WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

Students should regularly practice West Bengal Board Class 10 Hindi Book Solutions and रचना शैक्षिक निबंध to reinforce their learning.

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

जल संरक्षण

प्रस्वावना :- धरतो पर जीवन के अस्तित्व को बनाये रखने के लिये जल का संरक्षण और बचाव बहुत जरूरी होता है क्योंकि बिना जल के जीवन संभव नहीं है। पूरे बहाण्ड में एक अपवाद के रुप में धरती पर जीवन चक्र को जारी रखने मे जल मदद करता है क्योंकि धरती इकलौता अकेला ऐसा ग्रह है जहाँ पानी और जीवन दोनों मौनूद है।

जल का संरक्षण :- पानी की जररत हमारे जीवन भर है इसलिये इसको बचाने के लिये केवल हम ही जिम्मेदा है। संयुक्त राष्द्र के संचालन के अनुसार, ऐसा पाया गया है कि राजस्थान में लड़कियाँ स्कूल नहीं जाती है क्योकि उन्द पानी लाने के लिये लंबी दूरी तय करनी पड़ती है जो उनके पूरे दिन को खराब कर देती है इसलिये उन्हें किसी और का के लिये समय नहीं मिलता है। राश्रेय अपराध रिकार्डस्यूरो के सर्वेक्षण के अनुसार, ये रिकाई किया गया है कि लगभा 16,632 किसान (2,369 महिलाएँ) आत्महत्या के द्वारा अपने जीवन को समाप्त कर चुके हैं, हालांकि, 14.4 मामले सूखे के कारण घटित हुए हैं। इसलिये हम कह सकते हैं कि भारत और दूसरे विकासशील देशों में अशिक्षा, आत्महत्या लड़ाई और दूसरे सामाजिक मुद्दो का कारण भी पानी की कमी है। पानी की कमी वाले ऐसे क्षेत्रों में, भविष्य पीढ़ी के बच्हे अपने मूल शिक्षा के अधिकार और खुशी से जीने के अधिकार को प्राप्त नहीं कर पाते हैं।

भारत के जिम्मेदार नागरिक होने के नाते, पानो की कमी के सभी समस्याओं के बारे में हमें अपने आपको जागरा क रखना चाहिये जिससे हम सभी प्रतिज्ञा ले और जल संरक्षण के लिये एक-साथ आगे आये। ये सही कहा गया है कि सभी लोगों का छोटा प्रयास एक बड़ा परिणाम दे सकता है जैसे कि बूंद-बूंद कर के तालाब, नदी और सागर बन सकता है।

जल को कैसे बचायें :-

रोजाना पानी को कैसे बचा सकते है उसके लिये हमने यहाँ कुछ बिन्दु आपके सामने प्रस्तुत किये हैं:

  • लोगों को अपने बागान या उद्यान में तभी पानी देना चाहिये जब उन्हे इसकी जरुरत हो।
  • कार को धोने के लिये पाइप की जगह बाल्टी और मग का इस्तेमाल करें।
  • हमें फलों और सब्जियों को खुले नल के बजाय भरे हुए पानी के बर्तन में धोना चाहिये।
  • बरसात के पानी को जमा करना शौच, उद्यानों को पानी देने आदि के लिये एक अच्छा उपाय है जिससे स्बच्छ जल को पीने और भोजन पकाने के उद्देश्य के लिये बचाया जा सकता है।
  • फुहारे से नहाने के बजाय बाल्टी और मग का प्रयोग करें।
  • हमें हर इस्तेमाल के बाद अपने नल को ठीक से बंद करना चाहिये।
  • जागरुकता फैलाने के लिये हमें जल संरक्षण से संबंधित कार्यक्रमों को बढ़ावा देना चाहिये।

निष्कर्ष :- धरती पर जीवन का सबसे जरूरी स्रांत जल है क्योंकि हमें जीवन के सभी कार्यों को निष्पादित करने के लिये जल की आवश्यकता है जैसे पीने, भोजन बनाने, नहाने, कपड़ा धोने, फसल पैदा करने आदि के लिये। बिना इसको पद्निषि किये भविष्य की पीढ़ी के लिये जल की उचित आपूर्ति के लिये हमें पानी को बचाने की जरूरत है। हमें पानी की बर्बादी को रोकना चाहिये, जल का उपयोग सही ढंग से करें तथा पानी की गुणवत्ता को बनाए रखें।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

देशप्रेम

रूपरेखा :

  • प्रस्तावना
  • देशप्रेम की स्वाभाविकता
  • देश-प्रेम का महत्व
  • उपसंहार।

देशप्रेम वह पुण्य क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित ।
आत्मा के विकास से जिसमें, मानवता होती है विकसित ।।

प्रस्तावना :- मनुष्य जिस देश अथवा समाज में पैदा होता है, उसकी उन्नति में सहयोग देना उसका प्रथम कर्त्रव्य है, अन्यथा उसका जन्म लेना व्यर्थ है। देशप्रेम की भावना ही मनुष्य को बलिदान और त्याग की प्रेरणा देती है । मनुष्य जिस भूमि पर जन्म लेता है, जिसका अन्न खाकर, जल पीकर अपना विकास करता है उसके प्रति प्रेम की भावना का उसके जीवन में सर्वोच्च स्थान होता है । इसी भावना से ओत-प्रोत होकर कहा गया है-

‘जननी जन्मभूमिश्च सवर्गादपि गरीयसी’ (अर्थात् जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।)

देशप्रेम की स्वभाविकता : मनुष्य तथा पशु आदि जीवधारियों की तो बात ही क्या, फूल-पौधों में भी अपने देश के लिए मिटने की चाह होती है । पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने पुष्प के माध्यम से इस अभिलाषा का अत्यंत सुंदर वर्णन किया है-

मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर तुम देना फेंक
मातृभूमि को शीश चढ़ाने जिस पथ जाएँ वीर अनेक ।

अपने देश अथवा अपनी जन्मभूमि के प्रति प्रेम होना मनुष्य की एक स्वाभाविक भावना है ।
देश-प्रेम का महत्व :- देश-प्रेम विश्व के सभी आकर्षणों से बढ़कर है । यह एक ऐसा पवित्र तथा सात्विक भाव है जो मनुष्य को लगातार त्याग की प्रेरणा देता है । देश-प्रेम का संबंध मनुष्य की आत्मा से है । मानव की हार्दिक इच्छा रहती है कि उसका जन्म जिस भूमि पर हुआ है, वहीं पर वह मृत्यु को वरण करे । विदेशों में रहते हुए भी व्यक्ति अंत समय में अपनी मातृभूमि का दर्शन करना चाहता है।

देशप्रेम की भावना मनुष्य की उच्चतम भावना है । देश-प्रेम के सामने व्यक्तिगत लाभ का कोई महत्व नहीं है । जिस मनुष्य के मन में देश के प्रति अपार प्रेम और लगाव नहीं है, उस मानव के हृदय को कठोर, पाषाण-खंड कहना ही उपयुक्त होगा । इसीलिए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण के अनुसार –

भरा नहीं है जो भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं ।
हृदय नहीं पत्थर है वह, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ।।

जो मानव अपने देश के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर देता है तो वह अमर हो जाता है, कितु जो देश-प्रेम तथा मातृभूमि के महत्व को नहीं समझता, वह तो जीवित रहते हुए भी मृतक जैसा है-

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है ।
वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है ।।

केवल राष्ट्र हित में राजनीति करने वाला व्यक्ति ही देश-प्रेमी नहीं है । स्वस्थ व्यक्ति सेना में भर्ती होकर, मजदूर, किसान व अध्यापक अपना कार्य मेहनत, निष्ठा तथा लगन से करके और छात्र अनुशासन में रहकर देश-प्रेम का परिचय दे सकते हैं।

उपसंहार :- प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह अपना सब कुछ अर्पित करके भी देश की रक्षा तथा विकास में सहयोग दें । हम देश में कहीं भी रहें, किसी भी रूप में रहें, अपने कार्य को ईमानदारी से तथा देश के हित को सर्वोपार मानकर करें । आज जब देश अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं से जूझ रहा है, ऐसे समय में प्रत्येक नागरारक का कर्त्तव्य है कि हम अपने व्यक्तिगत सुखों का त्याग करके देश के सम्मान की रक्षा तथा विकास के लिए तन-मन-धन का अर्पित कर दें ।
प्रत्येक नागरिक के लिए छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद के ये शब्द आदर्श बन जाएँ –

जिएँ तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे या हर्ष ।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

विद्यार्थी और अनुशासन
अथवा
छात्र जीवन में अनुशासन का महत्व

रूपरेखा :

  • भूमिका
  • अनुशासन न होने से उत्पन्न समस्या
  • अनुशासन से लाभ
  • विद्यार्थियो के लिये अनुशासन की अनिवार्यता
  • उपसंहार ।

अनु-शासन, इन दो शब्दों के मेल से ‘अनुशासन’ शब्द बना है । इसमें ‘अनु’ उपसर्ग का अर्थ है-पश्चात, बाद में साथ आदि । ‘शासन’ का अर्थ है नियम, विधान, कानून आदि । इस प्रकार दोनों के मेल से बने अनुशासन का सामान्य एवं व्यावहारिक अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति जहाँ भी हो, वहाँ के नियमों, उपनियमों तथा कायदे-कानून के अनुसार शिष्ष आचरण करे । एक आदमी अपने घर में अपने छोटों या नौकर-चाकरों के साथ जिस तरह का व्यवहार कर सकता है वैसा घर के बाहर अन्य लोगों के साथ नहीं कर सकता । घर से बाहर समाज का अनुशासन भिन्न होता है ।

इसी तरह दफ्तर में आदमी को एक अलग तरह के माहौल में रहना और वहाँ के नियम-कानूनों का पालन करना होता है। इसी तरह मन्दिर का नियम-अनुशासन अलग होता है, बाजार एवं मेले का अनुशासन अलग हुआ करता है । ठीक इसी तरह एक छात्र जिस विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने जाता है, वहाँ उसे एक अलग तरह के माहौल में रहना पड़ता है। वहाँ का अनुशासन भी उपर्युक्त सभी स्थानों से सर्वथा भित्न हुआ करता है । अतः व्यक्ति जिस किसी भी तरह के माहौल मे हो, वहाँ के मान्य नियमों, सिद्धान्तों का पालन करना उसका कर्त्तव्य हो जाता है। इस कर्त्तव्य का निर्वाह करने वाला व्यक्ति ही अनुशासित एवं अनुशासनप्रिय कहलाता है ।

सन् 1974 ई० की समग्रक्रांति के प्रणेता जयप्रकाश नारायण तथा आपातकाल विरोधी आंदोलन के नेताओं ने शासन के विरुद्ध विद्यार्थी वर्ग का खुलकर प्रयोग किया। विरोधी आंदोलनों के परिणामस्वरूप मई, सन् 1977 ई० के बाद तो अनुशासनहीनता चारों ओर फैलती जा रही है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात आपातकाल से पहले तक का समय ऐसा था जब स्कूल-कॉलेजों में अनुशासन का पूर्ण रूप से पालन कर छात्रों में गुरुजनों के प्रति श्रद्धा का भाव था। वे निर्यमित रूप से एकाग्रचित होकर अध्ययन करते थे । अब तो छात्र आये दिन कोई न कोई उपद्रव खड़ा करते रहते है ।

अनुशासन तोड़ने पर शारीरिक दण्ड देना कानूनी अपराध है। तब विद्यार्थी को किस तरह डराकर रखा जाये ? तुलसीदास जी ने कहा है, ‘भय बिनु होय न प्रीति।’ जब भय नहीं तो विद्रोह होना स्वाभाविक है।

आज के स्वार्थपूर्ण, अस्वस्थ वातावरण में विद्यार्थियों को शांत और नियम में रहना अस्वाभाविक जान पड़ता है। अस्वस्थ प्रवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह उसकी जागरूकता का परिचायक है। जिस प्रकार अग्नि, जल और अणुशक्ति का रचनात्मक तथा विध्वंसात्मक दोनों रूपों में प्रयोग सम्भव है, उसी प्रकार युवा- शक्ति का उपयोग भी ध्वंसात्मक और रचनात्मक दोनों रूपों में किया जा सकता है। युवा-शक्ति का रचनात्मक उपयोग ही राष्ट्र-हित में वांछनीय है । यह तभी सम्भव है जब शिक्षक की भूमिका गरिमापूर्ण हो तथा राजनीति को शिक्षा से दूर रखा जाये।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

शिक्षक दिवस

रूपरेखा :

  • भूमिका
  • डा० सर्वप्त्नी राधाकृष्णन के जन्मोस्सब के रूप में
  • उपसंहार।

डॉ० सर्वपल्ती राधाकृष्णन पसिद्ध दार्शनिक, शिक्षा-शाखी एवं संस्कृत विधय के प्रकाण्ड विद्वान थे। सन् 1962 से 1967 ई. तक वे भारत के राश्रपति भौ रहे । राश्पति पद पर मतिष्डत होने से पहले वे शिक्षा जगत् से जुडेे हुए थे। मे दर्शनशाख के प्रोफेसर पद को अलकृत किया । सन् 1936 ई० से सन् 1939 ई. तक आवसफोर्ड विश्वविद्यालय में पूर्वों टेशों के भर्म और दर्शन के स्पालिंडन प्रोफेसर पद को सम्मानित किया। सन् 1939 से सन् 1948 हं. तक काशी हिन्दू निश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। राप्रपति बनने के बाद इनके प्रशंसकों ने दनका जन्मदिन सार्वजनिक रूप से मनाना चाहा तो इन्होने जीवनपर्यन्त ख्यय शिक्षक रहने के कारण पाँच सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की इच्छा गक्त की । तब से हर वर्ष पाँच सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।

शिक्षकों को गरिमा प्रदान करने का दिन है – शिक्षक दिवस। शिक्षक राप्र के निर्माता और राप्र संस्कृति के संरक्षक Aी अध्वापक का पर्यायवाची शब्द गुरू है। उपनियद के अनुसार गु अर्थात् अंधकार और रू का अर्थ है निरोधक। अंकार का निरोध करने वाला गुरू कहा जाता है। वे शिक्षा द्वारा बालको के मन में सुसंस्कार डालते हैं तथा उनके अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर देश का अच्छा नागरिक वनाने का प्रयास करते है। राप्र के सम्पूर्ण विकास में शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षक का कार्यक्षेत्र विस्तृत है। किन्तु यह दिवस प्राधमिक, माष्यमिक, उच्च तथा वरिष्ठ याध्यमिक शिक्षण संस्थाओं तक ही सीमित है।

पत्येक प्रादेशिक सरकार अपने स्तर पर शिक्षण के प्रति समर्षित और विद्यार्थियों के प्रति मेम रखने वाले शिक्षकों की सची तैदार करती है। ऐसे वरिष्ठ और योग्य शिक्षकों को मंत्रालय द्वारा 5 सितम्बर को सम्मानित किया जाता है

शिक्षक ज्ञान की कुंजी होते हैं। उनके प्रति सम्मान मदर्शिंत करने के लिये शिक्षक दिवस का अपना महत्व है। मगर आज शिक्षकों तथा छातो का रूप बदल गया है। आज शिक्षको का लक्ष्य सही दिशा और ज्ञान देने की अपेक्षा धन कमाना हो गया है। छात्र भी शिक्षक के महत्व को नहीं समझते । उनके हंदय में शिक्षक के प्रति श्रद्धा का भाव न रहकर, उन्हे उपहार देकर अपने नम्बर बढ़बाने की लालसा रखते हैं।

जिस मूल-भाव या उद्देश्य के लिये शिक्षक दिवस मनाया जाता है, वर्तमान समय में वह उद्देश्य लुप्त हो गया है। अब शिश्षक दिवस मनाने की औपचारिकता हो शेप बची है ।

यही वजह है कि आज शिक्षा का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। शिक्षा मात्र व्यवसाय बन कर रह गई है। शिक्षा का मुख्य उद्वेश्य शिक्षक और छात्र भूलते जा रहे हैं। आज शिक्षक को सम्मानित करना राजनीतिक दावपेंच के अतर्गत आ गया है। इसी वजह से अच्छे और अनुकरणीय शिक्षक इस सम्मान से वंचित रह जाते हैं। यदि शासकीय प्रशासन, निपक्ष भाव से योग्य शिक्षकों को ही सम्मानित करे और उन्हें पघ्यश्री जैसे अलंकारों से विभूषित करे तो शिक्षक दिवस की गरिमा बनी रह सकती है।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

हिन्दी दिवस

रूपरेखा :

  • भूमिका
  • हिन्दी के अस्तित्व की सुरक्षा
  • हिन्दी की समद्धि
  • उपसंहार।

देश आजाद होने के पश्चात् संविधान सभा ने 14 सितम्बर, सन् 1949 ई० को हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया। संविधान के अनुच्छेद 343 में लिखा गया –
‘संघ की सरकारी भाषा देवनागरी लिषि हिन्दी होगी और संघ के सरकारी प्रयोजनों के लिये भारतीय अंकों का अतर्राध्रीय रूप होगा । अधिनियम के खण्ड दोमें लिखा गया कि इस संविधान के लागू होने के समय से 15 वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी प्रयोजनों के लिये अंग्रेजी का प्रयोग सहायक भाषा के रूप में होता रहेगा। अनुच्छेद (ख) धारा तीन में व्यवस्था दी गई कि संसद उक्त पंद्रह वर्ष की कालावधि के पश्चात् विधि द्वारा अंग्रेजी भाषा का (अथवा) अंकों के देवनागरी रूप का ऐसे प्रयोजन के लिये प्रयोग उपबन्धित कर सकेगी जैसे की ऐसी विधि में उल्लेखित हो।

इसके साथ ही अनुच्छेद एक के अधीन संसद् की कार्यवाही हिन्दी अथवा अंग्रेजी में सम्पन्न होगी। 26 जनवरी, सन् 1965 ई० के बाद संसद की कार्यवाही केवल हिन्दी में ही निष्पादित होगी, बशर्ते संसद कानून बनाकर कोई अन्य व्यवस्था न करे।”

14 सितम्बर हिन्दी दिवस, हिन्दी के राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने का गौरवपूर्ण दिन है। हिन्दी दिवस, एक पर्व के रूप में मनाया जाता है। हिन्दी के प्रचार के लिए प्रदर्शनी, गोष्ठी, मेला, सम्मेलन तथा समारोहों का आयोजन किया जाता है। यह दिन हिन्दी की सेवा करने वालों को पुरस्कृत करने का दिन है। सरकारी, अर्द्धसरकारी कार्यालयों तथा बड़े उद्योगिक क्षेत्रों में हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह और हिन्दी पखवाड़ा के रूप में मनाकर हिन्दी के प्रति प्रेम प्रकट किया जाता है।

भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में हिन्दी जैसी लोकभाषा की उपेक्षा का अर्थ है लोकभावना की उपेक्षा । लोकभावना की उपेक्षा करके कोई लोकतन्त्र कैसे और कब तक टिक सकता है ? पिछले ढाई सौ वर्षों में भारत की तीन प्रतिशत आबादी भी अंग्रेजी नहीं सीख पाई। यदि अंग्रेजी सिखाई नहीं जा सकी तो क्या अंग्रेजी लादी जाती रहेगी ? यह कैसी विडम्बना है कि केवल दो प्रतिशत अंग्रेजीपरस्त लोग देश की 98 प्रतिशत जनता पर अपना भाषाई आधिपत्य जमाए हुए हैं, जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है ।

हिन्दी के प्रति उनकी जो वचनबद्धता थी वे आज उसे भूल गये हैं। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाकर भी हिन्दी का अपमान किया गया। अंग्रेजी सहायक भाषा होकर भी उन्नति, प्रगति और समृद्धि का सोपान बन गई। अंग्रेजी को आधुनिक जीवन के लिये अनिवार्य माना जाने लगा। आज तो स्कूल-कॉलेज सभी कुकुरमुत्ते की भाँति अंग्रेजी-माध्यम में बदलते जा रहे हैं। अंग्रेजी का प्रयोग न करने वाला पिछड़ा कहलाता है। हिन्दी बोलने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। अंग्रेजी बोलने वालों को हर क्षेत्र में वरीयता दी जाती है।

हिन्दी के चापलूस, स्वार्थी और भ्रष्ट अधिकारियों ने हिन्दी के विकास और समृद्धि के नाम पर अदूरदर्शिता और विवेकहीनता का परिचय दिया है। राजकीय कोष से हर वर्ष करोड़ों रुपये हिन्दी का उपकार करने के लिए खर्च किये जाते हैं, लेकिन यह सब केवल दिखावा है ।

परिणामस्वरूप हिन्दी समृद्धशाली होने के बावजूद अपने ही घर में अपने ही लोगों द्वारा हेय दृष्टि से देखी जा रही है। हिंदी भाषी बुद्धिजीवी तथा हिन्दी समर्थक अपने स्वार्थपूर्ति के चक्कर में हिन्दी के प्रति अपनी आवाज ठीक ढंग से नहीं उठाते। भारतेंदु आदि मनीषियों ने जो सपना देखा था वह साकार नहीं हो सका –

अपने ही घर में हो रहा अपमान हिंदी का,
पैरों तले रौंदा रहा सम्मान हिंदी का ।

हिन्दी-भाषी बुद्धिजीवी हिन्दी के पक्ष में लच्छेदार भाषण तो देते हैं, मगर हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के लिये सक्रिय रूप से कोई कार्य नहीं करते। परिणामस्वरूप बृहत रूप से बोली और समझी जाने वाली भाषा होकर भी इसे वह सम्मान प्राप्त नहीं हुआ, जिसकी वह अधिकारिणी थी। राष्ट्रभाषा हिन्दी होने के बावजूद सरकारी कार्य अभी भी अंग्रेजी में होते हैं। हिन्दी में पत्र-व्यवहार तो एक प्रकार से खत्म हो गया है। आज हिन्दी की पत्र-पत्रिकायें धन तथा पाठकों के अभाव में बंद होती जा रही हैं। आजादी के पहले जितनी पत्र-पत्रिकायें निकलती थीं उनकी तुलना में आज पत्र-पत्रिकाओं की संख्या नगण्य है।

अत: हिन्दी दिवस सिर्फ एक दिखावे का पर्व बनकर रह गया है। यह आवश्यक है कि हम हिंदी के प्रति प्रेम प्रकट करें तथा हिंदी के विकास के लिये पूर्ण रूप से अपना योगदान करें । भारतवासियों को यह शपथ लेनी होगी कि स्वतंत्रता के पृर्व हिन्दी को जो आश्वासन दिया गया था, उसे सच्चे अर्थों में पूरा करेंगे और इस बात का ध्यान रखेंगे कि उसकी सहायक भाषा बनकर कोई उसे निगल न ले। ऐसा करके ही हम सच्चे अर्थों में हिन्दी दिवस मना सकेंगे और हिन्दी के प्रति अपनी निष्ठा और श्रद्धा व्यक्त कर सकेंगे । यह निश्चित है कि हिन्दी भाषा की ज्वलंत प्राण-शक्ति सारे विरोधों को अनायास काट देगी और भारत-भारती के रूप में प्रतिष्ठित होगी । गोपाल सिंह ‘नेपाली’ के शब्दों में –

इस भाषा में हर मीरा को मोहन की माला जपने दो ।
हिन्दी है भारत की बोली तो अपने-आप पनपने दो ।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

जीवन में खेल का महत्व
अथवा
खेल जीवन की महत्वपूर्ण अंग है

रूपरेखा :

  • भूमिका
  • खेल-कूद का जीवन में महत्व
  • खेल-कूद मनोरंजन का भी उत्कृष्ट साधन है
  • उपसंहार ।

मानव-जीवन परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ उपहार है और खेल जीवन के रस-प्राण है। खेल के बिना जीवन जड़ है। खेलमय जीवन में ही जागृति और उत्थान है। जैनेंद्र जी कहते हैं – “जीवन दायित्व का खेल है और खेल में जीवन दायित्व की प्राण-संजीवनी शक्ति है।”

वैदिक काल से ही मनुष्य की इच्छा रही है कि मेरा शरीर पत्थर के समान मजबूत हो और दिनोंदिन वह फूले-फले। इस इच्छा की पूर्ति निरोगी काया द्वारा हो सकती है जिसके लिये जरूरी है खेल।

गतिशीलता जीवन का लक्षण है और गतिशीलता निर्भर करती है स्वस्थ शरीर पर। जीवन भोग का कोश है। इंद्रियजनित इच्छा और सुख की तृप्ति के लिए चाहिए शक्ति। शक्ति के लिए जरूरी है आत्मविश्वास। आत्मविश्वास खेल द्वारा बढ़ता है। खेलों के कई रूप हैं, मनोविनोद तथा मनोविज्ञान के खेल और धनोपार्जन कराने वाले खेल। मनोरंजन वाले खेलों में हैं – ताश, शतरंज, कैरम, जादुई-करिश्मे आदि। व्यायाम के खंलों में हैं – एथेलेटिक्स, कुश्ती, निशानेबाजी, घूँसेबाजी, घुड़दौड़, साइक्लिंग, जूडो, तीरंदाजी, हॉंकी, वालीबॉल, फुटबॉल, टेनिस, क्रिकेट, कबड्डी, खा-खो आदि ।

धनोपार्जन के खेलों में सर्कस, जादू के खेल तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेले जाने वाले खेल आते हैं। मनोरंजन के खेल मानसिक व्यायाम के साधन हैं। खेल मानसिक थकावट दूर कर जीवन में नवस्कूर्ति भर देता है । खेल-कूद से मनुष्य में पूरी तन्मयता से काम करने की भावना जागृत होती है। जब कोई खेलता है तो वह जीतने के लिये अपनी पूरी शक्ति का प्रयोग करता है। इससे जीवन में किसी भी काम को करने के लिये खिलाड़ी प्रवृत्ति से काम करने का स्वभाव विकसित होता है।

खेल मनुष्य में सहनशीलता की भावना उत्पन्न करता है। खेलते वक्त लगी चांट उसे प्रतिशोध लेने की बजाय पीड़ा सहने की शक्ति देती है।

खेलने से व्यक्ति जीवन के संघर्ष में सफलता की शिक्षा भी पाता है। खेल में वह अपनी बुद्धि तथा शरीर से संघर्ष करता हुआ विजय प्राप्त करता है। यही स्वभाव उसको जीवन के संघर्षों में निर्भय होकर लड़ने तथा विजय पाने की शक्ति प्रदान करता है।

नैपोलियन को हराने वाले अंग्रेज नेल्सन ने कहा था – The war of waterloo was won in the fields of Eton, तात्पर्य यह है कि मैंने वाटरलू के युद्ध में जो सफलता पाई है उसका प्रशिक्षण ईटन के खेल के मैदान में मिला था।

अत: हम कह सकते हैं कि खेल के माध्यम से हम जीवन के सभी मूल्यों को प्राप्त करने की शक्ति प्राप्त करते हैं। खेल नैतिकता का पाठ पढ़ाता है और शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ बनाता है। इसलिए जीवन में खेल का महत्वपूर्ण स्थान है। प्राय: कहा जाता है :-
“तेज होते हैं, पहिए तेल से, तेज होते हैं, बच्चे खेल से ।”

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

मेरा प्रिय खेल

रूपरेखा :

  • भूमिका
  • किकेट खेल का प्रारम्भ
  • किकेट खेल की विधि
  • भारत में किकेट
  • उपसंहार।

मानव-जीवन में खेल का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हमारे देश में अनेक प्रकार के खेल है। हॉकी, फुटबॉल, बास्केटबॉल, टेनिस, शतरंज, टेबल टेनिस, गोल्फ, पोलो, बिलियर्ड, क्रिकेट आदि। ये सारे खेल विश्व-भर में खेले जाते हैं। इन सारे खेलों में मेरा प्रिय खेल है क्रिकेट।

क्रिकेट और हॉकी वर्तमान समय में सबका प्रिय खेल है। इनके मैचों का सीधा प्रसारण दूरदर्शन पर भी दिखाया जाता है। क्रिकेट बैट, बॉल और स्टम्प का खेल है।

क्रिकेट के लिए मैदान चाहिए। खेल सीधा और आसान होने के बावजूद परिश्रम से भरा हुआ है। खेल के मैदान के बीचो-बीच चौकोर रेखा खींची जाती है, जिसके दोनों किनारों पर तीन-तीन स्टम्प लगाए जाते हैं और उनके ऊपर दो गिल्लियाँ रखी जाती हैं। दोनों दलों में 11-11 खिलाड़ी होते हैं। खेल आरम्भ करने के पहले टॉस होता है और जो टीम ठोस जीतती है वह अपनी इच्छानुसार गेंद फेंकना या बैटिंग चुनती है। खेल के नियमों को ध्यान में रखते हुए निर्णय देने के लिए अम्पायर की जरूरत होती है। जो आउट, नो बॉल, वाइड बॉल आदि का निर्णय देता है।

खेल प्रारम्भ होने पर बैटिंग करने वाले दल के दो खिलाड़ी मैदान में उतरते हैं। वे पैड, हेलमेट, ग्लब्ज, बैट आदि लेकर आते हैं और दूसरी टीम के सभी खिलाड़ी बोलिंग और फिल्डिंग के लिए मैदान में उतरते हैं। बैटिंग करने वाले खिलाड़ी के पीछे एक खिलाड़ी विकेट-कीपर की हैसियत से खड़ा होता है। फिल्डिंग के लिए अन्य खिलाड़ी मैदान में चारों तरफ बिखर जाते हैं। उनमें से एक खिलाड़ी बॉलिंग करता है। गेंदबाजी क्रमानुसार टीम के अच्छे गेंदबाजों द्वारा बारी-बारी से की जाती है। खेल के लिए ओवर निश्चित होते हैं। उन ओवरों में जितनी गेदे फेंकी जाती हैं उनमें अधिक से अधिक रन बनाने की कोशिश की जाती है और दूसरी टीम, जो गेंदबाजी करती है उसे अधिक रन बनाकर मैच जीतना होता है।

क्रिकेट का आनंद ही कुछ अलग है। दर्शकों की नजर एक-एक गेंद पर होती है। हर चौके-छक्के पर लोग उछल पड़ते हैं। क्रिकेट का मौसम आने पर, मैं अपने दोस्तों के साथ मैदान में क्रिकेट खेलने जाता हूँ। भारत का जब भी मैच होता है, मैं सब काम छोड़कर मैच देखने लगता हूँ।

क्रिकेट देखते समय जब भारतीय टीम को हारते देखता हूँ तो मुझे बड़ा गुस्सा आता है और मन करता है कि मैं मैदान में उतर कर चौके-छक्के की बरसात कर दूँ।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

समाचार-पत्र की आत्मकथा

रूपरेखा :

  • भूमिका
  • ज्ञानवर्धन
  • मनोरंजन
  • समाचार-पत्रों का दायित्व।
  • उपसंहार।

मैं समाचार-पत्र हूँ । मेरा आरम्भ सोलहवीं शताब्दी में चीन में हुआ था। ‘पीकिंग-गजट’ विश्व का पहला समाचार पत्र था । भारत का पहला समाचार-पत्र इण्डिया-गजट था जो अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ था। हिन्दी का सबसे पहला समाचार-पत्र उदंत-मार्तड था, जो सन् 1826 ई० में कोलकाता में प्रकाशित हुआ था । अब तो विश्वभर में मैं छप रहा हूँ । केवल भारतवर्ष में ही लगभग 2,400 दैनिक समाचार-पत्र तथा 400 साप्ताहिक पत्र प्रकाशित होते हैं ।

आधुनिक समय में शिक्षा का उद्देश्य बदल गया है। पहले शिक्षा का जो स्वरूप था, आज की शिक्षा उससे बिल्कुल भिन्न है। आज केवल किताबी ज्ञान हासिल कर डिग्री प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य बन गया है।

विनोबा भावे जी ने ‘जीवन और शिक्षण’ नामक निबंध में शिक्षा के मुख्य उद्देश्य पर व्यापक प्रकाश डाला है और आज की शिक्षण-प्रणाली की विकृतियों को उद्घाटित किया है।

शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति के साथ-साथ जीवन जीने की कला की प्राप्ति करना भी है । किन्तु आज स्कूलों, कॉलेजों में केवल किताबी शिक्षा दी जाती है। बच्चे जब उस शिक्षा को प्राप्त कर जगत में निकलते है तब उन्हे सारी शिक्षा बेमानी लगती है।

अधिकतर बच्चों के लिये शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री हासिल करना रह गया है। इसी कारण वे न तो किताबी ज्ञान पूर्ण रूप से प्राप्त कर पाते हैं और न ही जगत् का व्यावहारिक ज्ञान हासिल कर पाते हैं। वास्तव में सरकार द्वारा अपनायी जाने वाली शिक्षा-पद्धति ही उचित नहीं है।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

शिक्षा और व्यवसाय
अथवा,
आधुनिक शिक्षाप्रणाली

रूपरेखा :

  • भूमिका
  • आधुनिक शिक्षा का आरम्भ
  • दोष
  • शिक्षा की आवश्यकता
  • लाभ
  • सुधार
  • उपसंहार।

शिक्षा और व्यवसाय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शिक्षा के बिना जीविकोपार्जन सम्भव नहीं है, व्यवसाय के ब्रिना शिक्षा बेकार है। अतः शिक्षा और व्यवसाय मानवीय प्रग्गति के सम्बल हैं।
प्राचीन युग में शिक्षा का अर्थ ज्ञानार्जन करना था। उस समय शिक्षा धनोपार्जन का माध्यम नहीं थी।
समय-परिवर्तन के साथ भारतीय जनता में अंग्रेजी के साथ-साथ आधुनिक विषय जैसे विज्ञान, वाणिज्य-शास्ख, अर्थशास्त्र आदि सीखने का प्रचलन चला। वर्तमान शिक्षा प्रणाली का इतिहास बहुत पुराना है। जब भारत पराधीन था, विदेशी शासकों ने अपने स्वार्थ के लिये अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति को भारत में प्रचालत किया था।मैकाले इसक प्रवर्तक थे। यह शिक्षा नीति भारतीय संस्कृति, परम्परा एवं राष्ट्रीय जीवन के विपरीत थी।

पिछले कुछ वर्षों में समाज की मान्यताओं, मूल्यों, आवश्यकताओं, समस्याओं और विचारधाराओं में बहुत परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तनों के साथ समाज का सामंजस्य होना आवश्यक है। इन परिवर्तनों के अनुरूप शिक्षा के स्वरूप, प्रणाली और व्यवस्था में परिवर्तन आया है। अब शिक्षा व्यवस्था को अधिक उपयोगी, व्यावहारिक तथा जीविकोपार्जन का माध्यम बनाया जा रहा है ।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली की महत्वपूर्ण देन है – बाबू संस्कृति अर्थात् कुसीं पर बैठकर काम करने की प्रवृत्ति और नागरिक संस्कृति अर्थात नगरों तथा महानगरों में रहकर ही काम करने की प्रवृत्ति। परिणामस्वरूप नगरों में जहाँ तेजी से बेकारी बढ़ी है वहीं गाँव का विकास उतनी तेजी से नहीं हो पा रहा है।

व्यावसायिक शिक्षा व्यक्ति को सामाजिकता से परिचित कराती है। शिक्षा रोजगार पैदा नहीं करेगी, वह तों व्यक्ति को रोजगार प्राप्त करने में सहायता पहुँचाती है। व्यावसायिक शिक्षा से व्यक्ति का दृष्टिकोण व्यापक बनेगा।

व्यावसायिक शिक्षा की दृष्टि से देश में आई.आई.टी, तकनीकी शिक्षा, औद्यांगक प्रशिक्षण केंद्र, कृषि विश्शावद्यालयो तथा वैज्ञानिक संस्थानों का जाल बिछ गया है। व्यावसायिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिये देश भर में कई स्कूलों में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को लागू किया गया है, ताकि अधिक से अधिक संख्या में छात्रों कां इसका लाभदायक फल मिल सके। देश में व्यावसायिक शिक्षा कार्यक्रम को तकनीकी और शैक्षणिक सहायता प्राप्त कराने के लिये जुलाई, सन् 1993 ई० में भोपाल में केंद्रीय व्यावसायिक शिक्षा संस्थान की स्थापना की गई है।

किन्तु इन सारे पाठ्यक्रमों और शिक्षा-विधियों ने छात्रों पर अत्यधिक बोझ लाद दिया है। सभी विषयों के अधकचरे ज्ञान ने उसे रटंत-तोता बनाकर छोड़ दिया है।

व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् भी, प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना छात्रों के लिये अति आवश्यक हो गया है। इन परीक्षाओं को पास करने के पश्चात् नौकरी न मिलना और अर्थाभाव की वजह से निजी व्यवसाय न कर पाने से युवाओं में कुण्ठा और निराशा का भाव भरता जा रहा है।

शिक्षा-प्रवेश की भेदभावपूर्ण नीति ने उच्च तकनीकी तथा वैज्ञानिक शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े वर्गों के लिए आसन सुरक्षित कर दिया है, इसी कारण योग्य छात्र बाहर की धूल फाँकने को मजबूर हो जाता है।

देश में बढ़ती बेरोजगारी, युवाओं में पनपती दुष्मवृत्तियाँ तथा असामाजिक कार्यों की तरफ झुकाव, देश को अराजकता की तरफ धकेल रहा है। हमारी शिक्षा का व्यवसाय के साथ सामंजस्य और संतुलन होना चाहिए और शिक्षा जीविकाकेन्द्रित होनी चाहिए ।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

राष्ट्र-निर्माण में युवा पीढ़ी का सहयोग

रूपरेखा :

  • भूमिका
  • युवा पीढ़ी का कर्तव्य
  • युवा पीढ़ी का योगदान
  • उपसंहार ।

राष्र्र-निर्माण में युवा पीढ़ी का सहयोग राष्ट्र के प्रति उसके दायित्व की अनुभूति का ज्वलंत प्रमाण है। यही उसकी राष्ट्रवंदना, और राष्ट्र-पूजा है। यह सहयोग उसके राष्ट्र-प्रेम, देशभक्ति तथा मातृभूमि के प्रति समर्पण की भावना को प्रकट करता है। राष्ट्र का प्रत्येक महान् कार्य युवकों के सहयोग के बिना अधूरा ही रह जाता है। निर्माण सदैव बलिदानों पर आधारित होता है। बलिदान की भावना युवा पीढ़ी में बलवती होती है। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, सुखदेव, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, बिस्मिल जैसे सहस्तों युवकों ने राष्ट्र-निर्माण के लिये अपना जीवन बलिदान कर दिया। गांधीजी के नेतृत्व में लाखों नौजवानों ने स्वतंत्रता की लड़ाई में भागीदारी की। अपने जीवन को जेलों में सड़ाया, लेकिन स्वतंग्रता की माँग नहीं छोड़ी। इन्हीं वीरों को याद करते हुए दिनकर जी ने कहा था –

जो अगणित लघु दीप हमारे।
तूफानों में एवन विन्नारे ।
जल-जलकर बुझ गये किसी दिन।
माँगा नहीं स्ने मुँह खोल।
कलम आज उनकी जय बोल।

इसी प्रकार सन् 1974 ई० में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित किया, तब लाखों युवकों ने इंदिरा गाँधी की तानाशाही के विरुद्ध आवाज उठाई और जेल गये। युवा-देशभक्तों का राष्ट्र-निर्माण के विविध क्षेत्रों में सहयोग सदा स्मरणीय रहेगा।

युवा पीढ़ी समाचार-पत्रों के माध्यम से समय-समय पर अपने उच्च विचारों को अभिव्यक्ति देकर जन-जागरण का शंखनाद कर सकती है और देश की वैचारिक सम्पदा की अभिवृद्धि कर सकती है।

आज देश बढ़ती हुई जनसंख्या से परेशान है। देश के युवा वर्ग परिवार-नियोजन द्वारा देश की इस समस्या को कम कर सकते हैं।

दहेज की कुप्रथा की वजह से कई लड़कियों को अपनी जान गँवानी पड़ती है। अत: युवा पीढ़ी को देश की इस कुप्रथा को दूर करने के लिये बिना दहेज विवाह करने का प्रण लेना चाहिए ताकि देश की कुरीतियों का अंत हो सके और देश स्वस्थ, स्वच्छ और सुंदर बन सके ।

देश के प्रौढ़ व वयोवृद्ध वर्ग का यह नैतिक दायित्व है कि वह युवाओं का सही मार्गदर्शन करें। उनके सुखद जीवनयापन की अपेक्षित सुविधायें जुटायें और उनके भविष्य निर्माण के लिये सच्चे दिल से प्रयास करें। आज धर्म-गुरु व राजनीतिक नेता युवा पीढ़ी को पथभ्रष्ट करने में सबसे आगे हैं । अतः सामान्य जन को इस दिशा में गम्भीरता से सोचना चाहिये और युवा वर्ग के प्रति सामाजिक दायित्व का परिपालन करना चाहिये ।

भारतीय समाज अनेक पाखण्डों और कुप्रथाओं से ग्रस्त है। नई पीढ़ी इन कुप्रथाओं को दूर करने की प्रतिज्ञा कर ले तो देश को ऊँच-नीच के भेदभाव, नारी-शोषण, यौन-उत्पीड़न और बलात्कार के संकट से मुक्त किया जा सकता है। चोरी, छीना-झपटी, अपहरण, हत्या, पाखण्ड और अंधविश्वास से देश को मुक्ति दिलाई जा सकती है ।

गरीबों, बाल मजदूरों जैसे निरक्षर लोगों को साक्षर बनाकर युवा पीढ़ी देश में जागृति और नई चेतना का भाव भर सकते हैं।

आज युवा पीढ़ी का एक अंश आक्रोश, आंदोलन और हड़ताल द्वारा राष्ट्र को क्षति पहुँचा रही है। अत: युवाओं को ऐसे कार्यों से बचना चाहिये और अपने रचनात्मक कार्यों से राष्ट्र की उन्नति में सक्रिय योगदान करना चाहिये । जैनेंद्र जी ने कहा था “‘युवकों का उत्साह ताप बन कर न रह जाये, यदि उसमें तप भी मिल जाये तो और अधिक निर्माणकारी हो सकता है ।”

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

विश्व पर्यावरण दिवस

रूपरेखा :

  • भूमिका
  • अनेकानेक उद्योग-धन्धों के कारण
  • पर्यावरण को बचाने के उपाय
  • उपसंहार।

पूरे विश्व में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करने और समस्या के समाधान के लिये हर वर्ष पाँच जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। इस अवसर पर संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य संस्थाओं द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण गोष्ठियाँ आयोजित की जाती हैं, जिसमें पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिये सुझाव प्रस्तुत किये जाते हैं।

पर्यावरण प्रदूषण से मानव अस्तित्व पर संकट आ गया है। औद्योगीकरण और नगरीकरण की वजह से प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। कारण यह है कि विकास के लिये घने-घने वन-उपवन उजाड़ दिये गये हैं जिससे प्राकृतिक सम्पदा ही नहीं, पूरा वायुमण्डल प्रदूषित हो गया है।

भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण भी वनों को नष्ट किया जा रहा है। परिणामत: चट्टानों का खिसकना, भूमिकटाव से ग्रामों के अस्तित्व का लोप होना, अनियंत्रित वर्षा, सूखा, बाढ़ और निरंतर तापमान में वृद्धि हो रही है।

आज देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग 1,880 लाख हेक्टेयर हिस्सा भू-क्षरण का शिकार है । सन् 1977 ई० के बाद आज तक खतरनाक भू-क्षरण वाले क्षेत्रों का विस्तार दुगुना हो गया है। जंगलों को काट कर समतल बनाया जा रहा है, जिसका परिणाम यह हुआ कि आपूर्ति क्षमता की तुलना में जलावन के लिये लकड़ी की माँक्ष गुना अधिक हो गयी है।

प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ करने का परिणाम यह है कि जीवन के लिये अति आवश्यक वस्तु, हवा भी जहरीली हो गई है। महानगरों में चलने वाले परिवहन के अनेक साधन दिन-प्रतिदिन वायु को और अधिक दूषित करते जा रहे हैं । औद्योगिक कल-कारखानों से निकलने वाला धुआँ तथा राख भी वायु को अत्यधिक प्रदूषित कर रहा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा लगाये गए अनुमान के अनुसार विश्व के लगभग आधे शहरों में कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा हानिकारक स्तर तक पहुँच गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने प्रदूषित जल से होने वाले निम्नलिखित रोग बतलाये हैं – हैजा, डायरिया, टायफाईड, पालियोमाईटिस, राउण्डवर्म, फाईलेरिया, मलेरिया, डेंगू फीवर आदि।

कभी बाढ़, कभी सूखा तथा तरह-तरह की बीमारियों की वजह यही पर्यावरण प्रदूषण है। अतः प्रकृति को प्रदूषण से बचाने के लिये पर्यावरण दिवस के दिन सबको प्रकृति की रक्षा करने का संदेश दिया जाता है तथा हर व्यक्ति से अपील की जाती है कि वह कम से कम एक पौधा अवश्य लगाये । वृक्षारोपण इस समस्या का मुख्य समाधान है।

हमें चाहिए कि गंदगी तथा जल-जमाव करके बीमारियों को जन्म न दें। वातावरण को स्वच्छ तथा साफ-सुथरा रखना प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है। अत: पर्यावरण की सुरक्षा सभी को करनी चाहिए, ताकि मानव-जाति को नष्ट होने से बचाया जा सके । विश्व पर्यावरण दिवस हमें इसी जिम्मेदारी की याद दिलाता है ।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

विद्यार्थी-जीवन

रूपरेखा :

  • प्रस्तावना
  • विद्यार्थी जीवन की स्थिति
  • विद्यार्थी जीवन में ज्ञानार्जन, विद्या तथा चरिज्र का महत्व
  • विद्यार्थी के आवश्यक गुण
  • प्राचीन विद्यार्थी और आधुनिक विद्यार्थी
  • विद्यार्थी के कर्त्तव्य
  • उपसंहार।

प्रस्तावना :- विद्यार्थी ही देश के भावी कर्णधार हैं । विद्यार्थी-जीवन, मानव-जीवन का सबसे अधिक महत्वपूर्ण काल है । जन्म के समय बालक अबोध होता है । शिक्षा के द्वारा उसके जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है, उसकी बुद्धि विकसित की जाती है । जिस काल में वह पूर्ण मनोयोग से विद्याध्ययन करता है, उस काल को विद्यार्थी-जीवन कहते हैं ।

विद्यार्थी-जीवन की स्थिति :- विद्यार्थी-जीवन, मानव-जीवन का सर्वश्रेष्ठ काल है । इस काल में मनुष्य जो कुछ सीखता है वह आजन्म उसके काम आता है। विद्यार्थी-जीवन मानव के जीवन की ऐसी विशिष्ट अवस्था है, जिसमें उसे सही दिशा का बोध होता है । इसी कारण, इस काल को अत्यंत सावधानी से व्यतीत करना चाहिए ।

विद्यार्थी-जीवन में ज्ञानार्जन, विद्या तथा चरित्र का महतव :-विद्यार्थी का उद्देश्य केवल विद्या प्राप्त करना नहीं होता अपितु ज्ञान की वृद्धि, शारीरिक-मानसिक विकास एवं चारित्रिक सदगुणों की वृद्धि भी उसका लक्ष्य होता है । विद्याध्ययन का काल ही वह काल है जिसमें सहयोग, प्रेम, सत्यभाषण, सहानुभूति, साहस आदि गुणों का विकास किया जाता है । अनुशासन, शिष्टाचार आदि प्रवृत्तियाँ भी इसी समय जन्म लेती हैं।

विद्यार्थी-जीवन में विद्या के साथ ही चारित्रिक विकास का भी महत्वपूर्ण स्थान है । वरित्रहीन व्यक्ति अपने जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता । चरित्र के द्वारा ही विद्यार्थी में अनेक सद्गुणों का विकास होता है, अतः विद्यार्थी-जीवन मे चरित्र-निर्माण की आवश्यकता पर विशेष बल दिया जाता है ।

विद्यार्थी के आवश्यक गुण :-प्राचीनकाल में आचार्यो ने विद्यार्थी के लिए आवश्यक गुणों की चर्चा इस प्रकार की है काकचेष्टा

वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च ।
अल्पहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंच लक्षणम् ।।

विद्यार्थी का प्रमुख कार्य विद्या का अध्ययन है । उसे श्रेष्ठ विद्या प्राप्त करने में संकोच नहीं करना चाहिए । अपने से छोटे अथवा किसी भी वर्ग के पास यदि अच्छी विद्या है तो उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।

प्राचीन विद्यार्थी और आधुनिक विद्यार्थी :- प्राचीन काल में छात्र नगर के जीवन से दूर पविन्र आश्रमों में गुरू के संरक्षण में शिक्षा ग्रहण करता था। वह सादा जीवन बिताकर, गुरू की इच्छा से कार्य करता था। वह विद्वान, तपस्वी, योगी तथा सदाचारी होता था। उसके विचार उच्चकोटि के होते थे । आज का विद्यार्थी अपने इस बहुमूल्य जीवन के प्रति सजग और गंभीर नहीं रह गया है । आज तो वह पैसे के बल पर मात्र पैसे के लिए विद्या प्राप्त करता है । शिक्षा नौकरी का पर्याय बनकर रह गई है । विद्यार्थी के लिए स्वाध्याय एवं आत्मोन्नति का विशेष महत्व नहीं रहा है । विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता और स्वच्छंदता की प्रवृत्ति बढ़ रही है । उनमें विनयशीलता का अभाव स्पष्ट दिखाई देता है । अध्यापकों का अपमान, दिन-रात के लड़ाई-झगड़े, आंदोलन, हड़ताल ही मानों उनके जीवन का लक्ष्य बन गया है ।

विद्यार्थी के कर्त्तव्य :- भारत एक स्वतंत्र देश है । उसकी आजादी की रक्षा करना प्रत्येक विद्यार्थी का कर्त्तव्य है। इसके लिए यह आवश्यक है कि हम आदर्श विद्यार्थी बनें । हमारी शिक्षा का उद्देश्य अधिकाधिक ज्ञानार्जन होना चाहिए, केवल नौकरी पाना नहीं । केवल नौकरी प्राप्त करके हम न तो देश का और ना ही समाज का भला कर सकते हैं। शिक्षा नौकरीपरक न होकर रोजगारपरक होनी चाहिए । इस विशाल राष्ट्र की दृढ़ता एवं प्रगति के लिए विद्यार्थी को अत्यंत सबल, सक्षम और शिक्षित होना चाहिए । उसे अपनी संस्कृति तथा मूल्यों को अपनाना चाहिए तथा पाश्चात्य सभ्यता के अंधे अनुकरण से बचना चाहिए । गुणी और साहसी विद्यार्थी ही देश की रक्षा का भार उठाने में सक्षम होगा ।

उपसंहार :- विद्यार्थी को देश का सच्चा निर्माता तभी कहा जा सकता है, जब वह चारित्रिक, मानसिक, शारीरिक दृष्टि से पूर्ण समर्थ हो । विद्यार्थी को चाहिए कि अपने विद्यार्थी-जीवन को मौज-मस्ती का साधन न बनाकर उसे शिक्षा ग्रहण करने में लगाए । विद्यार्थी-जीवन की सफलता ही विद्यार्थी के उन्नति की आधारशिला है ।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

पुस्तकालय का महत्व

रूपरेखा :

  • प्रस्तावना
  • पुस्तकालयो के प्रकार
  • महत्व
  • पुस्तकालय से लाभ- ज्ञान की प्राप्ति
  • मनोर जन का स्वस्थ साधन, दुर्लभ तथ्नो की प्राप्ति के साथन
  • पठन-पाठन में सहयोगी
  • भारत में पुस्तकालयों की सिर्थित
  • उपसंहार।

प्रस्तावना :- पुस्तकालय का अर्थ होता है पुस्तकों का घर, अर्थात् जहॉँ पुस्तकों को रखा जाता हो या संग्रह किया जाता हो । अतः पुस्तकों के उन सभी संग्रहालयों को पुस्तकालय कहा जा सकता है, जहाँ पुस्तकों का उपयोग पठन-पाठन के लिए किया जाता हो । पुस्तकों को ज्ञान-प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ माध्यम माना गया है । पुस्तकें ज्ञान-राशि के अथाह भंडार को अपने में संचित किए रहती हैं । ज्ञान ही ईश्वर है तथा सत्य एवं आनंद है ।

केवल एक कमरे में पुस्तकें भर देने से ही वह पुस्तकालय नहीं बन जाती, अपितु यह ऐसा स्थान है जहाँ पुस्तकों के उपयोग आदि का सुनियोजित विधान होता है ।

पुस्तकाल्यों के प्रकार :- पुस्तकालय के विभिन्न प्रकार होते हैं । जैसे –

  • व्यक्तिगत पुस्तकालय
  • विद्यालय एवं महाविद्यालय के पुस्तकालय
  • सार्वजनिक पुस्तकालय
  • सरककारी पुस्तकालय आदि ।

व्यक्तिगत पुस्तकालय के अंतर्गत पुस्तकों के वे संग्रहालय आते हैं, जिनमें कोई-कोई व्यक्ति अपनी विशेष रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार पुस्तकों का संग्रह करता है । विद्यालयों तथा महाविद्यालयों के अंतर्गत वे पुस्तकालय आते हैं, जिनमें क्वात्रों तथा शिक्षकों के पठन-पाठन हेतु पुस्तकों का संग्रह किया जाता है । कोई भी व्यक्ति इसका सदस्य बनकर इसका उपयोग कर सकता है । सरकारी पुस्तकालयों का प्रयोग राज्य कर्मचारियो एवं सरकारी अनुमति प्राप्त विशेष व्यक्तियों द्वारा किया जाता है ।

पुस्तकालयों का महत्व :- पुस्तकालय सरस्वती देवी की आराधना-मंदिर है । यह व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र तीनों के लिए महत्वपूर्ण है । पुस्तकें ज्ञान-प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन हैं । इनसे मनुष्यों के ज्ञान का विकास होता है तथा उनका दृष्टिकोण व्यापक होता है । एक ज्ञानी व्यक्ति ही समाज एवं राष्ट्र के साथ-साथ मानवता का कल्याण कर सकता है। प्रत्यक व्यक्ति अपनी रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार पुस्तकें खरीद नहीं सकता।

कोई भी व्यक्ति आर्थिक रूप से इतना सशक्त नहीं होता कि वह मनचाही पुस्तकें खरीद सकें । बहुधा पैसा जुटा लेने पर भी पुस्तकें प्राप्त नहीं होती हैं, क्यांकि उनमें से कुछ का प्रकाशन बंद हो चुका होता है और उनकी प्रतियाँ दुर्लभ हो जाती हैं । पुस्तकालय में जिज्ञासु अपनी आवश्यकता एवम् प्रयोजन के अनुसार सभी पुस्तकों को प्राप्त कर लेता है तथा उनका अध्ययन करता है ।

पुस्तकालय से लाभ :- पुस्तकालय ज्ञान का भंडार होता है । विषयगत ज्ञान के वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करने के लिए तथा उस विषय से संबंधित ज्ञान प्राप्त करने के लिए अन्य पुस्तकों के अध्ययन के लिए पुस्तकालय की आवश्यकता होती है ।

प्रत्येक मनुष्य के लिए मनोरंजन आवश्यक होता है तथा मनोरंजन के लिए पुस्तकों से अच्छा कोई साधन नहीं है । यह मनोरंजन के साथ-साथ संसार के अन्य विषयों की जानकारी भी बढ़ाती है ।

किसी भी विषय पर शोध एवं अनुसंधानात्मक कायों के लिए पुस्तकालयों में संग्रहित पुस्तकों से व्यक्ति उन दुर्लभ तथ्यों को प्राप्त कर सकता है जिनकी जानकारी उसे अन्य किसी प्रकार से नहीं हो सकती ।

पुस्तकालय छात्र तथा अध्यापक दोनों के पठन-पाठन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । शिक्षक तथा छात्र दोनों ही अपनी बौद्धिक शक्तियों एवं विषयगत ज्ञान के विस्तार की दृष्टि से पुस्तकालय में संग्रहित पुस्तकों से लाभान्वत होने हैं।

भारत में पुस्तकालयों की स्थिति :- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने गाँव-गाँव में पुस्तकालयों की स्थापना करने का एक अभियान चलाया था जो अनेक कारणों से असफल रहा । इन पुस्तकों की सामग्री राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए थी । उसमें ज्ञान, बौद्धिक विकास की सामग्री का अभाव था। अत: जन सामान्य ने इसकी ओर रुिि नहीं दिखलाई । सरकारी नीति की उदासीनता के कारण यह योजना असफल हो गई ।

उपसंहार :- पुस्तकालय ज्ञान का वह भंडार है जो हमें ज्ञान प्रदान करता है । ज्ञान की प्राप्ति से ही मनुष्य वास्तविक अर्थों में मनुष्य बनता है । ऐसे ही मनुष्यों से समाज या राष्ट्र का कल्याण होता है । अतः पुस्तकालय हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और आवश्यक है । आज सरकार तथा स्वयं सेवी सामाजिक संस्थाओं को संपूर्ण देश में अधिक से अधिक पुस्तकालयों की स्थापना करनी चाहिए।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

भूकम्प : एक प्राकृतिक प्रकोप

रूपरेखा :

  • भूमिका
  • धन-जन की अपार क्षति
  • कहीं निर्माण-तो कहीं विनाश
  • उपसंहार।

सृष्टि के आरम्भ से ही मनुष्य का प्रकृति के साथ अदूट सम्बन्ध रहा है । प्रकृति के साथ मनुष्य के संघर्ष की कहानी भी सृष्टि के प्रारम्भ से ही चली आ रही है। प्रकृति अपने विभिन्न रूपों में मानव के सामने आती है । प्रकृति के मोहक तथा भयानक दोनों ही रूप हैं । जहाँ प्रकृति का मोहक रूप हमारा मन मोह लेता है, वहीं इसके रौद्र रूप के स्मरण मात्र से हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। बाढ़, सूखा, अकाल, महामारी, भूकम्प आदि प्रकृति के रौद्र रूप हैं ।

भूकम्प शब्द ‘भू’ और कम्प’ इन दो शब्दों के योग से बना है । भू का सामान्य अर्थ है – भूमि और कम्प का – काँपना या हिलना-डुलना है । अत: जब भूमि काँप उठती है तो उसे भूकम्प कहते हैं । लेकिन समस्त पृथ्वी एक साथ नहीं काँपती। एक बार में पृथ्वी का कोई एक विशेष भाग ही काँपता है ।

जब पृथ्वी की सतह अचानक हिलती या कम्पित होती है तो उसे भूकम्प कहते हैं। सतह के कम्पन के साथ प्रकृति सर्वनाश करनेवाली जो प्रकोप प्रकट करती है, उसी को भूकम्प की संज्ञा दी जाती है। भूपटल का फटना भूकम्प का लक्षण है। ज्वालामुखी के उद्गार भी भूकम्प के कारण बनते हैं। भूमि की चट्टानों के असंतुलन से भी भूकम्प आ सकता है।

भूकम्प की उत्पत्ति सृष्टि के निर्माणकर्ता का मायावी कौतुक है। प्रकृति का माया रूपी हृदय जब डोलता है तो वह अपना प्रकोप प्रकट करता है।

जिस प्रकार जल-प्रलय प्रकृति का विनाशक ताण्डव है, उसी प्रकार भूकम्प उससे भी भयानक विनाशक विक्षोभ है। दो-चार सेकेंड के हल्के भूकम्प से ही छोटे भवन, दीर्घ प्रासाद और उच्च अट्टालिकाएँ काँपती हुई पृथ्वी के चरण चूमने लगती हैं। गाँव के गाँव नष्ट हो जाते हैं। शवों के ढेर लग जाते हैं। सभी चीजें नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। 20 अक्टूबर, सन् 1991 ई. को उत्तरकाशी में आये भूकम्प में 15,000 से अधिक व्यक्तियों की मृत्यु हुई और सहस्तों लोग घायल हुए। सन् 1993 के लातूर एवं उस्मानाबाद क्षेत्रों के विनाशकारी भूकम्प की चपेट में 81 गाँवों पर कहर बरपा जिसमें 25 से ज्यादा गाँव श्मशान में बदल गये ।

भूकम्प का प्रभाव नदियों पर भी पड़ता है। पहाड़ों के नीचे धँसने से, या चट्टानों, पत्थरों और गीली मिट्टी के जमाव से नदी का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है। नदी का प्रवाह अवरुद्ध होने और पानी जमा होने से वह स्थान झील के रूप में परिणत हो जाता है। जलमग्न भवन भूकम्प के प्रकोप से बचकर भी प्रकृति की प्रकोप के चपेट में आ जाते हैं। सन् 1978 ई० में भूकम्प के कारण भूस्खलन से गंगोत्री मार्ग पर 500 मीटर ऊँचा मिट्टी-पत्थर का ढेर लग गया। गंगाजल अवरुद्ध हो गया। फलस्वरूप वहाँ झील बन गई।

भूकंप प्रकृति का क्षोभ ही नहीं वरदान भी है। 16 दिसम्बर, सन् 1880 को आये नैनीताल के भूकम्प से चाइना पीक के लिये एक सुगम मार्ग स्वयं ही बन गया था। इससे जगह-जगह झरने फूट पड़े थे। इस प्रकार भूकम्प ने नैनीताल के सौंदर्य को विस्तार दिया था ।

भूकम्प के प्राकृतिक प्रकोप विनाश के अमिट चिह्न पृथ्वी पर छोड़ जाते हैं। मनुष्य की स्मृति में भी आतंक के ऐसे अवशेष छोड़ जाते हैं जो सपने में भी उसे आतंकित कर जाते हैं। गुजरात और उड़ीसा के भूकंप ऐसे ही थे। प्रत्येक ध्वंस नये निर्माण का संदेश लेकर आता है। प्रकृति में नाश और निर्माण दोनों ही शक्तियाँ हैं।

इस प्रकार भूकम्प जब बस्तियों को नष्ट करता है तब मनुष्य फिर कुछ नया और सुंदर बनाने की चेष्टा करता है। प्रकृति का प्रकोप मनुष्य को फिर से कुछ नया और बेहतर बनाने की शक्ति प्रदान करता है। इस प्रकार भूकंप शाप भी है और वरदान भी ।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

राष्ट्रभाषा हिंदी

रूपरेखा :

  • प्रस्तावना
  • भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी
  • हिन्दी ही क्यों
  • भारत की सांस्कृतिक भाषा हिन्दी
  • राष्ट्रभाषा से राजभाषा
  • विदेशों में हिन्दी
  • उपसंहार ।

प्रस्तावना :- प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक भाषा होती है, जिसमें उस देश के प्रशासनिक कार्य किये जाते हैं तथा देश के अधिकांश लोग पारस्परिक व्यवहार में उस भाषा का प्रयोग करते हैं। उसी भाषा के माध्यम से उस देश के वैदेशिक सम्बन्ध संचालित होते हैं । राष्ट्रीय न्यायालयों के कार्य उसके ही प्रयोग से सम्पन्न किये जाते हैं । विश्वविद्यालयों में उच्चशिक्षा के लिये उसका ही प्रयोग होता है । जिस देश में एक से अधिक भाषाएँ प्रचलित होती हैं, उस देश की किसी एक भाषा को राजभाषा, सम्पर्क भाषा अथवा राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है ।

ऐसी भाषा के बोलनेसमझने वालों की संख्या सर्वाधिक होती है और अन्य लोगों द्वारा वह काफी सरलता से सीख ली जाती है । भारत में स्वतंत्रता-पूर्व शासकों की भाषा अंग्रेजी प्रशासन, शिक्षा, न्याय आदि की प्रमुख भाषा थी । किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया तथा हिन्दी के साथ-साथ कुछ समय के लिये अंग्रेजी को भी सरकारी कामकाज के लिये अस्थायी रूप में स्वीकार कर लिया गया था, ताकि इस बीच अहिन्दी भाषा- भाषी भी हिन्दी की जानकारी हासिल कर लें।

भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी :- भारत विश्व का सर्वाधिक विशाल गणतन्न्र है, जो संघात्मक होते हुए भी एकात्मक है । यहाँ पंजाब की भाषा पंजाबी, बंगाल की बंगला, केरल की मलयालम, उड़ीसा की उड़िया, असम की असमी, आंध की तेलगू तथा तमिलनाडु की भाषा तमिल है । ऐसी स्थिति में यह आवश्यक था कि किसी ऐसी भाषा की खोज की जाय जो उक्त सारे क्षेत्रों के बीच एकसूत्रता स्थापित कर सके । इस दृष्टि से राष्ट्रीय नेताओं ने खड़ी बोली हिन्दी को सर्वाधिक उपयोगी पाकर उसे ही भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया।

हिन्दी ही क्यों :- भारत द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानने के कई कारण हैं। यह लगभग हजार वर्षो से भारतीय जनता के बीच लोकप्रिय रही है । आज देश की लगभग आधी जनसंख्या अच्छी तरह हिन्दी लिख-बोल सकती है । वाणिज्य, तीर्थयात्रा, परिवहन आदि क्षेत्र में हिन्दी का प्रचार काफी अच्छा है । देश भर के तीर्थों में हिन्दी के जानकार पंडित, पुजारी तथा पण्डे हैं । रेलवे स्टेशनों के कुली हिन्दी बोल लेते हैं। भारत के बाहर श्रीलंका, बर्मा, गुयाना, मारीशस, फिजी, सुरीनाम आदि देशों में भी हिन्दी जानने वालों की काफी अच्छी संख्या है ।

इतनी अधिक लोकप्रियता के साथ-साथ हिन्दी को अपनाने का एक कारण यह भी है कि यह बहुत ही सरल भाषा है, इसे सीखने में विशेष असुविधा नहीं होती । इसकी देवनागरी लिपि भी सरल एवं वैज्ञानिक है । मराठी एवं नेपाली भाषाओं की लिपियाँ नागरी लिपि की ही प्रतिरूप हैं। अत: उन भाषा-भाषियों के लिए हिन्दी सीखना अत्यधिक सरल है । हिन्दी की यह भी एक विशेषता है कि संस्कृत की उत्तराधिकारिणी होने के कारण इसने भारत की प्राचीनतम परम्परा की अधिकांश विशेषताओं को अपने भीतर समेट लिया है । अपनी इन्हीं कतिपय विशिष्टताओं के कारण हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा बन सकी है ।

राष्ट्रभाषा से राजभाषा :- स्वतंत्र भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया तथा उसी क्षण से यह भी निश्चित हो गया कि 15 वर्षो बाद देश के सरकारी कामकाज हिन्दी में होने लगेंगे । किन्तु सन् 1965 में तमिलनाडु द्वारा विरोध किए जाने पर यह निश्चय किया गया कि जब तक सभी अहिन्दी भाषी प्रान्त हिन्दी में पत्र-व्यवहार करना स्वीकार न करें, तब तक उनके साथ अंग्रेजी में पत्र-व्यवहार किया जायेगा ।

गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब आदि ने तो हिन्दी में पत्र-व्यवहार आरंभ कर दिया तथा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार एवं राजस्थान ने हिन्दी को अपनी राजभाषा घोषित कर दिया । 1985 ई० में स्थिति यह रही कि केन्द्र सरकार के तथा संसद के सारे कार्य दोनों भाषाओं अर्थात् हिन्दी और अंग्रेजी में किए जाने लगे । सेवा आयोगों में अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी भी परीक्षा का माध्यम मान ली गई।

उपसंहार :- राजनीतिक कारणों से यदा-कदा हिन्दी साम्राज्यवाद के नाम पर हिन्दी के विरोध की आवाज उठने लगती हैं तथापि हिन्दी का प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है । देश की जनता राष्ट्रीय कर्त्तव्य एवं दायित्व के प्रति जागरूक है, अत: हिन्दी-विरोधियों का प्रभाव नगण्य है। हिन्दी चलचित्रों की व्यापक लोकप्रियता तथा अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी हिन्दी प्रेमियों के प्रयास जैसे साधनों से इसका प्रचार क्षेत्र सहजता से ही बढ़ता जा रहा है ।

सरकारी तथा गैरसरकारी संस्थाओं की चेष्टा से न्याय, औषधि, यांत्रिकी, वाणिजय आदि क्षेत्रों के लिए विभिन्न शब्दावरियों का निर्माणकार्य तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है । यह विश्वास सहज ही पनपता है कि इस शताब्दी के अन्त तक भारत अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा की विवशता से पूर्ण मुक्त हो जाएगा एवं राज्यों में राज्य की तथा केन्द्र में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का अक्षुण्ण स्थान प्राप्त हो सकेगा ।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

भारत में साक्षरता अभियान

रूपरेखा :

  • प्रस्तावना
  • पराधीन भारत में निरक्षरता
  • निरक्षरता एक अभिशाप है
  • स्वतंत्र भारत में निरक्षरता के दूरीकरण की चेष्टा
  • साक्षरता का महत्व
  • उपसंहार ।

प्रस्तावना :- देश के अगणित मनुष्य यदि अज्ञान के अंधकार में डूबे रहें, यदि मनुष्यत्व विकास के सभी सम्भव पथ अवरुद्ध हो जायँ, यदि अंशक्षा, अन्याय, अपमान तथा शोषण से जीवन संकुचित होता रहे, तब हमारा सब कुछ व्यर्थ हो जायेगा। ज्ञान-विज्ञान का प्रकाशमय जगत् सदा के लिये हमसे दूर हो जायेगा । किसी देश की उन्नति के मूल में उस देश की जनता की जागरुकता ही मुख्यत: हुआ करती है । वस्तुत: मानव के अंतर में अमित शक्ति सुप्त रहती है । जागृत रूप में यही शक्ति देश को आगे बढ़ाती है और यह शक्ति जागृत होती है शिक्षा के द्वारा।

पराधीन भारत में निरक्षरता :-अंग्रेजों के भारत में आने से पूर्व मंडप, टोल, चौपाल, वटवृक्षतल, मदरसा, पाठशाला आदि विभिन्न स्थानों में जो परंपरागत शिक्षादान की व्यवस्था थी, उनके द्वारा भी देश का काफी बड़ा भाग साक्षरता प्राप्त कर लेता था । पर अंग्रेजों के आगमन के बाद पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से यहाँ का सब कुछ बदल गया। पराधीन भारत में शिक्षा का क्षेत्र बिल्कुल संकुचित हो गया । देश के विदेशी शासक यहाँ शिक्षा का प्रसार कतई नहीं चाहते थे ।

उनका एकमात्र उद्देश्य था देश का अबाध शोषण । गरीबी और निरक्षरता बहुत बढ़ गयी । प्रायः दो सौ वर्ष के अंग्रेजी शासन में पूरे देश में साक्षर लोगों की संख्या मात्र चौदह प्रतिशत ही रही । सन् 1930 में कानून द्वारा प्राइमरी शिक्षा को अनिवार्य बनाया गया । किन्तु सरकार की उदासीनता के कारण यह कानून देश में तत्परतापूर्वक नहों लागू किया गया । फलत: निरक्षरता का परिणाम पूर्ववत् बना रहा।

निरक्षरता अभिशाप है :- निरक्षरता किसी भी देश के निवासियों के लिये एक अभिशाप है। देश के बहुसंख्यक लोग शिक्षा के अभाव में चरमहीनता और वंचना का जीवन बिताते हैं। वे समझ नहीं पाते कि सब कुछ होते हुए भी वे उनसे क्यों वंचित हैं, क्यों वे इतने निगृहीत हैं। अपने भाग्य की दुहाई देते रहते हैं। समाज के विभिन्न अंगों से उन पर अत्याचार होता है। उनका शोषण होता है । निरक्षरता के कारण, लगता है कि मनुष्यत्व का अधिकार ही गँवा बैठे है। उनमें गण-तंत्रात्मक बोध के साथ ही आत्मसम्मान की भावना भी लुप्त हो गयी है ।

स्वतन्त्र भारत में निरक्षरता के दूरीकरण की चेष्टा :-युग संचित इस अभिशाप से देशवासायों को मुक्त करने के लिये स्वतन्न्र भारत में शिक्षा की नवीन योजना बनाई गई है । देश की जनता में शिक्षा को अधिकाधिक व्यापक बनाने के लिये सरकार ने राधाकृष्णन , मुदालियर और कोठारी कमीशनों का गठन किया। आज देश से निरक्षरता उन्मूलन करना नितान्त आवश्यक हो गया है। इस दिशा में कार्य हो रहा है, पर अभी तक साक्षर लोगों की संख्या में आशानुरूप वृद्धि नहीं हुई है। शहरों में ही शिक्षित और साक्षर लोगों की संख्या अधिक है, गाँवों में बहुत कम । जनसंख्या की द्रुत वृद्धि को ध्यान में रखते हुए ही निरक्षरता दूरीकरण की व्यवस्था को भी अधिक गतिमुखर बनाना पडेगा।

उपसंहार :- देश की जनता को शिक्षा का अधिकार देना पड़ेगा । उनमें गणतान्त्रिक चेतना का संगार काना पडेगा। निरक्षरता के दूर होते ही आत्मनिर्भर हो जायगा देश । समृद्धि के दिगन्त उन्मोचित होंगे । चरिज्न-गतन ओर उन्नत जीवन-मान-—न लक्ष्यों की प्राप्ति शिक्षा के व्यापक प्रसार से ही हो सकेगी । केवल प्राइमरी और माध्यािव सतरों की शिक्षा को अनववार्य बना देने से ही काभ नहीं चलेगा । देश के अगणित व्यस्क लोगों को साक्षर बनाने की याँजना को भी वास्तविक रूप से लागू करना पड़ेगा । जब तक यह नहीं होता, तब तक अनवरत सक्रियतापूर्वक इस दिधा 4 लगी रहना पड़ेगा ।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

व्यायाम और स्वास्थ्य

भगवान बुद्ध ने कहा था – “हमारा कर्त्तव्य है कि हम अपने शरीर को स्वस्थ रखें अन्यथा हम अपने मा नो सक्षम और शुद्ध नहीं रख पाएँगे ।”

आज की भागदौड़ भरी जिन्दगी में इंसान को फुर्सत के दो पल भी नसीब नहीं हैं । घर से दफ्तर, दफ्तर से घग तो कभी घर ही तफ्तर बन जाता है यानि इंसान के काम की कोई सीमा नहीं है । वह हेमाश खुद को व्यस्त रखता है । इस व्यस्तता के कारण आज मानव शरीर तनाव, थकान, बीमारी इत्यादि का घर बनता जा रहा है । आज उसने हर प्रकार की सुख-सुविधाएँ तो अर्जित कर ली हैं, किन्तु उसके सामने शारीरिक एवं मानसिक तौर पर स्वस्थ रहने की चनौती ज़ा खड़ी हुई है।

यद्यपि चिकित्सा एवं आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में मानव ने अनेक प्रकार की बीमारियों पर विजय हासिल की है, कित्तु इगये उसे पर्याप्त मानसिक शान्ति मिल गईं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। तो क्या मनुष्य अपनी सेहत के साथ खिलवाड़ कर रहा है ? यह ठीक है कि काम जरूरी है, लेकिन काम के साथ-साथ स्वास्थ्य का भी ख्याल रखा जाए, तो यहा सोने पेसहहागा वाली बात ही होगी । महात्मा गाँधी ने भी कहा है – “स्वास्थ्य ही असली धन है, सोना और चाँटी नहीं।”

सचमुच यदि व्यक्ति स्वस्थ न रहे तो उसके लिए दुनिया की हर खुशी निरर्थक होती है। रुपये के ढेर पर बैठ कर आदमी को तब ही आनन्द मिल सकता है, जब वह शारीरिक रूप से स्वस्थ्य हो। स्वास्थ्य की परिभाषा के अन्तर्गत केवल शारीरिक रूप से स्वस्थ्य होना ही नहीं, बल्कि मानसिक रूप से स्वस्थ होना भी शामिल है । व्यक्ति शारीरि क रूप से स्वस्थ हां, किन्तु मानसिक परेशानियों से जूझ रहा हो, तो भी उसे स्वस्थ नहीं कहा जा सकता । उसी व्यक्ति को स्नस्थ कहा जा सकता है, जो शारीरिक एवं मानसिक दोनों रूप से स्वस्थ हो । साइरस ने ठीक कहा है कि अच्छा स्वास्थ्य एवं अच्छी समझ, जीवन के दो सर्वोत्तम वरदान हैं।

व्यक्ति का शरीर एक यन्त्र की तरह है । जिस तरह यन्त्र को सुचारु रूप से चलाने के लिए उसमें तेल-ग्रीस आर्ादि का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार मनुष्य को अपने शरीर को क्रियाशील एवं अन्य विकारों से दूर रखने के लिए शर्भाग क व्यायाम करना चाहिए । शिक्षा एवं मनोरंजन के दृष्टिकोण से भी व्यायाम का अत्यधिक महत्त्व है । शरीर के स्जस्थ रदने पर ही व्यक्ति कोई बात सीख पाता है अथवा खेल, नृत्य-संगीत एवं किसी प्रकार के प्रदर्शन का आनन्द उटा पाता है । अस्वस्थ व्यक्ति के लिए मनोरंजन का कोई महत्त्व नहीं रह जाता ।
जॉनसन ने कहा है – “उत्तम स्वास्थ्य के बिना संसार का कोई भी आनन्द प्राप्त नहीं किया जा सकता।”

देखा जाए तो स्वास्थ्य की दृष्टि से व्यायाम के कई लाभ हैं – इससे शरीर की मांसपेशियाँ एवं हड्डियाँ मजबूत होती हैं। रक्त का संचार सुचारु रूप से होता है । पाचन क्रिया सुदृढ़ होती है। शरीर को अतिरिक्त ऑक्सीजन मिलती है और फेफड़े मज़बूत होते हैं । व्यायाम के दौरान शारीरिक अंगों के सक्रिय रहने के कारण शरीर की रोग प्रतिरोंधक क्षमता बढ़ती है । इस तरह व्यायाम मनुष्य के शारीरिक विकास के लिए आवश्यक है ।
किसी कवि ने ठीक ही कहा है –

‘पत्थर-सी हों मांसपेशियाँ, लोहे-सी भुजदण्ड अभय ।
नस-नस में हो लहर आग की तभी जवानी पाती जय।’

इस तरह, स्वास्थ्य एवं व्यायाम का एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है । व्यायाम के बिना शरीर आलस्य, अकर्मन्यता एवं विभिन्न प्रकार की बीमारियों का घर बन जाता है । नियमित व्यायाम शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से आवश्यक है । इस सन्दर्भ में हिप्पोक्रेट्स ने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही है – “यदि हम प्रत्येक व्यक्ति को पोषण और व्यायाम की सही राशि दे सकते, जो न बहुत कम होती और न बहुत ज्यादा, तो हमें स्वस्थ रहने का सबसे सुरक्षित रास्ता मिल जाता ।” अत: हमें इनकी शिक्षा को जीवन में उतारने की कोशिश करनी चाहिए ।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

समय और उसका सदुपयोग

कबीर ने मृत्यु को अवश्यम्भावी बताकर जीवन के एक-एक पल का सदुपयोग करने की सीख देते हुए कहा है –

“‘काल करै सो आज कर, आज करै सो अब ।
पल में परलय होएगी, बहुरि करैगा कब ।।”

‘परीक्षा में तो अभी काफ़ी दिन बाकी हैं, कल से पढ़ना शुरू कर देंगे’, ऐसा सोचकर कुछ विद्यार्थी कभी नहीं पढ़ते, किन्तु परीक्षा नियत समय एवं तिथि पर ही होती है । परीक्षा के प्रश्नों को देखकर उन्हें लगता है कि यदि उन्होंने समय का सदुपयोग किया होता, तो परीक्षा हॉल में यूँ ही खाली नहीं बैठना पड़ता । इसलिए कहा गया है – ” अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।” प्रसिद्ध लेखक मेसन ने समय की महिमामण्डित वर्णन करते हुए कहा है – “स्वर्ण के प्रत्येक कण की तरह ही समय का प्रत्येक क्षण भी मूल्यवान है।” प्लेटफॉर्म पर खड़ी रेलगाड़ी अपने यात्रियों की प्रतीक्षा नहीं करती और देर से पहुँचने वाले अफ़सोस करते रह जाते हैं।

इसी तरह, समय भी किसी की प्रतीक्षा नहीं करता । अंग्रेजी में कहा गया है ‘Time and tide waits for none’ अर्थात् समय और समुद्र की लहरें किसी की प्रतीक्षा नहीं करते । मानव जीवन में समय की महत्ता को समझाने के लिए प्रकृति में भी उदाहरण भरे पड़े हैं । कभी-कभी बरसात के मौसम में वर्षा इतनी देर से शुरू होती है कि खेतों में लगी फसलें सूख जाती हैं। ऐसे में भला वर्षा होने का भी क्या लाभ। भक्त कवि तुलसीदास ने प्रकृति के इसी उदाहरण का उल्लेख करते हुए जीवन में समय की महत्ता को इस प्रकार से समझाया है –

“का बरखा जब कृषी सुखाने ।
समय चूकि पुनि का पछताने ।।

एक बार एक चित्रकार ने समय का चित्र बनाया, जिसमें एक अति सुन्दर व्यक्ति हँसता हुआ दोनों हाथ फैलाए खड़ा था । सामने से उसके केश सुन्दर दिख रहे थे, पर पीछे से वह बिल्कुल गंजा था । इस चित्र के माध्यम से चित्रकार यह सन्देश देना चाहता था कि समय जब आता है, तो आपकी ओर बाँहें फैलाए आता है । ऐसे में यदि आपने सामने से आते हुए समय के केश पकड़ लिए, तो वह आपके काबू में होगा, किन्तु यदि आपने उसे निकल जाने दिया, तो पीछे से आपके हाथ उसके गंजे सिर पर फिसलते रह जाएँगे और फिर वह आपकी पकड़ में नहीं आएगा। इसलिए समय को पहचानकर उसका सदुपयोग करना चाहिए । समय के सदुपयोग में ही जीवन की सफलता का रहस्य निहित है । राजा हो या रंक, मूर्ख हो या विद्वान्, समय किसी के लिए अपनी गति मन्द नहीं करता । इसलिए सबको जीवन में सफलता पाने के लिए समय का सदुपयोग करना ही पड़ता है। आज तक जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनकी सफलता का रहस्य जीवन के हर पल का सदुपयोग ही रहा है ।

जो व्यक्ति अपना निश्चित कार्यक्रम बनाकर, मानसिक वृत्तियों को स्थिर एवं संयमित करके कार्य करता है, उसे जीवन-संग्राम में अवश्य सफलता प्राप्त होती है । वैसे तो यह नियम प्रत्येक आयु वर्ग के व्यक्ति पर लागू होता है, किन्तु विद्यार्थी जीवन में इस नियम की सर्वाधिक महत्ता है। जो विद्यार्थी नियत समय में पूर्ण मनोयोग के साथ अपनी पढ़ाई करते हैं, उन्हें सफलता अवश्य मिलती है । इस तरह, समय का अपव्यय करना तो आत्महत्या के समान है ही, समय का दुरुपयोग भी उससे कुछ कम नहीं ।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

यदि मैं किसान होता

भारत एक कृषि प्रधान देश है। हमारी सम्पन्नता मुख्यत: हमारे कृषि उत्पादन पर निर्भर करती है। इस लक्ष्य का प्राप्ति के लिये भारतीय कृषक की एक बड़ी भूमिका है । वास्तव में भारत कृषकों की भूमि है । हमारी $75 \%$ जनता गांवा में रहती है ।

भारतीय किसान का सर्वत्र सम्मान होता है । वही सम्पूर्ण भारतवासियों के लिए अन्न एवं सब्जियाँ उत्पन्न करता है । पूरा वर्ष भारतीय कृषक खेत जोतने, बीज बोने एवं फसल उगाने में व्यस्त रहता है। वास्तव में उसका जीवन अत्यन्त व्यस्त होता है, तथापि मुझमें भी एक किसान बनने की इच्छा जाग्रत होती है।

यदि में किसान होता तो अन्य किसानो की भांति ही रोज प्रातः तड़के उठता और अपने हल एवं बेल लेकर खंतों की ओर चला जाता, वहाँ घंटों खेत जोतता, तत्पश्चात नाश्ता करता । हमारे घर-परिवार के सदस्य मेरे लिए खेत पर ही खाना लाते । खाने के पश्चात पुनः अपने काम में व्यस्त हो जाता। मैं अपने खेतो में कृषि के प्रति कठोर परिश्रम करता और अपने परिश्रम के माध्यम से अधिक-से-अधिक फसल के उत्पादन का प्रयास करता जिससे अपने घर-परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए राष्ट्र के आर्थिक विकास में भी एक नागरिक की हैसियत से अपनी भूमिका पालन करता।

यदि मैं किसान होता तो अपने खलिहान में दो-चार दुधारु गाय, भैंस एवं बकरी जैसे पशुओं का पालन करता जिससे हमें शुद्ध दुग्ध की प्राप्ति होती जिसका उपयोग मैं अपने घर-परिवार के सदस्यों के लिए करता साथ ही उसका एक भाग बाजार में बिक्री कर कुछ नकद आय की उपार्जन भी करता । किसान होने के नाते मैं अपने घर के तथा खेत-खलिहान के आस-पास अधिक-से-अधिक पेड़-पौधे लगाकर प्रोदुछण-मुक्त पर्यावरण के संरक्षण में अपनी भागीदारी का पालन करता।

किसान बहुत सीधा-सादा जीवन जीता है । उसका पहनावा ग्रामोण होता है। वह घास फूस के झोपड़ा में रहता है. हालांकि बहुत से कृषकों के पक्के मकान भी हैं। उसकी सम्पत्ति कुछ बैल, हल एवं कुछ एकड़ धरती ही होती है। वह अधिकतर अभावों का जीवन जीता है । तथापि, एक किसान राष्ट्र की आत्मा होता है । हमारे दिवंगत प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने नारा दिया था ‘जय जवान, जय किसान’ । उन्होंने कहा था कि कृषक राष्ट्र का अन्नदाता है। उसी पर कृषि उत्पादन निर्भर करता है । अतएव, एक किसान होने के नाते मैं उनके स्वप्नों को साकार करने की यथासभव प्रयास करता ।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

यदि मैं प्रधानमंत्री होता

यदि मैं प्रधानमंत्री होता-अरे ! यह मैं क्या सोचने लगा । प्रधानमंत्री बन पाना खाला जी का घर है क्या ? भारत जैसे महान् लोकतंत्र का प्रधानमंत्री बनना वास्तव में बहुत बड़े गर्व और गौरव की बात है, इस तथ्य से भला कौन इन्कार कर सकता है । प्रधानमंत्री बनने के लिए लम्बे और व्यापक जीवन-अनुभवों का, राजनीतिक कार्यों और गतिविधियों का प्रत्यक्ष अनुभव रहना बहुत ही आवश्यक हुआ करता है । प्रधानमंत्री बनने के लिए जनकार्यो और सेवाओं की पृष्ठभूमि रहना भी जरूरी है और इस प्रकार के व्यक्ति का अपना जीवन भी त्याग-तपस्या का आदर्श उदाहरण होना चाहिए ।

आज के युग में छोटे-बड़े प्रत्येक देश और उसके प्रधानमंत्री को कई तरह के राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय दबाबों, कूटनीतिजों के प्रहारों को झेलते हुए कार्य करना पड़ता है। अत: प्रधानमंत्री बनने के लिए व्यक्ति को चुस्त-चालक, कूटनीति प्रवण और दबाव एवं प्रहार सह सकने योग्य मोटी चमड़ी वाला होना भी बहुत आवश्यक माना जाता है । निश्चय ही मेरे पास ये सारी योग्यताएँ और ढिठाइयाँ नहीं हैं; फिर भी अक्सर मेरे मन-मस्तिष्क में यह बात मथती रहा करती है, रह-रहकर गुँज गूज उठा करती है कि यदि मैं प्रधान मंत्री होता, तो ?

यदि मैं प्रधानमंत्री होता, तो सब से पहले स्वतंत्र भारत के नागरिकों के लिए, विशेष कर नई पीढियों के लिए पृरी सख्ती और निष्ठुरता से काम लेकर एक राष्ट्रीय चरित्र निर्माण करने वाली शिक्षा एवं उपायों पर बल देता।

आज स्वतंत्र भारत में जो संविधान लागू है, उसमें बुनियादी कमी यह है कि वह देश का अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक अनुसूचित जाति, जन-जाति आदि के खानों में बाँटने वाला तो है, उसने हरेक के लिए कानून विधान भी अलग-अलग बना रखे हैं जबकि नारा समता और समानता का लगाया जाता है । यदि मैं प्रधानमंत्री होता तो संविधान में सभी के लिए एक शब्द ‘भारतीय’ और समान संविधान-कानून लागू करवाता ताकि विलगता की सूचक सारी बाते स्वतः ही खत्म हो जाएँ । भारत केवल भारतीयों का रह जाए न कि अल्प-संख्यक, बहुसंख्यक आदि का ।

यदि मैं प्रधानमंत्री होता तो सभी तरह की निर्माण-विकास योजनाएँ इस तरह से लागू करवाता कि वे राष्ट्रीय संसाधनों से ही पूरी हो सके । उनके लिए विदेशी धन एवं सहायता का मोहताज रह कर राष्ट्र की आन-बान को गिरवी न रखना पड़ता । दबावों में आकर इस तरह की आर्थिक नीतियाँ या अन्य योजनाएँ लागू न करने देना कि जो राष्ट्रीय स्वाभिमान के विपरीत तो होती ही हैं, निकट भविष्य में कई प्रकार की आर्थिक एवं सांस्कृतिक हानियाँ भी पहुँचाने वाली हैं।

यदि मैं प्रधानमंत्री होता, तो भ्रष्टाचार का राष्ट्रीयकरण कभी न होने देता। किसी भी व्यक्ति का भष्टाचार सामने आने पर उसकी सभी तरह की चल-अचल सम्पत्ति को तो छीन कर राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करता ही, चीन तथा अन्य कई देशों कौ तरह श्रष्ट कार्य करने वाले लोगों के हाथ-पैर कटवा देना, फाँसी पर लटका या गोली से उड़ा देने जैसे हूदयहीन कहेमाने जाने वाले उपाय करने से भी परहेज नहीं करता । इसी प्रकार तरह-तरह के अलगाववादी तत्वों को न तो उभरने देता और उभरने पर उनके सिर सख्वी से कुचल डालता । राष्ट्रीयहित, एकता और समानता की रक्षा, व्यक्ति के मान-सम्मान की रक्षा और नारी-जाति के साथ हो रहे अन्याय और अत्याचार का दमन मैं हर संभव उपाय से करता-करवाता।

इस तरह स्पष्ट है कि यदि मैं भारत का प्रधानमन्त्री होता, तो देश एवं जनता को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं शेक्षिक स्तर पर सुदृढ़ कर भारत को पूर्णत: खुशहाल देश बनाने का अपना सपना साकार करता, ताकि हमारा देश पुन: सौन की चिड़िया कहलाने लगे ।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

यदि मैं शिक्षक होता
अथवा,
एक शिक्षक का सपना

रूपरेखा :

  • भूमिका
  • आदर्श शिक्षक
  • शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तन
  • आदर्श शिक्षक के कर्तव्य
  • उपसंहार ।

शिक्षक होना सचमुच बहुत बड़ी बात हुआ करती है । शिक्षक की तुलना उस सृष्टिकर्ता बह्मा से भी कर सकते हैं। जैसे संसार के प्रत्येक प्राणी और पदार्थ को बनाना बह्या का कार्य है, उसी प्रकार उस सब बने हुए को संसार के व्यावहारिक ढाँच में ढालना, व्यवहार योग्य बनाना, सजा-संवार कर प्रस्तुत करना वास्तव में शिक्षक का ही काम हुआ करता है । यदि मैं शिक्षक होता, तो एक वाक्य में कहूँ तो हर प्रकार से शिक्षकत्व के गौरव, विद्या, उसकी शिक्षा, उसकी आवश्यकता और महत्त्व को पहले तो स्वयं भली प्रकार से जानने और हृदयंगम करने का प्रयास करता; फिर उस प्रयास के आलोक में ही अपने पास शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा से आने वाले विद्यार्थियों को सही और उचित शिक्षा प्रदान काता, जैसा कबीर कह गए हैं ;

”गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि खोट ।
भीतर हाथ सहार दे, बहार बाहे चोट ।।”

अर्थात् जिस प्रकार एक कुम्हार कच्ची और गीली मीटी को मोड़-तोड़ और कुशल हाथों से एक साँचे में ढालकर घड़ा बनाया करता है उसी प्रकार मैं भी अपनी सुकुमार-मति से छात्रों का शिक्षा के द्वारा नव-निर्माण करता, उन्हें एक नये साँचे मे ढालता । जैसे कुम्हार, मिट्टी से घड़े का ढाँचा बना कर उसे भीतर से एक हाथ का सहारा दे और बाहर से ठोंक कर उसमें पड़े गर्त आदि को समतल बनाया करता है, उसे भीतर से एक हाथ का सहारा दे और बाहर से ठोक कर उसमें पड़े गर्त आदि को समतल बनाया करता है, उसी प्रकार मैं अपने छात्रों के भीतर यानि मन-मस्तिष्क में ज्ञान का सहारा देकर उनकी बाहरी बुराइयाँ भी दूर करके हर प्रकार से सुडौल, जीवन का भरपूर आनन्द लेने के योग्य बना देता । लेकिन सखेद स्वीकार करना पड़ता है कि मैं शिक्षक नहीं हूँ और जो शिक्षक हैं, वे अपने कर्त्तव्य का इस प्रकार गुरुता के साथ पालन करना नहीं चाहते।

यदि मैं शिक्षक होता तो न केवल स्वयं आदर्श शिक्षक बनता बल्कि अपने छात्रों को आदर्श गुरु की पहचान भी बताता। एक गुरु वे होते हैं, जिसके बीते हुए कल आपके आनेवाले कल के मार्गदर्शक बन सकते हैं। इसलिए किसी ऐसे आदर्श को खोजें जो आपको अपना शिष्य भी बना सके। एक अच्छा गुरु आपको सही राह दिखा सकता है लेकिन एक घटिया गुरु आपको गुमराह कर सकता है। याद रखें – “अच्छे गुरु आपकी प्यास नहीं बुझाते, बल्कि आपको प्यासा बनाएंगे। वे आपको जिज्ञासु बनाते है।”

एक राजा की कहानी है, जो किसी ऐसे व्यक्ति का सम्मान करना चाहता था जिसने समाज की उन्नति के लिए सबसे ज्यादा योगदान किया हो। हर तरह के लोग, जिनमें डॉक्टर और व्यवसायी भी आये थे, मगर राजा उनसे प्रभावित नहीं हुआ। अंत में एक बुजुर्ग इंसान आया, जिसके चेहरे पर चमक थी और उसने खुद के एक शिक्षक बताया। राजा ने अपने सिंहासन से उतर और युककर उस शिक्षक को सम्मानित किया। समाज के भविष्य को बनाने और संवारने में सबसे बड़ा योगदान शिक्षक का ही होता है – इस मूलमंत्र को मैं एक शिक्षक के रूप में सदैव याद रखता यदि में शिक्षक होता।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

छात्र जीवन में राजनीति

सूचना प्रौद्योगिकी के इस उन्नत युग में भी व्यावसायिक शिक्षा की अपेक्षित व्यवस्था अब तक भारत में नहीं हो पाई है। पारम्परिक शिक्षा प्राप्त कर तथा उच्च उपाधि प्राप्त करने के बावजूद अधिकतर छात्र किसी विशेष काम लायक नहीं रहते। इसके कारण शिक्षित बेरोजगारी की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। भारत में हर वर्ष लगभग पाँच लाख से अधिक छात्र अभियान्रिकी एवं प्रौद्योगिकी की शिक्षाप्राप्त करते हैं। इनमें से सभी योग्य अभियन्ता नहीं होते। इसलिए उनको डिग्री के अनुरूप नौकरी नहीं मिल पाती। इस स्थिति में छात्रों का असन्तुष्ट होना स्वाभाविक ही है।

शिक्षा के निजीकरण के कारण उच्च शिक्षा प्रदान करने वाली शिक्षण संस्थाओं की बाढ़ तो आ गई है, किन्तु इन संस्थानों में छात्रों का अत्यधिक शोषण होता है। यहाँ शिक्षा के लिए पर्याप्त संसाधनों का भी अभाव होता है। छात्रों द्वारा विरोध किए जाने पर उन्हें संस्थान से निकाले जाने की धमकी दी जाती है। निजी शिक्षण संस्थानों को चलाने वाले व्यवसायियों की पहुँच ऊपर तक होती है। इसलिए उनकी शिकायत का भी कोई परिणाम नहीं निकलता। अत: छात्रों के पास कुण्ठित होकर अपनी किस्मत को कोसने के अलावा और कोई रास्ता शेष नहीं बचता।

कुछ स्वर्थी राजनीतिक दल छात्रों को अपने साथ मिलाकर अपना उल्लू सीधा करने में जुटे रहते हैं। इसलिए ये शिक्षण संस्थाओं में राजनीति को बढ़ावा देते हैं। इसके कारण देश के कुछ प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान राजनीति के अखाड़े का रूप लेते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में छात्रों की पढ़ाई बाधित तो होती ही है, इस स्थिति के कारण भी छात्रों में शिक्षा के प्रति असन्तोष की भावना उत्पन्न होती है।

इस तरह बेरोजगारी का डर, पारम्परिक शिक्षा का वर्तमान समय के अनुरूप न होना, व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करने वाली शिक्षण संस्थाओं का अभाव, शिक्षण संस्थाओं को राजनीति का केन्द्र बनाया जाना, शिक्षकों एवं कर्मचारियों का अपने कर्तव्यों से विमुख होना, निजी शिक्षण संस्थाओं की मनमानी, इत्यादि भारत में छात्र असन्तोष के कारण हैं। छात्र ही देश के भविष्य होते हैं। यदि उनका भला नहीं हो पाया, यदि वे बेरोजगारी का दंश झेल रहे हों, यदि उनके साथ नाइन्साफी हो रही हो, यदि उनके भविष्य से खिलवाड़ हो रहा हो, तो देश का भला कैसे हो सकता है! नि:सन्देह इसके कारण देश की आर्थिक ही नहीं, सामाजिक एवं राजनीतिक प्रगति पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इसलिए समय रहते इस समस्या का निदान करना आवश्यक है।

WBBSE Class 10 Hindi रचना शैक्षिक निबंध

विश्व में कोरोना महामारी का कहर

पिछले कुछ महीनों में हमारी दुनिया एकदम बदल गई है । लाखों लोगों की जानें चली गई । लाखों लोग बीमार पड़े हुए हैं। इन सब पर एक नए कोरोना वायरस का कहर दूटा है और जो लोग इस वायरस के प्रकोप से बचे हुए हैं, उनका रहन सहन भी एकदम बदल गया है। ये वायरस दिसंबर 2019 में चीन के वुहान शहर में पहली बार सामने आया था। उसके बाद से दुनिया में सब कुछ उलट-पुलट हो गया।

शुरुआत वुहान से ही हुई, जहां पूरे शहर की तालाबंदी कर दी गई। इटली में इतनी बड़ी तादाद में वायरस से लोग मरे कि बहां दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से पहली बार लोगों की आवाजाही पर इतनी सख़्त पाबंदी लगानी पड़ी। बिटेन की राजधानी लंदन में पब, बार और थिएटर बंद कर दिए गए। लोग अपने घरों में बंद हो गए। दुनिया भर में उड़ानें रद्द कर दी गई और बहुत से संबंध सोशल डिस्टेंसिंग के शिकार हो गए।

ये सारे कदम इसलिए उठाए गए ताकि नए कोरोना वायरस के संक्रमण को फैलने से रोका जा सके और इससे लगातार बढ़ती जा रही मौतों के सिलसिले को थामा जा सके ।

प्रदूषण में भारी कमी : इन पाबंदियों का एक नतीजा ऐसा भी निकला है, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। अगर, आप राजधानी दिल्ली से पड़ोसी शहर नोएडा के लिए निकलें, तो पूरा मंजर बदला नज़र आता है। सुबह अक्सर नींद अलार्म से नहीं, परिंदों के शोर से खुलती है। जिनकी आवाज़ भी हम भूल चुके थे । चाय का मग लेकर ज़रा देर के लिए बालकनी में जाएं, तो नज़र ऐसे आसमान पर पड़ती है, जो अजनबी नज़र आता है। इतना नीला आसमान, दिल्लीएनसीआर में रहने वाले बहुत से लोगों ने जिंदगी में शायद पहली बार देखा हो। फ़लक पर उड़ते हुए सफ़ेद रूई जैसे बादल बेहद दिलकश लग रहे थे ।

सड़के बीरान तो थीं मगर मंज़र साफ़ हो गया था। सड़क किनारे लगे पौधे एकदम साफ़ और फूलों से गुलज़ार यमुना नदी तो इतनी साफ़ कि पूछिए ही मत। सरकार हज़ारों करोड़ ख़र्च करके भी जो काम नहीं कर पाई, लॉकडाउन के 21 दिनों ने वह कर दिखाया ।

प्रकृति के लिए वरदान ?: ऐसी ही तस्वीरें दुनिया के तमाम दूसरे शहरों में भी देखने को मिल रही थीं। इसमें शक नहीं कि नया कोरोना वायरस दुनिया के लिए काल बनकर आया है। इस नन्हें से वायरस ने लाखों लोगों को अपना निवाला बना लिया है। अमरीका जैसी सुपरपावर की हालत ख़राब कर दी है। इन चुनौतियों के बीच एक बात सौ फ़ीसद सच है कि दुनिया का ये लॉकडाउन प्रकृति के लिए बहुत मुफ़ीद साबित हुआ है। वातावरण धुल कर साफ़ हो चुका है। हालांकि ये तमाम क्रवायाद कोरोना वायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए हैं।

लॉकडाउन की वजह से तमाम फैैक्ट्रययां बंद हैं। यातायात के तमाम साधन बंद हैं। अंतराष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्था को भारी धक्का लग रहा है । लाखों लोग बेरोज़गार हुए हैं। शेयर बाज़ार अंधे मुंह आ गिरा है। लेकिन अच्छी बात ये है कि कार्बन उत्सर्जन रुक गया। नाइट्रोजन डाइ आक्साइड उत्सर्जन कम हो रहा है। ब्रेटेन और स्सुन की भी कुछऐसी ही कहानी है ।

लॉकडाउन के बाद ? : कुछ लोगों का कहना है कि इस महामारी को पर्यावरण में बदलाव के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। अभी सब कुछ बंद है, तो कार्बन उत्सर्जन रुक गया है। लेकिन जब दुनिया फिर से पहले की तरह चलने लगी तो क्या ये कार्बन उत्सर्जन फिर से नहीं बढ़ेगा ? पर्यावरण में जो बदलाव हम आज देख रहे हैं क्या वे हमेशा के लिए स्थिर हो जाएंगे।

स्वीडन के एक जानकार और रिसर्चर किम्बर्ले निकोलस के मुताबिक़, दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन का 23 फ़ीसदी परिवहन से निकलता है। इनमें से भी निजी गाड़ियों और हवाई जहाज़ की वजह से दुनिया भर में 72 फीसदी कार्बन उत्सर्जन होता है। लोग ऑफ़िस का काम भी घर से कर रहे थे। अपने परिवार और दोस्तों को वक़्त दे पा रहे थे। निकोलस कहते हैं कि मुश्किल की इस घड़ी में हो सकता है लोग इसकी अहमियत समझें।

अगर ऐसा होता है तो मौजूदा पर्यावरण के हालात थोड़े परिवर्तन के साथ लंबे समय तक चल सकते हैं। वहीं निकोलस ये भी कहते हैं कि बहुत से लोगों के लिए हर रोज़ ऑफिस आना और दिल लगाकर काम करना ही जिंदगी का मक़सद होता है। इन दिनों उन्हें घर में बैठना बिल्कुल नहीं भा रहा होगा। वे इस लॉकडाउन को कैदन की तरह देख रहे होंगे। हो सकता है वे अभी ये प्लानिंग ही कर रहे हों कि जैसे ही लॉकडाउन हटेगा वे फिर से कहीं घूमने निकलेंगे।

लॉन्ग ड्राइव पर जाएंगे। अगर ऐसा होता है तो बहुत जल्द दुनिया के आब-ओ-हवा में ज़हर घुलने लगेगा। ऐसा पहली बार नहीं है कि किसी महामारी के चलते कार्बनडाई ऑक्साइड का स्तर कम हुआ हो। इतिहास में इसके कई उदाहरण मिलते हैं। यहां तक कि औद्योगिक क्रांति से पहले भी ये बदलाव देखा गया था। जर्मनी की एक जानकार जूलिया पोंग्रात्स का कहना है कि यूरोप में चौदहवीं सदी में आई ब्लैक डेथ हो, या दक्षिण अमरीका में फैली छोटी चेचक। कोरोना वायरस की महामारी ने ना जाने कितनों से उनके अपनों को हमेशा के लिए जुदा कर दिया है।

हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर इसका बहुत नकारात्म और मानसिक स्वास्थ्य पर इसका बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। ना जाने कितनों का रोज़गार खत्म हुआ है। अर्थव्यवस्था पटरी पर कब लौटेगी यह भी कहना मुश्किल है। लेकिन इस महामारी ने एक बात साफ़ कर दी कि मुश्किल घड़ी में सारी दुनिया एक साथ खड़ी होकर एक दूसरे का साथ देने के लिए तैयार है तो फिर क्या यही जज़्बा और इच्छा शक्ति हम पर्यावरण बचाने के लिए ज़ाहिर नहीं कर सकते ? हमें उम्मीद है, समय के इस अंधकार को हम स्वच्छ और हरे-भरे वातावरण से मिटा देंगे ।

Leave a Comment