसका प्रचलन और प्रसारण इस सीमा तक बड़ा कि आज दूर-पास सर्वन्त इसे देखा-सुना जा सकता है । राजभवन से लेकर झोंपड़ी तक में यह पहुँन चुका है। पहले इस का श्वेत-श्याम स्वरूप ही प्राप्त था, जबकि आज भारत-समेत सारे विश्व में दूरदर्शन रंगीन दुनिया में प्रवेश कर चुका है ।
आजकल भारत में उपग्रह की सहायता से दूरदर्शन के कार्यक्रम देश के प्रत्येक कोने में सरलता से पहुँचने लगे हैं। अब तक डेढ़-दो दर्जन तक प्रसारन केन्द्र तथा सैंकड़ों रिले केन्द्र स्थापित हो चुके हैं। दूरदर्शन-ट्राँसमिशन की संख्या भी दिन-प्रतिदिन लगातार बढ़ती ही जा रही है। आधुनिक विज्ञान ने टेलिविजन का प्रयोग भिन्न-भिन्न दिशाओं में सम्भव बना दिया है । दूरदर्शन अन्तरिक्ष-विज्ञान की भी कई तरह से सहायता कर रहा है। सुदूर ग्रहों की जानकारी इस के कैमरे सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। कृत्रिम उपग्रह अन्तरिक्ष में भेजने और वहाँ उन पर नियंत्रण रखने के कार्य में भी दूरदर्शन बड़ा सहायक सिद्ध हो रहा है ।
दूरदर्शन तरह-तरह के मनोरंजन का एक सर्वसुलभ घरेलू साधन है ही, इससे, शिक्षा के प्रचार-प्रसार, निरक्षरता हटाने जैसे कायों में भी पर्याप्त सहायता ली गई और ली जा रही है । विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को शिक्षा के साथ-साथ किसानों को कृषि कायों को शिक्षा के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है । इसी प्रकार दूरदर्शन प्रचार-प्रसार का भी अच्छा माध्यम है। सो स्वास्थ्य-सुधार, जनसंख्या-नियंत्रण, शिशु-संवर्द्धन-रक्षा जैसे कार्य भी यह कर रहा है । और भी कई प्रकार के घरेलू तथा व्यावसायिक शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए इस का व्यापक प्रयोग किया जा रहा है। देश-विदेश के समाचारों की दृश्य-श्रव्य योजना, समाचार-समीक्षा, गोष्ठियाँ, वार्ताएँ, कवि-सम्मेलन-मुशायरे, प्रदर्शानियाँ और तरह-तरह के उत्पादों के विज्ञापन जैसे अनेक कार्य इस से लिए जा रहे हैं।
इस प्रकार सषष्टै कि आज दूरदर्शन हमारे व्यापक जीवन का एक व्यापक एवं व्यावहारिक अंग बन चुका है। हाँ, अपसंस्कृति के प्रचार का माध्यम बनने से इसे रोकना आवश्यक है, नहीं तो देश-काल के अनुरूप इस की वास्तविक उपयोगिता व्यर्थ हो कर रह जाएगी ।
कम्प्यूटर : मशीनी मस्तिष्क
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- कम्यूटर-प्रणाली
- उपयोगिता
- उपसंहार ।
आधुनिक ज्ञान-विज्ञान ने किस सीमा तक प्रगति एवं विकास कर लिया है, किस तरह वह एक-के बाद-एक नए आविष्कार कर के मानव की सभी तरह की कार्य-शक्तियों के लिए एक चुनौती बनता जा रहा है ; कम्यूटर का आविष्कार इसका एक नवीनतम उदाहरण है।
कम्पूटर को आज प्रत्येक क्षेत्र की प्रगति एवं दुत विकास के लिए आवश्यक माना जाने लगा है। शिक्षा, व्यवसाय, शास्त्र-प्रशासन सभी में आज कम्यूटर-प्रणाली की न केवल महती आवश्यकता ही अनुभव की जा रही है ; बल्कि यथासम्भव अपनाया भी जा रहा है। यहीं तक नहीं, देश की सुरक्षा-प्रणाली की दृढ़ता के लिए भी आज कम्यूटर एक तरह की अनिवार्यता है। मानव-मस्तिष्क से भी बढ़ कर तीव्र गति से कार्य करने वाला कम्यूटर वास्तव में अंक-गणितपद्धति के विकास की एक महत्त्वपूर्ण आधुनिक देन है ।
ईसा से लगभग चार हजार वर्ष पहले गणक-पटल नामक अंक गणित की जिस विद्या का विकास हुआ था, जिसके द्वारा तारों में मोती जैसे डालकर आज भी बच्चों को गिनती सिखाई जाती है, उसका विकसित एवं यंत्रीकृत परिवर्द्धित रूप है कम्यूटर । यह कम्यूटर-प्रणाली मुख्यत पाँच भागों में विभाजित रहा करती है –
- स्मरणयंत्र, इसमें सभी तरह की सूचनाएँ भर दी जाती हैं। इन्हीं के आधार बनाकर कम्यूटरी-गिनती हुआ करती है।
- नियंत्रणकक्ष, इसी से गिनती के गुण-दोष अर्थात् ठीक-गलत का पता चल पाता है।
- अक गणित भाग, इसमें यह भाग गिनती की सारी क्रियाप्रक्रिया को सम्पन्न किया करता है ।
- आन्तरिक यन्त्र भाग, इसमें सभी प्रकार के संकेत, निर्देश और जानकारियाँ संकलित एवं संचित रहा करती हैं।
- बाह्हा यंत्र भाग, उपर्युक्त अंगों के क्रियाकलापों से प्राप्त निर्देशों-सूचनाओं का विवेचन-विश्लेषण का परिणाम बताने का कार्य यह भाग सम्पन्न किया करता है ।
कम्यूटर की अपनी एक अलग भाषा है। उसी में सभी तरह के संकेत, सूचनाएँ आदि उसमें भरे जाते हैं। कम्प्यूटर की तकनीकी भाषा में उन्हे क्रमशः आफ, आन, शून्य, एक या फिर द्विचर संख्या कहा जाता है। इन्हीं के द्वारा हीं भाषा को अंकों में बदल दिया जाता है इन्हें ‘बिट्स’ भी कहा गया है । ये बिट्स छ: होते हैं, जिन का प्रयोग करके ही किसी बात का अन्तिम परिणाम प्राप्त किया जाता है । इन सब की तकनीक सर्वथा भिन्न प्रकार की है।
आज सरकारी-गैरसरकारी प्रत्येक क्षेत्र में बड़े व्यापक स्तर पर कम्यूटर का प्रयोग किया जाने लगा है। प्रत्येक गणितीय हिसाब-किताब, लेखा-जोखा, अनुभव, परीक्षण आदि योजनाओं की रूपरेखा तैयार करने, उनकी परिणात का फलाफल जानने के लिए कम्यूटर का प्रयोग अनिवार्यत: किया जाने लगा है। इतना ही नहीं, सामान्य जमा-तफरीक. गुणा या भाग, यहाँ तक कि अन्तरिक्ष और मौसम-विज्ञान की भविष्यवाणियाँ भी इसी के माध्यम से की जाने लगी है चिकित्सा-प्रणालियों और ऑपरेशनों में भी इसकी सहायता ली जाती है । समाचारपत्रों के प्रकाशन और समूचे क्रियाकलापों का आधार तो कम्पूटर बन ही चुका है, पुस्तक-प्रकाशन व्यवसाय भी धीरे-धीरे सम्पूर्णत: इसी पर आश्रित होता जा रहा है ।
आज कई प्रकार के अनुसन्धान कार्य भी कम्यूटर से किए जा रहे हैं। टेलिफोन, बिजली-विभाग, बैंक आदि भी बिल बनाने तथा अन्य लेन-देन के कार्यो में इस का प्रयोग करने लगे हैं । इस प्रकार आज कम्यूटर-प्रयोग व्यापक होता जा रहा है । इसके साथ कई तरह के खतरे भी बढ़ते जा रहे हैं। मानव-मस्तिष्क का व्यर्थ और बेकार हो जाना पहला खतरा है। इसी तरह के और भी कई खतरे हैं । तो चाहे कुछ भी हो जाए, यह मशीनी मस्तिष्क वास्तविक मानव-मस्तिष्क जैसा तो कतई नहीं बन सकता ।
धर्म और विज्ञान
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- धर्म और विज्ञान का पारस्परिक संबंध
- दोनों में सामंज्यस
- उपसंहार।
जीवन को सत्य का पालन करने का आधार, आदर्श व्यवहार के प्रति आस्था और विश्वास जैसे सात्विक एवं उदात गुणों को धारण करने की प्रेरणा एवं शक्ति जिससे प्राप्त हुआ करती है, उसे धर्म कहते हैं।
धर्म के विपरीत विज्ञान का मूल आधार भी विशेष प्रकार का ज्ञान ही हुआ करता है। विज्ञान भी मूल रूप से सत्य का अनवरत अन्वेषक होता है । लेकिन उस का आधार ठोस, नापे-तोले जा सकने वाले भौतिक पदार्थ हुआ करते हैं। वह धर्म की तरह अनैतिक आत्म तत्त्व का चिन्तक एवं विवेचक न होकर भौतिक तथ्यों का अन्वेषण किसी अन्य लोक में उद्धार पाने के लिए नहीं किया करता; बल्कि इस दृश्य और पंचभौतिक संसार की सुख-समृद्धि पाने के लिए ही किया करता है । धर्म और विज्ञान का प्रेरणा-स्रोत एक ही है ।
लक्षित उद्देश्य भी एक ही है और वह मानव-जीवन की सुख-समृद्धि की कामना और उस कामना को पूर्ण करने की चेष्टा। मानव-कल्याण की लक्ष्य-साधना एक समान दोनों में विद्यमान दोनों यानी धर्म और विज्ञान जब अपने मूल लक्ष्य की साधना की राह से भटक जाया करते हैं, तो स्वयं अपने लिए और पूरे जीवन-समाज के लिए तरह-तरह के व्यवधानों, संकटों, अपकृत्यों अैर अपरूपों की सृष्टि का कारण बन जाया करते हैं। इतना अन्तर अवश्य रहता है कि धर्म लक्ष्य से भ्रष्ट हो या अधर्म बनकर लोक-परलोक दोनों के नाश का कारण बन जाया करता है ; जबकि विज्ञान राह से भटक कर मुख्यत: भौतिक या इहलौकिक विनाश का कारण ही उपस्थित किया करता है ।
मानव-समाज की सर्वागीण उन्नात तभी हो सकती है जब धर्म और विज्ञान में सामंज्यस हो । जिस प्रकार अकेलाविज्ञान संसार को शांति नहीं ग्रदान कर सकता उसी प्रकार अकेला धर्म भी संसार को समृद्ध नहीं बना सकता । दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक हैं। आवश्यकता इस बात का है कि धर्म और विज्ञान – दोनों का एक-दूसरे पर अंकुश रहे ।
इससे स्पष्ट है कि यदि मानव विवेक से काम ले, अपने आचरण-व्यवहार से विवेक को हाथ से न निकलने दे, तो धर्म और विज्ञान दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।
शिक्षाऔर विज्ञान
रूपरेखा :
- पस्तावना
- पारस्परिक संबंध
- लक्ष्य-हित साधन
- उपसंहार ।
शिक्षा का चरम लक्ष्य मानव-जाति और समाज को हर प्रकार से विवेक सम्मत राह पर चलाना ही हुआ करता है। इस प्रकार विज्ञान का कार्य भी व्यक्ति और समाज के जीवन को विकास के नये-नये. आयाम प्रदान कर उसे एक सुखसुविधापूर्ण सन्तुलन प्रदान करना ही है । इसी प्रकार उसकी दृष्टि को व्यापक बनाना, मन-मस्तिष्क के बन्द पड़े या संकीर्ण द्वारों में खुलापन लाना भी विज्ञान का ही एक कार्य है ।
अब देखना यह है कि शिक्षा और विज्ञान में क्या कोई सीधा सम्बन्ध स्थापित भी किया जा सकता है ? इन प्रश्नों पर दो तरह से विचार करना सम्भव हो सकता है ।
पहली दृष्टि यानि कि समूची शिक्षा, उसके सभी विषयों को बाद में देकर केवल विज्ञान-सम्बन्धी शिक्षा को ही लागू किया जाए ; यह उचित प्रतीत नहीं होता । जीवन में कोमलता, कोमल पक्षों और स्नेह-सम्बन्धों से पले रिश्ते-नातों का महत्त्व समाप्त हो जाएगा । दूसरे केवल विज्ञान पढ़ एवं सीख लेने से जीवन का काम भी नहीं चल सकता । जीवन और उसके व्यवहारों-व्यापारों को चलाने के लिए अन्याय विषयों की शिक्षा एवं जानकारी उतनी ही आवश्यक है कि जितनी वैज्ञानिक विषयों की । सभी की शिक्षा को उचित एवं व्यावहारिक सन्तुलन देने से ही उसका अपना और जीवन का वास्तविक महत्त्व बना रहा सकता है।
अब दूसरी दृष्टि पर विचार करें । वह यह है कि समूची शिक्षा-पद्धति एवं पढ़ाए जाने विषयों को पढ़ाते समय वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि अपनायी जाए। हमारे अपने विचार में भी यह दृष्टि और धारणा उचित प्रतीत होती है। आज हम जिस युगजीवन में जी रहे हैं, उसमें वैज्ञानिक दृष्टि अपनाए बिना ठीक ढंग से जी पाना कतई संम्भव नहीं। ऐसा होने पर ही एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति स्वयं जीवन के जीवन्त सन्दर्भों के साथ जुड़ कर जीवन को उचित दृष्टि से देख सकेगा।
विज्ञान हो या शिक्षा, दोनों को सहयोगी बना कर या मान कर इन दोनों की सफलता-सार्थकता तभी प्रमाणित की जा सकती है, जब ये आत्यान्तिक तौर पर मानव-कल्याण करें। प्रोफेसर अल्बर्ट आइस्टीन का यह कथन यथार्थ है “हमारे इस जड़वादी युग में केवल जिज्ञासु वैज्ञानिक अन्वेषकों में ही गहरी धार्मिकता है।” कुछ इसी प्रकार की बात स्वामी विवेकानंद ने भी कही थी – ” आधुनिक विज्ञान सच्ची धार्मिक भावना का ही प्रकटीकरण है क्योंकि उसमें सत्य को सच्ची लगन से समझने की कोशिश है ।”
राष्ट्र की प्रगति में विज्ञान की भूमिका
अथवा,
भारत में विज्ञान के बढ़ते चरण
रूपरेखा :
- पस्तावना
- अणुशक्ति
- विशेष शक्ति
- उपलब्धियाँ
- उपसंहार ।
स्वतंग्रता-प्राप्ति से पहले तक आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में भारत की अपनी गति-दिशा शून्य थी। सूई से लेकर हवाई जहाज़, रेलवे इंजिन, यहाँ तक कि रेल के डिब्बे भी आयात किये जाते थे। उस आयात किए वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से ही इस देश का परिचय आधुनिक विज्ञान के साथ संभव हो पाया था। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद आज स्थिति यह है कि छोटे-बड़े प्रत्येक सामान, यंत्र, उपकरण आदि का निर्माण भारत में होने लगा है। इतना ही नहीं, आज भारत कई तरह की मशीनरी, यंत्रों एवं वैज्ञानिक उपकरणों का वैज्ञानिक तकनीक का भी आस-पास के अनेक छोटे-बड़े देशों को निर्यां भी करने लगा है।
सर्वप्रथम भारत में सन् 1948 में एक अणुशक्ति आयोग स्थापित किया गया । सन् 1955 ई० में पहले परमाणु रिएक्टर का निर्माण किया। बिजली का उत्पादन अणुर्शिक्ति से करने के लिए तारापुर परमाणु बिजली घर स्थापित किया। सन् 1974 में राजस्थान के पोखरण नामक स्थान पर प्रथम भूमिगत अणु-विस्फोट कर भारत ने सारे संसार को चकितविस्मित कर दिया । इसके बाद भारतीय विज्ञान ने उपग्रह-निर्माण एवं उड़ान क्षेत्र में प्रवेश किया । सन् 1975 में ‘आर्यभट्ट’ नामक उप्रह का प्रक्षेपण कर भारतीय विज्ञान ने संसार की आँखें खोल दीं। यह प्रमाणित कर दिया कि भारत इस क्षेत्र में भी निरन्तर आगे बढ़ते जाने की नीयत से कार्य कर रहा है। यह बात विशेष ध्यातव्य है कि भारतीय वैज्ञानिकों ने परमाणु शक्ति अर्जित कर ली है।
अन्तरिक्ष-अनुसन्धान के वैज्ञानिक क्षेत्र में भी भारत आज एक विशेष शक्ति के रूप में उभर कर सामने आया है। सन् 1975 में ‘आर्यभ््ट’ का और 1979 में ‘भास्कर’ का सफल प्षक्षेपण करने के बाद जब भारतीय रॉकेटों के माध्यम से ‘रोहिणी’ नामक उपग्रह कक्षा में स्थापित किया, तो विश्व ने एक बार फिर चौंक कर भारत की तरफ देखा। सन् 1984 में उपग्रह ‘रोहिणी डी-2’ छोड़ कर अपने अन्तरिक्ष-विज्ञान के कार्यक्रम को आगे बढ़ाया। इसके बाद एपल, भास्कर-द्वितीय, इस्सेट प्रथम-ए, इन्सेट प्रथम-बी, एस० एल० वी-2 तथा 3 , इस्सेट एफ-डी आदि अनेक उपग्रह अन्तरिक्ष में भेज चुका है और भी भेजने की कई तरह की योजनाओं पर भारतीय वैज्ञानिक नित नए प्रयत्न और प्रयोग कर रहे हैं। इस से भविष्य को परम उज्ज्वल कहा जा सकता है ।
बिजली, तार, दूर, संचार, टेलिविजन, सिनेमा और अब कम्प्यूटर आदि के निर्माण में भी भारत अन्य किसी देश से पीछे नहीं है । रेलवे इंजिन, डिब्बे, बस, ट्रक, कार सभी चीजों का निर्माण करके आज भारत अपनी हर प्रकार की आवश्यकताएँ पूरी कर रहा है । अन्य देशों से भी उसे ऐसी सब वस्तुओं के निर्माण के आर्डर लगातार प्राप्त होते रहते हैं । हर दिशा और क्षेत्र में भारत ने यथेष्ठ प्रगति और विकास किया है ।
यों भारत के पास अपनी प्राचीन परम्परागत वैज्ञानिक पद्धदियाँ भी अपने संस्कृत साहित्य में सुरक्षित हैं । लेकिन सखेद कहना पड़ता है कि आज भाषा की मारामारी के अभाव और विदेशी भाषा की मानसिकता बन जाने के कारण हम सब से लाभ उठा पाने की स्थिति में नहीं रह गए । जो हो, भारतीय वैज्ञानिकों ने आधुनिक विज्ञान और तकनीक के विकास में सी संसार को बहुत कुछ दिया और दे सकता है ।
पेड़-पौधे और पर्यावरण
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- उपयोगिता
- वन-कटाई के दुष्परिणाम
- उपसंहार ।
पेड़-पौधे प्रकृति की सुकुमार, सुन्दर, सुखदायक सन्ताने मानी जा सकती हैं । इन के माध्यम से प्रकृति अपने अन्य पुत्रों, मनुष्यों तथा अन्य सभी तरह के जीवों पर अपनी ममता के खज़ाने न्योछावर कर अनन्त उपकार तो किया ही करते हैं। उनके सभी तरह के अभावों को भरने, दूर करने के अक्षय साधन भी हैं। पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ हमें फल-फूल, औषधियाँ, छाया एवं अनन्त विश्राम तो प्रदान किया ही करते हैं, वे उस प्राण-वायु (ऑक्सीजन) का अक्षय भण्डार भी हैं कि जिस के अभाव में किसी प्राणी का एक पल के लिए जीवित रह पाना भी नितान्त असंभव है।
पेड़-पौधे हमारी ईंधन की समस्या का भी समाधान करते हैं । उनके अपने आप झड़ कर इधर-उधर बिखर जाने वाले पत्ते घास-फूँस, हरियाली और अपनी छाया में अपने पनपने वाली नई वनस्पतियों को मुफ्त की खाद भी प्रदान किया करते हैं। उनमें हमें इमारती और फर्नीचर बनाने के लिए कई प्रकार की लकड़ी तो प्राप्त होती ही है, कागज आदि बनाने के लिए कच्ची सामग्री भी उपलब्ध हुआ करती है । इसी प्रकार पेड़-पौधे हमारे पर्यावरण के भी बहुत बड़े संरक्षक हैं। यों सूर्य-किरणें भी नदियों और सागर से जल-कणों का शोषण कर वर्षा का कारण बना करती हैं ; पर उस से भी अधिक यह कार्य पेड़-पौधे किया करते हैं। सभी जानते हैं कि पर्यावरण की सुरक्षा, हरियाली वर्षा का होना कितना आवश्यक हुआ करता है ।
पेड़-पौधे वर्षा का कारण बन कर के तो पर्यावरण की रक्षा करते ही हैं, इनमें कार्बन डाई-ऑक्साइड जैसी विषैली, स्वास्थ्य-विरोधी और घातक कही जाने वाली प्राकृतिक गैसों का चोषण और शोषण करने की भी बहुत अधिक शक्ति रहा करती है । स्पष्ट है कि ऐसा करने पर भी वे हमारी धरती के पर्यावरण को सुरक्षित रखने में सहायता ही पहुँचाया करते हैं । पेड़-पौधे वर्षा के कारण होने वाली पहाड़ी चट्टानों के कारण, नदियों के तहों और माटी भरने से तलों की भी रक्षा करते हैं । आज नदियों का पानी जो उथला या कम गहरा होकर गन्दा तथा प्रदूषित होता जा रहा है, उसका एक बहुत बड़ा कारण उनके तटों, निकास-स्थलों और पहाड़ों पर से पेड़-पौधों की अन्धा-धुन्ध कटाई ही है । इस कारण जल स्रोत तो प्रदूषित हो ही रहे हैं, पर्यावरण भी प्रदूषित होकर जानलेवा बनता जा रहा है ।
धरती पर विनाश का यह ताण्डव कभी उपस्थित न होने पाए, इसी कारण प्राचीन भारत के वनों में आश्रम और तपोवनों, सुरक्षित अरण्यों की संस्कृति को बढ़ावा मिला। तब पेड़-पौधे उगाना भी एक प्रकार का सांस्कृतिक कार्य माना गया । सन्तान पालन की तरह उन का पोषण और रक्षा की जाती थी । इसके विपरीत आज हम, कांक्रीट के जंगल उगाने यानि बस्तियाँ बसाने, उद्योग-धन्धे लगाने के लिए पेड़-पौधौं को, आरक्षित वनों को अन्धा-धुन्ध काटते तो जाते हैं पर उन्हें उगाने, नए पेड़-पौधे लगा कर उन की रक्षा और संस्कृति करने की तरफ कतई कोई ध्यान नहीं दे रही ।
यदि हम चाहते हैं कि हमारी यह धरती, इस पर निवास करने वाला प्राणी जगत् बना रहे है, तो हमें पेड़-पौधों की रक्षा और उन के नव-रोपण आदि की ओर प्राथमिक स्तर पर ध्यान देना चाहिए। यदि हम चाहते हैं कि धरती हरी- भरी रहे, नदियाँ अमृत जल-धारा बहाती रहें और सब से बढ़ कर मानवता की रक्ष संभव हो सके, तो हमें पेड़-पौधे उगाने, संवर्द्धित और संरक्षित करने चाहिए ; अन्य कोई उपाय नहीं ।
वन-संरक्षण की आवश्यकता
रूपरेखा :
- पस्तावना
- पौराणिक महत्व
- वर्तमान स्थिति
- उठाए गए कदम
- उपसंहार ।
प्राचीन भारतीय संस्कृति में वृक्षों को देवता के समान स्थान दिया गया था तथा देवताओं की भांति उनकी पूजा की जाती थी। वृक्षों के सूख-दुख का ध्यान रखा जाता था तथा उनके साथ आत्मीयता का संबंध रखा जाता था। मौसम के प्रकोप से उन्हें उसी प्रकार बचाया जाता था, जिस प्रकार माँ-बाप अपने बच्चे को बचाते हैं । इतना ही नहीं, 19 वीं तथा 20 वीं शताब्दी के मध्य वृक्ष काटना दण्डनीय अपराध था ।
मानव का जन्म, उस की सभ्यता-संस्कृति का विकास वनों में पल-पुसकर ही हुआ था । उस की खाद्य, आवास आदि सभी समस्याओं का समाधान करने वाले तो वन थे ही, उसकी रक्षा भी वन ही किया करते थे। वेदों, उपनिषदों की रचना तो वनों में हुई ही, आरण्यक जैसे ज्ञान-विज्ञान के भण्डार माने जाने वाले महान् ग्रन्थ भी अरण्यों यानि वनों में लिखे जाने के कारण ही ‘आरण्यक कहलाए। यहाँ तक कि संसार का आदि महाकाव्य माना जाने वाला, आदि महाकवि वाल्मीकि द्वारा रचा गया ‘रामायण’ नामक महाकाव्य भी एक तपोवन में ही लिखा गया।
आज जिस प्रकार की नवीन परिस्थितियाँ बन गई हैं, जिस तेज़ी से नए-नए कल-कारखानों, उद्योग-धन्धों की स्थापना हो रही है, नए-नए रसायन, गैसें, अणु, उद्जन, कोबॉल्ट आदि बम्बों का निर्माण और निरन्तर परीक्षण जारी है, जैविक शस्तास्त्र बनाए जा रहे हैं ; इन सभी ने धुएँ, गैसों और कचरे आदि के निरन्तर निसरण से मानव तो क्या सभी तरह के जीव-जन्तुओं का पर्यावरण अत्यधिक प्रदूषित हो गया है । केवल बम ही है, जो इस सारे विषैले और मारक प्रभाव से प्राणी जगत् की रक्षा कर सकते हैं। उन्हीं के रहते समय पर उचित मात्रा में वर्षा होकर धरती की हरियाली बनी रह सकती है ।
हमारी सिंचाई और पेय जल की समस्या का समाधान भी वन-संरक्षण से ही सम्भव हो सकता है। वन हैं तो नदियाँ भी अपने भीतर जल की अमृतधारा संजो कर प्रवाहित कर रही हैं। जिस दिन वन नहीं रह जाएँगे, सारे प्राणी-प्रजातियों, अनेक वनस्पतियाँ एवं अन्य खनिज तत्त्व अतीत की भूली-बिसरी कहानी बन चुके हैं, यदि आग की तरह ही निहित स्वार्थों की पूर्ति, अपनी शानो-शौकत दिखाने के लिए वनों का कटाव होता रहा, तो धीरे-धीरे अन्य सभी का भी सुनिश्चित अन्त हो जाएगा ।
वन-सरकक्षण जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य वर्ष में वृक्षारोपण जैसे सप्ताह मना लेने से संभव नहीं हो सकता। इसके लिए वास्तव में आवश्यक योजनाएँ बनाकर कार्य करने की जरूरत है। वह भी एक-दो सप्ताह या मास-वर्ष भर नहीं ; बल्कि वर्षों तक सजग रहकर प्रयत् करने की आवश्यकता है। जिस प्रकार बच्चे को मात्र जन्म देना ही काफी नहीं हुआ करता ; बल्कि उसके पालन-पोषण और देख-रेख की उचित व्यवस्था करना-व भी दो-चार वर्षों तक नहीं, बल्कि उसके पालन-पोषण और देख-रेख की उचित व्यवस्था करना-वह भी दो-चार वर्षों तक नहीं ; बल्कि उनके बालिग होने तक आवश्यक हुआ करती है ; उसी प्रकार की व्यवस्था, सतर्कता और सावधान वन उगाने, उनका संरक्षण करने के लिए भी किया जाना आवश्यक है । तभी धरती और उसके पर्यावरण की, जीवन एवं हरियाली की रक्षा संभव हो सकती है । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वृक्षों से हमारे देश की नैतिक, सामाजिक और आर्थिक समृद्धि भी होती है क्योंकि-
वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर ।
परमारथ वे कारने साधुन धरा शरीर ।।
महिला आरक्षण बिल्न
रूपरेखा :
- भूमिका
- समाज में नारी-पुरुष की समानता
- नारी की दुर्दशा
- नारी की उपादेयता
- बिल को मंजूरी
- उपसंहार ।
हमारे देश में प्राचीनकाल से ही नारी को समाज में उच्च स्थान प्राप्त है। उस समय नारी के बिना कोई भी धार्मिक कार्य अधूरा माना जाता था । हमारे प्राचीन ग्रन्थों में भी कहा गया है कि – जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ नारी का निरादर होता है, वहाँ तरह-तरह की परेशानियाँ उत्पन्न होती हैं। देश में विदेशी आक्रमणों के कारण नारी का रूप बदल गया, उसे चहारदीवारी में बन्द होना पड़ा। इस कारण उसे अपने अधिकारों से वंचित रहना पड़ा। लेकिन स्वतन्रता प्राप्ति के बाद फिर उसका पुराना समय लौटा। आज नारी का समाज में वही स्थान है जो पुरुष का है ।
भारतीय इतिहास नारियों के महान् कर्तव्यों, क्षमताओं तथा वीरता के कर्मों से भरा पड़ा है। नारी भारतीय समाज में हमेशा आदर व सम्मान का पात्र रही है । नारी ममता, प्रेम, वात्सल्य, पवित्रता तथा दया की मूर्ति है । उसने अनन्त कठिनाइयाँ सहते हुए परिवार तथा समाज एवं राष्ट्र की सेवा की है। दु:ख का विषय यह है कि समाज में नारी को अबला व बेचारी जैसे सम्बोधनों से पुकारा जाता है। उसकी इस हालत के लिये हमारा समाज जिम्मेदार है, जिसमें सामाजिक कुरीतियाँ और परम्परागत रूढ़िवादिता आज भी विद्यमान है ।
कुछ राजनीतिक दलों का तर्क है कि दलित और पिछड़े वर्ग की महिलाओं को विशेष आरक्षण दिया जाना चाहिये । ऐसा कहकर ये आरक्षण में भी आरक्षण की बात कर रहे हैं। विडम्बना यह है कि महिला आरक्षण विधेयक के किसी भी स्वरूप पर आम सहमति नहीं हो पा रही है । सच्चाई तो यह है कि आम सहमति कायम करने के लिये अब तक कोई ठोस प्रयास भी नहीं किया गया। मार्च, 2003 के लोकसभा में किसी भी राजनीतिक दल ने इस बात के लिये प्रयास नहीं किया कि महिला आरक्षण विषय पर गम्भीर चर्चा हो सके।
ऐसा लगता है कि सभी को, यहाँ तक कि महिला आरक्षण विधेयक पेश करने वालों को भी इस बात का इंतजार था कि इस विधेयक को लेकर हंगामा हो और इसी बहाने विधेयक को आगे के लिये टाल दिया जाये । लेकिन काफी राजनीतिक उठा-पटक के बाद आखिरकार संसद के सन् 2010 के बसंतकालीन सत्र में महिला आरक्षण विधेयक को बहुमत से पारित कर दिया गया । निश्चय ही भारत के संसद में इसे क्रांतिकारी कदम के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि इसके पहले तक महिला-हित की बातें करने वाले नेता भी विधेयक पारित करने के नाम पर बगलें झांकने लगते थे ।
महिला विधेयक का प्रारित होना इस बात को दर्शाता है कि नारी के प्रति परम्परागत धारणाओं में भी काफी परिवर्तन आया है, फिर भी अभी तक स्थितियाँ ऐसी नहीं बन पाई हैं कि आज की नारी अपनी हर प्रकार की क्षमता का परिचय खुलकर दे सके ।
हमें यह भी न भूलना चाहिए कि अगर महिला आरक्षण विधेयक पारित करने का उद्देश्य केवल महिलाओं के सब्जबाग दिखाना है तो फिर इस विधेयक के पारित होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। उल्लेखनीय है कि महिला आरक्षण विधेयक इस मान्यता पर आधारित है कि लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत स्थान आरक्षित होने से देश की महिलाओं का कल्याण होगा। दुर्भाग्य से यह मान्यता सही नहीं है। इस सन्दर्भ में इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये आरक्षण की व्यवस्था होने के बावजूद उनकी स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं आ सका है, फिर भी महिला-आरक्षण बिल एक क्रांतिकारी कदम अवश्य है ।
आतंकवाद और भारत
अथवा
आतंकवाद : एक चुनौती
रूपरेखा :
- भूमिका
- आतंकवाद एक जटिल समस्या के रूप में
- आतंकवाद से मुक्ति के लिये उचित कदम
- उपसंहार ।
आतंकवाद का इतिहास सम्भवतः उतनी ही पुरानी है, जितना पुरानी हमारी सभ्यता का इतिहास है । पूँजीवादी, लोकतान्त्रिक और साम्यवादी शासन व्यवस्थाओं के उदय के पूर्व समाज में उन्हीं का वर्चस्व रहता था जो वास्तव में बाहुबली होते थे। ऐसे लोगों में अधिकांश स्वेच्छाचारी होते थे। उनकी सत्ता को चुनौती देने वाली कोई ताकत कहीं सिर उठाने का साहस न कर बैठे, इसलिये वे हमेशा आतंकवाद का सहारा लेते थे । दहशत और आतंक प्रसारित करने के लिये वे लोग समय-समय पर निरीह जनपदों में हत्या, अपहरण, लूटपाट, आगजनी और विनाश का भैरव राग अलापते रहते थे ।
19वीं शताब्दी के मध्य तक आतंकवाद को संरक्षण देने वाले अक्सर वे लोग होते थे, जिनके हाथों में सत्ता की नकेल होती थी, पर बीसवीं शताब्दी में आतंकवाद के केन्द्र में बदलाव दिखाई पड़ने लगा। बीसवीं शताब्दी में साम्प्दायिकता, जातीय वैमनस्य, क्षेत्रीयता और आर्थिक वैषम्य से उत्पन्न वर्ग-संघर्ष की भावना से बुरी तरह ग्रस्त, बिकी हुई निष्ठा वाले अपने ही देश के कुछ लोग आतंकवादी संस्थाओं का गठन कर अपने ही राष्ट्र को खंडित करने का प्रयास करने लगे।
विदेशी शासन से मुक्ति की कामना करने वाले राष्ट्र के देशभक्त नवयुवक भी आतंकवाद का प्रयोग एक कारगर हथियार के रूप में करते थे । यद्यपि सभ्य संसार द्वारा अभी तक आतंकवाद की कोई सर्वमान्य परिभाषा तैयार नहीं की गई है, पर मोटे तौर पर इसकी परिसीमा में सभी अवैधानिक और हिंसापरक गतिविधियाँ आती हैं।
भारत में आतंकवादी आन्दोलन की शुरुआत सन् 1965 ई० के बाद हुई है । पूर्वी पाकिस्तान के बंगलादेश में परिवर्तित हो जाने के बाद पाकिस्तान के मन में यह बात आ गई कि युद्धभूमि में भारत का कुछ बिगाड़ सकने में वह सक्षम नहीं है । यही कारण है कि पाकिस्तान ने आतंकवाद का सहारा लिया ।
पूर्व प्रधानमन्न्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को पंजाब के आतंकवादी आन्दोलन के कारण अपनी जान गँवानी पड़ी । आतंकवादियों की दृष्टि में मानवता का कोई मूल्य नहीं है। आतंकवाद की आड़ में आज कई अपराधी-गिरोह सक्रिय होकर देश के लोगों की जान-माल को हानि पहुँचा रहे हैं । सरकारी शक्तियाँ अनेक प्रकार के प्रयास करके भी उन्हें काबू नहीं कर पायी हैं।
अभी भी देश के हर कोने में आतंकवाद का जाल फैला हुआ है, जिसके कारण अपहरण, हत्या और लूट-पाट आदि जैसी संगीन अपराध नित्य हुआ करते हैं । इस विषैली बेल का विनाश करना अति आवश्यक है। आतंकवादी संगठनों में जैशे-मुहम्मद, लश्करे-तोयबा और हिजबुल-मुज़ाहिदीन मुख्य रूप से सकिय हैं।।
कश्मीरी आतंकवाद का साहस इस सीमा तक बढ़ चुका है कि उसने प्रतिवर्ष होने वाली अमरनाथ-यात्रा को तो बाधित करने का प्रयास किया ही है, वैष्गो देवी की यात्रा पर भी अपनी कुदृष्टि लगा रखी है । पाकिस्तानी खुफिया एजेन्सी की शह और सहायता से ही तस्करी, माफिया के जाने-माने लोग मुम्बई में विस्फोट करवाकर ढ़ाई-तीन सौ लोगों की जानें लेने के साथ-साथ करोड़ों की सम्पत्ति भी स्वाहा कर चुके हैं ।
उनके लिए राष्ट्रीयता एवं मानवता का कोई भी मूल्य एवं महत्व नहीं है । देश के महत्त्वपूर्ण स्थलों, यहाँ तक कि राजधानी में भी उनके द्वारा विस्फोट किए जाने और कराए जाने की योजनाएँ अक्सर सामने आती रहती हैं । यद्यपि कश्मीरी जनता को अब वास्तविकता समझ में आने लगी है । यह भी पता चल चुका है कि उन्हें स्वतंत्रता के सुनहरे सपने दिखाने के नाम पर आतंकवादी किस प्रकार उनकी रोटियों, बेटियों पर भी अपनी बदनीयती के दाँत गड़ाये हुए हैं ।
यद्यपि आतंकवाद कुछ दबता हुआ प्रतीत हो रहा है, पर यह अब समाप्त ही हो जायेगा, ऐसा कह पाना बहुत कठिन है । कारण स्पष्ट है कि इसकी आड़ में पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध अघोषित युद्ध जो छेड़ रखा है। अत: जब तक भारत भी उसके लिये युद्ध जैसा वातावरण पस्तुत नहीं करता, इसे खत्म कर पाने की कल्पना करना सपनों की दुनिया में रहने और अपने आप को धोखा देने जैसा ही है ।
भारत के गौरव : स्वामी विवेकानन्द
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- जन्म
- वंश-परिचय तथा शैक्षणिक जीवन
- रामकृष्ण परमहंस देव का सान्निध्य
- परिवाजक विवेकानन्द
- शिकागो विश्वधर्म सभा में विवेकानन्द
- साहित्य कृति
- उपसंहार ।
प्रस्तावना :- दंड-कमंडलु हाथ में लिए एक युवा सन्यासी भारत भ्रमण के लिए निकले हैं। उनका अभीष्ट है भारत की आत्मा के यथार्थ स्वरूप की खोज । पर यह कौन-सा भारतवर्ष देख रहे हैं ? कहाँ गया भारत का वह गौरवमय अतीत? किस अन्धकार के गर्त में डूब गया भारत का उज्ज्वल मानव प्रेम का आदर्श ? भारत में सर्वंर दारिद्रता, पराधीनता, अंधानुकरण प्रवृत्ति, दाससुलभ दुर्बलता और छूआछूत का कलंक देखकर युवा सन्यासी की आत्मा रो उठी। कौन है यह सन्यासी, जिसने दरिद्रे में ही नारायण (ईश्वर) के अस्तित्व का अनुभव किया ? कौन है यह महासाधक, जिसने देशवासियों को बताया – “भूलना मत, नीच, मूर्ख, दरिद्र, भंगी, चमार आदि तुम्हारे ही अपने भाई हैं ।”
जन्म, वंश-परिचय तथा शैक्षणिक जीवन :- उत्तर कलकत्ता के सिमलापाड़ा के विख्यात दत्त परिवार में सन् 1863 में विवेकानन्द का जन्म हुआ । पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के नामी एटर्नी थे। माता थीं धर्मम्राण भुवनेश्वरी देवी। विवेकानन्द का बचपन का नाम था वीरेश्वर । बालक वीरेश्वर शुरू से ही बहुत साहसी था। अत्यन्त मेधावी था वह। बड़ा होने पर ईश्वर चन्द्र विद्यासागर द्वारा प्रतिष्ठित मेट्रोपालीटन स्कूल में भर्ती हुआ। यहाँ उसका नाम था नरेन्द्रनाथ ।
प्रथम श्रेणी में प्रवेशिका (एन्ट्रेन्स) परीक्षा पास करके प्रेसीडेन्सी कॉलेज में दाखिल हुए। बाद में उसे छोड़कर जनरल एसेम्बली कॉलेज (स्कॉटिश चर्च कॉलेज) से एफ०ए० पास किया और दर्शनशास्त लेकर पढ़ने लगे थे। बड़े मधुर कंठ के अधिकारी थे तरुण नरेन्द्रनाथ । संगीत, खेलकूद, वाद-विवाद प्रतियोगिता और व्यायाम में बहुत रुचि थी उनकी।
रामकृष्ण परमहंस का सान्निध्य :- नरेन्द्रनाथ के घर के पास ही रहते थे सुरेन्द्रनाथ मिश्र । एक दिन रामकृष्ण परमहंस वहाँ आये । भजन गाने के लिए नरेन्द्रनाथ को बुलाया गया। प्रथम दर्शन में ही विस्मय विमुर्ध हो गये ठाकुर रामकृष्ण। नरेन्द्रनाथ भी अभिभूतत हुए परमहंस देव को देखकर । नरेन्द्रनाथ को दक्षिणेश्वर आने का आमंत्रण दिया ठाकुर ने । नरेन्द्रनाथ के मन में तब भगवान के विषय में तरह-तरह के प्रश्न उठ रहे थे और संशय भी जगा था। तभी ठाकुर रामकृष्ण के दिव्य सान्निध्य का लाभ हुआ ।
दक्षिणेशे्वर का आकर्षण तीव्र हो उठा उनके लिए । उसी समय उनके पिता की अकस्मात् मृत्यु हो गयी। घोर अर्थ-संकट में पड़ गये। दक्षिणेश्वर मन्दिर में माँ काली से अर्थ माँगने जाकर भी उन्होंने श्रद्धा और भक्ति की याचना की । नरेन्द्रनाथ तब आधे संन्यासी बन्नुके थे ।
परिव्राजक विवेकानन्द :- परमहंस देव का शिष्यत्व ग्रहण करके सन्यासी बन गये नरेन्द्रनाथ। नाम हुआ ‘विवेकानन्द’ । सन् 1886 में श्री रामकृष्ण परमहंस देव ने महम्पस्थान किया । भारत पर्यटन के लिए निकल पड़े परिव्राजक विवेकानन्द । हिमालय से कन्याकुमारी तक पूरे देश में घूमे। हिन्दू, मुसलमान, अछूत, दरिद्र, निरक्षर सबसे मिलकर निपीड़ित और पददलित लोगों की हृदय-पीड़ा को समझा । सोया भारत जाग उठा। भविष्य के भारत के स्वपद्रष्टा, विवेकानन्द ने देश वासियों को नवजीवन का जागरण मंत्र सुनाया।
शिकागो विश्वधर्म सभा में विवेकानन्द :- इसके बाद सन् 1893 का वह स्मरणीय दिन । अमेरिका के शिकागो शहर में विश्वधर्म सम्मेलन का आयोजन हुआ । विवेकानन्द के पास भी इस सम्मेलन की खबर पहुँची। पर वे अनाहूत थे वहाँ । कुछ भक्तों और प्रशंसकों के विशेष अनुरोध से अमेरिका चल पड़े। उनका उद्देश्य था वेदान्त धर्म का प्रचार । भगवा वस्त्र और पगड़ी पहने सन्यासी के वेश में वे शिकागो जा पहुँचे । लेकिन सम्मेलन में भाग लेने की अनुमतिपत्र नहीं था उनके पास । अन्त में कुछ सहृदय अमेरिकावासियों की सहायता से केवल पाँच मिनट के लिए भाषण देने की अनुमति लेकर विवेकानन्द ने सम्मेलन में प्रवेश किया ।
इसके बाद बड़ी आत्मीयता से उन्होंने श्रोताओं को इस प्रकार सम्बोधन किया, ‘अमेरिकावासी भाइयों और बहनों इस सम्बोधन को सुनकर श्रोताओं ने करतल ध्वनि से अभिनंदित किया प्राच्य के इस संन्यासी को । उन्होंने अपने भाषण में कहा, ‘ईसाइयों को हिन्दू या बौद्ध बनने की आवश्यकता नहीं, हिन्दुओं और बौद्धों को भी ईसाई बनने की जरूरत नहीं ।……….. आध्यात्मिकता, पवित्रता और उदारता पर केवल किसी विशेष एक धर्म का एकाधिकार नहीं है ।
प्रत्येक धर्म की पताका पर लिखना पड़ेगा, युद्ध नहीं सहयोग, ध्वंस नहीं आत्मीयकरण, भेद-द्वंद नहीं सामञ्ञस्य और शान्ति।’ धर्मसभा में उन्होंने दृढ़ विश्वास के साथ भविष्य में संसार के लोगों के महामिलन की घोषणा की । सुनकर अभिभूत हो गये श्रोतागण। संसार भर में उनकी शोहरत फैल गयी और चारों और से उन पर प्रशंसा की वर्षा होने लगी । शिष्या के रूप में उन्हें मिस मागरिट नोकल मिलीं जो बाद में भारत की भूमि पर ‘भगिनी निवेदिता’ बनीं । सन् 1896 में विवेकानन्द भारत लौटे ।
साहित्य-कृति :-केवल कर्मक्षेत्र में ही नहीं, वैचारिक क्षेत्र में भी इनका अवदान महतवपूर्ण था। उनकी परिव्राजक’, ‘विचारणीय बातें’, प्राच्य और पाश्चात्य’, ‘वर्तमान भारत’ आदि रचनायें उल्लेखनीय हैं। इनके अलावा उनके बहुत से लेख और विभिन्न समय में विभिन्न व्यक्तियों को लिखे अनेक पत्रों का संकलन भी प्रकाशित हुए हैं।
उपसंहार: :-आधुनिक भारत के भागीरथ थे स्वामी विवेकानन्द । दुर्बल और हीनता की ग्रन्थि से प्रस्त लोगों को मानव-जाति के कल्याण मंच में दीक्षित करना ही उनके जीवन का लक्ष्य था। उन्होंने धर्मान्ध देशवासियों को स्पष्ट स्वर में कहा था, दरिद्र, निपीड़ित, आर्त्त मनुष्यों की सेवा ही ईश्वर-साधना है । असहाय मनुष्य ही हमारे भगवान हैं $P$ फिर, उन्होंने आदर्शहीन भारतीयों को स्मरण कराया था, ‘आज से पचास साल तक तुम्हारे उपास्य और कोई देवदेवी नहीं हैं, उपास्य है केवल जननी-जन्मभूमि यह भारतवर्ष ।’
डॉ. अबुल पकीर जैनुलाबदीन अब्दुल कलाम
(डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम)
रूपरेखा :
- परिचय
- कर्म ही पूजा है -जीवन का मूल-मंत्र
- शिक्षा-दीक्षा
- वैज्ञानिक रूप में कार्य
- इसरो (ISRO) की स्थापना
- एस.एल वी. के प्रबंधक के रूप में
- भारत-रत्न की उपाधि से अलंकृत
- राष्ट्रपति के रूप में कार्य करना
- उपसंहार ।
परिचय :- 25 जुलाई, 2002 को राष्ट्रपति पद की शपथ लेने वाले डॉ०ए.पी.जे अब्दुल कलाम भारत के बारहवें राष्ट्रपति थे। वे भारत के ऐसे प्रथम राष्ट्रपति थे, जो इस पद पर आने से पूर्व ही भारत-रत् से अलंकृत हो चुके थे। वे पहले ऐसे राष्ट्रपति थे, जो जीवन-भर राजनीति से दूर रहकर देश के सर्वोच्च सिंहासन पर आसीन हुए थे ।
डॉ. अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्तूबर, सन् 1931 में रामेश्वरम् (तमिलनाडु) में हुआ । उनका बचपन मातापिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों के साथ रामेश्वरम् की मस्जिद गली स्थित अपने घर में ही बीता । उनके माता-पिता के विचार अत्यंत उच्च कोटि के थे तथा उनका परिवार मध्यमवर्गीय था । उनकी माता को लोग अन्नपूर्णा कहते थे, क्योंकि उनके यहाँ अतिथियों को उचित मान-सम्मान मिलता था। इनकी शिक्षा वहीं की एक प्रारंभिक पाठशाला में हुई।
‘कर्म ही पूजा है’ :- यह गुरुमंत्र कलाम को अपने पिता से विरासत में मिला था, जो पारिवारिक उत्तरदायित्वों हेतु प्रात: चार बजे से ही अपनी दैनिकचर्या प्रारंभ करते थे । डॉ० कलाम ने अपनी आत्मकथा ‘विंग्स ऑफ फायर’ में लिखा है कि ”मुझे विरासत में पिता से ईमानदारी और आत्मानुशासन तथा माता से भलाई में विश्वास तथा गहरी उदारता मिली है । मैं अपनी सृजनशीलता का श्रेय बिना किसी झिझक के बचपन में मिली उनकी संगति को देता हूँ ।’
शिक्षा-दीक्षा :- हाई स्कूल की शिक्षा पूरी करते हुए कलाम ने पिता की इच्छा के अनुरूप विज्ञान विषय लेकर तिरुचिरापल्ली के सेंट जोसेफ कॉलेज में प्रवेश लिया। छात्रावास में रहते हुए उन्होने अंग्रेजी साहित्य तथा भौतिक विज्ञान में विशेष रुचि दिखाई । बी. एस.सी. की डिग्री के बाद कलाम ने इंजीनियर बनने का मन बना लिया था । उस समय मद्रास (चेन्नई) स्थित मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी को दक्षिण भारत में तकनीकी शिक्षा का’मुकुट मणि’ माना जाता था। कॉलेज में प्रतिभा के बल पर प्रवेश तो मिला, कितु शुल्क के लिए उस समय एक हजार रुपए चाहिए थे जिसके लिए उनकी वहन जोहरा को अपने जेवर गिरवी रखने पड़े । इसी कारण कलाम साहब आज भी परिश्रमी तथा मितव्ययी हैं। इंजीनियरिंग के दूसरे वर्ष में उन्होंने ‘विमानिकी इंजीनियरिंग’ को चुना । प्रो. श्री निवासन् की इच्छा पर केवल तीन दिन के अंदर उन्होंने एक प्रोजेक्ट बनाकर पूर्ण किया था।
वैज्ञानिक रूप में कार्य :- छात्र-जीवन से ही कलाम व्यस्त रहने के अभ्यस्त हो गए थे । इसी कारण सजने-संवरने का उनके पास न तो समय था और न ही ऐसे विचार थे । जब वे रक्षा प्रयोगशाला, डी.आर.डी.एल. हैदराबाद में निदेशक थे तो अपने एक कमरे के आवास से लगभग दो किलोमीटर दूर स्थित अपने कार्यालय पैदल ही जाते थे । साधारण कमीज़, खाकी हॉफ पेंट और चपल पहनकर वे मिसाईल संबंधी चर्चा करने किसी भी वैज्ञानिक के पास पहुँच जाते थे । एम.आई.टी. से शिक्षा ग्रहण कर कलाम एक प्रशिक्षु के रूप में एच. ए. एल बंगलौर (हिंदुस्तान एअरोनॉटिक्स लिमिटेड) पहुँचे । उनके अनुसार निपुणता तभी मिलती है जब हम व्यावहारिक धरातल पर कार्य सम्पन्न करते हैं ।
इसरो (ISRO) की स्थापना :- सन् 1958 में वे रक्षा मंत्रालय के तकनीकी विकास और उत्पादन निदेशालय (वायु) में वरिष्ठ वैज्ञानिक सहायक के पद पर नियुक्त हुए । तीन वर्ष बाद बंगलौर में एअरोनॉटिकल डिवलेपमेंट इस्टेब्लिशमेंट (ए.डी.ई.) की स्थापना हुई और इनका इस प्रयोगशाला में तबादला हो गया । ए.डी.ई. में उन्हे तीन वर्ष के अंदर हॉॉवरक्राफ्ट’ विकसित करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया जिसे कलाम साहब की टीम ने समय से पहले ही पूरा कर दिया ।
इसी समय भारत में Indian Space Research Organisation (ISRO) (भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन) की स्थापना हुई । इस संगठन हेतु थुंबा में स्पेस साइंस एंड टेक्नोलॉजी सेंटर बनाया गया । दिसम्बर, 1971 में डॉ. साराभाई के निधन के बाद प्रोफेसर सतीश धवन इसरो के अध्यक्ष बने तथा अंतरिक्ष अनुसंधान संबंधी अनेक इकाइयों को मिलाकर विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र’ की स्थापना की गई । इस केंद्र के प्रथम निदेशक के रूप में प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ० ब्रहाप्रकाश की नियुक्ति हुई।
एस. एल. वी. के प्रबंधक के रूप में :- प्रोफेसर धवन और डॉ० कलाम को उपग्रह प्रक्षेपण यान (सैटेलाइट लांच वीहिकल-एस.एल.वी.) विकसित करने संबंधी परियोजना के प्रबंधक के पद पर नियुक्त कर दिया गया। इसका मुख्य उद्देश्य एक मानक एस एल वी. प्रणाली का डिजाईन, विकास और संचालन करना था । डॉ. कलाम के नेतृत्व में तैयार एस एल वी- 3 की प्रथम परीक्षण उड़ान 10 अगस्त, 1979 को थी ।
तेईस मीटर लंबा तथा सत्रह टन वजन वाला SLV-रॉंकेट उस दिन प्रात: 7 बज़कर 58 मिनट पर प्रमोचित (लांच) किया गया । नियंत्रण-व्यवस्था में खराबी आने के कारण यह नियत मार्ग से भटक कर बंगाल की खाड़ी में गिर गया । दूसरा परीक्षण 18 जुलाई, 1980 को प्रात: 8.03 बजे श्रीहरिकोटा के थार केंद्र से प्रमोचित भारत का एस. एल वी- 3 रॉकेट ‘रोहिणी उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने में सफल हुआ ।
संपूर्ण राष्ट्र ने भारतीय वैज्ञानिक की सफलता पर गर्व महसूस किया तथा भारत ‘विश्व अन्तरिक्ष क्लब’ का सम्मानित सदस्य बन गया ।
भारत-रत्न की उपाधि से अलंकृत :- डॉ० कलाम की यात्रा जारी रही तथा भारत सरकार ने सन् 1998 में उन्हें राष्ट्र के सर्वोच्च नागरिक अलंकर ‘भारत-रत्न’ से सम्मानित किया । डॉ० कलाम को भारत सरकार ने सन् 1981 में पद्मभूषण, सन् 1990 में पद्मविभूषण और सन् 1998 में ‘भारत रत’ से सम्मानित किया। अनेक विश्वविद्यालय रॉकेट तथा मिसाइल कार्यक्रम की सफलता हेतु उन्हे ‘डॉक्टर ऑफ साइंस’ तथा अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित कर चुके हैं।
उपसंहार :- डॉ० कलाम ऐसे आदर्श हैं जो युवा पीढ़ी के मस्तिष्क में राष्ट्र निर्माण की चिंगारी पैदा करने हेतु आतुर हैं । उनके अनुसार उच्च स्तर का चिंतन करो फिर उसकी पूर्ति हेतु कठिन परिश्रम करो । वे अपने वेतन का कुछ हिस्सा सामाजिक संस्थाओं को भी देते हैं । उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं – अग्नि की उड़ान, तेजस्वी मन, Wing of Fire, India 2020-A vision for the new millennium आदि । डों० कलाम यह मानते हैं कि जो हो रहा है अच्छे के लिए हो रहा है जो होगा वह भी अच्छा होगा । यही उनके जीवन दर्शन का आधार है ।
जीवन में स्वच्छता का महत्व्व
कुछ साल पहले इण्टरनेशनल हाइजीन काउंसिल ने अपने एक सर्वे में कहा था कि औसत भारतीय घर बेहद गंदे और अस्वास्थ्यकर होते हैं । उसके द्वारा जारी गन्दे देशों की सूची में पहला स्थान मलेशिया और दूसरा स्थान भारत को मिला था । हद तो तब हो गई जब हमारे ही देश के एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री ने यहाँ तक कह दिया कि यदि गंदगी के लिए नोबेल पुरस्कार दिया जाता तो वह निश्चित तौर पर भारत को ही मिलता । यह कितने शर्म की बात है कि पूरी दुनिया में भारत की छवि एक गंदे देश के रूप में है।
इस बात के उल्लेख से यह साफ पता चल जाता है कि स्वच्छता के मामले में हम कितने लापरवाह हैं। स्वच्छता का मतलब केवल शारीरिक या पोशाक की स्वच्छता से नहीं है । स्वच्छता का संबंध जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से है। आज पर्यावरण की समस्या हमारी स्वच्छता के प्रति लापरवाही से ही है । गंदगी के कारण हर प्रकार का प्रदूषण होता है । चाहे घर हो, सड़क हो, पिकनिक स्थल हो, स्टेशन हो, बस स्टैण्ड हो, स्कूल-कॉलेज हो चारों और गंदगी का अंबार नज़र आता है ।
स्वच्छता की शिक्षा यदि हम घर से ही शुरू करें तो बच्चे जीवन में स्वच्छता के महत्व को अच्छी तरह समझ पाएंगे। अस्वच्छता या गंदगी के कारण अनेक प्रकार की बीमारियाँ भी फैलती हैं । यही कारण है कि भारत में निजी अस्पताल तथा औषधालयों के धंधे खूब फल-फूल रहे हैं। स्वच्छता के महत्व का अंदाजा हम इसी बात से लगा सकते हैं कि यह कहा भी गया है – “एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है”।
साफ-सफाई को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी बहुत गंभीर हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए2 अक्टूबर 2014 को ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की शुरुआत की । उनकी इच्छा स्वच्छ भारत अभियान को एक जन आंदोलन बनाकर देशवासियों को इससे जोड़ने की है । उन्होंने भारत की जनता से अपील की –
‘गाँधी जी ने आज़ादी से पहले नारा दिया था – ‘क्विट इण्डिया, क्लीन इण्डिया’, आजादी की लड़ाई में साथ देकर देशवासियों ने ‘क्विट इण्डिया’ के सपने को तो साकार कर दिया, लेकिन अभी उनका ‘क्लीन इण्डिया’ का सपना अधूरा ही है।”
प्रधानमंत्री जी ने पाँच साल में देश को साफ-सुथरा बनाने के लिए लोगों को शपथ दिलाई कि न मैं गंदगी करूँगा और न ही गन्दगी करने दुँगा । उन्होंने यह भी कहा कि “स्वच्छता का दायित्व सिर्फ सफाई-कर्मियों का नहीं, सभी 125 करोड़ भारतीयों का है ।”
इन सारी बातों का असर अभी भी आंशिक रूप से ही दिख रहा है तथा ये बातें हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि इतने प्रयास के बावजूद हम भारतीय साफ-सफाई के मामले में आज भी पिछड़े हुए क्यों है ? हम जीवन में स्वच्छता के महत्व को क्यों नहीं समझ पा रहे हैं ?
वर्तमान भारत की समस्याएँ
रुपरेखा : पूर्व समस्याओं का विकराल रूप – बढ़ती जनसंख्या – आर्थिक समस्या – राजनीतिक समस्या – सामाजिक समस्याएँ – उपसंहार।
पूर्व समस्याओं का विकराल रूप : वर्तमान भारत की समस्याएँ उसकी पूर्व समस्याओं का विकराल रूप हैं और समाधान की दिशा में उठाए गए विवेकहीन और असंगत उपायों का दुष्परिणाम है । स्वार्थ और दलहित से प्रेरित आत्मघाती दृष्टिकोण का अभिशाप है। आर्थिक समस्याएँ राष्ट्र की समृद्धि के मार्ग में बाधक बनी हुई हैं। सामाजिक समस्याओं ने समाज का जीना मुश्किल कर रखा है। उग्रवाद, आतंकवाद और साम्पदायिकता भारत में नागरिकों से जीवन जीने का अधिकार छीन रही है । उद्योगों के क्षेत्र में आत्म-निर्भरता और स्वराज्य को विदेशी सहयोग की बैसाखी की जरूरत पड़ गई है । जनसंख्या का प्रतिदिन बढ़ना देश की समस्या बनती जा रही है।
बढ़ती जनसंख्या : बढ़ती जनसंख्या भारत की पमुख समस्या है। इसने देश के विकास कार्यो को बौना, जीवनयापन को अत्यन्त कठिन तथा जीवन-शैली को अस्तव्यस्त और कुरूप बना दिया है। इसका परिणाम है, आज भारत की ६० प्रतिशत जनता गरीबी की सीमा-रेखा से नीचे जीवनयाएन करने को विवश हो चुके है। वह भूखे पेट को शांत करने के लिए असामाजिक कार्य करने लगे है। भारत के उद्योगों को आत्मनिर्भर बनाने, अपने पैरों पर खड़ा करने की भी समस्या है। कारण, विदेशी पूँजी और टेक्नीक भारतीय उद्योग को परतन्नतता के लौह-पाश में जकड़ती जा रही हैं। आज विदेशी पूँजी और तकनीकी ने भारत में विदेशी बहुउद्देशीय कंपनियों का साम्राज्य स्थापित कर दिया है। भारत का कुटीर-उद्योग और लघु-उद्योग मर रहे हैं और औद्योगिक समूहों की आर्थिक स्थिति डगमगा रही है।
आर्थिक समस्या : आर्थिक समस्या आज प्रजा को अधिक परेशानी दे रही है। महँगाई हर दिन बढ़ रही है, जिसने मध्यवर्ग का जीना दुभर कर रखा है। देश का धनीवर्ग विदेशों में अपना धन रखकर भारत की आर्थिक रीढ़ को तोड़ने पर लगा हुआ है। बड़े-बड़े आर्थिक घोटालों ने देश की अर्थ-नींव को हिला दिया है। काले धन के वर्चस्व ने देश की प्रतिष्ठा को ही काला कर रखा है ।सर कारी क्षेत्र के उद्योग निरतंतर करोड़ों रुपए का घाटा देकर आर्थिक स्थिति को जटिल बनाने पर तुले हैं। दूसरी ओर भारत की ६० प्रतिशत जनता गरीबी की सीमा-रेखा से नीचे जीवन जीने को विवश हो चुके है।
राजनीतिक समस्या : राजनीतिक समस्याओं ने देश के चित्र और चरित्र पर सवाल उठा दिया है। अपराधियों के राजनीतिकरण ने देश में ‘ ररित्र’ की व्याख्या ही बदल दी है। संविधान में जाति, सम्पदाय, वर्ग-विशेष, प्रांत-विशेष के विशिष्ट अधिकार तथा संरक्षणवाद ने बिभाजन और विभेद का राक्षस खड़ा कर रखा है। नेतागण लोकतंत्र की दुहाई देते पर कार्य किसी तानाशाह से कम का नहीं करते। भ्रष्ट और देश-द्रोही तत्त्व राजनीतिक आँचल में सुरक्षा पा रहे हैं। इसीलिए आज देश में राजनितिक समस्या का कोई समाधान नहीं निकल रहा है। आम जनता किस राजनितिक दल पर यकीन करें वे उन्हें समझ नहीं आ रहा।
सामाजिक समस्याएँ : आज देश में अनेक सामाजिक समस्याएँ भी बढ़ती जा रही हैं दहेज ने विवाह पूर्व और विवाहोपरांत जीवन में केंसर पैदा कर दिया है। ऊँच-नीच के भेद-भाव ने समस्त समाज को ही दुर्बल बना दिया है। नारी के शोषण, उत्पीडन और बलात्कार ने देश को लांछित कर दिया है। समाज से अपनत्व की भावना समाप्त होती जा रही है। पुत्र में बैयक्तिक सुखोप-भोग की वृत्ति बढ रही है ; इसलिए वह माता-पिता से विद्रोह पर उतर आया है। व्यक्तिगत अहं ने पारिवारिक जीवन को नष्ट कर दिया है। समाज में संवेदना ही समस्या बन गई है। आज का युवक मादक पदार्थों के सेवन में आत्मविस्तृत हो रहा है। वह अपने शरीर पर अत्याचार कर रहे है। युवा पीढ़ी को इस आत्महत्या से बचाने की समस्या विराद् और विनाशकारी की और ढकेल रही है। युवा पीढ़ी की यह बरबादी राष्ट्र को ही तबाह करने पर तुली है।
उपसंहार : आज भारत अनेक समस्याओं का घर बन गया है। वह समस्याओं से आहत है, पीड़ति है और घिरा हुआ है। इनका कारन है, समस्या की सही पहचान न होना और उस पर पकड़ न होना तथा सत्ता-पक्ष और राजनीतिजों की गलत इरादे । आज भारत में समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है यही कारन है आज देश के नागरिक अपने ही देश में सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे। हर रोज एक नयी समस्या उनके दरवाजे पे आ कर खड़ी हो जाती है। जो उनको दुर्बल बनाई जा रही है।
मेरे जीवन का स्मरणीय क्षण या घटना
पिछले वर्ष हर वर्ष की भाँति हमारे विद्यालय में बाल दिवस का समारोह धूम-धाम से मनाया गया। इस अवसर पर विद्यालय में एक चित्रकला प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था । यह जिला स्तर की प्रतियोगिता थी। इसमें जिले भर के विभिन्न छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया था । मैंने भी प्रतिभागियों में अपना नाम लिखवाया था।
दोपहर के 3 बजे प्रतियोगिता आरंभ हुई । लगभग पचास प्रतियोगी थे । हमें प्रधानाचार्य महोदय ने कोई प्राकृतिक दृश्य बनाने के लिए कहा । डेढ़ घंटे की समय निश्चित की गई थी । सभी प्रतियोगियों को कागज, ब्रुश और रंग दिए गए । सभी ध्यान से अपने-अपने चित्र बनाने में जुट गए । मैंने सूर्योदयकालीन दृश्य का चित्रण करना आरंभ किया । मैने उसमें बाल अरुण, पत्ती, आसमान, सुनहरे बादल, झील, पेड़ आदि दिखाए। इधर चित्र बना तो उधर समय भी व्यतीत हो चुका था। निर्धारित समय पर सभी प्रतिभागियों ने अध्यापक महोदय को अपने-अपने चित्र सौंप दिए।
अब परिणाम की बारी थी । विभिन्न विद्यालयों के तीन कला शिक्षकों की एक जूरी बैठी थी । लगभग एक घंटे बाद जूरी ने अपना निर्णय सुनाया । मुझे चित्रकला में प्रथम पुरस्कार मिला । अपने नाम की घोषणा सुनकर मैं फूला न समा रहा था। पिताजी ने मुझे हदय से लगा लिया । प्राचार्य महोदय ने मुझे शाबाशी दी। अध्यापकों ने मेरी पीठ थपथपाई । यह मेरे जीवन का एक यादगार क्षण बन गया ।
मेरी सफलता पर विद्यालय के सभी शिक्षक एवं छात्र गर्व का अनुभव कर रहे थे । जिले भर की प्रतियोगिता में प्रथम आना मेरे लिए भी गर्व की बात थी। मेरे अभिभावक भी बहुत खुश हो रहे थे । उन्हें मेरी योग्यता पर अब किसी प्रकार का संदेह नहीं रह गया था। संध्याकाल में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए गए । जिले के डी. एम. को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था । उनके सम्मान में लाल कालीन बिछाई गई थी। सांस्कृतिक कार्यक्रम में नृत्य, संगीत, एकांकी, कविता पाठ, चुटकुले आदि प्रस्तुत किए गए । मैंने एकांकी ‘अशोक का शस्त्र त्याग’ में सम्राट अशोक की भूमिका निभाई थी। मेरे अभिनय की भी सराहना हुई । मंच के सामने बैठे अतिथि महोदय, शिक्षक, छात्र एवं अभिभावक कार्यक्रम का भरपूर आनंद उठा रहे थे ।
समारोह की समाप्ति पर प्राचार्य महोदय तथा अतिथि महोदय का अभिभाषण हुआ । फिर पुरस्कारों की घोषणा की गई। सम्नाट अशोक के जानदार अभिनय के लिए पुरस्कार सूची में मेरा नाम भी पढ़ा गया। मेरी खुशी दुगुनी हो गई ।
डी. एम. साहब ने मुझे पहले चित्रकला प्रतियोगिता का मैडल प्रदान किया, फिर अभिनय के लिए पुरस्कार दिया। पुरस्कार स्वरूप मुझे मैडल, प्रशस्तिपत्र और नेहरू जी की मूर्ति मिली । विद्यालय की ओर से मुझे पाँच सौ रुपये का नकद पुरस्कार भी मिला । मुख्य अतिथि ने मेरी सराहना की । उन्होंने मुझे जीवन में इसी तरह सफल होने तथा आगे बढ़ते रहने का आशीर्वाद दिया । प्राचार्य महोदय ने भी मंच से मेरी प्रशंसा में कुछ वाक्य कहे ।
उस दिन का प्रत्येक क्षण मेरे जीवन का सबसे यादगार क्षण था । मैं उस दिन को याद करता हूँ तो मुझे चित्रकला और अभिनय के क्षेत्र में और भी अच्छा करने की प्रेरणा मिलती है । मैं चाहता हूँ कि लोग अच्छे कार्यों के लिए मुझे याद करें। मेरा मानना है कि चित्रकला, अभिनय, खेल-कूद भ्रमण आदि शिक्षा के ही अंग हैं । छात्र की जिस क्षेत्र मे प्रतिभा हो, उसी में उसे ध्यान लगाना चाहिए । उसे हर काम उत्साह से करना चाहिए। ऐसा करने पर ही जीवन में कई यादगार क्षण आ सकते हैं।
उन्नत समाज-निर्माण में समाचार पत्र की भूमिका
मीडिया अर्थात् जनसंचार के माध्यम (रेडियो, टेलिविजन, समाचार-पत्र इत्यादि) किसी भी समाज अथवा राष्ट्र की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रतिबिम्ब होते हैं।
जनसंचार के सभी माध्यमों में समाचार-पत्र समाज निर्माण में अपेक्षाकृत अधिक सशक्त भूमिका का निर्वहन करते हैं। समाचार-पत्रों का प्रचलन आरम्भ होने के बाद से ही वे मानव के दृष्टिकोण एवं विचारों को प्रभावित करते रहे हैं ।
विभिन्न देशों में सम्पन्न होने वाली सामाजिक एवं राजनीतिक क्रांतियों में समाचार-पत्रों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है । समाचार-पत्रों की इसी महत्वपूर्ण एवं सशक्त भूमिका को दृष्टिगत रखते हुए इसे “लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ” का अलंकरण प्रदान किया गया है।
समाचार-पत्रों के प्रचलन के समय से लेकर वर्तमान समय तक परिस्थितियों में अभूतपूर्व परिवर्तन आया है और आज समाचार-पत्रों की जन-साधारण तक पहुंच सरल हो गई है, जिसके परिणामस्वरूप समाचार-पत्र समाज के प्रत्येक वर्ग की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने हेतु सक्षम हो गए हैं।
आज समाचार-पत्र हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग बन गए हैं। आधुनिक समाचार-पत्रों द्वारा सरकारों के निर्माण एवं विघटन, विविध विषयों पर जनमत का निर्माण करने तथा पाठकों की मनोस्थिति को प्रभावित करने जैसी व्यापक भूमिकाओं का निर्वहन कर रहे हैं।
समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं में सामाजिक जीवन के समस्त पक्ष सम्मिलित होते हैं, जैसे: स्थानीय समाचार, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय समाचार, खेल स्पर्द्धाएं, व्यापार एवं अर्थशास्त्र, फैशन शो, बच्चों एवं युवाओं पर लेख, शिक्षा एवं रोजगार के अवसर, सिनेमा इत्यादि ।
इसके अतिरिक्त समाचार-पत्र देश की राजनीतिक गतिविधियों के संचालन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। समाचार-पत्र सरकार एवं साधारण जनता के मध्य एक पुल का कार्य करते हैं। वे जनता की अपेक्षाएं सरकार तक तथा सरकार की बात एवं नीतियों इत्यादि को जनता तक पहुंचाते हैं। इस प्रकार वर्तमान समय में समाचार-पत्रों ने लोकतंत्र के एक सजग प्रहरी का स्थान ग्रहण कर लिया है ।
भारत के स्वाधीनता संघर्ष में भी समाचार-पत्रों ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन् किया । भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत राजा राममोहन राय सहित अन्य समाज सुधारकों ने भी अपने धार्मिक एवं सामाजिक सुधार कार्यक्रमों को विस्तार प्रदान करने तथा उन्हें जन-जन तक पहुंचाने हेतु समाचार-पत्रों का ही सहारा लिया । इनके माध्यम से ही देशभक्ति की भावना का संचार अखिल भारतीय स्तर पर हुआ, जिसके कारण देशभक्तों ने स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए हंसते-हंसते कुर्बानी दे दी ।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (मराठा, केसरी), सुरेन्द्रनाथ बनर्जी (बंगाली), भारतेंदु हरिश्वंद्र (संवाद कौमुदी), लाला लाजपत राय (न्यू इंडिया), अरविंद घोष (वंदे मातरम), महात्मा गांधी (यंग इंडिया, इण्डियन ओपीनियन हरिजन), आदि महान नेताओं एवं राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के संचालकों ने विभिन्न भाषाई समाचार-पत्रों के माध्यम से बिटिश शासन की शोषणकारी नीतियों एवं कार्यों को उजागर करके जन-सामान्य तक पहुंचाया।
इन समाचार-पत्रों से संपूर्ण विश्च में अत्याचारपूर्ण ब्रिटिश शासन का प्रचार होता था । समाचार-पत्रों की इस बहुआयामी भूमिका के कारण ही ब्रिटिश शासन द्वारा प्रेस पर कठोर प्रतिबंध आरोपित किये गये तथा समाचार-पत्रों एवं उनके संचालकों को अराजक घोषित कर दिया गया ।
कितु समाचार-पत्रों द्वारा उत्पन्न किये गये जन-उभार ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने में बहुमूल्य योगदान दिया । समाचार-पत्र एक ओर जहां देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों एवं गतिविधियों की जानकारी प्रदान करते हैं वहीं दूसरी ओर सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों से भी जन-साधारण को अवगत कराते हैं ।
समाचार-पत्रों के अभाव में लोकतंत्र सर्वथा अकल्पनीय है । समाचार-पत्रों को जनता की तीसरी आंख भी कहा जाता है । समय एवं स्थितियों में परिवर्तन करने के साथ-साथ समाचार-पत्रों के कार्यक्षेत्र का दायरा भी अत्यधिक बढद गया है
एक सभ्य समाज में उनकी भूमिका बहु-आयामी है तथा वर्तमान समय में राजनीति के अपराधीकरण एवं भ्रष्टाचार के वातावरण में समाचार-पत्रों के उत्तरदायित्वों में अत्यधिक वृद्धि हुई है । भष्टारार में संलिप्त नेताओं एवं सरकारी अधिकारियों का पर्दाफाश करने तथा असामाजिक तत्वों को सजा दिलाने में वे अपनी भूमिका का आदर्श निर्वहन् करते हैं।
समाचार-पत्रों द्वारा अपने विश्लेषणों के माध्यम से व्यापक स्तर पर जनमत तैयार किया जाता है। वर्तमान समय में साधारण जनता कार्यपालिका तथा/अथवा व्यवस्थापिका से अधिक विश्वास समाचार-पत्रो एवं न्यायपालिका पर करती है।
एक शक्तिशाली समाज के निर्माण में समाचार-पत्र अपना अमूल्य योगदान देते हैं । साथ ही वे इस तथ्य का भी सदैव ध्यान रखते हैं कि उनके द्वारा दी गई सूचनाओं से राष्ट्र की अस्मिता एवं अखण्डता पर कोई आंच न आए।
तथ्यों एवं सत्य को पूर्ण रूप से जनता के समक्ष रखने के लिए समाचार-पत्रों को पर्याप्त स्वतंग्रता की आवश्यकता होती है और यह स्वतंत्रता उन्हें संविधान द्वारा अनुच्छेद-19(1) (क) के माध्यम से प्रदान की गई है
कहा जाता है कि कलम की ताकत तलवार से अधिक होती है, जो कि सत्य भी है क्योंकि तलवार के वार से तो मात्र एक ही व्यक्ति घायल होता है कितु कलम द्वारा लिखे गए एक कटु वाक्य मात्र से ही लाखों-करोड़ों लोगों के हुदय घायल हो सकते हैं। कलम की अपरिमित शक्ति के कारण ही प्रसिद्ध तानाशाह नेपोलियन बोनापार्ट शत्रु से अधिक विरोधी समाचार-पत्रों से डरता था।
समाचार-पत्र जन-मानस को एक ऐसी निष्यक्ष दृष्टि प्रदान करते हैं, जिससे जनता स्वयं सत्य एवं असत्य, सही और गलत में भेद कर सके । मीडिया के लिए सभी राजनीतिक दल एवं नेतागण एक समान होते हैं, आदर्श पत्रकारिता के भीतर पक्षपात के लिए कोई स्थान नहीं है।
समाचार-पत्रों के अभाव में स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती । सरकार द्वारा बनाई जाने वाली लोक कल्याणकारी योजनाओं एवं नीतियों को जनता तक पहुंचाने का कार्य समाचार-पत्रों द्वारा ही किया जाता है। विश्व की कोई भी क्रांति एवं आंदोलन समाचार-पत्रों के सहयोग के बिना नहीं हो सका है ।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, समाज के अभाव में मनुष्य का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है । समाचार-पत्रों से हमारा समाज व्यापक रूप से प्रभावित होता है। अत: यह ठीक ही कहा गया है कि, “यदि किसी समय के समाज की स्थिति जाननी हो तो उस समय के समाचार-पत्रों को देखो।”