Students should regularly practice West Bengal Board Class 9 Hindi Book Solutions and रचना शैक्षिणिक निबंध to reinforce their learning.
WBBSE Class 9 Hindi रचना शैक्षिणिक निबंध
देशप्रेम
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- देशप्रेम की स्वाभाविकता
- देश-प्रेम का महत्व
- उपसंहार।
देशप्रेम वह पुण्य क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित ।
आत्मा के विकास से जिसमें, मानवता होती है विकसित ।।
प्रस्तावना :- मनुष्य जिस देश अथवा समाज में पैदा होता है, उसकी उन्नति में सहयांग देना उसका प्रथम कर्त्तव्य है, अन्यथा उसका जन्म लेना व्यर्थ है । देशप्रेम की भावना ही मनुष्य को बलिदान और त्याग की प्रेरणा देती है । मनुष्य जिस भूमि पर जन्म लेता है, जिसका अन्न खाकर, जल पीकर अपना विकास करता है उसके प्रति प्रेम की भावना का उसके जीवन में सर्वोच्च स्थान होता है । इसी भावना से ओत-प्रोत होकर कहा गया है –
‘जननी जन्मभूमिश्च सवर्गादपि गरीयसी’ (अर्थात् जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं ।)
देशे्रेम की स्वभाविकता : मनुष्य तथा पशु आदि जीवधारियों की तो बात ही क्या, फूल-पौधों में भी अपने देश के लिए मिटने की चाह होती है । पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने पुष्प के माध्यम से इस अभललाषा का अत्यंत सुंदर वर्णन किया है-
मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर तुम देना फेंक
मातृभूमि को शीश चढ़ाने जिस पथ जाएँ वीर अनेक ।
अपने देश अथवा अपनी जन्मभूमि के प्रति प्रेम होना मनुष्य की एक स्वाभाविक भावना है ।
देश-प्रेम का महत्व :- देश-प्रेम विश्व के सभी आकर्षणों से बढ़कर है । यह एक ऐसा पवित्र तथा सात्विक भाव है जो मनुष्य को लगातार त्याग की प्रेरणा देता है । देश-प्रेम का संबंध मनुष्य की आत्मा से है । मानव की हार्दिक इच्छा रहती है कि उसका जन्म जिस भूमि पर हुआ है, वहीं पर वह मृत्यु को वरण करे । विदेशों में रहते हुए भी व्यक्ति अंत समय में अपनी मातृभूमि का दर्शन करना चाहता है ।
देशप्रेम की भावना मनुष्य की उच्चतम भावना है । देश-प्रेम के सामने व्यक्तिगत लाभ का कोई महत्व नहीं है। जिस मनुष्य के मन में देश के प्रति अपार प्रेम और लगाव नहीं है, उस मानव के हंदय को कठोर, पाषाण-खंड कहना ही उपयुक्त होगा । इसीलिए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण के अनुसार –
भरा नहीं है जो भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं ।
हदय नहीं पत्यर है वह, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ।।
जो मानव अपने देश के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर देता है तो वह अमर हो जाता है, किंतु जो देश-प्रेम तथा मातृभूमि के महत्व को नहीं समझता, वह तो जीवित रहते हुए भी मृतक जैसा है-
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है ।
वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है ।।
केवल राष्ट्र हित में राजनीति करने वाला व्यक्ति ही देश-प्रेमी नहीं है । स्वस्थ व्यक्ति सेना में भर्ती होकर, मजदूर, किसान व अध्यापक अपना कार्य मेहनत, निष्ठा तथा लगन से करके और छात्र अनुशासन में रहकर देश-प्रेम का परिचय दे सकते हैं।
उपसंहार :- प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपना सब कुछ अर्पित करके भी देश की रक्षा तथा विकास में सहयांग दें । हम देश में कहीं भी रहें, किसी भी रूप में रहें, अपने कार्य को ईमानदारी से तथा देश के हित को सर्वोपरि मानकर करें । आज जब देश अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं से जूझ रहा है, ऐसे समय में प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि हम अपने व्यक्तिगत सुखों का त्याग करके देश के सम्मान की रक्षा तथा विकास के लिए तन-मन-धन को अर्पित कर दें।
प्रत्येक नागरिक के लिए छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद के ये शब्द आदर्श बन जाएँ –
जिएँ तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे या हर्ष ।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।
सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- नामकरण
- विभिन्न धर्मों का संगम
- प्राकृतिक सौंदर्य
- महापुरुषों की जन्मभूमि
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- स्वामी विवेकानंद ने कहा था- “यदि पृथ्वी पर ऐसा कोई देश है, जिसे हम पुणयभूमि कह सकते हैं-यदि कोई ऐसा स्थान है, जहाँ पृथ्वी के जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिए आना पड़ता है-यदि कोई ऐसा स्थान है, जहाँ भगवान को प्राप्त करने की आकांक्षा रखने वाले जीव मात्र को आना होगा-यदि ऐसा कोई देश है, जहाँ मानव-जाति के भीतर क्षमा, धृति, दया, शुद्धता आदि सद्वृत्तियों का अपेक्षाकृत अधिक विकास हुआ है, तो मैं निश्चित रूप से कहूँगा कि वह हमारी मातृभूमि भारतवर्ष ही है ।’
भारत देश हमारे लिए स्वर्ग के समान सुंदर है । इसने हमें जन्म दिया है, इसकी गोद में पलकर हम बड़े हुए हैं। इसके अन्न-जल से हमारा पालन-पोषण हुआ है, इसलिए हमारा कर्त्वव्य है कि हम इसे अपना समझें तथा अपने देश पर कुछ भी अर्पित करने हेतु तैयार रहें ।
“यूँ तो वसुधा पर देश कई । कुछ की सुषमा सविशेष नई ।
पर भारत की गुरुता इतनी, इस भूमंडल पर कहीं न जितनी ।।”
नामकरण :- हमारे देश का नाम भारत या भारतवर्ष है । पहले इसका नाम आर्यावर्त था । ऐसी मान्यता है कि परमत्यागी दुष्यंत और शकुंतला के प्रतापी पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत प्रसिद्ध हुआ । हिन्दू-बहुल होने के कारण इसे ‘हिंदुस्तान’ भी कहा जाता है ।
विभिन्न धर्मों का संगम :- भारतवर्ष संसार का सबसे बड़ा प्रजातांत्रिक, धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र है। हमारा भारतवर्ष विश्व के विशाल राष्ट्रों में से एक है । जनसंख्या की दृष्टि से चीन के बाद भारत विश्व का दूसरा देश है। यहाँ पर प्राय: सभी धर्मों के लोग रहते हैं जिनमें परस्पर भाई-चारा एवं सौहार्द बना रहता है ।
प्राकृतिक सौंदर्य :- भारत का प्राकृतिक सौंदर्य सभी को अपनी ओर आकर्षित करने वाला है। यहाँ हिमालय का पर्वतीय प्रदेश है, गंगा-यमुना का समतल मैदान है । पर्वत और समतल-मिश्रित दक्षिण का पठार है तथा राजस्थान का रेगिस्तान भी है । विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ पर छ: ऋतुएँ समय-समय पर आती हैं और अपनी विशेषताओं से इस देश की धरती को विविधतापूर्ण तथा मनमोहक बना देती हैं। भारत के पर्वत, झारने, नदियाँ, वनउपवन, हरे-भरे मैदान, रेगिस्तान, समुद्र-तट इस देश की शोभा हैं । धरती का स्वर्ग यदि एक ओर कश्मीर में दिखाई देता है तो दूसरी ओर केरल की हरियाली स्वर्गिक आनंद से भर देती है।
यहाँ गंगा, जमुना, कावेरी, कृष्णा, नर्मदा, रावी, व्यास आदि अनेक नदियाँ हैं । ये नदियाँ वर्ष-भर भारत-भूमि को सींचती रहती हैं, हरा-भरा बनाती हैं और अन्न के उत्पादन में निरंतर सहयोग करती हैं । भारतीय कृषि का बहुत बड़ा भाग नदियों द्वारा की जाने वाली सिंचाई पर निर्भर करता है ।
महापुरुषों की जन्मभूमि :- भारत अत्यंत प्राचीन देश है । यहाँ पर अनेक महापुरुषों का जन्म हुआ है, जिन्होंने मानव को संस्कृति और सभ्यता का पाठ पढ़ाया है । यहाँ पर वाल्मीकि, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, गोस्वामी तुलसीदास, महाकवि कालिदास जैसे ऋषियों-मुनियों तथा कवियों ने जन्म लिया है । इन्हीं ॠषियों ने वेदों का गान किया, उप्पनिषद तथा पुराणों की रचना की। यहाँ राम पैदा हुए जिन्होंने न्यायपूर्ण शासन का आदर्श स्थापित किया ।
यहीं पर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ जिन्होंने गीता का ज्ञान देकर कर्म-पाठ को पढ़ाया । यहाँ पर बुद्ध और महावीर ने अवतार लिया जिन्होंने मानव को अहिंसा की शिक्षा दी । विक्रमादित्य, चंद्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक, अकबर आदि इतिहास प्रसिद्ध समाटों ने भी यहाँ की भूमि पर ही जन्म लिया । आधुनिक काल में गरीबों के मसीहा महात्मा गाँधी, विश्व मानवता के प्रचारक रवीद्रनाथ ठाकुर और पंचशील के पुजारी पं० जवाहर लाल नेहरू, लोकनायक जयप्रकाश नारायण भी इसी देश की धरोहर हैं।
उपसंहार :- भारत धर्म, संस्कृति एवं दर्शन का संगम, संसार को शान्ति और अहिंसा का संदेश देने वाला मानवता का पोषक है तथा ‘वसुधैव कुटुंबकम्” का नारा देने वाला भारत किसको प्रिय न होगा । इन्हीं विशेषताओं के कारण महान शायर इकबाल ने कहा था –
“सारे जहाँ से अच्छा, हिंदोस्ताँ हमारा ।”
भारतभूमि धन्य है तथा हम भारतवासी अत्यंत सौभाग्यशाली हैं । भारत भूमि में रहने वाले धन्य हैं जो प्रारंभ में स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त करके और अपना देवता-पद छोड़कर भी भारत में मनुष्य होकर जन्म लेते हैं ।
गणतंत्र दिवस : 26 जनवरी
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- गणतंत्र दिवस समारोह
- उपसंहार ।
प्रस्तावना :- भारत के इतिहास में 26 जनवरी का दिन अत्यतं महत्वपूर्ण है और प्रतिवर्ष इसी दिन हमारा यह राष्ट्रीय पर्व अत्यंत धूमधाम के साथ मनाया जाता है । लाहौर में रावी के तट पर पं० नेहरू ने भारत को स्वाधीन कराने की शपथ 26 जनवरी, 1929 को ही ली थी और 26 जनवरी, 1930 का दिन पूर्ण स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाया गया था। सन् 1950 में जब स्वतंत्र भारत का नया संविधान लागू किया गया तो पूरे देश में हर्ष की लहर दौड़ गई ।
वह शुभ दिन भी 26 जनवरी का ही था जब भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद बनाये गये और पं० जवाहरलाल नेहरू ने प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में राष्ट्र की बागडोर संभाली । इसी शुभ घड़ी से जनता द्वारा निर्वांचित प्रतिनिधियों का शासन आरंभ हुआ । केंद्र में संसद और प्रत्येक राज्य में विधान सभाएँ अपने अस्तित्व में आयीं तथा संपूर्ण राष्ट में संसदीय प्रणाली के माध्यम से स्वशासन प्रारंभ हुआ। इतने अल्प समय में इतनी बड़ी उपलब्धि निश्चय ही एक महान ऐतिहासिक घटना की प्रतीक है। इसी कारण 26 जनवरी को गणतंत्र-दिवस का नाम दे दिया गया।
गणतंत्र दिवस समारोह :- गणतंत्र दिवस वैसे तो संपूर्ण राष्ट्र में अत्यंत धूमधाम से मनाया जाता है और यह दिन सार्वज्जानिक अवकाश का भी होता है। यह हमारा राष्ट्रीय त्यौहार है । देश के कोने-कोने में प्रभात फेरियाँ निकाली जाती हैं, परंतु भारत की राजधानी दिल्ली में इसकी शोभा अत्यंत निराली होती है । इस दिन विजय चौक के आस-पास इस समारोह को देखने के लिए सुबह से ही भारतीय जनता एकत्रित होने लग जाती है । इंडिया गेट का क्षेत्र खचाखच भर जाता है । इसके अतिरिक्त असंख्य लोग उन रास्तों के दोनों ओर खड़े हो जाते हैं, जहाँ से गणतंत्र-दिवस का भव्य जुलूस गुजरता है । अनेक असुविधाओं के होते हुए भी पुरुषों, ख्रियों और बच्चों-सभी का उत्साह देखने योग्य होता है ।
लगभग नौ बजे प्रात: राष्ट्रपति अपने निवास स्थान से शानदार सवारी में बैठकर की जल, थल और वायु सेना की टुकड़ियों के अभिवादन के लिए इंडिया गेट पहुँचते हैं । उनके आगे-पीछे उनके अंगरक्षकों की टुकड़ियाँ होती हैं। वहाँ पहुँचने पर सभी लोग उनका स्वागत करते हैं तथा उन्हें 31 तोपों की सलामी दी जाती है। उसके बाद देश के अनेकानेक वीरों को उपाधियों और पारितोषिकों से विभूषित किया जाता है और फिर परेड प्रारंभ होती है । जल, थल और वायु सेना की अनेक टुकड़ियाँ सलामी देते हुए राष्ट्रपति के सामने से गुजरती हैं तथा सेना के विमान पुष्प-वर्षा करते हैं। युद्ध क्षेत्र में काम आने वाले अनेकानेक उपकरणों एवम् यंत्रों को भी प्रदर्शित किया जाता है। इस परेड से देश की सैन्य शक्ति की एक झलक दिखाई देती है ।
इसके उपरांत घुड़सवार, ऊँट सवार सेना, सीमा सुरक्षा बल तथा नेशनल कैडेट कोर की टुकड़ियाँ निकलती हैं। बीच-बीच में सैनिक बैंड बजाते हुए निकलते हैं जिससे परेड की शोभा दुगुनी हो जाती है । अनेक विद्यालयों के छात्र एवम् छात्राओं की टुकड़ययाँ भी इस परेड में भाग लेते हैं । अंत में प्रत्येक राज्य द्वारा भव्य झाँकियों का प्रदर्शन किया जाता है । यह परेड इंडिया गेट से अनक राजमार्गों पर होती हुई लाल किले के मैदान में पहुँचती हैं ।
रात्रि के समय राष्ट्रपति भवन तथा अन्य राजकीय भवनों पर भव्य रोशनी की जाती है । दिल्ली और नई दिल्ली में अनेक स्थानों पर अत्यंत आकर्षक अतिशबाजी भी छोड़ी जाती है, जिसे देखने के लिए बहुत बड़ी संख्या में लोग एकत्रित होते हैं । इसके साथ ही गणतंत्र दिवस का समारोह समाप्त होता है ।
स्वतंत्रता दिवस : 15 अगस्त
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- स्वतंत्रता दिवस समारोह
- उपसंहार।
“पंद्रह अगस्त का पर्व है कहता मिलकर कंधे जोड़ो ।
मातृभूमि की रक्षा के हित, जीवन का मोह छोड़ो ।।”
प्रस्तावना :- 15 अगस्त, 1947 से पूर्व हमारा देश अंग्रेजों के अधीन था । किसी भी बाहरी शासक के शासन काल में उस देश के निवासियों को अपमान, अत्याचार और शोषण का शिकार होना पड़ता है । बिटिश शासन में भारतीयों की स्थिति भी ऐसी ही थी । हमारे देशवासियों ने संघर्ष किया, फलत: 15 अगस्त, 1947 ई० को हमारा देश भारत स्वतंत्र हुआ । स्वतंत्रता प्राप्ति के इसी दिन को हम ‘स्वतंत्रता दिवस’ के रूप में अत्यंत हर्ष के साथ मनाते हैं । इस दिन सार्वजनिक अवकाश रहता है । यह हमारा राष्ट्रीय पर्व है ।
परतंत्रता का दुख और स्वतंत्रता-संघर्ष :- मुगल शासन से व्यापार की अनुमति प्राप्त करके अंग्रेज भारत में व्यवसाय करने आए थे । धीरे-धीरे मुगल बादशाहों की कमजोरियों की पहचान करके उन्होंने मुगलों के शासन को समाप्त करके स्वय का शासन स्थापित कर लिया । अंग्रेज भारत के शासक बन गए। अंग्रेजों की नीति भारत का आर्थिक एवं मानसिक शोषण करने की थी । उनके अत्याचार तथा शोषण का शिकार भारतीय जनता होने लगी। अंग्रेजों द्वारा भारतीयों का स्वाभिमान कुचला जाता था । इसी समय 1857 ई० में मेरठ में मंगल पांडे नामक एक बाह्मण ने भारतीयों के सुप्त स्वाभिमान को जगाने का प्रयास किया। सैनिकों के बैरकों में विद्रोह की चिंगारी पैदा कर दी तथा राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ दिया। यह संघर्ष उचित नेतृत्व के अभाव में असफल रहा ।
15 अगस्त, 1947 ई० को हमारी परतंत्रता की बेड़ियाँ खुल गई । 14 अगस्त, 1947 ई० की रात में 12 बजकर 1 मिनट पर अंग्रेजों ने भारतीय कर्णधारों को सत्ता सौंप दी । 15 अगस्त का सवेरा भारतवासियों के लिए एक नई उमंग लेकर आया। प्रातःकाल से ही प्रभात-फेरियाँ प्रारंभ हो गई । दिल्ली के लाल किले पर ध्वजारोहण हुआ, जिसे देखने के लिए वहाँ संपूर्ण भारत से भीड़ उमड़ पड़ी । सेना ने ‘राष्ट्रीय ध्वज’ को सलामी दी। संपूर्ण भारत में राष्ट्रीय-ध्वज’ को सम्मानपूर्वक सलामी दी गई ।
15 अगस्त, 1947 ई० से प्रत्येक वर्ष हम स्वतंत्रता प्राप्ति की वर्षगाँठ मनाते हैं और राष्ट्रीय ध्वज के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हैं । इस दिन दिल्ली के लाल किले पर ध्वजारोहण किया जाता है । भारत के सभी राज्यों में भी ध्वजारोहण करके उसे सम्मान प्रदर्शित किया जाता है । सरकारी कार्यालयों, विद्यालयों एवं विभिन्न संस्थाओं में इस दिन ध्वजारोहण किया जाता है तथा विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। प्रत्येक राज्य में मुख्यमंत्री ध्वजारोहण करते हैं। दिल्ली में राष्ट्रीय ध्वजारोहण प्रधानमंत्री द्वारा किया जाता है, फिर वे लाल किले से देश की जनता को संबोधित करते हैं।
उपसंहार :- यह स्वतंत्रता हमें कठिन संघर्ष के बाद प्राप्त हुई है । इस दिन अपनी प्रसन्नता प्रदर्शन करना प्रत्येक भारतीय नागरिक का अधिकार है । प्रत्येक नागरिक अपने मन में यह प्रतिज्ञा करता है कि वह तन-मन-धन से अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता की रक्षा करेगा । देश की स्वतंत्रता से ही हमारी अस्मिता जुड़ी हुई है । यह स्वतंत्रता हमारी राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक है ।
मेरे जीवन का लक्ष्य
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- लक्ष्य का निश्चय
- लक्ष्यपूर्ण जीवन के लाभ
- लक्ष्यपूर्ति का प्रयास
- लक्ष्य निर्धारण के कारण
- उपसंहार ।
प्रस्तावना :- मानव-जीवन एक दुर्लभ उपलब्धि है । चौरासी लाख योनियों में मानव योनि ही सर्वश्रेष्ठ है । इसीलिए मानव विधाता की अमूल्य रचना है । विधाता ने केवल मानव को ही बुद्धि प्रदान की है जिससे मानव जीवन स्वार्थी न बन जाए, अपितु उसके जीवन में परमार्थ साधना का प्रमुख स्थान होना चाहिए ।
जीवन का लक्ष्य तय करना प्रत्येक मानव का कर्तव्य है । कल्पना का जगत सबसे अधिक रमणीय तथा मधुर है । मेर जीवन का एक स्वप्न है जिसे मैं येन-केन-प्रकारेण साकार और सार्थक करना चाहता हूँ।
लक्ष्यपूर्ण जीवन के लाभ :- जब से मेरे मन में अध्यापक बनने का सपना जगा है, तब से मेरे जीवन में अनेक परिवर्तन आ गए हैं। अब मैं पढ़ाई की ओर अधिक ध्यान देने लगा हूँ, ताकि अपने लक्ष्य को सुगमता से प्राप्त कर सकूँ । उद्देश्य सहित पढ़ने में अत्यंत आनंद है । कार्लाइल ने सत्य ही कहा था – अपने जीवन का एक लक्ष्य बनाओ और इसके बाद अपना शारीरिक और मानसिक बल, जो ईश्वर ने तुम्हें दिया है, उसमें लगा दो ।’ अथर्ववेद ने भी यही प्रेरणा दी है-उन्नत होना और आगे बढ़ना प्रत्येक के जीवन का लक्ष्य है ।’छायावादी कवि श्री जयशंकर प्रसाद जीवन का उद्देश्य अनत गति और अनंत विस्तार मानते हैं-
“इस पथ्य का उद्देश्य नहीं है, श्रांत भवन में टिके रहना ।
किंतु पहुँचना उस सीमा तक, जिसके आगे राह नहीं ।।’
लक्ष्य पूर्ति का प्रयास :- मैंने अपने लक्ष्य को पूरा करने की दिशा मे प्रयास करने आरंभ कर दिए हैं। अध्ययन के प्रति मैं और अधिक गंभीर हो गया हूँ । जब तक मुझे लक्ष्य की प्राप्ति नही होती, तब तक मैं जीवन में आराम नहीं करूँगा । अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु निरतर प्रयास करता रहूँगा ।
आज का बालक कल का नागरिक है और नागरिक राष्ट्र की इकाई होता है । बालक जैसी शिक्षा प्राप्त करेगा वैसा ही नागरिक बनेगा । विद्यालय बालकों की निर्माणशाला है। अध्यापक उसका निर्माता है, वही उसके व्यक्तित्व की रचना करता है । उसके अंदर ज्ञान तथा सद्गुणों का प्रकाश फैलाता है, सदाचार की सृष्टि करता है। आदर्श अध्यापक अपने छात्रों पर सब कुछ न्योछावर कर देता है ।
ज्ञानरहित तथा गुणहीन बालक अध्यापक के हाथ से ज्ञान शिरोमणि तथा गुण-संपन्न बन जाता है । इस प्रकार अध्यापक राष्ट्र रूपी भवन निर्माण के लिए नागरिक रूपी सुदृढ़ ईंट तैयार करता है।
उपसंहार :- अध्ययन व्यवसाय सेवा एवं परोपकार का श्रेष्ठ साधन है । अध्यापक को जो वेतन आदि मिलता है वह पत्र-पुष्प ही है । अतुलित उपकार तथा सेवा के कारण ही भारतीय संस्कृति में अध्यापक का स्थान, गुरु का पद परमेश्वर से भी ऊँचा रखा गया है । तभी तो गुरु और गोविंद दोनो की उपस्थिति में शिष्य गुरु का चरण स्पर्श करता है, गोविंद का नहीं । कबीर के शब्दों में –
“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँच ।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय ।।”
ऐसा होता है महान अध्यापक और उसका व्यवसाय । अध्यापन व्यवसाय परमार्थ-साधना का उत्तम उपाय है। इससे अनेक बालकों को अपना जीवन सफल तथा सार्थक बनाने का अवसर मिलता है। अध्यापन व्यवसाय धन्य है जो बीज के समान अपना सर्वस्व बलिदान कर वृक्ष रूपी राष्ट्र को अपनी छात्र-संपदा प्रदान करता है । इसीलिए अध्यापक को राष्ट्र का निर्माता माना जाता है ।
आदर्शअध्यापक
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- प्राचीन परंपरा
- वर्तमान स्थिति
- अध्यापक के गुण
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- किसी भी उपवन का माली अपनी कुशल देख-रेख और काट-छाँट से उद्यान के रूप को सँवारता है। कुभकार मिट्टी से सुंदर बर्तन तथा मनभावन खिलैने तथा मूर्तियाँ गढ़ता है । मूर्तिकार अपनी छैनी से बेडौल पत्थर में देवत्व की प्रतिष्ठा करता है । इसी प्रकार जो ‘मानव’ शब्द को सही अर्थ और पहचान देता है, जो मनुष्य में मनुष्यत्व का निर्माण करता है, उस चरित्र-शिल्पी को समस्त विश्व गुरू के गौरवपूर्ण नाम से जानता है। इतना ही नहीं अपितु गुरू को व्रहा, विष्गु, शिव और परमब्रह्म तक कहा गया है –
गुरुर्बह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर: ।
गुरु साक्षात् परंब्रहमा, तस्मै श्री गुरवे नम: ।।
महात्मा कबीर ने तो गुरू को ईश्वर से बड़ा माना है । वे कहते हैं कि गुरू तथा गोविंद (ईश्वर) एक साथ मिल जाएँ तो सर्वप्रथम गुरू को ही प्रणाम करना चाहिए –
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय ।।
प्राचीनकाल में गुरू आश्रम बनाकर वनों में रहते थे । ये आश्रम ही विद्या और तपस्या के केंद्र थे । इसीलिए इन वनों को तपोवन कहा जाता था। इन आश्रमों में सांसारिक शिक्षा के साथ-साथ आध्यात्मिक शिक्षा भी प्रदान की जाती थी। वहाँ राजा का पुत्र तथा सामान्य नागरिक का पुत्र समान रूप से साथ-साथ विद्या ग्रहण करते थे । शिष्यों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था । इसीलिए उस समय गुरु-सेवा का महत्व अधिक था।
वर्त्तमान स्थिति :- आश्रमों के बाद गुरुकुल परपरा प्रारंभ हुई । मुगल शासन-काल में अरबी-फारसी की शिक्षा के लिए मकतब और मदरसे स्थापित किए गए । इसी पद्धति को देखते हुए गुरुकुलों की स्थापना होने लगी । इनमें ज्ञान अर्जित करने वाले छात्रों की संख्या भी बढ़ने लगी। अंग्रेजों ने शिक्षा के लिए स्कूलों तथा कॉलेजों की स्थापना की । इस प्रकार देव-तुल्य सम्मान का अधिकारी गुरू एक साधारण वेतनभोगी कर्मचारी बनकर रह गया। वह ज्ञान को धन कमाने का साधन समझने लगा । विद्यालय शिक्षण पर कम और निजी ट्यूशन पर अधिक ध्यान देने लगा । उसी अनुपात में गुरू का सम्मान घटते-घटते शून्य हो गया । आजकल विद्यालयों और महाविद्यालयों में अध्यापक कक्षा में मन लगाकर पढ़ाते ही नही जबकि घर पर, कोचिंग संस्थानों में अच्छी तरह पढ़ाते हैं । सरकारी विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में तो और भी बुरा हाल है ।
अध्यापक के गुण :-प्राचीन आश्रम व्यवस्था तो वापस नहीं आ सकती, फिर भी आज के युग के अनुसार शिक्षक के आदर्श गुणों की कल्पना तो की ही जा सकती है । मेरी अपनी मान्यता है कि शिक्षक को अपने विषय का पूर्ण ज्ञाता होना चाहिए तथा नवीन ज्ञान को जानने का सदैव इच्छुक होना चाहिए । उसका सामान्य ज्ञान अच्छा होना चाहिए । उसकी अभिव्यक्ति शैली ऐसी हो कि सुनने वालों पर प्रभाव पड़े। भाषा का अध्यापक है तो उसकी भाषा पर पकड़ होनी चाहिए । विज्ञान का अध्यापक है तो उसकी सोच वैज्ञानिक होनी चाहिए । उसे गम्भीर तथा व्यवहार-कुशल होना चाहिए। कुल मिलाकर शिक्षक का आचरण ऐसा होना चाहिए जिसका अनुकरण करते हुए उसके छात्र-छात्राएँ राष्ट्र के श्रेष्ठ नागरिक बन सके ।
आज भी एसे आदर्श तथा परिश्रमी अध्यापकों का अभाव नहीं है । मैं अपने गुरू श्री बद्री प्रसाद शर्मा को उसी श्रेणी का शिक्षक मानता हूँ।
उपसंहार :-अध्यापक के अति सम्माननीय पद का महत्व धन या वेतन से नहीं परखा जा सकंता है । शिक्षक के रूप में उन्हीं व्यक्तियों को आना चाहिए जो कर्त्तव्य को धन तथा ऐश्वर्य से अधिक महत्व देते हों, जिनमें पठन-पाठन की रुचि हो । हमारा भी यह कर्त्तव्य है कि हम समाज के इन आदर्श शिक्षकों को इतना मान-सम्मान दें कि वे अपने पद को गौरवशाली समझ सकें । यदि देश में आदर्श शिक्षक शिक्षण करेंगे तो भारत के कर्णधार अच्छी शिक्षा ग्रहण करके श्रेष्ठ नागरिक बनंगे तथा समाज आदर्श राष्ट्र बनेगा । अत: नि:संकोच रूप से कहा जा सकता है कि अध्यापक का सम्मान समाज में सर्वोपरि है ।
विद्यार्थी और अनुशासन (माध्यमिक परीक्षा – 2007)
रूपरेखा :
- भूमिका
- अनुशासन न होने से उत्पन्न समस्या
- अनुशासन से लाभ
- विद्यार्थियों के लिये अनुशासन की अनववार्यता
- उपसंहार।
अनु-शासन, इन दो शब्दों के मेल से ‘अनुशासन’ शब्द बना है । इसमें ‘अनु’ उपसर्ग का अर्थ है-पश्चात, बाद में साथ आदि।’शासन’ का अर्थ है नियम, विधान, कानून आदि । इस प्रकार दोनों के मेल से बने अनुशासन का सामान्य एवं व्यावहारिक अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति जहाँ भी हो, वहाँ के नियमों, उपनियमों तथा कायदे-कानून के अनुसार शिष्ट आचरण करें । एक आदमी अपने घर में अपने छोटों या नौकर-चाकरों के साथ जिस तरह का व्यवहार कर सकता है, वैसा घर के बाहर अन्य लोगों के साथ नहीं कर सकता । घर से बाहर समाज का अनुशासन भिन्न होता है । इसी तरह दफ्तर में आदमी को एक अलग तरह के माहौल में रहना और वहाँ के नियम-कानूनों का पालन करना होता है ।
इसी तरह मन्दिर का नियम-अनुशासन अलग होता है, बाजार एवं मेले का अनुशासन अलग हुआ करता है । ठीक इसी तरह एक छात्र जिस विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने जाता है, वहाँ उसे एक अलग तरह के माहौल में रहना पड़ता है। वहाँ का अनुशासन भी उपर्युक्त सभी स्थानों से सर्वथा भिन्न हुआ करता है । अत: व्यक्ति जिस किसी भी तरह के माहौल में हो, वहाँ के मान्य नियमों, सिद्धान्तों का पालन करना उसका कर्त्तव्य हो जाता है। इस कर्त्तव्य का निर्वाह करने वाला व्यक्ति ही अनुशासित एवं अनुशासन प्रिय कहलाता है।
सन् 1974 ई० की समग्रक्रांति के प्रणेता जयप्रकाश नारायण तथा आपातकाल विरोधी आंदोलन के नेताओं ने शासन के विरुद्ध विद्यार्थी वर्ग का खुलकर प्रयोग किया। विरोधी आंदोलनों के परिणामस्वरूप मई, सन् 1977 ई० के बाद तो अनुशासनहीनता चारों ओर फैलती जा रही है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात आपातकाल से पहले तक का समय ऐसा था, जब स्कूल-कॉलेजों में अनुशासन का पूर्ण रूप से पालन कर छात्रों में गुरुजनों के प्रति श्रद्धा का भाव था । वे नियमित रूप से एकाग्रचित होकर अध्ययन करते थे । अब तो छात्र आये दिन कोई न कोई उपद्रव खड़ा करते रहते हैं ।
अनुशासन तोड़ने पर शारीरिक दण्ड देना कानूनी अपराध है। तब विद्यार्थी को किस तरह डराकर रखा जाये ? तुलसीदास जी ने कहा है, ‘भय बिनु होय न प्रीति।’ जब भय नहीं तो विद्रोह होना स्वाभाविक है।
आज के स्वार्थपूर्ण, अस्वस्थ वातावरण में विद्यार्थियों को शांत और नियम में रहना अस्वाभाविक जान पड़ता है। अस्वस्थ प्रवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह उसकी जागरूकता का परिचायक है। जिस प्रकार अग्नि, जल और अणुशक्ति का रचनात्मक तथा विध्वंसात्मक दोनों रूपों में प्रयोग सम्भव है, उसी प्रकार युवा-शक्ति का उपयोग भी ध्वंसात्मक और रचनात्मक दोनों रूपों में किया जा सकता है। युवा-शक्ति का रचनात्मक उपयोग ही राष्ट्र-हित में वांछनीय है। यह तभी सम्भव है जब शिक्षक की भूमिका गरिमापूर्ण हो तथा राजनीति को शिक्षा से दूर रखा जाये।
वर्तमान समय में विद्यार्थी का कर्त्तव्य
अथवा, देश के हित में विद्यार्थी के कर्तव्य
रूपरेखा :
- भूमिका
- विद्या के निमित्त विद्यार्थी
- समाज व देश के हित में विद्यार्थी का कर्त्तव्य
- उपसंहार।
वर्तमान समय में भारत की स्थिति शोचनीय है। एक तरफ कानून-व्यवस्था चरमरा रही है, वहीं दूसरी तरफ फैशन की चकाचौंध में मनुष्य यूटोपिया में जीने लगा है। एक तरफ जहाँ आतंकवादियों का बोलबाला है, वहाँ दूसरी तरफ मानवीय संस्कार नष्ट हो रहे हैं जिसका परिणाम आये दिन हत्या, आत्महत्या, चोरी, डकैती के रूप में हमारे सामने आता है। दिनप्रतिदिन बढ़ती हुई महँगाई और कमाई असंतुलित होने की वजह से अभावग्रस्त और कुण्ठाग्रस्त होकर लोगों का जीना दूभर हो गया है। नैतिकता और मूल्य-बोध नष्ट होते जा रहे हैं।
ऐसे समय में विद्यार्थी का कर्त्तव्य क्या होना चाहिये? कुछ लोगों के अनुसार विद्यार्थी का कर्त्तव्य देश की विषम स्थिति से आँख मूँद कर अध्ययन करना चाहिये, लेकिन यह सही नहीं है । देश की विषम स्थितियों की अवहेलना कर मात्र अध्ययन करना राष्र्रिय आचरण के विरुद्ध होगा। कीचड़ से बचकर चलने पर भी दामन पर दाग जरूर लग जाता है। उसी प्रकार समाज में रहकर समाज की समस्याओं से दूर नहीं रहा जा सकता।
अत: विद्यार्थी का कर्त्तव्य है कि वह अपनी आत्मरक्ति को विकसित कर राष्ट्र निर्माण के लिये कार्य करे। विद्यार्थी का कर्त्तव्य है कि वह राजनीतिक जुलूस और साम्पदायिक दंगों से बचे। तोड़-फोड़ और राष्र्रीय सम्पत्ति के विनाश से अपने को दूर रखे। नारेबाजी के पचड़े से दूर रहे और अराजकतापूर्ण वातावरण के निर्माण में सहायक न बने । नशीले पदार्थो और पाश्चात्य संस्कृति के अनुसरण से अपने को बचाये। क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति के दलदल में धँसने के बाद उससे निकलना आसान नहीं है। विद्यार्थी का जीवन मुख्यत: विद्या प्राप्त करने का काल है। अत: अधिकाधिक ज्ञानार्जन करना ही छात्र का मुख्य लक्ष्य होना चाहिये। वह पुस्तकीय ज्ञान के साथ ही वास्तविक ज्ञान भी हासिल करे।
आज भारतीय समाज साम्पदायिकता और जातीयता की लपटों में झुलस रहा है। इससे बचने का उपाय है मनुष्य आत्ममंथन करे, ताकि उसमें मानव की समानता का बोध उत्पन्न हो। विद्यार्थी-जीवन में ही ऐसे भाव पैदा हो जायें तो साम्प्रदायिकता जड़ से उखड़ जायेगी। अतः विद्यार्थी का कर्तव्य है कि वह अपने मित्रों में जातीयता, वर्गवाद. प्रांतवाद और सम्पदायवाद को न आने दे और आपस में प्रेम और भाईचारे को बढ़ावा दे । इससे साम्पदायिक सौहार्र की भावना बलवती होगी ।
जो सभी देश-वासियों के मुख्य कर्त्तव्य हैं, उन्हीं कर्त्तव्यों का पालन विद्यार्थी को करना चाहिये। अपने देश की कमियों की सार्वज्जानक चर्चा न करे। अन्य राष्ट्रों की तुलना में उसे हीन न समझे। देश के प्रति शिष्टता होनी चाहिये, ताकि हमारा अंत: भी सुंदर हो। अपने वोट का प्रयोग स्वार्थवश, जाति या सम्पदायवश न करके अपने विवेक द्वारा करना चाहिये। जहाँ तक हो सके परनिन्दा से बचना चाहिये। कुछ पाने के लोभ में कोई भी दुष्कर्म करने से बचना चाहिये।
शिक्षक दिवस
रूपरेखा :
- भूमिका
- डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मोत्सव के रूप में
- उपसंहार।
डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन प्रसिद्ध दार्शनिक, शिक्षा-शाखी एवं संस्कृत विषय के प्रकाण्ड विद्वान थे। सन् 1962 से 1967 ई. तक वे भारत के राष्ट्रपति भी रहे । राष्ट्रपति पद पर प्रतिष्ठत होने से पहले वे शिक्षा जगत् से जुड़े हुए थे। प्रेसीडेंसी कॉलंज, मद्रास में इन्होने दर्शनशास्ख पढ़ाया और सन् 1921 से सन् 1936 ई. तक इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशाख्त के प्रोफेसर पद को अलंकृत किया। सन् 1936 ई० से सन् 1939 ई. तक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पूर्वी देशों के धर्म और दर्शन के स्पालिंडन प्रोफेसर पद को सम्मानित किया। सन् 1939 से सन् 1948 ई. तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। राष्ट्रपति बनने के बाद इनके म्रशंसकों ने इनका जन्मदिन सार्वजनिक रूप से मनाना चाहा तो इन्होंने जीवनपर्यन्त स्वयं शिक्षक रहने के कारण पाँच सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की इच्छा व्यक्त की । तब से हर वर्ष पाँच सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।
शिक्षकों को गरिमा प्रदान करने का दिन है शिक्षक दिवस। शिक्षक राष्ट्र के निर्माता और राष्ट्र संस्कृति के संरक्षक हैं। अध्यापक का पर्यायवाची शब्द गुरू है। उपनिपद के अनुसार गु अर्थात् अंधकार और रू का अर्थ है निरोधक। अंधकार का निरोध करने वाला गुरू कहा जाता है। वे शिक्षा द्वारा बालकों के मन में सुसंस्कार डालते हैं तथा उनके अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर देश का अच्छा नार्गरिक बनाने का प्रयास करते हैं। राष्ट्र के सम्पूर्ण विकास में शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षक का कार्यक्षेत्र विस्तृत है। किन्तु यह दिवस प्राथमिक, माध्य्यमक, उच्च तथा वरिष्ठ माध्य्यमिक शिक्षण संस्थाओं तक ही सीमित है।
प्रत्येक प्रादेशिक सरकार अपने स्तर पर शिक्षण के प्रति सर्मर्पित और विद्यार्थियों के प्रति प्रेम रखने वाले शिक्षको की सूची तैयार करती है। ऐसे वरिष्ठ और योग्य शिक्षकों को मंत्रालय द्वारा 5 सितम्बर को सम्मानित किया जाता है।
शिक्षक ज्ञान की कुंजी होते हैं। उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिये शिक्षक दिवस का अपना महत्व है। मगर आज शिक्षकों तथा छात्रों का रूप बदल गया है। आज शिक्षकों का लक्ष्य सही दिशा और ज्ञान देने की अपेक्षा धन कमाना हो गया है। छात्र भी शिक्षक के महत्व को नहीं समझते। उनके हृद्य में शिक्षक के प्रति श्रद्धा का भाव न रहकर, उन्हें उपहार देकर अपने नम्बर बढ़वाने की लालसा रखते हैं।
जिस मूल-भाव या उद्देश्य के लिये शिक्षक दिवस मनाया जाता है, वर्तमान समय में वह उद्देश्य लुप्त हो गया है। अब शिक्षक दिवस मनाने की औपचारिकता ही शेष बची है
यही वजह है कि आज शिक्षा का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। शिक्षा मात्र व्यवसाय बन कर रह गई है। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य शिक्षक और छात्र भूलते जा रहे हैं। आज शिक्षक को सम्मानित करना राजनीतिक दावपंच के अंतर्गत आ गया है। इसी वजह से अच्छे और अनुकरणीय शिक्षक इस सम्मान से वंचित रह जाते हैं। यदि शासकीय प्रशासन, निष्पक्ष भाव से योग्य शिक्षकों को ही सम्मानित करे और उन्हें पद्यश्री जैसे अलंकारों से विभूषित करे तो शिक्षक दिवस की गरिमा बनी रह सकती है।
हिन्दी दिवस
रूपरेखा :
- भूमिका
- हिन्दी के अस्तित्व की सुरक्षा
- हिन्दी की समृद्धि
- उपसंहार।
देश आजाद होने के पश्चात् संविधान सभा ने 14 सितम्बर, सन् 1949 ई० को हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया। संविधान के अनुच्छेद 343 में लिखा गया –
” संघ की सरकारी भाषा देवनागरी लिपि हिन्दी होगी और संघ के सरकारी प्रयोजनों के लिये भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा । अधिनियम के खण्ड दोमें लिखा गया कि इस संविधान के लागू होने के समय से 15 वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी प्रयोजनों के लिये अंग्रेजी का प्रयोग सहायक भाषा के रूप में होता रहेगा। अनुच्छंद (ख) धारा तीन में व्यवस्था दी गई कि संसद उक्त पंद्रह वर्ष की कालावधि के पश्चात् विधि द्वारा अंग्रेजी भाषा का (अथवा) अंकों के देवनागरी रूप का ऐसे प्रयोजन के लिये प्रयोग उपबन्धित कर सकेगी जैसे की ऐसी विधि में उल्लेखित हो।
इसके साथ ही अनुच्छेद एक के अधीन संसद की कार्यवाही हिन्दी अथवा अंग्रेजी में सम्पन्न होगी। 26 जनवरी, सन् 1965 ई० के बाद संसद की कार्यवाही केवल हिन्दी में ही निष्पादित होगी, बशर्ते संसद कानून बनाकर कोई अन्य व्यवस्था न करे।”
14 सितम्बर हिन्दी दिवस, हिन्दी के राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने का गौरवपूर्ण दिन है। हिन्दी दिवस, एक पर्व के रूप में मनाया जाता है। हिन्दी के प्रचार के लिए प्रदर्शनी, गाष्ठी, मेला, सम्मेलन तथा समारोहों का आयोजन किया जाता है। यह दिन हिन्दी की सेवा करने वालों को पुरस्कृत करने का दिन है। सरकारी, अर्द्धसरकारी कार्यालयों तथा बड़े उद्योगिक क्षेत्रों में हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह और हिन्दी पखवाड़ा के रूप में मनाकर हिन्दी के प्रति प्रेम प्रकट किया जाता है।
भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में हिन्दी जैसी लोकभाषा की उपेक्षा का अर्थ है लोकभावना की उपेक्षा। लोकभावना की उपक्षा करके कोई लोकतन्र कैसे और कब तक टिक सकता है ? पिछले ढाई सौ वर्षों में भारत की तीन प्रतिशत आबादी भी अंग्रेजी नहीं सीख पाई। यदि अंग्रंजी सिखाई नहीं जा सकी तो क्या अंग्रेजी लादी जाती रहेगी ? यह कैसीं विडग्बना है कि केवल दो प्रतिशत अंग्रेजीपरस्त लोग देश की 98 प्रतिशत जनता पर अपना भाषाई अधिपत्य जमाए हुए हैं, जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व दिनोंदन बढ़ता जा रहा है ।
हिन्दी के प्रति उनकी जो वचनबद्धता थी वे आज उसे भूल गये हैं। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाकर भी हिन्दी का अपमान किया गया। अंग्रेजी सहायक भाषा होकर भी उर्नति, प्रगति और समृद्धि का सोपान बन गई। अंग्रेजी को आधुनिक जीवन के लिये अनिवार्य माना जाने लगा। आज तो स्कूल-कॉलेज सभी कुकुरमुत्ते की भाँति अंग्रेजी-माध्यम में बदलते जा रहे हैं। अंग्रेजी का प्रयोग न करने वाला पिछड़ा कहलाता है। हिन्दी बोलने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। अंग्रेजी बोलने वालों को हर क्षेत्र में वरीयता दी जाती है।
हिन्दी के चापलूस, स्वार्थी और भ्रष्ट अधिकारियों ने हिन्दी के विकास और समृद्धि के नाम पर अदूरदर्शिता और विवेकहीनता का परिचय दिया है। राजकीय कोष से हर वर्ष हजारों रुपये हिन्दी का उपकार करने के लिए खर्च किये जाते हैं, लेकिन यह सब केवल दिखावा है ।
परिणामस्वरूप हिन्दी समृद्धशाली होने के बावजूद अपने ही घर में अपने ही लोगों द्वारा हेय दृष्टि से देखी जा रही है। हिंदी भाषी बुद्धिजीवी तथा हिन्दी समर्थक अपने स्वार्थपूर्ति के चक्कर में हिन्दी के प्रति अपनी आवाज ठीक ढंग से नहीं उठाते। भारतेंदु आदि मनीषियों ने जो सपना देखा था वह साकार नहीं हो सका –
अपने ही घर में हो रहा अपमान हिंदी का,
पैरों तले रौंदा रहा सम्पान हिंदी का ।
हिन्दी-भाषी बुद्धिजीवी हिन्दी के पक्ष में लच्छेदार भाषण तो देते हैं, मगर हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के लिये सक्रिय रूप से काई कार्य नहीं करते। परिणामस्वरूप बृहत रूप से बोली और समझी जाने वाली भाषा होकर भी इसे वह सम्मान प्राप्त नहीं हुआ, जिसकी वह अधिकारिणी थी। राष्र्रभाषा हिन्दी होने के बावजूद सरकारी कार्य अभी भी अंग्रेजी में होते हैं। हिन्दी में पत्र-व्यवहार तो एक प्रकार से खत्म हो गया है। आज हिन्दी की पत्र-पत्रिकायें धन तथा पाठकों के अभाव में बंद होती जा रही हैं। आजादी के पहले जितनी पत्र-पत्रिकायें निकलती थीं उनकी तुलना में आज पत्र-पत्रिकाओं की संख्या नगण्य है।
अत: हिन्दी दिवस सिर्फ एक दिखावे का पर्व बनकर रह गया है। यह आवश्यक है कि हम हिंदी के प्रति प्रेम प्रकट करें तथा हिंदी के विकास के लिये पूर्ण रूप से अपना योगदान करें । भारतवासियों को यह शपथ लेनी होगी कि स्वतंत्रता के पूर्व हिन्दी को जो आश्वासन दिया गया था, उसे सच्चे अर्थों में पूरा करेंगे और इस बात का ध्यान रखेंगे कि उसकी सहायक भाषा बनकर कोई उसे निगल न ले। एसा करके ही हम सच्चे अर्थों में हिन्दी दिवस मना सकेंगे और हिन्दी के प्रति अपनी निष्ठा और श्रद्धा व्यक्त कर सकेंगे । यह निश्चित है कि हिन्दी भाषा की ज्वलंत प्राण-शक्ति सारे विरोधों को अनायास काट देगी और भारत-भारती के रूप में प्रतिष्ठित होगी । गोपाल सिंह ‘नेपाली’ के शब्दों में –
इस भाषा में हर मीरा को मोहन की माला जपने दो ।
हिन्दी है भारत की बोली तो अपने आप पनपने दो ।
जीवन में खेल का महत्व
रूपरेखा :
- भूरिका
- खेल-कूद का जीवन में महत्व
- खेल-कूद मनोरंजन का भी उत्कृष्ट साधन है
- उपसंहार ।
मानव-जीवन परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ उपहार है और खेल जीवन के रस-प्राण हैं। खेल के बिना जीवन जड़ है। खेलमय जीवन में ही जागृति और उत्थान है। जैनेंद्र जी कहते हैं – ” जीवन दायित्व का खेल है और खेल में जीवन दायित्व की प्राण-संजोवनी शक्ति है।”
वैदिक काल से ही मनुष्य की इच्छा रही है कि मेरा शरीर पत्थर के समान मजबूत हो और दिनोंदिन वह फूले-फले। इस इव्छा की पूर्ति निरोगी काया द्वारा हो सकती है जिसके लिये जरूरी है खेल।
गतिशीलता जीवन का लक्षण है और गतिशीलता निर्भर करती है स्वस्थ शरीर पर। जीवन भोग का कोश है। इंद्रयजज्जनित इन्का और सुख की तृप्ति के लिए चाहिए शक्ति। शक्ति के लिए जरूरी है आत्मविश्वास। आत्मविश्वास खेल द्वारा बढ़ता है। खेलों के कई रूप है, मनोविनोद तथा मनोविज्ञान के खेल और धनोपार्जन कराने वाले खेल। मनोरंजन वाले खेलों में हैं – ताश, शतरंज, कैरम, जादुई-करिश्मे आदि। व्यायाम के खेलों में हैं – एथेलेटिक्स, कुश्ती, निशानेबाजी, चूँसेबाजी, घुड़दौड़, साइक्लिंग, जूडो, तीरदाजी, हॉकी, वालीबॉल, फुटबॉल, टेनिस, क्रिकेट, कबड्डी, खो-खो आदि । धनोपार्जन के खेलों में सर्कस, जादू के खेल तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेले जाने वाले खेल आते हैं।
मनोरंजन के खेल मानसिक व्यायाम के साधन हैं। खेल मानसिक थकावट दूर कर जीवन में नवस्पूर्ति भर देता है।
खेल-कूद से मनुष्य में पूरी तन्मयता से काम करने की भावना जागृत होती है। जब कोई खेलता है तो वह जीतने के लिये अपनी पूरो शक्ति का प्रयोग करता है। इससे जीवन में किसी भी काम को करने के लिये खिलाड़ी प्रवृत्ति से काम करने का स्वभाव विकसित होता है।
खेल मनुष्य में सहनशीलता की भावना उत्पन्न करता है। खेलते वक्त लगी चोट उसे प्रतिशोध लेने की बजाय पीड़ा सहने की शक्ति देती है।
खेलने से व्यक्ति जीवन के संघर्ष में सफलता की शिक्षा भी पाता है। खेल में वह अपनी बुद्धि तथा शरीर से संघर्ष करता हुआ विजय प्राप्त करता है। यही स्वभाव उसको जीवन के संघर्षों में निर्भय होकर लड़ने तथा विजय पाने की शक्ति प्रदान करता है।
नैपोलियन को हराने वाले अंग्रेज नेल्सन ने कहा था – The war of waterloo was won in the fields of Eton, तात्पर्य यह है कि नैने वाटरलू के युद्ध में जो सफलता पाई है उसका प्रशिक्षण ईटन के खेल के मैदान में मिला था।
अत: हम कह सकते हैं कि खेल के माध्यम से हम जीवन के सभी मूल्यों को प्राप्त करने की शक्ति प्राप्त करते है। खेल नैतिकता का पाठ पढ़ाता है और शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ बनाता है। इसलिए जीवन में खेल का महत्वपूर्ण स्थान है। प्राय: कहा जाता है :-
“तेज होते हैं, पहिए तेल से,
तेज होते हैं, बच्चे खेल से ।”
मेरा प्रिय खेल
रूपरेखा :
- भूमिका
- क्रिकेट खेल का प्रारम्भ
- क्रिकेट खेल की विधि
- भारत में क्रिकेट
- उपसंहार।
मानव-जीवन मे खेल का महत्वपूर्ण स्थान है। हमारे देश में अनेक प्रकार के खेल है। हॉकी, फुटबॉल, बास्केटबॉल, टेनिस, शतरंज, टेबल टेनिस, गोल्फ, पोलो, बिलियर्ड, क्रिकेट आदि। ये सारे खेल विश्व-भर में खेे जाते हैं। इन सारे खंलों में मेरा प्रिय खेल है क्रिकेट।
क्रिकेट और हॉकी वर्तमान समय में सबका प्रिय खेल है। इनके मैचों का सीधा प्रसारण दूरदर्शन पर भी दिखाया जाता है। क्रिकेट बैट, बॉल और स्टम्प का खेल है।
क्रिकेट के लिए मैदान चाहिए। खेल सीधा और आसान होने के बावजूद परिश्रम से भरा हुआ है। खेल के मैदान के बीचो-बीच चौकोर रेखा खींची जाती है, जिसके दोनों किनारों पर तीन-तीन स्टम्प लगाए जाते हैं और उनके ऊपर दो गिल्लियाँ रखी जाती हैं। दोनों दलों में 11-11 खिलाड़ी होते हैं। खेल आरम्भ करने के पहले टॉस होता है और जो टीम ठोस जीतती है वह अपनी इच्छानुसार गेंद फेंकना या बैटिंग चुनती है। खेल के नियमों को ध्यान में रखते हुए निर्णय देने के लिए अम्पायर की जरूरत होती है । जो आउट, नो बॉल, वाइड बॉल आदि का निर्णय देता है।
खेल प्रारम्भ होने पर बैटिंग करने वाले दल के दो खिलाड़ी मैदान में उतरते हैं। वे पैड, हेलमेट, ग्लब्ज, बैट आदि लेकर आते हैं और दूसरी टीम के सभी खिलाड़ी बोलिंग और फिल्डिंग के लिए मैदान में उतरते हैं। बैटिंग करने वाले खिलाड़ी के पीछे एक खिलाड़ी विकेट-कीपर की हैसियत से खड़ा होता है। फिल्डिंग के लिए अन्य खिलाड़ी मैदान में चारों तरफ बिखर जाते हैं। उनमें से एक खिलाड़ी बॉलिंग करता है। गेंदबाजी क्रमानुसार टीम के अच्छें गेंदबाजों द्वारा बारी-बारी से की जाती है। खेल के लिए ओवर निश्चित होंते हैं। उन ओवरों में जितनी गेदें फेंकी जाती है उनमें अधिक से अधिक रन बनाने की कोशिश की जाती है और दूसरी टीम, जो गेंदबाजो करती है उसे अधिक रन बनाकर मैच जीतना होता है।
क्रिकेट का आनंद ही कुछ अलग है। दर्शकों की नजर एक-एक गेंद पर होती है। हर चौके-छक्के पर लोग उछल पड़ते है। क्रिकेट का मौसम आने पर, मैं अपने दोस्तों के साथ मैदान में क्रिकेट खेलने जाता हूँ। भारत का जब भी मैच होता है, मैं सब काम छोड़कर मैच देखने लगता हूँ।
क्रिकेट देखते समय जब भारतीय टीम को हारते देखता हूँ तो मुझे बड़ा गुस्सा आता है और मन करता है कि मैं मैदान में उतर कर चौके-छक्के की बरसात कर दूँ।
पर्यटन अथवा देशाटन
रूपरेखा :
- भूमिका
- देशाटन अथवा पर्यटन का महत्व
- यात्रा के लिये आवश्यक बातें
- उपसंहार।
“’संसार एक महान पुस्तक है । जो व्यक्ति घर के बाहर नहीं निकलते वह इस पुस्तक के एक पृष्ठ को ही पढ़ते हैं । यदि हमें संसार रूपी पुस्तक का पूर्ण अध्ययन करना है तो इसका एक मात्र माध्यम है देशाटन करना” ।
देशाटन दो शब्दों के मेल से बना है – देश’ और ‘अटन’, इसका अर्थ है देश-देशान्तरों में भ्रमण करना। अपने घर की सीमा से बाहर निकलकर विभिन्न देशों में भ्रमण करने को ही देशाटन या पर्यटन कहते हैं। मनुष्य आदि काल से ही अपनी जिज्ञासाओं को शान्त करने के लिए देश-विदेश तथा दुर्गम स्थानों की यात्रा करता आ रहा है। यह भी कहा जाता है कि आदि मानव पर्यटनशील और घुमक्कड़ था। वह कभी भी एक स्थान पर स्थायी रूप से नहीं रहता था। लेकिन उस समय का जीवन आज की तरह विकसित नहीं था। उन लोगों को भोजन की तलाश में दूर-दराज की यात्राएँ करनी पड़ती थी, लेकिन वर्तमान युग में वैसी निराशाजनक स्थिति नहीं है। आज का जीवन विकसित व सुख-साधनों से सम्पन्न जीवन है । आज यह माना जाता है कि देशाटन से अनेक प्रकार के अनुभव प्राप्त होते हैं। प्राचीन काल से लेकर आज तक अनेक व्यक्तियों ने देशाटन करके अपने ज्ञान व अनुभव के द्वारा संसार का कल्याण किया है।
किताब पढ़ने से हमें अप्रत्यक्ष ज्ञान की प्राप्ति होती है, प्रत्यक्ष ज्ञान अधूरा होता है। देशाटन के द्वारा हम विभिन्न स्थानों व वस्तुओं का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। अपनी प्राकृतिक व भौगोलिक विविधताओं के कारण हमारा देश पर्यटन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। पुस्तकों में पढ़ने से पर्वत, नदियाँ, मैदान, रेगिस्तान, ऐतिहासिक नगर और तीर्थस्थल सब निर्जीव और जड़ से लगते हैं, लेकिन देशाटन करने से ये प्राकृतिक विभूतियाँ हमारे लिये एक नया अर्थ ग्रहण कर लेती हैं।
हिमालय पर्वत और उसमें बसी फूलों की घाटी, काश्मीर की प्राकृतिक सुन्दरता, प्रकृति की रानी मसूरी और शिमला की प्राकृतिक भव्यता, अल्मोड़ा, नैनीताल और कुल्लू मनाली का स्वास्थ्य वर्द्धक वातावरण अपनी तरफ अनायास ही पर्यटकों को खींच लेता है। दिल्ली का कुतुब मीनार, लाल किला, आगरा का ताजमहल और फतेहपुर सीकरी के खण्डहर और ऐसे अनेक दर्शनीय स्थान इस भारत की भूमि पर विद्यमान हैं, जो अतीत से लेकर वर्तमान तक पर्यटकों के आकर्षण के केन्द्र बने हुए हैं। आज भी हजारों-लाखों की संख्या में देशी-विदेशी पर्यटक अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए इन स्थानों पर पहुँचते हैं।
व्यावसायिक एवं व्यापारिक दृष्टि से भी देशाटन का अत्यन्त महत्व है। व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के कार्यकर्ता एवं कर्मचारी देश-विदेश की यात्रा करके यह अनुभव प्राप्त करते हैं कि किस देश में किस वस्तु की माँग अधिक है और इसी आधार पर वे अपने व्यापार का सही विस्तार करते हैं। विद्यार्थी के लिए तो देशाटन शिक्षा प्राप्त करने का महत्वपूर्ण साधन है । उन्हें सम्पूर्ण संसार के बारे में जानने की अधिक जिज्ञासा होती है ।
धार्मिक दृष्टि से देशाटन की प्रथा तो संसार के सभी देशों में प्राचीन काल से ही प्रचलित है। भारत में प्रमुख चार स्थान, चार धाम देश के चारों कोने पर स्थित हैं । लोगों ने अपनी धार्मिक भावनाओं की संतुष्टि और शान्ति के लिए अत्यन्त प्राचीन काल से ही पैदल यात्राएँ की हैं।
देशाटन के द्वारा हम दूसरे देशों में जाकर वहाँ के रीति-रिवाजों से परिचित होते है तथा वहाँ के कुछ सुन्दर आदर्शों को अपने समाज में उतारने का प्रयत्न करते हैं। यह हमें सैद्धान्तिक ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक शिक्षा भी प्रदान करता है । अत: यह कहना असंगत न होगा कि देशाटन हमारे लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है।
समाचार-पत्र
रूपरेखा :
- भूमिका
- ज्ञानवर्धन
- मनोरंजन
- समाचार-पत्रों का दायित्व ।
- उपसुंहार।
समाचार-पत्र का आरम्भ सोलहवीं शताब्दी में चीन में हुआ था । पीकिंग-गजट विश्व का पहला समाचार पत्र था। भारत का पहला समाचार-पत्र इण्डिया-गजट था जो अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ था। हिन्दी का सबसे पहला समाचार-पत्र उदत-मार्तड था, जो सन् 1826 ई० में कोलकाता में प्रकाशित हुआ था । अब तो विश्वभर में समाचार-पत्र छप रहे हैं। केवल भारतवर्ष में ही लगभग 2,400 दैनिक समाचार-पत्र तथा 400 साप्ताहिक पत्र प्रकाशित होते हैं ।
समाचार-पत्र चाहे दैनिक हों अथवा साप्ताहिक या पाक्षिक, उनके लिये बहुत बड़े संगठन की आवश्यकता होती है । संसार के विभिन्न भागों में समाचार-पत्र कैसे प्राप्त होते हैं, इसकी भी एक कहानी है । प्रत्येक देश की अपनी कुछ समाचार एजेंसियाँ होती है, ये एजेंसियाँ किसी समाचार को टेलीप्रिन्टर द्वारा विश्व के सभी समाचार-पत्रों को भेज देती हैं। इसके अतिरिक्त छोटे-बड़े सभी समाचार-पत्रों के अपने संवाददाता होते हैं, जो अपने-अपने समाचार-पत्रों के लिए समाचार एकत्र करते हैं।
समाचार-पत्र आधुनिक युग का अनिवार्य अंग बन चुका है । जनमत के निर्माण में इसका बहुत बड़ा योगदान है। यह प्रजातन्त्र का चौथा आधार स्तम्भ हैं । समाचार-पत्र के सम्पादक सरकार की उचित आलोचना करके, उसे ठीक रास्ते पर चलने के लिये विवश कर देते हैं । सबल समाचार-पत्र बड़े-बड़ों की खटिया खड़ी कर देते हैं। आधुनिक युग में समाचारपत्रों की शक्ति अपरिमित हो गयी है। बड़े नेता भी इनके सामने विनीत भाव से खड़े रहते हैं ।
समाचार-पत्र ज्ञान-वृद्धि का सरल, सस्ता तथा प्रभावशाली साधन है । समाचार-पत्रों में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक आदि सभी तरह के समाचार प्रकाशित होते हैं । समाचार-पत्रों में समाचारों के अतिरिक्त सम्पादकीय लेख भी होते हैं । ये सम्पादकीय लेख पाठकों का ज्ञान बढ़ाते हैं । सम्पादक के नाम पाठक पत्र लिखकर अपने विचार तथा समस्याएँ सरकार के सामने रख सकते हैं। समाचार-पत्रों में खेलकूद के समाचार, बालजगत, वैज्ञानिक लेख, कहानियाँ, कविताएँ आदि भी प्रकाशित होती हैं, जो सभी प्रकार की रुचि रखने वाले पाठको का ज्ञानवर्द्धन तथा मनोरंजन करती हैं । समाचार-पत्रों में नौकरी के लिए प्रकाशित विज्ञापनों से विज्ञापनदाता को अच्छे कर्मचारी तथा बेरोजगारों को अच्छी नौकरी मिल जाती है । विवाह-सम्बन्धी विज्ञापन वर-वधू की खोज का काम आसान कर देते हैं।
समाचार-पत्र अत्यन्त उपयोगी होते हुए भी कुछ कारणों से हानिकारक भी हैं । प्राय समाचार-पत्र किसी न किसी संस्था से सम्बन्धित होते हैं। ये संस्थाएँ कभी-कभी जनता में अपनी विचार-धारा फैलाने के लिये समाचार-पत्रों का सहारा लेती हैं, इससे जनता पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता । इसके अतिरिक्त साम्पदायिक समाचार-पत्र पाठकों के दृष्टिकोण को संकीर्ण बनाते हैं तथा राष्ट्र में गलत संदेश का संचरण करते हैं । झूठे विज्ञापन लोगों को गुमराह करते हैं। अश्लील विज्ञापन युवावर्ग को पतनोन्मुख बना देते हैं । उन पर शासन-तंत्र की कड़ी निगाह रहनी चाहिए ।
शिक्षा का उद्देश्य
रूपरेखा :
- भूमिका
- उद्देश्य एवं लाभ
- शिक्षा की आवश्यकता
- सच्ची शिक्षा के अभाव का दुष्घरिणाम
- उपसंहार ।
शिक्षा ज्ञानवर्धन का साधन है । सांस्कृतिक जीवन के उत्कर्ष का माध्यम है । उत्तम शिक्षा उज्ज्वल चरित्र का निर्माण करती है और जीविकोपार्जन के साधन उपलब्ध कराती है। वह अपनी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग करते हुए जीवन जीने की कला सिखलाती है और उदात्त व्यक्तित्व के विकास का अवसर प्रदान करती है ।
‘शिक्षा’ शब्द ‘शिक्ष’ धातु में ‘अ’ तथा ‘टाप’ प्रत्यय जोड़ने पर बनता है। इसका अर्थ है अधिगम, अध्ययन तथा ज्ञानग्रहण । शिक्षा के लिये वर्तमान युग में शिक्षण, ज्ञान, विद्या, एजुकेशन आदि अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग होता है।
एजुकेशन’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Educare तथा Educere शब्दों से मानी जाती है। Educare शब्द का अर्थ है To educate, to bring up, to raise अर्थात् शिक्षित करना, पालन-पोषण करना तथा ऊपर उठाना। Educere का अर्थ है, पथ-प्रदर्शन करना। इस तरह एजूकेशन का अर्थ है प्रशिक्षण, संवर्द्धन तथा पथ-प्रदर्शन करने का कार्य (The act of training, bringing up & leading out)।
शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का सर्वागीण विकास करना है। बच्चा जन्म लेते ही जीवन की शिक्षा ग्रहण करने लगता है। बड़े होने पर स्कूल, कॉलेजों में शिक्षा ग्रहण कर सभ्य तथा सुशिक्षित बनता है। अलग-अलग क्षेत्रों में ज्ञान हासिल कर मनुष्य अपने जीवन का लक्ष्य पाता है। शिक्षा का उद्देश्य मूल रूप से मनुष्य का बाह्य और आंतरिक विकास करना होता है।
जीवन जीने के लिए व्यवहारिक ज्ञान और प्राणी-प्राणी में आपसी प्रेम का भाव शिक्षा जगातो है। ज्ञान और शिक्षा पाकर मनुष्य सभ्य, सुशील और मधुर बनता है।
आधुनिक समय में शिक्षा का उद्देश्य बदल गया है। पहले शिक्षा का जो स्वरूप था, आज की शिक्षा उससे बिल्कुल भिन्न है। आज केवल किताबी ज्ञान हासिल कर डिग्री प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य बन गया है।
विनोबा भावे जी ने ‘जीवन और शिक्षण’ नामक निबंध में शिक्षा के मुख्य उद्देश्य पर व्यापक प्रकाश डाला है और आज की शिक्षण-प्रणाली की विकृतियों को उद्घाटित किया है।
शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति के साथ-साथ जीवन जीने की कला की प्राप्ति करना भी है। किन्तु आज स्कूलों, कॉलेजों में केवल किताबी शिक्षा दी जाती है। बच्चे जब उस शिक्षा को प्राप्त कर जगत में निकलते हैं तब उन्हें सारी शिक्षा बेमानी लगती है।
अधिकतर बच्चों के लिये शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री हासिल करना रह गया है। इसी कारण वे न तो किताबी ज्ञान पूर्ण रूप से प्राप्त कर पाते हैं और न ही जगत् का व्यावहारिक ज्ञान हासिल कर पाते हैं। वास्तव में सरकार द्वारा अपनायी जाने वाली शिक्षा पद्धति ही उचित नहीं है।
शिक्षा और व्यवसाय
अथवा, आधुनिक शिक्षा प्रणाली
रूपरेखा :
- भूमिका
- आधुनिक शिक्षा का आरम्भ
- दोष
- शिक्षा की आवश्यकता
- लाभ
- सुधार
- उपसंहार ।
शिक्षा और व्यवसाय एक ही सिक्के के दो पहल हैं। शिक्षा के बिना जीविकोपार्जन सम्भव नहीं है, व्यवसाय के बिना शिक्षा बेकार है। अतः शिक्षा और व्यवसाय मानवीय प्रगति के सम्बल हैं।
प्राचीन युग में शिक्षा का अर्थ ज्ञानार्जन करना था। उस समय शिक्षा धनोपार्जन का माध्यम नहीं थी।
समय परिवर्त्तन के साथ भारतीय जनता में अंग्रेजी के साथ-साथ आधुनिक विषय जैसे विज्ञान, वाणिज्य-शाख्, अर्थशाख आदि सीखने का प्रचलन चला। वर्तमान शिक्षा प्रणाली का इतिहास बहुत पुराना है । जब भारत पराधीन था, विदेशी शासको ने अपने स्वार्थ के लिये अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को भारत में प्रचलित किया था। मैकाले इसके प्रवर्त्तक थे। यह शिक्षा नीति भारतीय संस्कृति, परम्परा एवं राष्र्रीय जीवन के विपरीत थी।
पिछले कुछ वर्षों में समाज की मान्यताओं, मूल्यों, आवश्यकताओं, समस्याओं और विचारधाराओं में बहुत परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तनों के साथ समाज का सामंजस्य होना आवश्यक है। इन परिवर्तनों के अनुरूप शिक्षा के स्वरूप, प्रणाली और व्यवस्था में परिवर्तन आया है। अब शिक्षा व्यवस्था को अधिक उपयोगी, व्यावहारिक तथा जीविकोपार्जन का माध्यम बनाया जा रहा है ।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली की महत्वपूर्ण देन है – बाबू संस्कृति अर्थात् कुर्सी पर बैठकर काम करने की प्रवृत्ति और नागरिक संस्कृति अर्थात नगरों तथा महानगरों में रहकर ही काम करने की प्रवृा्त। पारणामस्वरूप नगरों में जहाँ तेजी से बकारी बढ्ढी है बहीं गाँव का विकास उतनी तेजी से नहीं हो पा रहा है।
व्यावसायिक शिक्षा व्यक्ति को सामाजिकता से परिचित कराती है। शिक्षा रोजगार पैदा नहीं करेगी, वह तो व्यक्ति को रोजगार प्राप्त करने में सहायता पहुँचाती है। व्यावसायिक शिक्षा से व्यक्ति का दृष्टिकोण व्यापक बनेगा।
व्यावसायिक शिक्षा की दृष्टि से देश में आई. आई.टी, तकनीकी शिक्षा, औद्योगिक परिशक्षण केंद्र, कृषि विश्वविद्यालयों तथा वैज्ञानिक संस्थानों का जाल बिछ गया है। व्यावसायिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिये देश भर में कई स्कूलों में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को लागू किया गया है, ताकि अधिक से अधिक संख्या में छात्रों को इसका लाभदायक फल मिल सके।
देश में व्यावसायिक शिक्षा कार्यक्रम को तकनीकी और शैक्षणिक सहायता प्राप्त कराने के लिये जुलाई, सन् 1993 ई० में भोपाल में केंद्रीय व्यावसायिक शिक्षा संस्थान की स्थापना की गई है।
किन्तु इन सारे पाठ्यक्रमों और शिक्षा-विधियों ने छात्रों पर अत्यधिक बोझ लाद दिया है। सभी विषयों के अधकचरे ज्ञान ने उसे रटंत-तोता बनाकर छोड़ दिया है।
व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् भी, प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना छात्रों के लिये अति आवश्यक हो गया है। इन परीक्षाओं को पास करने के पश्चात् नौकरी न मिलना और अर्थाभाव की वजह से निजी व्यवसाय न कर पाने से युवाओं में कुण्ठा और निराशा का भाव भरता जा रहा है।
शिक्षा-प्रवेश की भेदभावपूर्ण नीति ने उच्च तकनीकी तथा वैज्ञानिक शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े वर्गो के लिए आसन सुरक्षित कर दिया है, इसी कारण योग्य छात्र बाहर की धूल फाँकने को मजबूर हो जाता है।
देश में बढ़ती बेरोजगारी, युवाओं में पनपती दुष्मवृत्तियाँ तथा असामाजिक कार्यो की तरफ झुकाव, देश को अराजकता की तरफ धकेल रहा है। हमारी शिक्षा का व्यवसाय के साथ सामंजस्य और संतुलन होना चाहिए और शिक्षा जीविकाकेन्द्रित होनी चाहिए ।
राष्ट्र-निर्माण में युवा पीढ़ी का सहयोग
रूपरेखा :
- भूमिका
- युवा पीढ़ी का कर्त्तव्य
- युवा पीढ़ी का योगदान
- उपसंहार ।
राष्ष्र-निर्माण में युवा पीढ़ी का सहयोग राष्ट्र के प्रति उसके दायित्व की अनुभूति का ज्वलंत प्रमाण है। यही उसकी राष्ट्रवंदना, और राष्ट्र-पूजा है। यह सहयोग उसके राष्ट्र-प्रेम, देशभक्ति तथा मातृभूमि के प्रति समर्पण की भावना को प्रकट करता है। राष्ट्र का प्रत्येक महान् कार्य युवकों के सहयोग के बिना अधूरा ही रह जाता है। निर्माण सदैव बलिदानों पर आधारित होता है। बलिदान की भावना युवा पीढ़ी में बलवती होती है। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, सुखदेव, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, बिस्मिल जैसे सहसों युवकों ने राष्ट्र निर्माण के लिये अपना जीवन बलिदान कर दिया। गांधीजी के नेतृत्व में लाखों नौजवानों ने स्वतंत्रता की लड़ाई में भागीदारी की। अपने जोवन को जेलों में सड़ाया, लेकिन स्वतंत्रता की माँग नहीं छोड़ी। इन्हीं वीरों को याद करते हुए दिनकर जी ने कहा था –
जो अगणित लघु दीप हमारे ।
तूपनानों में एक किनारे ।
जल-जलकर बुझा गये किसी दिन।
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल।
कलम आज उनकी जया बोल।
इसी प्रकार सन् 1974 ई० में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित किया, तब लाखों युवकों ने इंदिरा गाँधी की तानाशाही के विरुद्ध आवाज उठाई और जेल गये। युवा-देशभक्तों का राष्ट्र-निर्माण के विविध क्षेत्रों में सहयोग सदा स्मरणीय रहेगा।
युवा पीढ़ी समाचार-पत्रों के माध्यम से समय-समय पर अपने उच्च विचारों का अभिव्यक्ति देकर जन-जागरण का शंख-नाद कर सकती है और देश की वैचारिक सम्पदा की अभिवृद्धि कर सकती है ।
आज देश बढ़ती हुई जनसंख्या से परेशान है। देश के युवा वर्ग परिवार-नियोजन द्वारा देश की इस समस्या को कम कर सकते हैं।
दहेज की कुप्रथा की वजह से कई लड़कियों को अपनी जान गँवानी पड़ती है। अत: युवा पीढ़ी को देश की इस कुप्रथा को दूर करने के लिय बिना दहेज विवाह करने का प्रण लेना चाहिए ताकि देश की कुरीतियों का अंत हो सके और देश स्वस्थ, स्वच्छ और सुंदर बन संकं।
देश के प्रौढ़ व वयावृद्ध वर्ग का यह नैतिक दायत्व है कि वह युवाओं का सही मार्गदर्शन करें । उनके सुखद जीवनयापन की अपेक्षित सुविधायें जुटायें और उनके भविष्य निर्माण के लिये सच्चे दिल से प्रयास करें । आज धर्म-गुरु व राजनीतिक नेता युवा पीढ़ी को पथभ्रष्ट करने में सबसे आगे हैं । अत: सामान्य जन को इस दिशा में गम्भीरता से सोचना चाहिये और युवा वर्ग के प्रति सामाजिक दायित्व का परिपालन करना चाहिये ।
भारतीय समाज अनेक पाखण्डों और कुप्रथाओं से ग्रस्त है। नई पीढ़ी इन कुप्रथाओं को दूर करने की प्रतीज्ञा कर ले तो देश कां ऊँच-नीच के भेदभाव, नारी-शाषण, यौन-उत्पीड़न और बलात्कार के संकट से मुक्त किया जा सकता है। चोरी, छीना-झपटी, अपहरण, हत्या, पाखण्ड और अंधविश्वास से देश को मुक्ति दिलाई जा सकती है।
गरीबों, बाल मजदूरों जैसे निरक्षर लोगों को साक्षर बनाकर युवा पीढ़ी देश में जागृति और नई चेतना का भाव भर सकते हैं।
आज युवा पीढ़ी का एक अंश आक्रोश, आंदोलन और हड़ताल द्वारा राष्ट्र को क्षति पहुँचा गण। है। अत: युवाओं को एसे कार्यों से बचना चाहिये और अपने रचनात्मक कार्यों से राष्ट्र की उन्नति में सक्रिय योगदान करना चाहिये। जैनेंद्र जी ने कहा था “युवकों का उत्साह ताप बन कर न रह जाये, यदि उसमें तप भी मिल जाये तो और अधिक निर्माणकारी हो सकता है ।”
विश्व पर्यावरण दिवस (मॉडल प्रश्न – 2007)
रूपरेखा :
- भूमिका
- अनेकानेक उद्योग-धन्धों के कारण
- पर्यावरण को बचाने के उपाय
- उपसंहार ।
पूरे विश्व में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या की और लोगों का ध्यान आकृष्ट करने और समस्या के समाधान के लिये हर वर्ष पाँच जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। इस अवसर पर संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य संस्थाओं द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण गोष्ठययाँ आयोजित की जाती हैं, जिसमें पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिये सुझाव प्रस्तुत किये जाते हैं।
पर्यावरण प्रदूष्षण से मानव अस्तित्व पर सकट आ गया है। औद्योगीकरण और नगरीकरण की वजह से प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। कारण यह है कि विकास के लिये घने-घने वन-उपवन उजाड़ दिये गये हैं जिससे प्राकृतिक सम्पदा ही नहीं, पूरा वायुमण्डल प्रदूषित हो गया है।
भारत की बढ़तो हुई जनसंख्या के कारण भी वनों को नष्टेया जा रहा है। परिणामतः चट्टानों का खिसकना, भूमिकटाव से ग्रामों के अस्तित्व का लोप होना, अनियंत्रित वर्षा, सूखा, बाढ़ और निरंतर तापमान में वृद्धि हो रही है।
आज देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग 1,880 लाख हेक्टेयर हिस्सा भू-क्षरण का शिकार है । सन् 1977 ई० के बाद आज तक खतरनाक भू-क्षरण वाले क्षेत्रों का विस्तार दुगुना हो गया है। जंगलों को काट कर समतल बनाया जा रहा है, जिसका परिणाम यह हुआ कि आर्ति क्षमता की तुलना में जलावन के लिये लकड़ी की माँग गुना अधिक हो गयी है।
प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ करने का परिणाम यह है कि जीवन के लिये अति आवश्यक वस्तु, हवा भी जहरीली हो गई है। महानगरों में चलने वाले परिवहन के अनेक साधन दिन-प्रतिदिन वायु को और अधिक दूषित करते जा रहे हैं। औद्योगिक कल-कारखानों से निकलने वाला धुआँ तथा राख भी वायु को अत्यधिक प्रदूषित कर रहा है ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा लगाये गए अनुमान के अनुसार विश्व के लगभग आधे शहरों में कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा हानिकारक स्तर तक पहुँच गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने प्रदूषित जल से होने वाले निम्नलिखित रोग बतलाये हैं – हैजा, डायरिया, टायफाईड, पालियोमाईटिस, राउण्डवर्म, फाईलेरिया, मलेरिया, डेंगू फीवर आदि।
कभी बाढ़, कभी सृखा तथा तरह-तरह की बीमारियों की वजह यही पर्यावरण प्रदूषण है। अतः प्रकृति को प्रदूषण से बचाने के लिये पर्यावरण दिवस के दिन सबको प्रकृति की रक्षा करने का संदेश दिया जाता है तथा हर व्यक्ति से अपील की जाती है कि वह कम से कम एक पौधा अवश्य लगाये । वृक्षारोपण इस समस्या का मुख्य समाधान है।
हमें चाहिए कि गंदगी तथा जल-जमाव करके बीमारियों को जन्म न दें। वातावरण को स्वच्छ तथा साफ-सुथरा रखना प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है। अतः पर्यावरण की सुरक्षा सभी को करनी चाहिए, ताकि मानव-जाति कां नष्ट होने से बचाया जा सके । विश्व पर्यावरण दिवस हमें इसी जिम्मेदारी की याद दिलाता है।
विद्यार्थी-जीवन
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- विद्यार्थी जीवन की स्थिति
- विद्यार्थी जीवन में ज्ञानार्जन, विद्या तथा चरित्र का महत्व
- विद्यार्थी के आवश्यक गुण
- प्राचीन विद्यार्थी और आधुनिक विद्यार्थी
- विद्यार्थी के कर्तव्य
- उपसंहार।
प्रस्तावना :- विद्यार्थी ही देश के भावी कर्णधार हैं। विद्यार्थी-जीवन, मानव-जीवन का सूबसे अधिक महत्वपूर्ण काल है । जन्म के समय बालक अबोध होता है । शिक्षा के द्वारा उसके जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है, उसकी बुद्धि विकसित की जाती है । जिस काल में वह पूर्ण मनोयोग से विद्याध्ययन करता है, उस काल को विद्यार्थी-जीवन कहते हैं।
विद्यार्थी-जांदन की स्थिति :- विद्यार्थी-जीवन, मानव-जीवन का सर्वश्रेष्ठ काल है । इस काल में मनुष्य जो कुछ सीखता है वह आजन्म के काम आता है । विद्यार्थी-जीवन मानव के जीवन की ऐसी विशिष्ट अवस्था है, जिसमें उसे सही दिशा का बोध होता । इसी कारण, इस काल को अत्यंत सादधानी से व्यतीत करना चाहिए।
विद्यार्थी-जीवन ज्ञानार्जन, विद्या तथा चरित्र का महतव :-विद्यार्थी का उद्देश्य केसल विद्या प्राप्त करना नहीं होता अपितु ज्ञान की वृद्धि, शारीरिक-मानसिक विकास एवं चारित्रिक सद्युणों की वृद्धि भी उसका लक्ष्य होता है। विद्याध्ययन का काल ही वह काल है जिसमें सहयोग, प्रेम, सत्यभाषण, सहानुर्भूत, साहस आदि गुणां का विकास किया जाता है । अनुशासन, शिष्टाचार आदि प्रवृत्तियाँ भी इसी समय जन्म लेती हैं।
विद्यार्थी-जीवन में विद्या के साथ ही चारित्रिक विकास का भी महत्वपूर्ण स्थान है। चरित्रहीन व्यक्ति अपन जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। चरित्र के द्वारा ही विद्यार्थी में अनक सद्गुणों का विकास होता है, अतः विद्यार्थी-जीवन में चरित्र-निर्माण की आवश्यकता पर विशेष बल दिया जाता है।
विद्यार्थी के आवश्यक गुण :- प्राचीनकाल में आचायों ने विद्यार्थी के लिए आवश्यक गुणों को चर्चा इस ग्रकार की है –
काकचेष्टा वको ध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च ।
अल्पहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंच लक्षणम् ।।
विद्यार्थी का प्रमुख कार्य विद्या का अध्ययन है। उसे श्रेष्ठ विद्या प्राप्त करने में संकोंच नहों करनः चाहिए। अपने से छोटे अथवा किसी भी वर्ग के पास यदि अच्छी विद्या है तो उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
प्राचीन विद्यार्थी और आधुनिक विद्यार्थी :- प्राचीन काल मे छात्र नगर के जीवन से दूर पवित्र आश्रमो में गुरू के संरक्षण में शिक्षा ग्रहण करता था। वह सादा जीवन बिताकर, गुरू की इच्छा से कार्य करता था।व वहद्वान, तपस्वी, योगी तथा सदाचारी होता था। उसके विचार उच्चकोटि के होते थे। आज का विद्यार्थी अपन इस बहुमूल्य जीवन के प्रति सजग और गंभीर नहीं रह गया है। आज तो वह पैसे के बल पर मात्र पैसे के लिए विद्या प्राप्त करता है। शिक्षा नौकरी का पर्याय बनकर रह गई है। विद्यार्थी के लिए स्वाध्याय एवं आत्मोन्नति का विशेष महत्व नहीं रहा है। विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता और स्वच्छंदता की प्रवृत्ति बढ़ रही है। उनमें विनयशीलता का अभाव स्पष्ट दिखाई देता है। अध्यापकों का अपमान, दिन-रात के लड़ाई-झगड़े, आंदोलन, हड़ताल ही मानों उनके जोव्रन का लक्ष्य बन गया है।
विद्यार्थी के कर्त्तव्य :- भारत एक स्वतंत्र देश है । उसकी आजादी की रक्षा करना प्रत्येक विद्यार्थी का कत्तव्य है। इसके लिए यह आवश्यक है कि हम आदर्श विद्यार्थी बनें । हमारी शिक्षा का उद्देश्य अधिकाधिक ज्ञानार्जन होना चाहिए, केवल नौकरी पाना नहीं । केवल नौकरी प्राप्त करके हम न तो देश का और ना ही समाज का भला कर सकते हैं। शिक्षा नौकरीपरक न होकर रोजगारपरक होनी चाहिए । इस विशाल राष्ट्र की दृढ़ता एवं प्रगति के लिए विद्यार्थी को अत्यंत सबल, सक्षम और शिश्कित होना चाहिए । उसे अपनी संस्कृति तथा मूल्यों को अपनाना चाहिए तथा पाश्चात्य सभ्यता के अंधे अनुक्करण से बचना चाहिए । गुणो और साहसी विद्यार्थी ही देश की रक्षा का भार उठाने में सक्षम होगा ।
उपसंहार :- विद्यार्थीं को देश का सच्चा निर्माता तभी कहा जा सकता है, जब वह चारित्रिक, मानसिक, शारीरिक दृष्टि से पूर्ण समर्थ हों । विद्यार्थी को चाहिए कि अपने विद्यार्थी-जीवन को मौज-मस्ती का साधन न बनाकर उसे शिक्षा ग्रहण करने में लगाए । विद्यार्थी-जीवन की सफलता ही विद्यार्थी के उन्नति की आधारशिला है।
पुस्तकालय
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- पुस्तकालयों के प्रकार
- महत्व
- पुस्तकालय से लाभ- ज्ञान की प्राप्ति
- मनोरंजन का स्वस्थ साधन, दुर्लभ तथ्यों की प्राप्ति के साधन
- पठन-पाठन में सहयोगी
- भारत में पुस्तकालयों की स्थिति
- उपसंहार ।
प्रस्तावना :- पुस्तकालय का अर्थ होता है पुस्तकों का घर, अर्थात् जहाँ पुस्तकों को रखा जाता हो या संग्रह किया जाता हो। अत: पुर्तकों के उन सभी संग्रहालयों को पुस्तकालय कहा जा सकता है, जहाँ पुस्तको का उपयोग पठन-पाठन के लिए किया जाता हो। पुस्तकों को ज्ञान-प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ माध्यम माना गया है । पुस्तकेे ज्ञान-राशि के अथाह भंडार को अपने में संचित किए रहती हैं । ज्ञान ही ईश्वर है तथा सत्य एवं आनंद है ।
केवल एक कमरें में पुस्तकें भर देने से ही वह पुस्तकालय नहीं बन जाती, अपितु यह ऐसा स्थान है जहाँ पुस्तकों के उपयोग आदि का सुनियोजित विधान होता है ।
पुस्तकालयों के प्रकार :- पुस्तकालय के विभिन्न प्रकार होते हैं । जैसे –
- व्यक्तिगत पुस्तकालय
- विद्यालय एवं मह्नाविद्यालय के पुस्तकालय
- सार्वजनिक पुस्तकालय
- सरकारी पुस्तकालय आदि।
व्यक्तिगत पुस्तकालय के अंतर्गत पुस्तकों के वे संग्रहालय आते हैं, जिनमें कोई-कोई व्यक्ति अपनी विशेष रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार पुस्तकों का संग्रह करता है। विद्यालयों तथा महाविद्यालयों के अंतर्गत वे पुस्तकालय आते हैं, जिनमें छात्रों तथा शिक्षकों के पठन-पाठन हेतु पुस्तकों का संग्रह किया जाता है । कोई भी व्यक्ति इसका सदस्य बनकर इसका उपयोग कर सकना है। सरकारी पुस्तकालयों का प्रयोंग राज्य कर्मचारियों एवं सरकारी अनुमति प्राप्त विशेष व्यक्तियों द्वारा किया जाता है ।
पुस्तकालयों का महत्व :- पुस्तकालय सरस्वती देवो की आराधना-मंदिर है । यह व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र तीनों के लिए महत्बपूर्ण है ! पुरतकें ज्ञान-प्राप्ति का सर्वेत्तम साधन हैं । इनसे मनुष्यों के ज्ञान का विकास होता है तथा उनका दृष्टिकोण व्यापक होता है । एक ज्ञानी व्यक्ति ही समाज एवं राष्ट्र के साथ-साथ मानवता का कल्याण कर सकता है ।
प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार पुस्तके खरीद नहीं सकता । कोई भी व्यक्ति आर्थिक रूप से इतना सशक्न नहीं होता कि वह मनचाही पुस्तके खरीद सकें । बहुधा पैसा जुटा लेने पर भी पुस्तकें प्राप्त नहीं होती हैं, क्योंकि उनमें सं कुछ का प्रकाशन बंद हो चुका होता है और उनकी प्रतियाँ दुर्लभ हो जाती हैं। पुस्तकालय में जिज्ञासु अपनी आवश्यकता एवम् प्रयोजन के अनुसार सभी पुस्तकों को प्राप्त कर लेता है तथा उनका अध्ययन करता है ।
पुस्तकालय से लाभ : – पुस्तकालय ज्ञान का भंडार होता है । विषयगत ज्ञान के वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करने के लिए तथा उस विषय से संबंधित ज्ञान प्राप्त करने के लिए अन्य पुस्तकों के अध्ययन के लिए पुस्तकालय की आवश्यकता हाँनी है
प्रत्येक मनुष्य क लिए मनोरंजन आवश्यक होता है तथा मनोरंजन के लिए पुस्तकों से अच्छा कोई साधन नहीं है । यह मनोरंजन के साथ-साथ संसार के अन्य विषयों की जानकारी भी बढ़ाती है।
किसी भी विगय पर शांध एवं अनुसंधानात्मक कार्यों के लिए पुस्तकालयों में संग्रहित पुस्तकों से व्यक्ति उन दुर्लभ तथ्यों कां प्राप्न कर सकता है जिनकी जानकारी उसे अन्य किसी प्रकार से नहीं हो सकती।
पुस्तकालय छात्र तथा अध्यापक दोनों के पठन-पाठन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । शिक्षक तथा छात्र दोनों ही अपनी बौद्धिक शावितयों एवं विषयगत ज्ञान के विस्तार की दृष्टि से पुस्तकालय में संग्रहित पुस्तकों से लाभांवित होते हैं।
भारत में पुस्तकालयों की स्थिति :- स्वतंग्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने गाँव-गाँव में पुस्तकालयों की स्थापना करने का एक अभियान चलाया था जो अनेक कारणों से असफल रहा । इन पुस्तकों की सामम्री राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए थी । उसमें ज्ञान, बौद्धिक विकास की सामग्री का अभाव था। अतः जन सामान्य ने इसकी ओर रुचि नहीं दिखलाई । सरकारी नीति की उदासीनता के कारण यह योजना असफल हों गई ।
उपसंहार :- पुस्तकालय ज्ञान का वह भंडार है जो हमें ज्ञान प्रदान करता है । ज्ञान की प्राप्ति से ही मनुष्य वास्तविक अर्थों में मनुष्य बनता है। ऐसे ही मनुष्यों से समाज या राष्ट्र का कल्याण होता है। अतः पुस्तकालय हमारे लिए अन्यंत महत्वपूर्ण और आवश्यक है। आज सरकार तथा स्वयं सेवी सामाजिक संस्थाओं को संपूर्ण देश में अधिक से अधिक पुस्तकालयों की स्थापना करनी चाहिए।
भूकम्प : एक प्राकृतिक प्रकोप
रूपरेखा :
- भूमिका
- धन-जन की अपार क्षति
- कहीं निर्माण-तो कहीं विनाश
- उपसंहार ।
सृष्टि के आरम्भ से ही मनुष्य का प्रकृति के साथ अटूट सम्बन्ध रहा है। प्रकृति के साथ मनुष्य के संघर्ष की कहानी भी सृष्टि के प्रारम्भ से ही चली आ रही है। प्रकृति अपने विभिन्न रूपों में मानव के सामने आती है। प्रकृति के मोहक तथा भयानक दोनों ही रूप हैं । जहाँ प्रकृति का मोहक रूप हमारा मन मोह लेता है, वहीं इसके रौद्र रूप के स्मरण मात्र से हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। बाढ़, सूखा, अकाल, महामारी, भूकम्प आदि प्रकृति के रौद्र रूप हैं।
भूकम्प शब्द ‘भू और कम्’ इन दो शब्दों के योग से बना है । भू का सामान्य अर्थ है – भूमि और कम्प का – काँपना या हिलना-डुलना है । अतः जब भूमि काँप उठती है तो उसे भूकम्प कहते है। लेकिन समस्त पृथ्वी एक साथ नहीं काँपती। एक बार में पृथ्वी का कोई एक विशेष भाग ही काँपता है ।
जब पृथ्वी की सतह अचानक हिलती या कम्पित होती है ता उसे भूकम्प कहते हैं। सतह के कम्पन के साथ प्रकृति सर्वनाश करनेवालो जो प्रकोप प्रकट करती है, उसी को भूकम्प की संज्ञा दी जाती है। भूपटल का फटना भूकम्प का लक्षण है। ज्वालामुखी के उद्गार भी भूकम्प के कारण बनते हैं। भूमि की चट्टानों के असंतुलः स भी भूक्म आ सकता है। भूकम्प की उत्पत्ति सृष्टि के निर्माणकर्ता का मायावी कौतुक है। प्रकृति का माया रूपी हदयय जब डोलता है तो वह अपना प्रकोष प्रकट करता है।
जिस प्रकार जल-प्रलय प्रकृति का विनाशक ताण्डव है, उसी प्रकार भूकम्प उससे भी भयानक विनाशक विक्षोभ है। दो-चार सेकेंड के हल्के भूकम्प से ही छोटे भवन, दीर्घ प्रासाद और उच्च अद्टालिकाएँ काँपती हुई पृथ्वो के चरण चूमने लगती हैं। गाँव के गाँव नष्ट हो जाते हैं। शवों के ठेर लग जाते हैं। सभी चीजें नष्ट-भष्ट हो जाती हैं। 20 अक्टूबर, सन् 1991 ई. को उत्तरकाशी में आये भूकम्प में 15,000 से अधिक व्यक्तियो की मृत्यु हुई और सहसों लोग घायल हुए। सन् 1993 के लातूर एवं उस्मानाबाद क्षेत्रों के विनाशकारी भूकम्म की चपेट मे 81 गाँवों पर कहर बरपा जिसमं 25 से ज्यादा गाँव श्मशान में बदल गये ।
भूकम्प का प्रभाव नदियों पर भी पड़ता है। पहाड़ों के नीचे धँसने से, या चट्टानों, पत्थरों और गीलो मिट्टी के जमाव से नदी का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है। नदी का प्रवाह अवरुद्ध होने और पानी जमा होने से वह स्थान झील के रूप में परिणत हो जाता है। जलमग्न भवन भूकम्प के प्रकोप से बचकर भी प्रकृति की प्रकोप के चपेट में आ जाते हैं। सन् 1978 ई० में भूकम्य के कारण भूस्खलन से गंगोत्री मार्ग पर 500 मीटर ऊँचा मिट्टी-पत्थर का ढेर लग गया। गंगाजल अवरुद्ध हो गया। फलस्वरूप वहाँ झोल बन गई।
भूकप प्रकृति का क्षोभ ही नहीं वरदान भी है। 16 दिसम्बर, सन् 1880 को आये नैनीताल के भूकम्प से चाइना पीक के लिये एक सुगम मार्ग स्वयं ही बन गया था। इससे जगह-जगह झरने फूट पड़े थे। इस प्रकार भूकम्प ने नैनीताल के सौददर्य को विस्तार दिया था ।
भूकम्प के प्राकृतिक प्रकोप विनाश के अमिट चिह्न पृथ्वी पर छोड़ जाते हैं। मनुष्य की स्सृति में भी आतंक के ऐसे अवशेष छोड़ जाते हैं जो सपने में भी उसे आतंकित कर जाते हैं। गुजरात और उडीसा के भूकंप ऐसे ही थे। प्रत्येक ध्वंस नये निर्माण का संदेश लेकर आता है। प्रकृति में नाश और निर्माण दोनों ही शाक्तियाँ हैं।
इस प्रकार भूकम्प जब बस्तियों को नष्ट करता है तब मनुष्य फिर कुछ नया और सुंदर बनाने की चेष्टा करता है। प्रकृति का प्रकोप मनुष्य को फिर से कुछ नया और बेहतर बनाने की शक्ति प्रदान करता है। इस प्रकार भूकंप शाप भी है और वरदान भी ।
बाढ़ की विभीषिका
रूपरेखा :
- भूमिका
- बाढ़ के आने का कारण
- बाढ़ आने से होने वाली परेशानियाँ
- बाढ़ आने का दुष्परिणाम
- बाढ़ को रोकने का उपाय
- उपसंहार ।
बाढ़ अर्थात् जल-प्रलय अथवा जल-प्लावन प्रकृति का एक विनाशकारी रूप है । अतिवृष्टि के कारण पृथ्वी की जल सोखने की शक्ति जब समाप्त हो जाती है, तब वह बाढ़ का रूप ले लेती है। अतिवृष्टि का जल पर्वतों की मिट्टी बहाकर नदियों में ले जाता है यही जल-प्रलय होता है। नदी-नालों, और जलाशयों का जल अपने तट-बंधनों को तोड़ बस्तियों की गलियों, कूचों, सड़कों और खेतों-खलिहानों में पहुँचने लगता है।
भूकम्प की तरह बाढ़ भी प्राकृतिक प्रकोप है। अतिवृष्टि बाढ़ का कारण है । वैसे बादल फटने से भी बाढ़ आती है। बादल फटने पर तो भयंकर बाढ़ आती है। बाढ़ का सीधा सम्बन्ध वनों के विनाश से भी है।
उपभोक्तावादी संस्कृति की प्रबलता के कारण घरों, कल-कारखानों का कूड़ा-कचरा नदी में डाला जाता है। परिणामत: नदियाँ उथली होती जा रही हैं और उनमें अपेक्षाकृत कम मात्रा में पानी समा पाता है। पानी उफन कर बाढ़ का रूप ले लेता है।
पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यटन की विकास के लिये सड़कों और भव्य भवनों का निर्माण भी बाढ़ के लिये उत्तरदायी है। विकास के नाम पर बने विशाल बाँध भी बाढ़ के कारण हैं। सिंचाई और बिजली के लिये बनाये जाने वाले बाँध वर्षा की अनिश्चितता के कारण अपनी आवश्यकतानुसार जल से भरे रहते हैं। अति वर्षा के कारण जब इनकी संग्रह-क्षमता समाप्त हो जाती है तो जल वेग से उफन पड़ता है-बाढ़ आ जाती है और बाँध के समीपस्थ हजारों ग्राम-नगर जलमग्न हो जाते हैं। नदियों में बाढ़ बाँध से जल छोड़े जाने का दुष्परिणाम है।
समुद्री तूफान भी बाढ़ का कारण है। सन् 1991 ई० में उड़ीसा का जल-प्लावन भयंकर जल-प्रलय था। वन के वृक्ष पानी को व्यर्थ बहने से रोकता है । भूमि पर गिरे उनके फूल-पत्ते ऊपर की मिट्टी को पानी के साथ बह जाने से रोकते हैं। जब वन ही उजड़ जायेगे तो बाढ़ को कौन रोकेगा?
बाढ़ का जल भीषण शोर मचाता ऐसे बह उठता है मानो कोई महानदी अपनी सखी-नदी से मिलने रही हो, और जब दोनों मिल जाती हैं तब पानी का पाट चौड़ा और विस्तृत हो जाता है। बाढ़ का जल अति वेग से बहता है। उसकी शक्तिशाली लहरें तेज थपेड़ों के साथ सब कुछ बहा ले जाती हैं। हाल ही में बिहार बाढ़ का भीषण प्रकोप झेल चुका है।
भारत में आने वाली बाढ़ राज्य सरकारों की अकर्मण्यता और उदासीनता का परिणाम है। आम लोगों द्वारा वनों को बर्बाद करने का फल है। बाढ़ – पीड़तों के सहायतार्थ दिये जाने वाले पदार्थों और धन में से अपना हिस्सा निकालना अधिकारियों की अनैतिकता का परिचय देता है। बाढ़ से हुई हानि का जायजा लेने के नाम पर मंत्री, मुख्यमंत्री की हवाई यात्रा, खान-पान सब राहत-कोष से खर्च किया जाता है जिससे बाढ़-पीड़ितों को पूर्ण रूप से सहायता नहीं मिल पाती। बाढ़ धनी से धनी व्यक्ति को भी कंगाल बना देती है।
राष्ट्रभाषा हिंदी
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी
- हिन्दी ही क्यों
- भारत की सांस्कृतिक भाषा हिन्दी
- राष्ट्रभाषा से राजभाषा
- विदेशों में हिन्दी
- उपसंहार ।
प्रस्तावना :- प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक भाषा होती है, जिसमें उस देश के प्रशासनिक कार्य किये जाते हैं तथा देश के अधिकांश लोग पारस्परिक व्यवहार में उस भाषा का प्रयोग करते हैं । उसी भाषा के माध्यम से उस देश के वैदेशिक सम्बन्ध संचालित होते हैं । राष्ट्रीय न्यायालयों के कार्य उसके ही प्रयोग से सम्पन्न किये जाते हैं । विश्वविद्यालयों में उच्चशिक्षा के लिये उसका ही प्रयोग होता है। जिस देश में एक से अधिक भाषाएँ प्रर्चलित होती हैं, उस देश की किसी एक भाषा को राजभाषा, सम्पर्क भाषा अथवा राष्ट्रभाषा के रूप में ख्वीकार कर लिया जाता है।
ऐसी भाषा के बोलनेसमझने वालों की संख्या सर्वाधिक होती है और अन्य लोगों द्वारा वह काफी सरलता से सीख ली जाती है । भारत में स्वतंत्रता पूर्व शासकों की भाषा अंग्रेजी प्रशासन, शिक्षा, न्याय आदि की प्रमुख भाषा थी। किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया तथा हिन्दी के साथ-साथ कुछ समय के लिये अंग्रेजी को भी सरकारी कामकाज के लिये अस्थायी रूप में स्वीकार कर लिया गया था, ताकि इस बीच अहिन्दी भाषा-भाषी भी हिन्दी की जानकारी हासिल कर लें।
भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी :- भारत विश्व का सर्वाधिक विशाल गणतन्त्र है, जो संघात्मक होते हुए भी एकात्मक है । यहाँ पंजाब की भाषा पंजाबी, बंगाल को बंगला, केरल की मलयालम, उड़ीसा की उड़िया, असम की असमी, आंध्र की तेलगू तथा तमिलनाडु की भाषा तमिल है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक था कि किसी ऐसी भाषा की खोज की जाय जो उक्त सारे क्षेत्रों के बीच एकसूत्रता स्थापित कर सके । इस दृष्टि से राष्ट्रीय नेताओं ने खड़ी बोली हिन्दी को सर्वाधिक उपयोगी पाकर उसे ही भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया।
हिन्दी ही क्यों :-भारत द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानने के कई कारण हैं । यह लगभग हजार वर्षों से भारतीय जनता के बीच लोकप्रिय रही है । आज देश की लगभग आधी जनसंख्या अच्छी तरह हिन्दी लिख-बोल सकती है। वाणिज्य, तोर्धयात्रा, परिवहन आदि क्षेत्र में हिन्दी का प्रचार काफी अच्छा है । देश भर के तीर्थों में हिन्दी के जानकार पंडित, पुजारी तथा पण्डे हैं । रेलवे स्टेशनों के कुली हिन्दी बोल लेते हैं । भारत के बाहर श्रीलंका, बर्मा, गुयाना, मारीशस, फिजी, सुरीनाम आदि देशों में भी हिन्दी जानने वालों की काफी अच्छी संख्या है।
इतनी अधिक लोकप्रियता के साथ-साथ हिन्दी को अपनाने का एक कारण यह भी है कि यह बहुत ही सरल भाषा है, इसे सीखनन में विशेष असुविधा नहीं होती । इसकी देवनागरी लिपि भी सरल एवं वैज्ञानक है । मराठी एवं नेपाली भाषाओं की लिपियाँ नागरी लिपि की ही प्रतिरूप हैं। अतः उन भाषा-भाषियों के लिए हिन्दी सीखना अत्यधिक सरल है । हिन्दी की यह भी एक विशेषता है कि संस्कृत की उत्तराधिकारिणी होने के कारण इसने भारत की प्राचीनतम परम्परा की अधिकांश विशेषताओं को अपने भीतर समेंट लिया है । अपनी इन्ही कतिपय विशिष्टताओं के कारण हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा बन सकी है।
राष्ट्रभाषा से राजभाषा :- स्वतंत्र भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया तथा उसी क्षण से यह भी निश्चित हो गया कि 15 वर्षों बाद देश के सरकारी कामकाज हिन्दी में होने लगेगे। किन्तु सन् 1965 में तमिलनाडु द्वारा विरोध किए जाने पर यह निश्चय किया गया कि जब तक सभी अहिन्दी भाषी प्रान्त हिन्दी में पत्र-व्यवहार करना स्वीकार न करें, तब तक उनके साथ अंग्रेजी में प्र-व्यवहार किया जायेगा। गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब आदि ने तो हिन्दी में प्र्र-व्यवहार आरंभ कर दिया तथा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार एवं राजस्थान ने हिन्दी को अपनी राजभाषा घोपित कर दिया। 1985 ई० में स्थिति यह रही कि केन्द्र सरकार के तथा संसद के सारे कार्य दोनों भाषाओं अर्थात् हिन्दी और अंग्रेजी में किए जाने लगे। सेवा आयोगों में अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी भी परीक्षा का माध्यम मान ली गई।
उपसंहार :-राजनीतिक कारणों से यदा-कदा हिन्दी साम्राज्यवाद के नाम पर हिन्दी के विरांध की आवाज उठने लगती हैं तथापि हिन्दी का प्रयोग दिनानुदिन बढ़ता ही जा रहा है। देश की जनता राष्ट्रीय कर्त्तव्य एवं दायित्व के प्रति जागरूक है, अतः हिन्दी-विरोधियों का प्रभाव नगण्य है। हिन्दी चलाचत्रों की व्यापक लोकप्रियता तथा अहिन्दी भाषी क्षेत्रोंमें भी हिन्दी प्रेमियों के प्रयास जैसे साधनों से इसका प्रचार क्षेत्र सहजता से ही बढ़ता जा रहा है।
सरकारी तथा गैरसरकारी संस्थाओं की चेष्टा से न्याय, औषधि, यांत्रिकी, वाणिजय आदि क्षेत्रों के लिए विभिन्न शब्दावलियों का निर्माणकार्य तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है । यह विश्वास सहज ही पनपता है कि इस शताब्दी के अन्त तक भारत अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा की विवशता से पूर्ण मुक्त हो जाएगा एवं राज्यों में राज्य की तथा केन्द्र में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का अक्षुण्ण स्थान प्राप्त हो सकेगा ।
भारत में साक्षरता अभियान
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- पराधीन भारत में निरक्षरता
- निरक्षरता एक अभिशाप है
- स्वतंत्र भारत में निरक्षरता के दूरीकरण की चेष्टा
- साक्षरता का महत्व
- उपसंहार ।
प्रस्तावना :- देश के अगणित मनुष्य यदि अज्ञान के अंधकार में डूबे रहें, यदि मनुष्यत्व विकास के सभी सम्भव पथ अवरुद्ध हो जायँ, यदि अशिक्षा, अन्याय, अपमान तथा शोषण से जीवन संकुचित होता रहे, तब हमारा सब कुछ व्यर्थ हो जायेगा । ज्ञान-विज्ञान का प्रकाशमय जगत् सदा के लिये हमसे दूर हो जायेगा । किसी देश की उन्नति के मूल में उस देश की जनता की जागरुकता ही मुख्यतः हुआ करती है । वस्तुतः मानव के अंतर में अमित शक्ति सुप्त रहती है । जागृत रूप में यही शक्ति देश को आगे बढ़ाती है और यह शक्ति जागृत होती है शिक्षा के द्वारा।
पराधीन भारत में निरक्षरता :- अंग्रेजों के भारत में आने से पूर्व मंडप, टोल, चौपाल, वटवृक्षतल, मदरसा, पाठशाला आदि विभिन्न स्थानों में जो परंपरागत शिक्षादान की व्यवस्था थी, उनके द्वारा भी देश का काफी बड़ा भाग साक्षरता प्राप्त कर लेता था । पर अंग्रेजों के आगमन के बाद पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से यहाँ का सब कुछ बदल गया। पराधीन भारत में शिक्षा का क्षेत्र बिल्कुल संकुचित हो गया । देश के विदेशी शासक यहाँ शिक्षा का प्रसार कतई नहीं चाहते थे । उनका एकमात्र उद्देश्य था देश का अबाध शोषण । गरीबी और निरक्षरता बहुत बढ़ गयी । प्रायः दो सौ वर्ष के अंग्रेजी शासन में पूरे देश में साक्षर लोगों की संख्या मात्र चौदह प्रतिशत ही रही । सन् 1930 में कानून द्वारा प्राइमरी शिक्षा को अनिवार्य बनाया गया । किन्तु सरकार की उदासीनता के कारण यह कानून देश में तत्परतापूर्वक नहीं लागू किया गया । फलत: निरक्षरता का परिणाम पूर्ववत् बना रहा ।
निरक्षरता अभिशाप है :- निरक्षरता किसी भी देश के निवासियों के लिये एक अभिशाप है। देश के बहुसंख्यक लोग शिक्षा के अभाव में चरमहीनता और वंचना का जीवन बिताते हैं । वे समझ नहीं पाते कि सब कुछ होते हुए भी वे उनसे क्यों वंचित हैं, क्यों वे इतने निगृहीत हैं। अपने भाग्य की दुहाई देते रहते हैं । समाज के विभिन्न अंगों से उन पर अत्याचार होता है । उनका शोषण होता है । निरक्षरता के कारण, लगता है कि मनुष्यत्व का अधिकार ही गँवा बैठे हैं । उनमें गण-तंत्रात्मक बोध के साथ ही आत्मसम्मान की भावना भी लुप्त हो गयी है ।
स्वतन्त्र भारत में निरक्षरता के दूरीकरण की चेष्टा :-युग संचित इस अभिशाप से देशावासियों को मुक्त करने के लिये स्वतन्त्र भारत में शिक्षा की नवीन योजना बनाई गई है । देश की जनता में शिक्षा को अधिकाधिक व्यापक बनाने के लिये सरकार ने राधाकृष्णन, मुदालियर और कोठारी कमीशनों का गठन किया। आज देश से निरक्षरता उन्मूलन करना नितान्त आवश्यक हो गया है। इस दिशा में कार्य हो रहा है, पर अभी तक साक्षर लोगों की संख्या में आशानुरूप वृद्धि नहीं हुई है। शहरों में ही शिक्षित और साक्षर लोगों की संख्या अधिक है, गाँवों में बहुत कम । जनसंख्या की द्रुत वृद्धि को ध्यान में रखते हुए ही निरक्षरता दूरीकरण की व्यवस्था को भी अधिक गतिमुखर बनाना पड़ेगा।
उपसंहार :-देश की जनता को शिक्षा का अधिकार देना पड़ेगा । उनमें गणतान्त्रिक चेतना का संचार करना पड़ेगा। निरक्षरता के दूर होते ही आत्मनिर्भर हो जायगा देश । समृद्धि के दिगन्त उन्मोचित होंगे । चरित्र-गठन और उन्नत जीवन-मान-इन लक्ष्यों की प्राप्ति शिक्षा के व्यापक प्रसार से ही हो सकेगी । केवल प्राइमरी और माध्यमिक स्तरों की शिक्षा को अनिवार्य बना देने से ही काम नहीं चलेगा । देश के अगणित व्यस्क लोगों को साक्षर बनाने की योजना को भी वास्तविक रूप से लागू करना पड़ेगा । जब तक यह नहीं होता, तब तक अनवरत सक्रियतापूर्वक इस दिशा में लगा रहना पड़ेगा ।