Students should regularly practice West Bengal Board Class 9 Hindi Book Solutions and रचना आत्मकथात्मक निबंध to reinforce their learning.
WBBSE Class 9 Hindi रचना आत्मकथात्मक निबंध
यदि मैं शिक्षक होता
अथवा, एक शिक्षक का सपना (माध्यमिक परीक्षा – 2010)
रूपरेखा :
- भूमिका
- आदर्श शिक्षक
- शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तन
- आदर्श शिक्षक के कर्तव्य
- उपसंहार ।
शिक्षक होना सचमुच बहुत बड़ी बात हुआ करती है । शिक्षक की तुलना उस सृष्टिकर्त्ता बह्मा से भी कर सकते हैं । जैसे संसार के प्रत्येक प्राणी और पदार्थ को बनाना ब्रह्मा का कार्य है, उसी प्रकार उस सब बने हुए को संसार के व्यावहारिक ढाँचे में ढालना, व्यवहार योग्य बनाना, सजा-संवार कर प्रस्तुत करना वास्तव में शिक्षक का ही काम हुआ करता है। यदि मैं शिक्षक होता, तो एक वाक्य में कहूँ तो हर प्रकार से शिक्षकत्व के गौरव, विद्या, उसकी शिक्षा, उसकी आवश्यकता और महत्त्व को पहले तो स्वय भली प्रकार से जानने और हृदयंगम करने का प्रयास करता; फिर उस प्रयास के आलोक में ही अपने पास शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा से आने वाले विद्यार्थियों को सही और उचित शिक्षा प्रदान करता, जैसा कबीर कह गए हैं ;
“गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि खोट ।
भीतर हाथ सहार दे, बहार बाहे चोट ।।”
अर्थात् जिस प्रकार एक कुम्हार कंज्यी और गीली मीटी को मोड़-तोड़ और कुशल हाथों से एक साँचे में ढालकर घड़ा बनाया करता है उसी प्रकार मैं भी अपनी सुकुमार-मति से छात्रों का शिक्षा के द्वारा नव-निर्भाण करता, उन्हे एक नये साँचे मे ढालता । जैसे कुम्हार, मिट्टी से घड़े का ढाँचा बना कर उसे भीतर से एक हाथ का सहारा दे और बाहर से ठोंक कर उसमें पड़े गर्त आदि को समतल बनाया करता है, उसे भीतर से एक हाथ का सहारा दे और बाहर से ठोक कर उसमें पड़े गर्त आदि को समतल बनाया करता है, उसी प्रकार मैं अपने छात्रों के भीतर यानि मन-मस्तिष्क में ज्ञान का सहारा देकर उनकी बाहरी बुराइयाँ भी दूर करके हर प्रकार से सुडौल, जीवन का भरपूर आनन्द लेने के याग्य बना देता । लेकिन सखेद स्वीकार करना पड़ता है कि मैं शिक्षक गहीं हूँ और जो शिक्षक है, वे अपने कर्तव्य का इस प्रकार गुरुता के साथ पालन करना नहीं चाहते।
यदि मैं शिक्षक होता तो न केवल स्वय आदर्श शिक्षक बनता बल्कि अपने छात्रो को आदर्श गुरु की पहचान भी बताता । एक गुरु वे होते हैं, जिसके बीते हुए कल आपके आनेवाले कल के मार्गदर्शक बन सकते हैं। इसलिए किसी ऐसे आदर्श को खोजे जो आपको अपना शिष्य भी बना सके। एक अच्छा गुरु आपको सही राह दिखा सकता है लेकिन एक धटिया गुरु आपकों गुमराह कर सकता है । याद रखें – “‘अच्छे गुरु आपकी प्यास नहीं बुझाते, बल्कि आपको प्यासा बनाएंगे। वे आपको जिज्ञासु बनाते है।”
एक राजा की कहानी है, जो किसी ऐसे व्यक्ति का सम्मान करना चाहता था जिसने समाज की उन्नति के लिए सबसे ज्यादा योगदान किया हो । हर तरह के लोग, जिनमे डॉक्टर और व्यवसायी भी आये थे, मगर राजा उनसे प्रभावित नहीं हुआ । अंत में एक बुजुर्ग इंसान आया, जिसके चेहरे पर चमक थी और उसने खुद के एक शिक्षक बताया। राजा ने अपने सिंहासन से उतर और झुककर उस शिक्षक को सम्मानित किया । समाज के भविष्य को बनाने और संवारने में सबसे बड़ा योगदान शिक्षक का ही होता है – इस मूलमंत्र को मैं एक शिक्षक के रूप में सदैव याद रखता यदि में शिक्षक होता ।
पुस्तक की आत्मकथा (माध्यमिक परीक्षा – 2009)
रूपरेखा :
- भूमिका
- उपयोगिता
- राम की जीवन गाथा
- उपसंहार ।
मैं हिन्दी-साहित्य का एक प्रभुख महाकाव्य हूँ, मेरी रचना तुलसीदास ने की थी । उस भहायुख्य ने मेरी रचचना कर हिन्दी-साहित्य को धन्य बनाया । मैं भी अन्य पुस्तकों की भाँति ही एक पुस्तक हूँ, लेकिन मेरा सैभाग्य इसी में है कि मेरे प्रमुख्र पात्र, मर्यादा एवं शील सम्पन्न प्रभु श्री रामचन्द्रजी हैं । मुझे कई बार पढ़ने के बाद भी पाठकगण बार-बार पढ़ना चाहते हैं। राम का नाम लेने से मुक्ति मिल सकती है, किन्तु मुझमें इस प्रकार की कोई शध्ति विद्यामन गहीं है जिस ेै मनुष्यों को मोक्ष दे सकूँ । यह शक्ति तो प्रभु श्री रामचन्द्र जो में है, जो प्रत्येक युग में अवतार लैकर लोगों के दुःख-दर्द का हरण करते हैं तथा अत्याचारियों का विनाश करते हैं। मेरे रचयिता के शब्दों में –
जब-जब होहि धरम की हानी, बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ।
तब-तब धर प्रभु मनुज शरीरा, हरहि कृपा निधि सज्जन पीरा ।
मुझे सामान्य जन ही नहीं, बड़े-बड़े ॠषि-मुनि एवं ज्ञानी महात्मा जन भी अपने घर में श्रद्धा और भक्ति के साथ रखते हैं। वे लोग प्रभु श्री रामचन्द्रजी की गाथा पढ़ने एवं सुनने के लिए मुझे अपने पास रखते हैं । मेरी सुरकक्षा के लिए वे भुझे लाल रंग के आवरण से हमेशा ढँककर रखते हैं तथा पढ़ते समय वे मुझे खोलकर एक रेहल नामक सुविधाजनक आसन पर रख देते हैं । यदि आपको मेरे सम्बन्ध में और अधिक जानकारी प्राप्त करनी है तो, आप उन महात्माओं से निःसंकोच पूछ सकते हैं जो लोग सदैव मुझे अपने पास रखते हैं।
मै मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र की जीवन-गाथा हूँ। इसीलिए लोग मुझे ‘रामचरित-भानस’ कहते हैं। श्री रामचन्द्र परमेश्वर हैं। शक्ति, शील और सौन्दर्य-उनकी तीन विभूतियाँ हैं।
मरे रचयिता ने मुझे शंकर-पार्वती के संवाद के रूप में प्रस्तुत किया है। शिव पार्वती से कहते हैं :-
उमा कहौं मैं अनुभव अपना।
बिनु हरिभजन जगत सब सपना।।
श्रीराम भी शिव का पूजन करते हैं और कहते हैं :-
शिव द्रोही मम दास कहावा ।
सो नर मोहि सपनेहु नहि भावा ।।
श्री रामचन्द्रजी ने तो यहाँ तक कह डाला है कि-
शंकर प्रिय मम द्रोही शिव द्रोही ममदास ।
सो नर करहि कल्म-भर घोर नरक माँह वास ।
मुझसे अत्याचारी राजा भो भयभीत होते हैं, क्योंक मैं उन्हें चेतावनी देते हुए यह कहती हू क्न–
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी ।
सो नृप अवसि नरक अधिकारी ।
मेरे अन्दर वे तमाम गुण उपलब्ध हैं जिनका अनुकरण कर व्यक्ति एक आदर्श नागरिक बन सकता है । माता का पुत्र के साथ, पिता का पुत्र के साथ, भाई का भाई के साथ, स्वामी का सेवक के साथ, राजा का प्रजा के साथ, कैसा सम्बन्ध होना चाहिए इन सबका वर्णन मुझमें निहित है ।
गंगा की करुण गाथा (माध्यमिक परीक्षा – 2008)
रूपरेखा :
- भूमिका
- गंगा के प्रदूषित होने के कारण
- प्रदूषण से बचाने के उपाय
- उपसंहार ।
मैं गंगा हूँ – वही गंगा, जिसे भागीरथ ने स्वर्ग से धरती पर उतारा था और जिसमें सगर पुत्रों का उद्दी किया था। तब से लेकर आज तक मैं लोगों की आस्था तथा श्रद्धा का पात्र हूँ । पृथ्वी पर मेरा जन्म भूगोलवेताओं क अनुसार हममालय की गोद से हुआ 1 गंगोत्री से लगभग 15 मील दूर गोमुख से मै प्रकट होती हूँ । मेरे बारे में यह विश्वास आनिकाल से ही चला आ रहा है कि गंगा का जल कभी खराब नहीं होता । समय बदलने के साथ ही मेरी स्थिति में भी परिवर्तन आया। अब मेरा जल इतना प्रदूषित हो चुका है कि लोग गंगाजल की बजाय ‘मिनरल वाटर’ को अधिक महत्व देने लगे हैं।
आजकल मुझमें न जाने कितने ही प्रकार की गंदगी, दूषित जल और अनेक प्रकार के जहरीले पदार्थ बहा दिए जाते हैं । जैसे-जैसे कल-कारखानों, उद्योगों की संख्या बढ़ती जा रही है, मेरा जल प्रदूषित होता जा रहा है । मेरे तट के पास के कारखानों से टनों-टन कूड़ा-करकट तथा दूषित जल मेरी धारा में प्रतिदिन बहाए जा रहे हैं । जो लोग मुझमें स्नान करने आंते हैं, जल को प्रदूषित करने में उनका भी कम योगदान नहीं हैं। वे मेरे जल में साबुन, गंदे कपड़े धोने, जानवरों को नहलाने तथा मरे जानवरों को बहाने के साथ लाश को भी बहा देते हैं। इससे मेरा जल दिन-प्रतिदिन प्रदूषित होता जा रहा है ।
वैज्ञानिकों की गंभीर चेतावनी के बाद सन् 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी में गंगाजल के शुद्धिकरण की दिशा में लोगों को जागृत करने के लिए कदम उठाए । लेकिन उनकी मृत्यु के कारण कुछ समय के लिए यह कार्यक्रम थम-सा गया । 5 जनवरी, 1985 को राजीव गाँधी के समय में ‘केन्द्रीय गंगा प्रधिकरण’ की स्थापन्न की गई तथा 292 करोड़ रुपए का एक वृहत् कार्यक्रम बनाया गया । इस संदर्भ में पहला गंगा-शद्धिकरण का पहल कार्य हरिद्वार तथा ऋषिकेश और फिर वाराणसी में हुआ। मेरी शुद्धिकरण के प्रति केवल भारत-सरकार ही नहीं बल्कि कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का भी योगदान है । इसमें मुख्य रूप से नीदरलैण्ड, बिटेन और फ्रांस सहयोगी हैं।
यदि लोगों तथा सरकार का मेरे प्रति यह सहानुभूतिपूर्ण रवैया रहा तो निश्चय ही मैं अपनी खोई हुई गरिमा को फिर से पाने में सफल हो सकूंगी । लेकिन अपने लाभ के लिए मैं उद्योग-धंधों को भी नष्ट नहीं करना चाहती । ऐसी व्यवस्था की जाय जिससे कारखाने और उद्योग तो बने रहें लेकिन उनसे उत्पन्न प्रदूषण का खात्मा हो जाय । जिस दिन ऐसा होगा, उसी दिन मेरी करुण गाथा का अंत होगा लेकिन क्या कभी ऐसा हो पाएगा ?
यदि मैं विद्यालय का प्रधानाचार्य होता
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- प्रधानाचार्य के कार्य
- खेल-कूद को प्रोत्साहन
- उपसंहार ।
प्रस्तावना :- किसी भी विद्यालय का प्रधानाचार्य होना गौरव की बात है, कितु प्रधानाचार्य का पद इतना महत्वपूर्ण और कर्त्तव्य की भावना से परिपूर्ण है कि हर व्यक्ति इस उत्तरदायित्व का ठीक-ठीक निर्वाह नहीं कर सकता ।
यदि मैं किसी विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो मेरी स्थिति रेलगाड़ी के इंजन की तरह होती, जिसके अभाव में रेलगाड़ी अपने स्थान पर खड़ी रहती है । उसी प्रकार प्रधानाचार्य के अभाव में विद्यालय रूपी गाड़ी गतिहीन हो जाती है।
महर्षि अरविंद के अनुसार “आचार्य राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं । वे संस्कार की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींच-सींचकर महाप्राण शक्तियों का निर्माण करते हैं।”
प्रधानाचार्य के कार्य :- किसी भी विद्यालय का प्रधानाचार्य होने के कारण मेरा कार्य कठिन होता । पग-पग पर मुझे चुनौतियाँ तथा जटिलताएँ मिलतीं । विद्यालय का प्रशासक होने के कारण मुझे विद्यालय के शिक्षकों का नेतृत्व करना पड़ता। इसी कारण मुझे एक आदर्श व्यक्ति बनना पड़ता और अपने अंदर उन गुणों का विकास करना होता जो एक प्रशासक के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं।
यदि मैं प्रधानाचार्य होता तो विद्यालय को एक आदर्श विद्यालय बनाने का प्रयास करता । छात्रों को आदर्श नारारक बनाने का प्रयास करता, क्योंकि आज के बालक ही कल देश का नेतृत्व करेंगे । छात्रों में नेतृत्व के गुणों का विकास करता तथा इन कार्यो की पूर्ति हेतु साथी अध्यापकों का सहयोग लेता ।
प्रधानाचार्य का पद अत्यंत गरिमापूर्ण होता है । उसका प्रत्येक कार्य अध्यापकों तथा छात्रों के लिए आदर्श होता है। वह अपने व्यवहार, आचरण तथा चरित्र से सभी को प्रभावित करता है। प्रधानाचार्य की कर्त्तव्यनिष्ठा, अनुशासनप्रियता, स्नेह तथा सादगी, वक्त की पाबंदी तथा परिश्रमशीलता का प्रभाव सभी पर पड़ता है।
अनुशासन किसी भी विद्यालय का सबसे अधिक आवश्यक अंग है । अनुशासन के अभाव में विद्यालय चल ही नहीं सकता है । मैं विद्यालय में अनुशासन को सर्वाधिक महत्व देता । अनुशासन बनाए रखने हेतु बहुमुखी यांजनाएँ बनाता ।
खेल-कूद को प्रोत्साहन :- खेल-कूद विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य होने चाहिए । खेल-कूद के माध्यम से विद्यार्थी सामाजिकता, कर्त्तव्य-पालन, अनुशासन और नैतिकता का पाठ सीखता है। अधिकतर विद्यार्थियों को खेलों के लिए प्रेरित करता ।
मैं शिक्षा को व्यावहारिक और मनोरंजक बनाने का पक्षधर हूँ । केवल सैद्धांतिक शिक्षा पुस्तकीय ज्ञान तो बढ़ाती है, किंतु कर्म-क्षेत्र में आने पर छात्रों के लिए विशेष उपयोगी सिद्ध नहीं होती । इसलिए, यदि मैं प्रधानाचार्य होता तो अपने विद्यालय में व्यावहारिक शिक्षा का प्रबंध करता।
उपसंहार :- मेरा यह सपना तभी साकार होगा जब मै प्रधानाचार्य बन जाऊँगा । मैं सर्वाधिक अंक लेकर कक्षा में प्रथम आ रहा हूँ । मेरा दृढ़ निश्चिय है, इसी प्रकार श्रेष्ठ अंक प्राप्त करके मैं अपने स्वप्न को साकार कर सकूँगा तथा भविष्य में एक दिन किसी विद्यालय का प्राचार्य बनूँगा।
यदि मैं शिक्षामंत्री होता
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- समग्र शिक्षा-नीति निर्माण
- वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तन
- उपसंहार ।
यदि मैं शिक्षा मंत्री होता, तो सब से पहले इस कमी को पूर्ण करता अर्थात् मात्र वोट पाने और शासक दल की सत्ता की कुर्सी बचाए रखने की सत्ता के दलालों वाली नीति न अपना कर, एक समप्र राष्ट्रीय शिक्षा-नीति बना कर, उसे एक साथ, एक ही झटके से सारे देश में लागू कर देता।
यदि मैं शिक्षामंत्री होता, तो एक सम्मानजनक समग्र राष्ट्रीय शिक्षा नीति बना कर लागू करने के साथ-साथ शिक्षा का माध्यम भी एकदम बदल डालता। आज जिस विदेशी शिक्षा-माध्यम का बोझ चन्द यानी मात्र दो प्रतिशत लोगों के स्वार्थो की साधना के लिए शेष अट्ठानवे प्रतिशत के सिरों पर लाद रखा गया है, जिसने प्रत्येक गली-कूचे में शिक्षा की दुकानों की एक बाढ़-सी लाकर उसे चुस्त-चालाक निहित स्वार्थियों के लिए मोटी-काली कमाई का साधन बना दिया है, उसे एक ही रात में पूर्णतया बदल कर स्वदेशी और राष्ट्रीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने, उन्हीं में सारे विषयों का पठन-पाठन करने-कराने को अनिवार्य कर देता ।
यदि मैं शिक्षामंत्रो होता तो शिक्षा का माध्यम बदल डालने के साथ-साथ वर्तमान परीक्षा-प्रणाली को भी नहीं रहने देता। यह प्रणाली किसी की वास्तविक योग्यता को प्रस्तुत कर पाने में समर्थ मानदण्ड न तो कभी थी और अब तो बिल्कुल नही रह गई है । इसने देशवासियों को मात्र यही सिखाया है कि बस डिग्री-डिप्लोमा या सर्टिफिकेट ही सब-कुछ होता है ।
शिक्षामंत्री बनने पर मैं सारे देश में मसान शिक्षा-प्रणाली लागू करवाता । आज तो नगरपालिका, सरकारी स्कूल, मॉडर्न और पब्लिक स्कूल, नर्सरी कान्वैंट आदि के विविध भेद-मूलक स्कूल, विद्यालय, महाविद्यालय अपनी अलग-अलग डफ्ली बजाते हुए अलग-अलग राग अलाप रहे हैं; इन भेद-मूलक व्यवस्थाओं को समाप्त कर अमीर-गरीब सभी के लिए एक-सी, हर प्रकार से सस्ती, सरल और बच्चों के कद-काठ पर बोझ न बनने वाली शिक्षा-व्यवस्था लागू करवाता।
यदि मैं प्रधानमंत्री होता
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- कार्य
- विकास-योजनाएँ
- राष्ट्रभाषा को महत्व
- भ्रष्टाचार का निवारण
- उपसंहार ।
यदि मै प्रधानमंत्री होता-अरे ! यह मैं क्या सोचने लगा । प्रधानमंत्री बन पाना खाला जी का घर है क्या ? भारत जैसे महान् लोकतंत्र का प्रधान मंत्री बनना वास्तव में बहुत बड़े गर्व और गौरव की बात है, इस तथ्य से भला कौन इन्कार कर सकता है । प्रधानमंत्री बनने के लिए लम्बे और व्यापक जीवन-अनुभवों का, राजनीतिक कार्यों और गतिविधियों का प्रत्यक्ष अनुभव रहना बहुत ही आवश्यक हुआ करता है । प्रधानमंत्री बनने के लिए जन-कार्यों और सेवाओं की पृष्ठभूमि रहना भी जरूरी है और इस प्रकार के व्यक्ति का अपना-जीवन भी त्याग-तपस्या का आदर्श उदाहरण होना चाहिए ।
आज के युग में छोटे-बड़े प्रत्येक देश और उसके प्रधान मंत्री को कई तरह के राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय दबाबों, कूटनीतियों के प्रहारों को झेलते हुए कार्य करना पड़ता है । अतः प्रधान-मंत्री बन्ने के लिए व्यक्ति को चुस्त-चालक, कूटनीति-प्रवण और दबाव एव प्रहार सह सकने योग्य मोटी चमड़ी वाला होना भी बहुत आवश्यक माना जाता है । निश्चय ही मेरे पास ये सारी योग्यताएँ और ढिठाइयाँ नहीं हैं; फिर भी अक्सर मेरे मन-मस्तिष्क को यह बात मथती रहा करती है, रह-रहकर गूँज-गूँज उठा करती है कि यदि मैं प्रधान मंत्री होता, तो ?
यदि मैं प्रधानमंत्री होता, तो सब से पहले स्वतंत्र भारत के नागरिकों के लिए, विशेष कर नई पीढ़ियों के लिए, पूरी सख्ती और निक्रुता से काम लेकर एक राष्ट्रीय चरित्र निर्माण करने वाली शिक्षा एवं उपायों पर बल देता।
आंज स्वतंत्र भारता में जो संबिधान लागू है, उसमें बुनियादी कमी यह है कि वह देश का अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, अन्मभित जाति, जन्- जाति आदि के खानों में बाँटने वाला तो है, उसने हरेक के लिए गानून विधान भी अलग-अला अना रखे हैं जबकि नारा समता और समानता का लगाया जाता है । यदि मैं प्रधान मंत्री होगा तो संविधान में सभी के लिए् एन श्रा् ‘भारतीय’ और समान संविधान-कानून लागू करवाता ताकि विलगता की सूचक सारी बाते स्वत: ही खत्म हो जारँ ! भारत केवल भारतीयों का रह जाए न कि अल्प-संख्यक, बहुसंख्यक आदि का।
यदि मैं प्रथानमंत्री होता तो सभी तरह की निर्माण-विकास योजनाएँ इस तरह से लागू करवाता कि वे राष्ट्रीय संसाधनों से ही। पूरी हो सकें । उनके लिए विदेशी धन एवं सहायता का मोहताज रह कर राष्ट्र की आन-बान को गिरवी न रख्खना ५ड़ता । दबावों में आकर इस तरह की आर्थिक नीतियाँ या अन्य योजनाएँ लगू न करने देना कि जो राष्ट्रीय स्वाभिमान के विपरीत तो पड़ती ही हैं, निकट भविष्य में कई प्रकार की आर्थिक एवं सांस्कृतिक हानियाँ भी पहुँचाने वाली हैं।
यदि मै प्रधानमंत्री होता, तो भ्षष्टाचार का राष्ट्रीयकरण कभी न होने देता। किसी भी व्यक्ति का भ्रष्टाचार सामने आने पर उसकी सभी तरह की चल-अचल सम्पत्ति को तो छीन कर राष्ट्रीय सम्पत्रि घोषित करता ही, चीन तथा अन्य कई देशों की तरह भ्रष्ट कार्य करने वाले लोगों के हाथ-पैर कटवा देना, फाँसी पर लटका या गोली से उड़ा देने जैसे हदयहीन कहेमाने जाने वाले उपाय करने से भी परहेज नहीं करता । इसी प्रकार तरह-तरह के अलगाववादी तत्वों को न तो उभरने देता और उभरने पर उनके सिर सख़्ती से कुचल डालता । राष्ट्रीय हितों, एकता और समानता की रक्षा, व्यक्कि के मानसम्मान की रक्षा और नारी-जाति के साथ हो रहे अन्याय और अत्याचार का दमन मै हर संभव उपाय से करता-करवाता !
बहु संभव है कि ऐसा सब करने कारण मेरे हाथ से प्रधान मंत्री की कुर्सी और मेरे दल की सरकार भी चली जाती; पर में घोटो की दाने और कुर्सी बचाने का खेल न खेलता ।
यदि मैं वैज्ञानिक होता
रूपरेखा :
- प्रस्बावना
- विज्ञान लोगों की समृद्धि के लिए
- समस्याओं का समाधान
- उपसंहार ।
आज के युग में किसी व्यक्ति का वैज्ञानिक होना सचमुच बड़े गर्व और गौरव की बात है। यों अतीत काल में भारत ने अनेक महान् वैजानिक पैदा कण हैं और आज भी विश्व-विज्ञान के क्षेत्र में अनेक भारतीय वैज्ञानिक क्रियाशील हैं। अपने तरह-तरह के अन्वेषणों और आविष्कारों से वे नए मान और मूल्य भी निश्चय ही स्थापित कर रहे हैं । फिर भी अभी तक भारत का कोई वैजांनिक कोई ऐसा अद्भुत एवं अपने-आप में एकद्म नया आविष्कार नहीं कर सका, जिससे भारत को ज्ञान-योग के क्षेत्रों के समान विज्ञान के क्षेत्र का भी महान् एवं मार्गदर्शक देश बन पाता । इसी प्रकार के तथ्यों के आलोक मे अन्क्षः मेरे गन- मस्तिष्क में यह आन्दोलित होता रहता है कि-यदि मैं वैज्ञानिक होता ?
आत संसार के सागने कई प्रकार की विषम समस्याएँ उपस्थित हैं । बढ़ती आबादी और उसके भरण-पोपण करने वाले संसाधनों के निरन्तर कम होते स्रोत, महँगाई, बेरोजगारी, बेकारी, भूख-प्यास, पानी का अभाव, कम होते ऊर्जा के साधन और निरन्त सूखते जा रहे स्रोत, पर्यावरण का प्रदूषित होना, तरह-तरह के रोगों का फूटना, अधिक वर्षा-बढढ़ या नुखा पड़ने के रूप में प्रकृति का प्रकोप; इस तरह आज के उन्नत और विकसित समझे जाने वाले मानव-समाज के साभने भी नृग्ह-तरह की विषय समस्याएँ उपस्थित हैं ।
यदि मैं वैज्ञानिक होता, तो निश्चय ही इस तरह की समस्याओं से मानवतі को छुटकारा दिलाने के उपाय करने में अपनी सारी प्रतिभा और शक्कि को खर्च कर डालता । आज के अन्य अनेक नैसानिको के समान मारक और पर्यावरण तक को प्रदूषित करके रख देने वाले शस्त्र बनाने के पीछे भागते रह कर अपनी प्रतिभा, शाक्ति, समय और घाव करने में नहीं, बल्कि उन साधनो का दुरुपयोग कभी न करता । मेरा विश्वास पहले से ही अनेक कारणों से दुःखी मानवता के तन पर और घावों के लिए मरहम खोजकर उन पर लगाने में है; ताकि सभी तरह के घाव सरलता से भर सकें।
संसार के सामने आज जो अन्न-जल के अभाव का संकट है, कल-कारखाने चलाने के लिए बिजली या ऊर्जा का संकट है, वैज्ञानिक होने पर मैं इन जैसी अन्य सभी समस्याओं से संघर्ष करने का मोर्चा खोल देता, ताकि मानवता को इस तरह की समस्याओं से निजात दिलाया जा सके । इसी तरह आज विश्व के युवा वर्गों के सामने बेरोजगारी की बहुत बड़ी समस्या उभर कर कई तरह की अन्य बुराइयों की जनक बन रही है । यदि मैं वैज्ञानिक होता, तो इस तरह के प्रयास करता कि रोजगार के अधिक-से-अधिक अवसर सुलभ हो पाते । हर काम करने के इच्छुक को इच्छानुसार कार्य करने का अवसर एवं साधन मिल पाता ।
वैज्ञानिक बन कर मेरी इच्छा नाम, यश और धन कमाने को कतई नहीं है। में तो बस हर सम्भव तरीके से मानवता का उद्धार एवं विस्तार चाहता हूँ। मेरा विश्वास है कि थोड़ा ध्यान देने से आज का पिज्ञान और वैज्ञानिक ऐसा निश्चय ही कर सकते हैं।
यदि मैं डॉक्टर होता
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- पवित्र व्यवसाय
- गाँवों को प्राथमिकता
- कर्तन्य-पालन
- उपसंहार ।
संसार में कई प्रकार के व्यवसाय हैं, उद्योग-धन्धे हैं, नौकरियाँ और कार्य-व्यापार हैं। यों तो सभी का सम्बन्ध मनुष्य के साथ ही हुआ करता है ; पर कुछ कार्य-व्यापार इस तरह के भी हैं कि जिनको स्थिति मानवीय दृष्टि से बड़ी ही संवेदनशील हुआ करती हैं । उसका सीधा सम्बन्ध मनुष्य की भावनाओं, मनुष्य के प्राणों और सारे जीवन के साथ हुआ करता है ।
डॉक्टर का धन्धा कुछ इसी प्रकार का ही पवित्र, मानवीय संवेदनाओं से युक्त, प्राण-दान और जीवन-रक्षा की दृष्टि से ईश्वर के बाद दूसरा, बल्कि कुछ लोगों की दृष्टि में ईश्वर के समान ही हुआ करता है । मेरे विचार में ईश्वर तो केवल जन्म देकर संसार में भेद दिया करता है । उसके बाद मनुष्य-जीवन की रक्षा का सारा उत्तरदायित्व वह डॉक्टरों के हाथ में सौंप दिया करता है । इस कारण अक्सर मेरे मन-मस्तिष्क में यह प्रश्न उठा करता है कि-यदि मैं डाक्टर होता, तो ?
मैंने सुना और पढ़ा है कि भारत के दूर-दराज के देहातों में डॉक्टरी-सेवा का बड़ा अभाव है, जब कि वहाँ तरह-तरह की बीमारियाँ फैलकर लोगों को आतंकित किये रहती है; क्योंकि पढ़े-लिखे वास्तविक डॉक्टर वहाँ जाना नहीं चाहते, इस कारण वहाँ नीम हकीमों की बन आती है या फिर झाड़-फूँक करने वाले ओझा लोग बीमारों का भी इलाज करते हैं ।
इस तरह नीम हकीम और ओझा बेचारे अनपढ़-अर्शिक्षित गरीब देहातियों को उल्लू बना कर दोनों हाथों से लूटा तो करते ही हैं, उनके प्राण लेने से भी बाज नहीं आते और उनका कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं पाता। यदि मैं डॉक्टर होता तो आवश्यकता पड़ने पर ऐसे ही दू-दूराज के देहातों में जाकर लोगों के प्राणों की तरह-तरह की बीमारियों से तो रक्षा करता ही; लोगों को ओझाओं, नीम-हकीमों और तरह-तरह के अन्धविश्वासों से छुटकारा दिलाने का प्रयत्न भी करता ।
यह ठीक है किं डॉक्टर के मन में भी धन-सम्पत्ति जोड़ने जीवन की सभी तरह की सुविधाएँ पाने और जुटाने, भौतिक़ सुख भोगने की इच्छा हो सकती है । लेकिन इसका यह अर्थ तो नहीं कि वह अपने पविन्र कर्त्तव्य को भुलाये । यह सब पाने के लिए बेचारे रोगियों के रोगों पर परीक्षणग करते रह कर दोनों हाथों से उन्हें लूटना और धन बटोरना शुरू कर दे । यदि में डॉक्टर होता, तो इस दृष्टि से न तो क नी सोवता और न व्यवहार ही करता । सभी तरह की सुख सुविधाएँ जाने का प्रयल्न जरूर करता; पर पहले अपने रोगियों कों ठीक करने का उचित निदान कर, उनपर तरह-तरह के परीक्षण करके नहीं कि जैसा आजकल बड़े-बड़े नड्रोधारी डॉंक्टर किया करते हैं।
मैंने निश्चय कर लिया है कि आगे पढ़-लिख कर डॉक्टर ही बनूँगा । डॉक्टर बन कर उपर्युक्त सभी प्रकार के इच्छित कार्य तो करूँगा ही, कुछ लोगों ने अपनी धाँधलेबाजी द्वारा इस पवित्र और सेवाभावी मानवीय पेशे को बदनाम कर रखा है, कलंकित बना दिया है, उस बदनामी और कलंक को धोने की भी हर तरह से कोशिश करूँगा। मेरे विचार में सेवा करके मानव-जाति को स्वस्थ बनाए रखना ही डॉक्टरी पेशे की सबसे बड़ी उपलब्धि है बाकी सभी बातें, सभी तरह के फल और मेवे तो बस आने-जाने हैं ।
यदि मैं सिपाही होता
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- कर्तव्य-पालन
- कलंक धोने का प्रयास
- भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष
- उपसंहार।
पता नहीं क्यों, जब मैं बहुत छोटा था और मैंने पहली बार एक वर्दीधारी सिपाही को देखा था, तो मुझे बहुत ही अच्छा लगा था । जाने-अनजाने तभी मेरे मन-मस्तिष्क में यह इच्छा पैदा हो गई थी कि मैं भी यह वर्दी धारण कर इसी की तरह रोब-दाब वाला दिखाई दूँगा । बनूँगा, तो सिपाही ही बनूँगा फिर मैं जैसे-जैसे बड़ा होता गया, सिपाही और उसके कार्यों के प्रति मेरी जानकारी भी बढ़ती गई। कुछ और बड़ा होने पर जब मैं अपने घर से बाहर आने-जाने लगा, पढ़ाई करते हुए नौवीं-दसवीं कक्ष का छात्र बना; तब सिपाहियों का आम लोगों के साथ किया जाने वाला व्यवहार मुझे चौंका देता ।
मैने पुस्तकों में पढ़ा-सुना तो यह था कि पुलिस के वर्दीधारी सिपाही जनता और उसके धन-माल की सुरक्षा के लिए होते हैं । लोगों को अन्याय-अत्याचार से बचाने के लिए इस महकमें का गठन और सिपाहियों को भर्ती कराया जाता है । लेकिन ये तो अपने वास्तविक कर्त्तव्य और उद्देश्य को भूल कर उलटे आम जनता पर अत्याचार करते हैं। लूट-खसौट में भागीदारी निभाते, रिश्वत लेते और भ्रष्टाचारी अराजक-असामाजिक तत्वों का साथ देकर उहें सजा दिलाने के स्थान पर उनका बचाव करते हैं। साथ ही मेरे मन में एकाएक यह विचार भी अंगड़ाई लेकर जाग उठा करता है कि यदि मैं सिपाही होता, तो- ?
सचमुच, यदि में सिपाही होता तो यह बनने के उद्देश्य की रक्षा करने के लिए सभी तरह के निश्चित-निर्धारित कर्त्तव्यों का पूरी तरह से पालन करता । वर्दी की हर तरह से प्रयत् करके लाज बचाता और जन-सुरक्षा का जो सिपाही का प्रमुख कर्त्वव्य होता है, प्राण-पण की बाजी लगा कर भी उसका सही ढंग से निर्वाह करता । जिन के साथ किसी तरह का अन्याय हो रहा है, अत्याचार किया जा रहा है, उनसब की रक्षा के लिए, उन्हें न्याय दिलवाने के लिए सीना तान कर खड़ा हो जाता। अन्यायियों-अत्याचारियों के कदम कहीं और कभी भी एक क्षण के लिए भी टिकने न देता।
मैं तो जानता और समाचारपत्रों में अक्सर पढ़ता भी रहता हूँ कि आज देश में चारों और चोरी-छिपे नशाखोरी तो बढ़ ही गई है, नशीले पदार्थों का धंधा भी खूब जोर-शोर से फल-फूल रहा है। अवैध और जहरीली शराब खुलेआम बिककर, जहर साबित होकर बेचारे गरीबों की जान ले रही है । शराब-माफिया राजनीतिजों और पुलिस वालों का संरक्षण प्राप्त करके ही यह जानलेवा जहर का धंधा निरन्तर चल रहा है ।
जहरीली शराब पीकर मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है । दूसरी ओर स्मैक, ब्राउन शूगर, हशीश जैसे प्राणघातक नशीले पदार्थों की बिकी भी चल रही है और निस्संदेह प्रसिद्ध और राजनीतिजों की हट पर संरक्षण पाकर चल रही है । यह जानकर ही खुले घमने वाले मौत के इन व्यापारियों पर कोई हाथ नहीं डालता; लेकिन यदि मैं सिपाही होता, तो इन असामाजिक तत्वों के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजा देता।
इस प्रकार स्पष्ट है कि मेरा मन इस प्रकार की बुराइयों, उनके साथ जुड़े लोगों की बातें सुनकर भर उठता है । भभक कर दहक उठता है । यह देखकर दु:ख से भर उठता है कि सब-कुछ जानते-समझते हुए भी समर्थ लोग मचल मार कर अपनी ही मौज-मस्ती में मग्न हैं । यह ठीक है कि मेरे अकेले के करने से कुछ विशेष हो नहीं पाता; लेकिन यदि मैं सिपाही होता, तो अपने कर्त्वव्यनिष्ठ संघर्ष से एकबार सभी की नींद तो अवश्य ही हराम कर देता-काश! मैं सिपाही होता।
यदि मैं पुलिस-अधिकारी होता
रूपरेखा :
- प्रस्तावना
- ईमानदारी से कर्तव्य-पालन
- लोगों की सहायता
- उपसंहार।
वास्तव में आज जो एक पुलिस-अधिकारी होना बड़ी बात समझी जाती है और लोग वैसा बनना चाहते हैं, वह इसलिए कि पुलिस-अधिकारी एक कई प्रकार के अधिकार-प्राप्त एक वर्दीधारी व्यक्ति होता है। सामाजिक-असामाजिक सभी तरह के तत्व उससे खूब दबते और उसका मान-सम्मान करते हैं। मोटी तनख्वाह के साथ-साथ उसकी दस्तूरी या ऊपर की आमदनी भी काफी मोटी होती है । यों असामाजिक तत्व उसे अपनी जेब में लिये घूमा करते हैं, पर प्रत्येक असामाजिक या अनैतिक कार्य से होने वाली आय का एक निश्चित हिस्सा नियमपूर्वक उसके पास पहुँचता रहता है।
लेकिन नहीं, मेरे मन में पुलिस-अधिकारी बनने की बात तो बार-बार आती है; पर उसके पीछे ऊपर बताया गया कोई कारण कतई नहीं है । मैं अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर सुविधा: सम्पन्न व्यक्ति कदापि नहीं बनना चाहता। इसके साथ यह भी नहीं चाहता कि अराजक और गुण्डा-तत्व मुझे अपनी जेब में समझ या मान कर छुट्टे घूमते रहकर जन-जीवन को आतंकित करते फिरें । माफिया तत्व नशे के नाम पर जहर और मौत बेचकर अपनी आय का एक नियिमित हिस्सा मेरे घर पहुँचाते रहें ।
सच, यदि मैं पुलिस-अधिकारी होता तो कम-से-कम अपने अधिकार क्षेत्र में तो ऐसा कुछ भी नहीं होने देता। आज पुलिस के महकमे पर कर्त्तव्यहीनता, आम जनों की अपेक्षा अराजक तत्वों को संरक्षण देने, अन्याय-अत्याचार को बढ़ने देने, जन-आक्रोश के समय संयम और बुद्धिमत्तासे काम न लेने, प्रदर्शन कर रहे जन-समूह पर बिना प्रयोजन ओर बिना चेतावनी दिए हुए, मात्र प्रतिक्रियावादी बन कर बदले की भावना से लाठी-गोली चलवा देने, निरीह स्त्रियों के साथ बलात्कार करने, निरपराध लोगों को थाने में बन्द करवा छोड़ने के लिए रिश्वत माँगने और न दे पाने पर झूठमूठ के अपराध कबूलवाने के लिए थर्ड डिग्री का प्रयोग करने, बनावटी मुठभेड़ दिखा कर बेगुनाह लोगों को मार डालने, जैसे जाने कितनी प्रकार की शिकायतें की जाती हैं, मुझे पता है कि उनमें पूर्णतया सच्चाई हैं। अत: यदि मैं पुलिस-अधिकारी बन जाऊँ, तो लगातार परिश्रम करके, उचित-अनुचित का ध्यान रख और विवेक से काम लेकर इस प्रकार की सभी शिकायतों को अवश्य ही जड़-मूल से मिटा देता ।
आजकल अक्सर होता क्या है कि पुलिस की वर्दी पहनते ही आदमी अपने-आप को खुदा, बाकी लोगों से अलग और जनता का स्वामी मानने लगता है; फिर चाहे वह वर्दी थाने के चपरासी या आम सिपाही की ही क्यों न हो । मैं यदि पुलिसअधिकारी होता; तो इस हीनता-ग्रंथी को, इस प्रवृत्ति को जड़-मूल से ही उखाड़ फेंकता। पुलिस में आने वाले प्रत्येक छोटे-बड़े व्यक्ति को यह व्यावहारिक रूप से अच्छी तरह समझने का प्रयत्न करता कि वर्दी पहन लेने वाला व्यक्ति न तो विशिष्ट हो जाता है और न अन्य सामाजिक प्राणियों से अलग ही । पुलिस में होना उसी प्रकार की जन-सेवा का कार्य है जैसा कि किसी अन्य महकमें का हुआ करता है ।