WBBSE Class 10 History Solutions Chapter 3 प्रतिरोध और आन्दोलन : विशेषताएँ एवं निरीक्षण

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WBBSE Class 10 History Chapter 3 Question Answer – प्रतिरोध और आन्दोलन : विशेषताएँ एवं निरीक्षण

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर (Very Short Answer Type) : 1 MARK

प्रश्न 1.
‘उलगुलान’ का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
‘उलगुलाम’ कोल भाषा परिवार का शब्द है, जिसका तात्पर्य है महान हलचल (भारी उथल-पुथल)।

प्रश्न 2.
सन्यासी विद्रोह के एक नेता का नाम लिखें।
उत्तर :
भवानी पाठक।

प्रश्न 3.
फकीर विद्रोह कहाँ हुआ था ?
उत्तर :
बंगाल में।

प्रश्न 4.
फकीर विद्रोह कब शुरु हुआ था ?
उत्तर :
सन् 1776 ई० में।

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प्रश्न 5.
फराजी आन्दोलन कहाँ हुआ था ?
उत्तर :
बंगाल के फरीदपुर जिला में।

प्रश्न 6.
फराजी आन्दोलन कब प्रारम्भ हुआ था ?
उत्तर :
सन् 1820 ई० में।

प्रश्न 7.
दुधू मियाँ का वास्तविक नाम क्या था ?
उत्तर :
मोहम्मद मोहसिन।

प्रश्न 8.
वहाबी आन्दोलन की शुरूआत कब हुई थी ?
उत्तर :
सन् 1831 ई० में।

प्रश्न 9.
वहाबी आन्दोलन कहाँ हुआ था ?
उत्तर :
बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश आदि में। (नोट :- यह आन्दोलन सर्वप्रथम अरब में हुआ था।)

प्रश्न 10.
‘नील आयोग’ (Indigo Commission) का गठन किसने किया था ?
उत्तर :
अंग्रेजी सरकार ने।

प्रश्न 11.
‘नील आयोग’ का गठन किसलिए किया गया था ?
उत्तर :
नील की खेती संबंधित जाँच के लिए।

प्रश्न 12.
पाबना विद्रोह कब शुरू हुआ ?
उत्तर :
1873 ई० में।

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प्रश्न 13.
पाबना विद्रोह कहाँ हुआ था ?
उत्तर :
बंगाल का पाबना जिला, (जो अब बंगलादेश का अंश बन चुका है।)

प्रश्न 14.
कोल विद्रोह की समाप्ति कब हुई ?
उत्तर :
सन् 1832 ई० में।

प्रश्न 15.
रंगपुर विद्रोह कब हुआ था ?
उत्तर :
सन् 1783 ई० में।

प्रश्न 16.
‘नील आयोग’ का गठन कब हुआ ?
उत्तर :
सन् 1860 ई० में।

प्रश्न 17.
पाबना विद्रोह किस प्रकार का विद्रोह था ?
उत्तर :
यह विद्रोह एक किसान विद्रोह था।

प्रश्न 18.
बंगाल में ‘प्रजास्वत्व कानून’ कब पारित हुआ ?
उत्तर :
सन् 1885 में।

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प्रश्न 19.
मुण्डा विद्रोह किस प्रकार का विद्रोह था ?
उत्तर :
जनजातीय प्रकार का विद्रोह।

प्रश्न 20.
भील विद्रोह किस प्रकार का विद्रोह था ?
उत्तर :
जनजातीय प्रकार का विद्रोह था।

प्रश्न 21.
मुण्डा विद्रोह किसके विरुद्ध शुरू हुआ था ?
उत्तर :
बिटिश शासन के विरुद्ध ।

प्रश्न 22.
‘रंगपुर विद्रोह’ किसके विरुद्ध शुरू हुआ ?
उत्तर :
जमींदार देवी सिंह के विरुद्ध।

प्रश्न 23.
संन्यासी विद्रोह किस प्रकार का विद्रोह था ?
उत्तर :
धार्मिक प्रकृति का।

प्रश्न 24.
फकीर विद्रोह की समाप्ति कब हुई ?
उत्तर :
सन् 1777 ई० में।

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प्रश्न 25.
फराजी आन्दोलन कब समाप्त हुआ था ?
उत्तर :
सन् 1860 ई० में।

प्रश्न 26.
वहाबी आन्दोलन किस प्रकार का आन्दोलन था ?
उत्तर :
धार्मिक व कृषक आन्दोलन।

प्रश्न 27.
वहाबी आन्दोलन की शुरूआत कब हुई ?
उत्तर :
सन् 1831 ई० में।

प्रश्न 28.
तीतूमीर का वास्तविक नाम क्या था ?
उत्तर :
मीर निसार अली।

प्रश्न 29.
पागलपंथी विद्रोह किस प्रकार का विद्रोह था ?
उत्तर :
अर्द्ध धार्मिक व कृषक विद्रोह था।

प्रश्न 30.
रम्पा विद्रोह की समाप्ति कब हुई ?
उत्तर :
सन् 1880 में।

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प्रश्न 31.
‘गुण्डा धुर’ कौन थे ?
उत्तर :
गुण्डा धुर बस्तर विद्रोह के नेता थे।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर (Short Answer Type) : 2 MARKS

प्रश्न 1.
सन्यासी-फकीर विद्रोह असफल क्यों हो गया ?
उत्तर :
कमजोर संगठन व नेतृत्व धन की कमी, साम्पदायिकता के कारण एकता का अभाव, अंग्रेजों की संगठित सैन्य नीति तथा क्रुरता पूर्वक दमनात्मक कार्यवाही के कारण सन्यासी-फकीर विद्रोह असफर्ल हो गया।

प्रश्न 2.
नील विद्रोह में इसाई मिशनरियों की क्या भूमिका थी ?
उत्तर :
नील विद्रोह में इसाई मिशनरियों ने सक्रीय भूमिका निभाई। उन्होंने इस आन्दोलन का समर्थन किया। चर्च मिशनरी के पादरी रेवरेंड जेम्स लॉग नीलदर्पण नाटक को पढ़कर बहुत द्रवित (भावुक) हुए और उन्होंने नीलदर्पण का अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित किया। इसके लिए उन्हें एक महीने की जेल की साजा काटनी पड़ी।

प्रश्न 3.
दूधू मियाँ को क्यों याद किया जाता है ?
उत्तर :
फराजी आन्दोलन के प्रमुख नेता दूधू मियाँ ने बगांल में जंमीदारों, महाजनों, नीलहे साहबों, नील व्यापारियों के अत्याचार एवं शोषण के खिलाफ समाज को संगठित कर आन्दोलन शुरू किया। वे प्रचालित कर की दर तथा गैर-कानूनी कर वसूली के विरुद्ध जनमत को जागृत किया, और कहा कि जिस भूमि पर खेती करते हैं वह हमारी है। उन्होंने कई स्थानों पर अपनी प्रशासनिक व्यवस्था शुरू की थी। इसी संघर्ष के लिए दूधू मियाँ को भारतीय इतिहास में याद किया जाता है।

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प्रश्न 4.
नील विद्रोह में हरीश्चन्द्र मुखोपाध्याय की क्या भूमिका थी ?
उत्तर :
हिन्दू पैट्रियॉट पत्रिका के सम्पादक हरीश चन्द्र मुखर्जी नीलकर साहबों के शोषण एवं अत्याचार को अपने समाचार पत्र में विस्तार के साथ छापते थे। इस तरह उन्होंने नीलहे साहबों के अत्याचार के विरुद्ध शिक्षित मध्यमवर्गीय समाज को संगठित एवं जागरूक बनाने का प्रयास किया।

प्रश्न 5.
कोल विद्रोह का क्या कारण था ?
उत्तर :
अंग्रेजों द्वारा कोलों से उनकी साफ की गई जंगल की जमीन की सिक्ख तथा मुसलमानों को अधिक लगान पर देने के कारण कोल विद्रोह हुआ था।

प्रश्न 6.
क्या फराजी आन्दोलन धर्म पुर्नजागरण आन्दोलन था ?
उत्तर :
फराजी आन्दोलन इस्लाम में बाहर से आयी कुरीतियों को दूर कर इस्लाम के मौलिक स्वरूप को स्थापित करने के उद्देश्य से शुरू किया गया एक धार्मिक पुनर्जागरण आन्दोलन था। अत: इसे धर्म पुनर्जागरण आन्दोलन कहा जा सकता है।

प्रश्न 7.
नीलक नील की खेती करने वालों के ऊपर किस प्रकार का अत्याचार करते थे ? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर :
नीलक नील की खेती करने वालों को जबरदस्ती अग्रिम धन देकर नील की खेती करवाते थे, तथा लागत से कम कीमत पर खरीदते थे। इन्कार करने पर उन्हें, तथा उनके बीबी बच्चों बहू-बेटियों को शारीरिक यातना देते थे। उनके फसल तथा घरों को जला देते थे। इस प्रकार वे अमानवीय अत्याचार करते थे।

प्रश्न 8.
क्रान्ति से तुम क्या समझते हो ?
उत्तर :
अधिकार एवं संगठनात्मक संरचना में होने वाला एक मूलभूत परिवर्तन जो अति अल्प समय में ही घटित होता है, क्रान्ति कहलाता है। क्रांति के उदाहरण हैं 18 वीं शताब्दी की यूरोप की औद्योगिक कांति, जुलाई की क्रांति, फरवरी क्रांति तथा फ्रांसीसी क्रांति आदि ।

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प्रश्न 9.
मुंडा विद्रोह का मुख्य उद्देश्य क्या था ?
उत्तर :
मुण्डा विद्रोह का मुख्य उद्देश्य दिकुओं के शेषण व अत्याचार से मुक्ति पाना, ईसाईयों धर्म-प्रचारकों से अपने धर्म की रक्षा करना था।

प्रश्न 10.
मुण्डा विद्रोह की दो विशेषताओं का उल्लेख करो।
उत्तर :
1899 ई० में शुरू हुए मुण्डा विद्रोह की दो विशेषताएँ निम्नलिखित थी –
(i) यह दिकुओं के विरुद्ध एक संगठित जन जाति विद्रोह था।
(ii) इस विद्रोह में आदिवासी महिलाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था।

प्रश्न 11.
नील विद्रोह का सर्मथन करने वाले एक समाचार पत्र तथा एक नाद्य पुस्तक का नाम लिखिए।
उत्तर :
नोल विद्रोह का सर्मथन करने वाला एक समाचार पत्र का नाम “हिन्दू पेट्रियाट” तथा नाट्य पुस्तक “नील दर्पण” है।

प्रश्न 12.
दिकू से आप क्या समझते है ?
उत्तर :
संथाल परगना के आदिवासी क्षेत्रों में मैदानी भागों से आकर रहने वाले सेठ, साहुकार महाजन, ठेकेदारों अर्थात बाहरी लोगों को संथाली दिक कहते थे।

प्रश्न 13.
युवा बंगाल क्या है ?
उत्तर :
देरेजियों के अनुयायी को यंग या युवा बंगाल कहा जाता था। राम गोपाल घोष, कृष्ण मोहन बनर्जी, दक्षिणा रंजन मुखर्जी आदि उनके शिष्य थे।

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प्रश्न 14.
चुआड़ (चुआर) कौन थे ?
उत्तर :
चुआड़ एक आदिम जाति है, जो बंगाल के मिदनापुर तथा बांकुड़ा जिले के जंगल महल क्षेत्र में रहते थे। जहाँ पर ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भूमि कर (Land Tax) अत्यधिक बढ़ा दिया था। चुआड़ जाति के लोग ब्रिटिश सरकार से छुटकारा चाहते थे। अत: रायपुर के एक विद्रोही जमींदार ‘दुर्जन सिंह’ ने सन् 1798 में उन चुआड़ जाति के लोगों द्वारा की जाने वाली चुआड़ विद्रोह का नेतृत्व किया।

प्रश्न 15.
भगनाडिह का मैदान यादगार क्यों है ?
उत्तर :
भग्नाडिह का मैदान इसलिए यादगार है क्योंकि सिद्ध एवं कानू के नेतृत्व में होने वाला संथाल विद्रोह का प्रमुख केन्द्र था।

प्रश्न 16.
संथाल विद्रोह एवं कोल विद्रोह के दो नेताओं के नाम बताओ।
उत्तर :
संथाल विद्रोह के दो नेता सिद्धू एवं कानू थे, तथा कोल विद्रोह के नेताओं में बुद्दू भगत, केशव भगत एवं मदारी महतो आदि प्रमुख थे।

प्रश्न 17.
नील विद्रोह के दो नेताओं के नाम बताओ।
उत्तर :
नील विद्रोह के दो नेताओं का नाम ‘दिगम्बर विश्षास’ और ‘विष्णु चरण विश्चास’ था।

प्रश्न 18.
बारासात विद्रोह क्या है ?
उत्तर :
तीतूमीर ने अपने 600 समर्थकों को लेकर बारासात के पास नारकेलबेरिया में बाँस का एक किला बनवाया जहाँ पर देखते ही देखते, जमीन्दारों एवं पूँजीपती वर्ग द्वारा सताये गये लोगों को (लगभग 6000 लोग) तीतूमीर ने अपने साथ जोड़ लिया और उन्हें अस्त्र-शस्त्र का प्रशिक्षण देने लगा। तीतूमीर एवं उनके अनुयायिओं ने सन् 1831 में बारासात के पास अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इसी विद्रोह को ‘बारासात विद्रोह’ कहा जाता है।

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प्रश्न 19.
बिरसा मुण्डा कौन था ?
उत्तर :
बिरसा मुण्डा, मुण्डा जन-जाति विद्रोह का नेता था, जिसने 899 ई॰ में दिकुओं और अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया था।

प्रश्न 20.
मुहम्मद मोहसिन कौन थे ?
उत्तर :
मुहम्मद मोहसिन हाजी शरीयतुल्ला का पुत्र तथा फराजी आंदोलन के नेता थे। ये दुधू मियाँ के नाम से प्रसिद्ध थे।

प्रश्न 21.
पाबना के किसान आंदोलन के दो विशेषताएँ बताओ।
उत्तर :
विशेषताएँ : (i) किसानों द्वारा बड़े पैमाने पर चलाये गये आंदोलन के बावजूद हिंसक वारदाते नाममात्र ही हुई। (ii) इस क्षेत्र के किसान मुख्य रूप से मुसलमान थे लेकिन अंग्रेजों एवं जमींदारों ने इसे सांप्रदायिक दंगे का नाम दिया ।

प्रश्न 22.
हाजी शरीयतुल्ला कौन थे ?
उत्तर :
हाजी शरीयतुल्ला फराजी आन्दोलन के जन्मदाता थे। इन्होंने 1804 ई० में फराजी नामक धार्मिक सम्प्रदाय की स्थापना की।

प्रश्न 23.
‘तारीक-ए-मुहम्मदिया’ आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य क्या था ?
उत्तर :
‘तारीक-ए-मुहम्मदिया’ आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य ‘काफिरों के देश’ (दारूल हर्ब) को मुसलमानों का देश (दारूल इस्लाम) में बदलना था।

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प्रश्न 24.
तीतूमीर कौन था ?
उत्तर :
तीतूमीर सैख्यद अहमद के अनुयायी तथा बंगाल में वहाबी आन्दोलन का नेता था।

प्रश्न 25.
‘मिदनापुर की लक्ष्मीबाई’ के नाम से किसे जाना जाता था, और वह किस आदिवासी विद्रोह से जुड़ी हुई थी ?
उत्तर :
‘मिदनापुर की लक्ष्मीबाई’ के नाम से रानी शिरोमणी को जाना जाता है। वे चुआड़ विद्रोह से जुड़ी हुई थी।

प्रश्न 26.
संन्यासी विद्रोह के दो नेताओं के नाम बताइए।
उत्तर :
भवानी पाठक और देवी चौधुरानी।

प्रश्न 27.
डाहर (Dahar) का क्या अर्थ है ? सिद्ध-कान्हू डाहर कहाँ स्थित है ?
उत्तर :
डाहर का अर्थ रास्ता (Street) होता है। कलकत्ता के एस्लानेड रोड (Esplanade Row) को सिद्धू-कान्हू डाहर नाम दिया गया है।

प्रश्न 28.
रंगपुर विद्रोह कब और क्यों हुआ था ?
उत्तर :
यह विद्रोह 1783 ई० में अत्याचारी जमींदार देबी सिंह के विरुद्ध किया गया था क्योंकि उसने एक निश्चित राजस्व पर जमीन कम्पनी से लेकर किसानों को रैयत के रूप में जमीन देकर उनसे मनमाना भू-राजस्व वसूलता था जिससे किसानों के भीतर उसके प्रति असंतोष की भावना बढ़ने लगी जो अन्त में विद्रोह का कारण बना।

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प्रश्न 29.
औपनिवेशिक वन (अरण्य) कानून क्या है ?
उत्तर :
भारतीय वनों पर ब्रिटिश आधिपत्य हासिल करने के लिए 1865 ई० में एक कानून बनाया गया, जिसे औपनिवेशिक वन (अरण्य) कानून – 1865 (Colonial Forest Act- 1865) कहा जाता है। इस कानून व्यवस्था में आदिवासियों का आस्था नहीं था।

प्रश्न 30.
‘नील दर्पण’ (Nil Darpan) किसका नाटक है और इसकी विषय-वस्तु क्या है ?
उत्तर :
‘नील दर्पण’ (Nil Darpan) ‘दीनबंधु मित्र’ का नाटक है तथा इसमें नील की खेती करने वाले किसानों पर नीलहे गोरे द्वारा किये गये अत्याचार को दिखाया गया है।

प्रश्न 31.
‘तिसाला’ क्या था ?
उत्तर :
‘तिसाला’ एक नये प्रकार का भूमि कर (Land Tax) था, जो राजस्थान में आदिवासी भीलों के ऊपर लगाया गया था। जिसके प्रतिवाद में भील विद्रोह हुआ था।

प्रश्न 32.
नील विद्रोह की दो विशेषताएँ बताओ।
उत्तर :
विशेषताएँ : (i) यह विद्रोह अंग्रेजी प्रशासन के खिलाफ एक किसान विद्रोह था।
(ii) इस विद्रोह में प्रथम बार देखा गया कि नीलहे किसानों के साथ मध्यम वर्ग एवं जमींदार वर्गों ने भी भाग लिया।

प्रश्न 33.
राजा नीलमणि सिंह देव कौन थे ?
उत्तर :
राजा नीलमणि सिंह देव पंचेत क्षेत्र के जमींदार थे। उन्होंने संथाल विद्रोहियों की भरपूर मद्द की थी। अंग्रेज सेनाओं ने राजा को गिरफ्तार कर कारागार में डाल दिया था।

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प्रश्न 34.
संन्यासी एवं फकीर विद्रोह से क्या समझते है ?
उत्तर :
सरकार ने संन्यासियों के तीर्थयात्रा जाने एवं मनाने पर रोक लगा दिया। इससे संन्यासी लोग बहुत क्षुब्ध हुए। अन्याय के विरुद्ध संन्यासियों के लड़ने की परम्परा थी और उन्होंने जनता से मिलकर कम्पनी की कोठियों तथा कोषों पर आक्रमण किए और कम्पनी के सैनिकों के विरुद्ध बहुत वीरता से लड़े।
फकीर विद्रोह, फकीरों द्वारा किया गया एक आन्दोलन था, जो सन् 776 से लेकर 1777 ई० के बीच बंगाल में हुआ था। घुमक्कड़ जाति के लोगों को फकीर माना जाता है, जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर घुमते हैं तथा अपना जीवन-यापन किया करते हैं।

प्रश्न 35.
ब्रिटिश सरकार ने वन अधिनियम क्यों पारित किया ?
उत्तर :
वन के प्रयोग और वन की सम्पदा पर सरकारी नियंत्रण और इजारेदारी की स्थापना का कार्य लार्ड डलहौजी के समय में आरम्भ किया गया और इसी उद्देश्य से वन कानून को 1865 ई० में पारित किया गया। 1878 ई० में दूसरा कानून बनाकर सरकार ने अपने अधिकारों के क्षेत्र को बढ़ा लिया।

प्रश्न 36.
विद्रोह से तुम क्या समझते हो ?
उत्तर :
प्रर्चलित व्यवस्था में परिवर्तन की माँग को लेकर जन समुदाय द्वारा आन्दोलन करना विद्रोह कहलाता है। विद्रोह अल्पकालीन या दीर्घकालीन हो सकता है। विद्रोह व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों हो सकते हैं। ब्रिटिश शासन काल में घटित रंगपुर विद्रोह, पावना विद्रोह, नील विद्रोह तथा सिपाही विद्रोह आदि विद्रोह के उदाहरण हैं।

प्रश्न 37.
दुर्जन सिंह कौन थे ?
उत्तर :
दुर्जन सिंह चुआड़ विद्रोह के प्रमुख नेता थे। 1798 ई० में अपने 1500 चुआड़ आदिवासी समर्थकों के साथ दुर्जन सिंह ने मिदनापुर के राजपुर परगना के 30 गाँवों पर अधिकार कर कम्पनी के दफ्तर पर धाबा बोल दिया। यद्यपि अंग्रेजों ने चुआड़ विद्रोहियों को पराजित कर दिया लेकिन शालबनी में चुआड़ों ने अंग्रेज छावनी को नष्ट कर दिया।

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प्रश्न 38.
पाइक कौन थे ? अंग्रेजी शासन के विरुद्ध इन लोगों ने चुआड़ों का साथ क्यों दिया ?
उत्तर :
बाँकुड़ा तथा मिदनापुर में पाइक जनजाति का आदि निवास स्थान था। भुगल काल में इन पाइकों को इस क्षेत्र में शान्ति स्थापना का कार्य दिया गया था। लेकिन अंग्रेजी शासन में इन पाइको को नौकरी से निकाल दिया। नौकरी से निकाल दिया गया। अत: अंग्रेजी शासन से नाराज इन पाइकों ने चुआड़ों का साथ दिया।

प्रश्न 39.
पाइक कौन थे ? अंग्रेजी शासन के विरुद्ध इन लोगों ने चुआड़ों का साथ क्यों दिया ?
उत्तर :
बाँकुड़ा तथा मिदनापुर में पाइक जनजाति का आदि निवास स्थान था। मुगल काल में इन पाइको को इस क्षेत्र में शान्ति स्थापना का कार्य दिया गया था। लेकिन अंग्रेजी शासन में इन पाइको को नौकरी से निकाल दिया गया। अत: अंग्रेजी शासन से नाराज इन पाइकों ने चुआड़ों का साथ दिया।

प्रश्न 40.
देवीसिंह कौन था ?
उत्तर :
देवीसिंह रंगपुर का एक इजारदार था। हेस्टिंग्स द्वारा भूमि राजस्व बढ़ाने से उत्साहित देवीसिंह ने जमींदार और साधारण लोगों पर अधिक कर लगा दिया। समय पर कर न देने वालों पर अमानुषिक अत्याचारों के साथ जमीन के अधिकार से भी वंचित करने लगा। अत: 18 जनवरी, 1783 ई० को नुरुलद्दीन के नेतृत्व में रंगपुर के किसानों ने देवीसिंह के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।

प्रश्न 41.
मजनू शाह कौन थे ?
उत्तर :
मजनू शाह एक सूफी सन्त थे जिनके नेतृत्व में 1763 ई० में फकीर आन्दोलन शुरू हुआ। अपने समर्थकों के साथ मजनू शाह ने सन्यासी आन्दोलन में भाग लिया। 1786 ई० में इन्होंने पूर्वी तथा उत्तरी बंगाल पर आक्रमण की योजना बनायी। कालेश्वर के युद्ध में घायल मजनू शाह की 1787 ई० में मृत्यु हो गयी।

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प्रश्न 42.
मूसा शाह कौन थे ?
उत्तर :
मूसा शाह, मजनू शाह के प्रमुख सहायक और फकीर आन्दोलन के प्रमुख नेता थे। 1786 ई० में इन्हीं के नेतृत्व में मजनू शाह ने पूर्वी तथा उत्तरी बंगाल पर आक्रमण करने की योजना बनायी थी।

प्रश्न 43.
करीम शाह कौन थे ?
उत्तर :
बंगाल के प्रकृतिवादी पागलपंथियों ने करीम शाह के नेतृत्व में जमीन तैयार किया जिनका समाज पर काफी प्रभाव था। करीम शाह की शिक्षाएँ सुफी तथा हिन्दु दर्शन से प्रभावित थीं जिसमें स्थानीय रीति-रिवाज, परम्परा और धार्मिक मान्यताओं को काफी महत्व दिया गया। सभी मनुष्य को समान मानकर करीमशाह और उनके समर्थक लोगों को ‘भाई साहब’ कहकर सम्बोधित करते थे।

प्रश्न 44.
चाँद बीबी क्यों प्रसिद्ध हैं ?
उत्तर :
पागलपंथी विचारधारा के प्रसार में करीम शाह की पत्नी चाँद का भी महत्वपूर्ण स्थान है। 1813 ई० में करीम शाह की पत्नी चाँद बीबी का भी समाज पर काफी प्रभाव था। लोग इन्हें अम्मा जी या पीर माता कहकर पुकारते थे।

प्रश्न 45.
खुटकटि व्यवस्था से क्या समझते है ?
उत्तर :
छोटानागपुर पठारी क्षेत्र में निवास करने वाले मुण्डा जाति के आदिवासी लोगों की सामुहिक कृषि को खुटकटि कहा जाता था। इस व्यवस्था के अर्त्तगत मुण्डा लोग अपने क्षेत्र की भूमि पर मिल-जुलकर खेती करते थे, और उससे होने वाले उत्पादन को अपनी आवश्यकता के अनुसार बाँट लेते थे।

प्रश्न 46.
किस आन्दोलन को वलीउलाह आन्दोलन कहा जाता है और क्यों ?
उत्तर :
वहाबी आन्दोलन को वलीउल्लाह आन्दोलन भी कहा जाता है क्योंकि भारत में इस आन्दोलन की शुरूआत दिल्ली के शाह वलीउल्लाह ने अरब के अब्दुल वहाब आन्दोलन से प्रभावित होकर शुरू किया था। इसीलिए इस आन्दोलन को वलीउल्लाह आन्दोलन कहा जाता है।

प्रश्न 47.
नामधारी आन्दोलन क्या था ? इस आन्दोलन की प्रकृति क्या थी ?
उत्तर :
1840 ई० में सियान साहिब (भगत जवाहर मल) के नेतृत्व में सिख धर्म में फैली सामाजिक व धार्मिक बुराईयों को दूर करने के लिए जो आन्दोलन शुरू किया था। उसे कूका आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। 1872 ई० में इस आन्दोलन का नेतृत्व ‘गम सिंह द्वारा किया गया। तब इस आन्दोलन को नामधारी आन्दोलन के नाम से जाना जाने लगा।

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प्रश्न 48.
भारतीय वन अधिनियम कब पास हुआ और इसका सबसे अधिक प्रभाव किसके ऊपर पड़ा ?
उत्तर :
सन् 1865 में तत्कालीन वायसराय सर जॉम्सो द्वारा भारतीय वन अधिनियम पास किया गया, इस अधिनियम द्वारा देश के सम्पूर्ण वनों पर ब्रिटिश सरकार का अधिकार स्थापित हो गया। वनों की गलत कटाई और कुमरी या झूम या स्थान्तरित कृषि पर रोक लग गया। इस कानून का सबसे अधिक प्रभाव देश के जंगलों में रहने वाली विभिन्न जंगली जाती के आर्थिक दशा पर पड़ा।

प्रश्न 49.
ऊलगुलान या उलुगखनी विद्रोह से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
1900 ई० में राँची के दक्षिण भाग में विरसा मुण्डा के नेतृत्व में हुए महान विद्रोह को ही उलगुलान (महान हलचल) विद्रोह कहा जाता है। इस विद्रोह में महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, इस कारण इसे उलगखनी विद्रोह भी कहा जाता है।

प्रश्न 50.
क्रान्ति, विद्रोह और उपद्रव किस प्रकार एक दूसरे से भिन्न हैं ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सम्पूर्ण व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन के लिए देश की अधिकांश जनता द्वारा संगठित रूप से कियां गया वृहद आन्दोलन का रूप क्रान्ति कहलाता है। यह हिंसक और अहिंसक किसी भी प्रकार की हो सकती है, इसका परिणाम दूरगामी और प्रभावशाली होता है। जैसे – औद्योगिक क्रांति (अहिंसक), रूसी क्रान्ति (हिंसक) इत्यादि।
विद्रोह : जब किसी व्यवस्था के खिलाफ अधिकांश लोग संगठित रूप से विरोध करते हैं, तो उसे विद्रोह कहते हैं। यह क्रान्ति और उपद्रव के बीच का व्यवस्था परिवर्तन वाला आन्दोलन है। जैसे – नील विद्रोह, पावना विद्रोहह इत्यादि।
उपद्रव : जब सरकार या किसी व्यवस्था के खिलाफ समाज के कुछ जाति और वर्ग के लोगों द्वारा परिवर्तन के लिए किया जाने वाला प्रयास उपद्रव या प्रजाक्षोभ कहलाता है। यह छोटे स्तर पर छोटी-छोटी माँगों के लिये किया जाता है, माँग पूरा होने के साथ इसका उद्देश्य समाप्त हो जाता है। जैसे – कोल उपद्रव, चुआड़ उपद्रव इत्यादि।

प्रश्न 51.
‘फराजी’ और ‘वहाबी’ शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर :
‘फराजी’ का अर्थ – अल्लाह या ईश्वर का सेवक और ‘वहाबी’ का अर्थ – पुर्नजागरण है।

प्रश्न 52.
दारूल हर्व एवं दारूल इस्लाम का क्या अर्थ है ?
उत्तर :
1. ‘दारूल हर्व’ अरबी भाषा का शब्द हैं, जिसका अर्थ है, काफिर या शत्रु का देश।
2. दारूल इस्लाम का अर्थ है, इस्लाम का देश अर्थात् इस्लाम के अनुयायियों के निवास करने लायक भूमि।

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प्रश्न 53.
‘दामिन-ए-कोह’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
‘दामिन-ए-कोह’ संथाली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है, संथालों की घनी आबादी का क्षेत्र। संथाल परगना में संथाल आदिवासी जंगलों को साफ करके उस क्षेत्र में घनी आबादी या बस्ती बनाकर निवास करते थें, तो वे अपनी निवास भूमि को ‘दामिन-ए-कोह’ कहते थें।

प्रश्न 54.
भील विद्रोह कब, कहाँ, क्यों और किसके नेतुत्व में किया गया था ?
उत्तर :
1820 ई० में गुजरात में महाराष्ट्र के खान देश में निवास करने वाले भील आदिम जाति के लोगों ने अंग्रेज सरकार और देशमुखों के शोषण के विरूद्ध अपनी स्वतंत्रता के लिए विद्रोह किया था
यह आन्दोलन दशरथ माँझी और काजल सिंह के नेतृत्व में हुआ था।

प्रश्न 55.
खाँसी विद्रोह कब, कहाँ, क्यों और किसके नेतृत्व में हुआ था ?
उत्तर :
1828-1833 ई० के बीच में मेघालय क्षेत्र के खाँसी जनजाति के लोगों ने उस क्षेत्र में ब्रिटिश सरकार द्वारा सड़क निर्माण करने के विरोध में तीरथ सिंह और मुकुन्द सिंह के नेतृत्व में खाँसी विद्रोह हुआ था। जिसे कुछ शर्तों के साथ इस आन्दोलन को अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा।

प्रश्न 56.
ठगी प्रथा क्या थी और इसे किसने समाप्त किया ?
उत्तर :
19 वीं शताब्दी में उत्तर भारत और मध्य भारत में कुछ लोग राह चलते हुए धनी लोगों, व्यापारियों, यात्रियों को धांखा देकर उनकी सम्प्ति को ठग लेते थें, और जान से मार देते थें। राह चलते इसी सामाजिक अपराध को ठगी प्रथा कहा जाता था। जिसे 1835 ई० में लाई विलियम बेंटिक ने समाप्त किया था।

प्रश्न 57.
अंग्रेजो के शासनकाल में भारतीय जंगलों के बड़े पैमाने पर काटे जाने के क्या कारण थे।
उत्तर :
बिंटिश भारत में भारतीय जंगलों के बड़े पैमाने पर काटे जाने का मूल कारण भारत में रेलवे का विकास करना, चाय एवं कहवा के बगानों को लगाने, जहाज निर्माण के लिए, फर्नीचर एवं भवन समाग्री में लकड़ी की जरूरतों को पूरा करने के लिए जंगलों का बड़े पैमाने पर कटाव हुआ।

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प्रश्न 58.
1871 ई० के अपराधिक जनजाति कानून क्या था ?
उत्तर :
1871 ई० में अंग्रेजों ने जंगल में निवास करने वाले आदिम जातियों, चरवाहों, बंजारो आदि जातियों का वनों पर से उनका पारम्परिक अधिकार छीनने के लिए और उनका दमन करने के लिए जो कानून पास किया था। उसे ही अपराधिक जनजाति कानून कहा जाता था।

प्रश्न 59.
केनाराम और बेचाराम क्या था ?
उत्तर :
केनाराम और बेचाराम सेठ, साहूकार, महाजन, बनिया आदि द्वारा वस्तुओं को खरीदने और बेचने के लिए प्रयोग किये जाने वाले बटरखरा या एक माप था।
जब महाजने संथालियों या आदिमजाति से अनाज खरीदते थें, तो केनाराम बटखरा का उपयोग करते थें, जो वास्तविक वजन से थोड़ा भारी होता है, उसे केनाराम बटखरा कहा जाता था, और जब वे संथालियों को अनाज व सामान बेचते थें, तो बंचाराम बटखरा का उपयोग करते थें, जिनका वजन सामान्य वजन से कम होता था, उसे बेचाराम बटखरा कहा जाता था।

प्रश्न 60.
अंग्रेजी न्याय-व्यवस्था संथाल विद्रोह का कारण कैसे बनी ?
उत्तर :
अंग्रेजी न्याय-व्यवस्था सदैव अत्याचारियों व शोषणकताओं का संरक्षण करती थी, इस कारण संथालियों का अंग्रेजों की न्याय व्यवस्था से मोह भंग हो गया। वे अपनी रक्षा स्वयंम करने की ठानी, जो अन्त में विद्रोह का कारण बना।

प्रश्न 61.
ब्रिटिश न्याय प्रशासन में आदिवासियों की आस्था क्यों नहीं थी ?
उत्तर :
बिटिश न्याय प्रशासन ने आदिवासियों की जमीन जो जंगलनुमा थी तथा जिसे उन्होंने साफ करके खेती के लायक बनाया था उसे जमीदारों तथा ठेकेदारों को दे दिया था, इसलिये उनका न्याय प्रशासन पर विश्वास नहीं था।

प्रश्न 62.
वहाबी आन्दोलन के दो नेताओं के नाम बताओ।
उत्तर :
सैय्यद अहमद बरेलवी तथा तीतूमीर।

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प्रश्न 63.
संन्यासी विद्रोह के दो प्रमुख कारण बताओ।
उत्तर :
दो प्रमुख कारण :
(i) 1770 ई० का बंगाल में भीषण अकाल के समय शासन द्वारा किसी प्रकार का सहयोग न मिलना।
(ii) प्रशासन द्वारा तीर्थयात्रा पर प्रतिबंध तथा कर लगा देना।

प्रश्न 64.
नील आयोग का गठन क्यों हुआ था ?
उत्तर :
नील विद्रोह के व्यापक जन समर्थन, आन्दोलन के प्रति सरकार का नरम रवैया तथा नीलहे साहबों के अत्याचार तथा किसानों को न्याय देने के लिए सन् 1860 में नील आयोग (Indigo Commission) का गठन किया गया था।

प्रश्न 65.
‘हिन्दू पेट्रियाट’ समाचार पत्र का नील विद्रोह में क्या भूमिका थी।’
उत्तर :
(i) नील की खेती न करनेवाले किसानों की दुर्दशा को उजागर कर जनमत को आन्दोलन के पक्ष में जागृत करना था।
(ii) नील विद्रोह के प्रति हिन्दू-मुस्लिम को एकता के सूत्र में बाँधना आदि।

प्रश्न 66.
‘फराजी’ किसे कहते थे ?
उत्तर :
बंगाल के फरीदपुर जिले के फराजी सम्पदाय के अनुयायियों को फराजी कहते थे।

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प्रश्न 67.
कोल विद्रोह का अंत कैसे हुआ ?
उत्तर :
कोल विद्रोह, जो एक अग्नि का रूप ले चुका था, को दबाने के लिए अंग्रेजी सरकार ने बड़ी संख्या में सेना भेजी। यद्यपि कोलों ने छापामार युद्ध प्रारम्भ किया लेकिन विशाल अंग्रेजी सेना के सामने टिक न सके। हजारों की संख्या में आदिवासी मारे गये तथा अनेकों लोग गिरफ्तार हुये। 1832 ई० तक चारों तरफ आतंक, हिंसा एवं विनाश का नजारा रहा। अन्तत: सैन्य शक्ति के बल पर कोल विद्रोह का अन्त कर दिया गया।

प्रश्न 68.
दौलत सिंह कौन थे तथा उसने कब भील विद्रोह का नेतृत्व किया था ?
उत्तर :
दौलत सिंह राजस्थान का प्रमुख भील नेता थे। उसने 1821 ई० के भील विद्रोह का नेतृत्व किया था।

प्रश्न 69.
भारत में वहाबी आंदोलन के प्रमुख केन्द्र कहाँ-कहाँ थे ?
उत्तर :
पटना, हैदराबाद, बम्बई, बंगाल एवं उत्तर प्रदेश आदि।

प्रश्न 70.
वहाबी आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य क्या था ?
उत्तर :
वहाबी आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य था –
(i) मुस्लिम धर्म का प्रचार करना तथा
(ii) मुस्लिम समाज में सुधार करना इत्यादि।

प्रश्न 71.
1833 ई० का चार्टर ऐक्ट क्यों महत्चपूर्ण था ?
उत्तर :
ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 1833 ई० में चार्टर ऐक्ट परित किया। इस एक्ट के अनुसार नील के व्यापार तथा अन्य वस्तुओं के व्यापार पर और सभी यूरोपीय तथा देशी व्यापारियों के लिए व्यापार के दरवाजे खोल दिये । कम्मनी का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया।

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प्रश्न 73.
फराजी सम्पद्राय का मुख्य उद्देश्य क्या था ?
उत्तर :
फराजी सम्पद्राय का मुख्य उद्देश्य था –
(i) मुसलमानों में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करना,
(ii) जमीन्दारों द्वारा कृषकों को शोषण से मुक्ति दिलाना आदि।

प्रश्न 74.
बंगाल में नील के करखाने कहाँ-कहाँ स्थित थे ?
उत्तर :
बंगाल में नील के करखाने फरीदपुर, पावना, जैसोर तथा ढाका आदि नगरों में स्थित थे।

प्रश्न 75.
नील विद्रोह के प्रमुख केन्द्र कौन-कौन थे ?
उत्तर :
मालदा, मुर्शिदाबाद, बारासात, जैसोर, नदिया, फरीदपुर, पावना तथा खुलना आदि नील विद्रोह के प्रमुख केन्द्र थे।

प्रश्न 76.
‘विशा डकैत’ के नाम से अंग्रेज किस व्यक्ति को पुकारते थे ?
उत्तर :
नील विद्रोह के नेता विश्वनाथ सरदार को ‘विशा डकैत’ के नाम से पुकारा जाता था ।

प्रश्न 77.
‘डिंग खरचा’ क्या था ?
उत्तर :
रंगपुर विद्रोह ( 1783 ई०) के दौरान विद्रोह का खर्च वहन करने के लिए जो चन्दा (Donation) उठाया जाता था उसे ही ‘डिंग खरचा’ कहा जाता था।

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प्रश्न 78.
‘खुँतकाठी प्रथा’ क्या था ?
उत्तर :
भूमि के ऊपर मुण्डा समाज का संयुक्त या सामूहिक स्वामित्व होने की प्रथा को ‘खुँतकाठी प्रथा’ कहा जाता था।

प्रश्न 79.
सरदारी विद्रोह क्या था ?
उत्तर :
मुण्डाओं के सामूहिक खेती को जब बनिए, ठेकेदरों तथा जमीन्दारों ने नष्ट करनी शुरू कर दी, तो इन्होंने इस व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इसी विद्रोह को सरदारी विद्रोह के नाम से भी जाना गया।

प्रश्न 80.
तीतूमीर क्यों प्रसिद्ध है ?
उत्तर :
तीतूमीर बंगाल में वहाबी आन्दोलन के नेता होने के कारण तथा सैयद अहमद के अनुयायी के रूप में प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 81.
बाँस का किला किसने और कहाँ बनवाया था ?
उत्तर :
तीतूमीर ने बाँस का किला बारासात के पास नारकेलबेरिया में बनवाया था।

प्रश्न 82.
‘जमींदार सभा’ का गठन कब और किस उद्देश्य से किया गया ?
उत्तर :
जमींदार सभा का गठन सन् 1838 में किया गया तथा इसका प्रमुख उद्देश्य जमींदारों के हितों की रक्षा करना था।

प्रश्न 83.
भारत में वहाबी आंदोलन का नेतुत्व किसके द्वारा हुआ ?
उत्तर :
वहाबी आंदोलन का नेतृत्व पटना में सैयद अहमद बरेलवी द्वारा किया गया।

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प्रश्न 84.
चुआड़ विद्रोह कहाँ-कहाँ हुआ था ?
उत्तर :
चुआड़ विद्रोह बंगाल के बांकुड़ा, वीरभूम, नरभूमि, दलभूमि इत्यादि स्थानों पर हुआ था।

प्रश्न 85.
नील विद्रोह का समय कब से कब तक माना जाता है ?
उत्तर :
नोल विद्रोह का समय सन् 1859 ई० से लेकर 1860 ई० तक माना जाता है, अर्थात् शुरुआत सन् 1859 में तथा समाप्ति सन् 1860 ई० में।

प्रश्न 86.
नील विद्रोह के दो नेता कौन थे ?
उत्तर :
दिगम्बर विश्थास एवं विष्णु चरण विश्चास।

प्रश्न 87.
पाबना विद्रोह के नेता कौन थे ?
उत्तर :
पाबना विद्रोह के नेता ईशानचन्द्र राय, केशवचन्द्र राय एवं शम्भू पाल आदि थे।

प्रश्न 88.
‘काश्तकारी कानून’ कब और कहाँ पारित हुआ ?
उत्तर :
‘काश्तकारी कानून’ सन् 1885 में बंगाल में पारित हुआ।

प्रश्न 89.
रंगपुर विद्रोह के नेता कौन थे ? इस विद्रोह की प्रकृति क्या थी ?
उत्तर :
रंगपुर विद्रोह के नेता नुरूद्दीन था। इस विद्रोह की प्रकृति जनजाति-किसान विद्रोह जैसी थी ।

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प्रश्न 90.
रंगपुर विद्रोह कहाँ-कहाँ हुआ था ?
उत्तर :
रंगपुर विद्रोह बंगाल के रंगपुर, दिनाजपुर तथा कूचबिहार जिलों में हुआ था।

प्रश्न 91.
भील विद्रोह का नेतृत्व महाराष्ट्र एवं राजस्थान में किसने किया था ?
उत्तर :
भील विद्रोह का नेतृत्व महाराष्ट्र में सेवाराम (सेवरम) ने तथा राजस्थान में दौलत सिंह ने किया।

प्रश्न 92.
सेवाराम के अतिरिक्त महाराष्ट्र में भील विद्रोह का नेतृत्व किसने किया ?
उत्तर :
सरदार दशरथ, हिरिया, भगोजी तथा काजल सिंह ने किया था ।

प्रश्न 93.
दौलत सिंह के अतिरिक्त राजस्थान में भील विद्रोह का नेतुत्व किसने किया ?
उत्तर :
श्री गोविन्द तथा मोतीलाल तेजावर ने।

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प्रश्न 94.
संथालों पर किन-किन लोगों द्वारा अत्याचार किया जाता था ?
उत्तर :
संथालों या संथालियों पर जमीन्दारों, ठेकेदारों, साहूकारों, नीलहे गोरों द्वारा अत्याचार किया जाता था।

प्रश्न 95.
संन्यासी विद्रोह का केन्द्र कहा था ?
उत्तर :
सन्यासी विद्रोह का केन्द्र समस्त बंगाल था।

प्रश्न 96.
संन्यासी विद्रोह के नेता कौन थे ?
उत्तर :
केना सरकार एवं दिर्जिनारायण।

प्रश्न 97.
फकीर विद्रोह के दो नेता कौन थे ?
उत्तर :
मजनूनशाह और चिराग अली आदि।

प्रश्न 98.
फराजी आन्दोलन के दो नेताओं के नाम क्या थे ?
उत्तर :
हाजी शरीयतुल्ला तथा दूधू मियाँ।

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प्रश्न 99.
वहाबी आन्दोलन क्या है ?
उत्तर :
मुहम्मद अब्दुल वहाब ने अरब में इस्लाम धर्म में व्याप्त बुराईयों को दूर करने के लिए, जिस सुधार आन्दोलन का सूत्रपात किया, उसे वहाबी आन्दोलन कहते हैं।

संक्षिप्त प्रश्नोत्तर (Brief Answer Type) : 4 MARKS

प्रश्न 1.
‘नीलदर्पण’ नाटक से उन्नीसवीं शताब्दी में बंग्ला समाज का चित्रण किस प्रकार मिलता है ?
उत्तर :
1960 ई० में बंगला साहित्यकार दीनबन्धु मित्र द्वारा रचित नीलदर्पण नाटक अपने समय की सामाजिक ऐतिहासिक घटनाओं का सशक्त दस्तावेज है। इस नाटक में लेखक ने बंगाल में नील की खेती करने वाले किसानों पर अग्रेंज नीलहें साहबों, व्यापारियों एवं जमींदारो के अमानवीय अत्याचारों की बड़ी भावपूर्ण मार्मिक चित्रण किया है। इस नाटक के प्रकाशन का एक तरफ बंगाली समाज ने स्वागत किया तो दूसरी तरफ अंग्रेज इससे जलभुन उठे थे।

इस नाटक में बंगाल के ग्रामीण व नगरीय समाज का सजीव वर्णन किया गया है। नीलहे साहबों के अत्याचार से गाँव के छोटे-बड़े सम्पन्न किसान सभी नील की खेती करने से परेशान है। वे गाँव छोड़कर शहर जाना चाहते है। कुछ भी हो जाये लेकिन नोल की खेती करने के लिए तैयार नहीं है। किन्तु पुरखों की बनायी सम्पत्ति, गाँव की मिट्टी की सोधी सुगन्ध, आपसी प्रेम सम्बन्ध उन्हें पलायन करने से रोकती है। स्वरपुर के गोलोक चन्द्र बसु तथा उनके पड़ोसी साधुचरण दास की दुख-भरी बाते गाँव की त्रासदी को ही दशार्ते है। वही दूसरी तरफ बंगाल का पढ़ा-लिखा शहरी समाज उनकी दुर्दशा को देखकर मर्माहत हो उठता है।

उनकी आवाज बनकर उनकी समस्याओं को सामाचार पत्रिकाओं के माध्यम से देश के लोगों के सामने उजागर किया। इस कार्य में ‘समाचार दर्पण’, ‘समाचार चन्द्रिका’, ‘हिन्दू प्रेटियाट’ का अमूल्य योगदान रहा। नीलदर्णण नाटक तो सभी वर्ग के क्रिया-कलापों का जीवन्त दस्तावेज है। दरोगा, मजिस्ट्रेट, वकील, जमीन्दार, सेठ-साहूकार सभी किसानों एवं उनकी बहु-बेटियों का शोषण करते थे। इस प्रकार नील-दर्पण ने तत्कालीन बंगाली समाज की दयनीय दशा का मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है।

प्रश्न 2.
1855 ई० में सन्थाल विद्रोह के कारण और अन्त का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
संथाल विद्रोह एक आदिवासी या जनजातीय विद्रोह था। जिसमें आदिवासी संथालियों ने अपने स्वाभिमान की रक्षा तथा अस्तित्व के लिए विद्रोह किये। यह विद्रोह सन् 1855 से लेकर 1856 ई० के बीच इन सभी क्षेत्रों में हुआ था, जो बंगाल एवं बिहार से संबंधित हैं। संथालों द्वारा किये गये विद्रोह के कारण निम्नलिखित हैं –
i. भू-राजस्व : संथालियों को सरकार द्वारा जो पर्वतीय एवं वनीय भूमि प्राप्त हुई थी, उन भूमि को संथालियों ने ऊपजाऊ एवं कृषि योग्य बनाकर खेती-बारी करने लगे थे। तभी सरकार ने उनपर भूमि कर लागू कर दिया। इन समस्याओं से परेशान होकर संथालियों ने विद्रोह करने लगे।

ii. जमींदारों का अत्याचार : सरकार द्वारा जमीन्दर वर्ग को संथालियों से राजस्व (लगान) वसूलने का कार्य सौपा गया था। जमींदार वर्ग संथालियों से मनचाहा लगान या कर वसूलता था तथा उनपर घोर अत्याचार भी करता था। ये सभी क्रिया-कलाप या अत्याचार को संथाली वर्ग बर्दास्त नहीं कर पाये और विद्रोह कर दिये।

iii. महाजनों द्वारा अत्याचार : महाजनों ने संथालों को आवश्यकतानुसार 5 से 50 रुपये प्रतिशत की दर से ब्याज लेकर रुपया उधार देना शुरू किये। जो संथाल एक बार कर्ज ले लेता था तो उसे सूद के जाल से निकलना कठिन हो जाता था। इस प्रकार अत्याचार से परेशान होकर वे विद्रोह का मार्ग चुन लिंये।

iv. निलहे साहबों द्वारा अत्याचार : संथालियों के ऊपर न केवल ठेकेदारों, जंमीदारों, रेलकर्मियों का अत्याचार होता था बल्कि निलहे साहबों द्वारा भी उनपर घोर अत्याचार किया जाता था। जो असहनीय था।

v. अंग्रेजी न्याय व्यवस्था : ब्रिटिश सरकार ने जो न्याय व्यवस्था बनाये थे सिर्फ वे अपने फायदे के लिए किये थे। वे संथालियों के लिए कोई भी न्याय व्यवस्था नहीं बनाये थे। इससे संथालियों का समुदाय असंतुष्ट हो उठा था, जिससे वे विद्रोह का मार्ग चुन लिये।

संथालियों ने अपना विद्रोह राजमहल के पास जो ‘दामन-ए-कोह’ अर्थात् ‘संथाल परगना’ बनाये थे, वहीं से ही सिद्ध और कानू तथा चाँद और भैरव के नेतृत्व में शुरुआत किये। देखते ही देखते यह विद्रोह पूरे बंगाल एवं बिहार में फैल गया।

विद्रोह का दमन व अन्त : ब्रिटिश सरकार ने विद्रोह को बड़ी ही नृशंसता से दमन कर दिया। जगह-जगह गिरफ्तारी तथा छापेमारी किया गया तथा सिद्ध एवं कान्हू को गिरफ्तार कर फाँसी दे दिया गया। इसी के साथ विद्रोह का अन्त हो गया।

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प्रश्न 3.
बारासात विद्रोह क्या था ? इसकी असफलता के क्या कारण थे ?
उत्तर :
तीतूमीर का वास्तविक नाम मीर निसार अली था, परन्तु ये तीतूमीर के नाम से ही जाने जाते थे। तीतूमीर ने अपने 600 समर्थकों को लेकर बारासात के पास नारकेलबेरिया में बाँस का एक किला बनवाया जहाँ पर सताये गये हजारों लोगों को तीतूमीर ने अपने साथ रखा और उन्हें अस्त्र-शस्त्र का प्रशिक्षण देने लगे। अतः तीतूमीर एवं उनके अनुयायियों ने सन् 1831 ई० में बारासात के पास अंभेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इसी विद्रोह को ‘बारासात विद्रोह’ कहा जाता है।

इस विद्रोह के असफलता के निम्नलिखित कारण थे :-
(i) तीतूमीर ने अंग्रेजों का सामना करने के लिए ‘बाँस का किला’ तैयार करवाया जिसमें विभिन्न प्रकार के हथियार (तलवार, बर्घे तथा लाठियां) रखे जाते थे, जो विद्रोहियों का प्रमुख हथियार था। परन्तु अंग्रेजों के नवीन तकनीकी के हथियार के सामने उनकी हधियार टिक न पाये और ब्रिटिश गोलों के भार से तीतूमीर का ‘बाँस का किला’ ध्वस्त हो गया।
(ii) तीतूमीर मारा गया और उसके 350 सहयोगी गिरफ्तार कर लिये गये। नेतृत्व का अभाव तथा सरकारी दमन के कारण तीतूमीर का बारासात आन्दोलन असफल रहा।
(iii) संगठन, कुशल रणनीति एवं धन का अभाव।
उक्त कारणों ने बारासात विद्रोह को असफल बना दिया।

प्रश्न 4.
कोल विद्रोह पर सक्षिप्त टिष्पणी लिखिए।
उत्तर :
कोल विद्रोह : कोल, छोटानागपुर के पठारी क्षेत्रों में निवास करने वाली एक आदिवासी जाती है। इस जाति के लोग अपने क्षेत्र में जंगलों को साफ करके खेत बनाकर सामूहिक खेती करके शांति पूर्वक जीवन-यापन कर रहे थे। जब पूरे देश में अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया तो उस क्षेत्र में बाहर से हिन्दू-मुस्लिम, सिख आदि समुदायों के लोग तथा सेठ, साहुकार, महाजन, जमींदार आदि आकर बसने लगे, जिससे उनके शांतिपूर्ण जीवन में हस्तक्षेप होने से उनका जीवन जीना कठिन हो गया इसके अलावा उनको अंग्रेजों की स्वतंत्रता,

न्याय एवं प्रशासनिक व्यवस्था से भी मोह भंग हो गया, इन्हीं सब कारणों से उनका जीवन अव्यवस्थित हो गया जिनके शोषण अत्याचार से बचने और अपनी स्वतंत्र अस्तित्व की रक्षा के लिए बुद्ध भगत के नेतृत्व में संगठित होकर 1829 ई० में अंग्रेजी और बाहरी लोगों (दिकृओं) के विरूद्ध हजारों कोल, उड़ाव, मुण्डा जातियों ने आक्रमण कर दिया, पूरे क्षेत्र में सरकारी सम्पत्ती को तोड़-फोड़ दिया गया। जमीन्दारों एवं दिकुओं की सम्पत्ती को लूट लिया गया। सरकारी भवनों को जला दिया गया, इस विद्रोह की व्यापकता को देखते हुये अंग्रेजी सरकार को सेना भेजकर विद्रोह को 1848 ई० में दबा दिया गया।

महत्व या परिणाम : यद्यपि 1848 ई० में भंयकर संघर्ष के बाद कोल विद्रोह को अंग्रेजों ने सैनिक शक्ति के बल पर दबा दिया। इस विद्रोह के नेता बुद्धू भगत, केशव भगत, जोआ भगत मारे गये हजारों पुरूष और औरत कोल विद्रोहियों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। इस तरह कोल विद्रोही लगभग 10 वर्षों तक अपने छापामार युद्ध (गुरिल्ला युद्ध), प्रणाली तथा हिंसात्मक प्रणाली द्वारा अंग्रेजों तथा दिकूओं को परेशान करते रहे।

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प्रश्न 5.
मुण्डा विद्रोह पर सक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
मुण्डा विद्रोह : ‘मुण्डा’ छोटा नागपुर क्षेत्र में निवास करने वाली एक आदिवासी जाति है। इस जाति के लोग जंगलों को साफ कर सामूहिक खेती करते थे जिसे खुटकट्टि कहा जाता था, जब इनकी सामूहिक खेती को बाहर से आये बनिये, ठेकेदार, जमींदार नष्ट करनी शुरू कर दी तो इनके विरूद्ध मुण्डा जाति के लोगों ने विरसा मुण्डा के नेतृत्व में संगठित होकर 1899 ई० में अंग्रेजों और दिकूओं के विरूद्ध विद्रोह कर दिया, जिसे मुण्डा विद्रोह कहते हैं। इस विद्रोह में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही। इसलिए उलुगखनी विद्रोह भी कहा जाता है। चूँकि यह विद्रोह अंग्रेजों कि शासन व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह कर स्वयं अपनी जाति के शासन स्थापित करने के उद्देश्य से किया गया। इसलिए इस विद्रोह को सरदारी विद्रोह भी कहा जाता था।

मुण्डा विद्रोह आदिवासी विद्रोह में सबसे महत्वपूर्ण विद्रोह माना जाता है, इस विद्रोह का नेता विरसा मुण्डा स्वंय को भगवान का दूत घोषित कर अपने समर्थकों को सिंगगोगा की पूजा करने का आदेश दिया और अंग्रेजों का विरोध कर अपने जाति का शासन स्थापित करने का प्रयास किया, व्यापक विद्रोह के बाद विरसा मुण्डा को 1900 ई० में गिरफ्तार कर राँची जेल में डाल दिया गया जहाँ उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार नेतृत्व के अभाव में 1901 ई॰ में मुण्डा विद्रोह का अन्त हो गया।

इस आन्दोलन की व्यापकता के प्रभाव को देखते हुए सरकार ने 1908 ई॰ में छोटानागपुर कास्तकारी कानून बनाकर मुण्डा आदिवासियों को कुछ सुविधाँए दी गई। उस क्षेत्र में बाहरी लोग के प्रवेश पर रोक लगा दिया गया, इनकी जमीन की खरीद-बिक्रों पर रोक लगा दिया गया, और उनके जमीन पर आदिवासियों के अधिकार को स्वीकार कर लिया गया।

प्रश्न 6.
पावना विद्रोह पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर :
पावना विद्रोह : पावना पूर्वी बंगाल (वर्तमान बंगलादेश) का एक प्रमुख जिला था, जब इस क्षेत्र में अंग्रेजों ने स्थायी बन्दोबस्त व्यवस्था लागू कि, तो यहाँ के जमीन्दारों ने किसानों पर मनमाने तरीके से अनेकों प्रकार के उपकरों (अप्बाव) लगाया, और किसानों से जबरदस्ती वसूल करने लगे, जो किसान कर नहीं देते थे उनकी जमीन छीनने लगे। शुरू में तीन किसानों ने ‘किसान संघ’ बनाकर शांतिपूर्ण तरीके से जमीन्दारों को लगान नहीं देने का जागरूकता अभियान जगाया, इसी बीच 1885 ई० में सरकार ने बंगाल प्रजास्वत कानून पास किया, इस कानून के अनुसार किसानों को उनकी पैतिक भूमि से अलग नहीं किया जा सकता।

इस कानून के बाद किसानों ने शाहचंद, शम्भु पाल एवं खुदी मल्लाह के नेतृत्व में जमींदार के विरूद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया। छोटी-मोटी घटनाओं के साथ शांतिपूर्ण तरीके से किसान अपनी लड़ाई लड़ते रहे । वे कानूनी लड़ाई में विजयी हुए सरकार 1885 ई० में बंगाल कास्तकारी कानून पास किया जो केवल खानापूर्ति एवं दिखावा मात्र था।

इस प्रकार पावना विद्रोह अंग्रेजों और जमीदारों के विरूद्ध था, इस विद्रोह में किसानों का नारा था, कि “हम केवल महारानी का रैयत होना चाहते है, किसी दूसरे का नहीं।” इस आन्दोलन को श्रृषि बंकिमचन्द्र चटर्जी, आनंद मोहन बोस, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा कैम्पवेल नामक अंग्रेज ने समर्थन किया था। 1885 ई० के कास्तकारी कानून से किसानों को थोड़ीबहुंत राहत तो अवश्य मिली, किन्तु वे जमींदारों के चंगुल से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाये।

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प्रश्न 7.
बारासात विद्रोह और उसके महत्व पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
बारासात विद्रोह ; भारत में वहाबी आन्दोलन की आग उत्तर-प्रदेश के मेरठ और बरेली से उत्पन्न होकर बिहार होते हुए बंगाल तक फैल चुका था। बंगाल में वहाबी आन्दोलन का नेतृत्व मीर निसार अली अर्थात् तीतूमीर ने किया था। शुरू-शुरू में बंगाल में वहाबी आन्दोलन का उद्देश्य दारूल हर्व (शत्रु या काफिरों का देश) को दारूल इस्लाम (मुस्लमानों के रहने का पवित्र इस्लाम) देश बनाना तथा इस्लाम में बाहर से आयी धार्मिक बुराइयों को दूर करना था, किन्तु बाद में तीतूमीर ने इस आन्दोलन को किसानों के हितों की रक्षा से जोड़ दिया। किसानों पर अत्याचार करने वाले जमीन्दारों, महाजनों एवं अंग्रेजी शासन के विरूद्ध उसने अपने समर्थकों को लेकर संघर्ष शुरू कर दिया।

सबसे पहले तीतूमीर ने ‘गोबरडांगा’ के राजा को पराजित किया, जिससे उसका साहस बढ़ गया और उसने अपने आप को बादशाह घोषित कर दिया। इसके बाद उसने अपने समर्थको को रहने और उनके लड़ने के हथियारों को रखने के लिए ‘बारासात के नारकेलबेरिया’ नामक स्थान पर बाँस का किला बनवाया।

अधिक उत्साह एवं घमण्ड से चूर तीतूमीर ने जमीन्दारों, नील व्यपारियों के विरूद्ध संघर्ष की घोषणा कर दी, उसने बारासात के जमीन्दार कृष्ण राय पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण की खबर सुनते ही कलकत्ता से अंग्रेजो की सेना बारासात पहुँची और वहाँ पहुँचकर बाँस के किलों को घेर लिया। एक तरफ से तीरों की वर्षा तो एक तरफ से गोली की वर्षा होने लगी। अन्त में अंग्रेज सैनिकों ने बाँस के किले में आग लगा दिया, जिसमें तीतूमीर और उसके बहुत से समर्थक मारे गये, 350 से अधिक विद्रोही गिरफ्तार हुए। 1931 ई० के बारासात के इसी विद्रोह को बारासात विद्रोह के नाम से जाना जाता है।

महत्व : बारासात विद्रोह को अंग्रेजों ने भले ही सैनिक शक्ति के दम पर दबा दिया, इसके बावजुद भी यह आन्दोलन कई माइनों मे देश के लिए प्रेरणादायी रहा, इस आन्दोलन ने किसानों को संगठित होकर जमीन्दारों और अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ने के लिए प्रेरित किया। जिससे प्रभावित होकर देश के कई भागों में किसान आन्दोलन शुरू हुए, इस आन्दोलन की व्यापकता और प्रभाव के सामने ईस्ट इण्डिया कम्पनी सरकार को किसानों के सुधार के कदम उठाने के लिए बाध्य होना पड़ा। यही बारासात विद्रोह का यही महत्व रहा है।

प्रश्न 8.
(i) पागलपंथी विद्रोह और (ii) रंगपूर विद्रोह पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
(i) पागलपंथी विद्रोह : भूमिका : 1825 ई० में बंगाल के कुछ क्षेत्रों में पागलपंथी नाम का एक धार्मिक पंथ था, जो सत्य, समानता एवं भाईचारे के सिद्धान्त पर आधारित था, जब इस पंथ के लोगों ने जमीन्दार और महाजनों के शोषण एवं अत्याचार के विरूद्ध करमन शाह के नेतृत्व में सशस्त्र आन्दोलन चलाया, तब इस विद्रोह का नेतृत्व करमन शाह के पूत्र तीतूमीर ने किया, उसने मैमन सिंह जिले के शेरपुर नगर पर अधिकार कर अपना शासन चलाने लगा लेकिन 1831 ई० में अंग्रेजों ने सैन्य द्वारा इस विद्रोह का अन्त कर दिया।

(ii) रंगपुर विद्रोह : भूमिका : रंगपूर पूर्वी बंगाल का एक जिला था, वहाँ के किसानों ने अपने जमीन्दार देवी सिंह के घोर अत्याचारों से तंग आकर 1783 ई० में किसान नेता नूरूद्दीन के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया उन्होंने जमींदार को लगान देना बन्द कर दिया, किन्तु देवी सिंह ने अंग्रेजों की सहायता पाकर 1809 ई० में इस विद्रोह को दबाने में सफल रहा।
इस प्रकार रंगपूर विद्रोह संगठन, साधन, कुशल नेतृत्व के अभाव में असफल हो गया।

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प्रश्न 9.
मोपला विद्रोह क्या था ? इसके महत्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
मोपला दक्षिण भारत के मालावार क्षेत्र में निवास करने वाला एक मुस्लिम समुदाय था, मूल रूप से यह अरब देश से आये मुसलमानों का एक समुदाय था, जो दक्षिण भारत के मालावार क्षेत्र में खेती कर जीवन-यापन कर रहे थे। 1792 ई० में लगान वृद्धि और भूमि पर मालिकाना हक को लेकर उन्होंने जमीन्दारों और अंग्रेजों के विरूद्ध सशस्त्र विद्रोह किया था, जिसे मोपला विद्रोह कहा जाता है। सरकार ने सैन्य शक्ति के बल पर इस विद्रोह को दबा दिया।
महत्व : मोपला विद्रोह की प्रकृति मूल रूप से आर्थिक थी लगान वृद्धि के विरोध में यह आन्दोलन शुरू हुआ था। इस आन्दोलन से सरकार लगान वृद्धि को घटाने के लिए बाध्य हुई। इस आन्दोलन की सफलता से प्रेरित होकर देश के कई भागों में किसान आन्दोलन शुरू हुए।

प्रश्न 10.
चुआड़ विद्रोह का वर्णन कीजिए।
अथवा
चुआड़ विद्रोह के महत्वं या परिणाम का वर्णन करें।
उत्तर :
चुआड़ विद्रोह : चुआड़ जाति पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर जिले के उत्तर-पश्चिम भाग के जंगल महल क्षेत्र में निवास करने वाली एक आदिवासी है। इस क्षेत्र में चुआड़ जाति के लोग खेती करके और जंगली जानवरों का शिकार करके शांतिपूर्वक जीवन जी रहे थे, कुछ चुआड़ों को जमीन्दारों की सेवा करने के बदले बिना कर देनी वाली जमीन मिली थी, एसे चुआड़ को ‘पाइक’ कहते थे।

जब अंग्रेजों ने बंगाल में स्थायी भूमि बन्दोबस्त व्यवस्था लागु कर जमीन पर भारी कर लगा दिये तो उस क्षेत्र का जमींदर जगन्नाथ सिंह, चुआड़ों और पाइकों ने बढ़ाया गया कर देने से इन्कार कर दिया तथा 1798 ई० में जगत्नाथ सिंह के नेतृत्व में 50 हजार से भी अधिक चुआड़ और पाइकों ने मिलकर अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया, इसी विद्रोह को ‘चुआड़ विद्रोह’ कहा जाता है।

महत्व या परिणाम : इस प्रकार मेदिनपुर के जंगल महल से शुरू हुआ चुआड़ विद्रोह बाकुड़ा, बीरभूम सहित कई जिलों में फैल गया। छापामार युद्ध प्रणाली द्वारा लगभग 30 वर्षो तक यह युद्ध चलता रहा, जिसे 1822 ई० में अंग्रेजों ने सैनिक शक्ति के बल पर निर्ममतापूर्वक कुचल दिया। अत: यह विद्रोह बिना किसी सफलता के समाप्त हो गया।

प्रश्न 11.
रंगपुर विद्रोह (Rangpur Revolt) का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
कृषक विद्रोहों में रंगपुर विद्रोह एक महत्वपूर्ण विद्रोह माना जाता है। यह विद्रोंह बिहार एवं उड़ीसा के कृषक विद्रोहों की भाँति ही था, जो बंगाल में हुआ। बंगाल के कई क्षेत्रों में यह विद्रोह चला था, खासकर रंगपुर, जो वर्तमान समय में बंगलादेश में यह क्षेत्र है।

यह विद्रोह सन् 1783 में कम्पनी के अधीन इजारेदारी या जमींदार देबी सिंह के विरुद्ध रंगपुर के हिन्दू-मुस्लिम किसानों एवं श्रमिकों ने किया था। कम्पनी के अधीन इजारदार देबी सिंह ने रंगपुर के किसानों से भूमि को छिन लिया था तथा उनके ही भूमि को रैयत (भाड़ा) के तौर पर किसानों को देते थे और इतना ही नहीं उस पर कर (Tax) भी लागू कर दिये थे। ऐसे कर (Tax) को राजस्व कर (Land Tax) कहते हैं, जो उस क्षेत्र के लोगों के ऊपर लादा गया था। यदि रंगपुर के किसान लोग इस कर को नहीं दे पाते थे, तो उनपर घोर यातना किया जाता था। इतना ही नहीं, उनके ऊपर इजारदार देवी सिंह के ठेकेदार एवं लठैत द्वारा भयकर अत्याचार किया जाता था तथा अत्याचार स्रियों एवं बूढ़े तथा बच्चों पर भी किया जाता था। यह अत्याचार की प्रक्रिया वर्षो से चल रहा था।

अत: उस क्षेत्र के पीड़ित किसानों ने सन् 1783 में वीरजी नारायण के नेतृत्व में यह विद्रोह किये। यह विद्रोह बगाल के कई क्षेत्रों, जैसे- दिनाजपुर तथा कूचबिहार जैसे स्थानों में आग की भाँति फैल गया। अंग्रेजों पर आश्रित इजारेदार देबी सिंह ने किसानों एवं श्रमिकों को बुरी तरह से कुचल डाला तथा इस विद्रोह को हमेशा के लिए दबा दिया गया।

रंगपुर विद्रोह के निम्नलिखित महत्व हैं –

  1. रंगपुर विद्रोह ने अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन की बुराइयों को स्पष्ट कर दिया।
  2. इस विद्रोह ने यह सिद्ध कर दिया कि कम्पनी के लंदन स्थित ब्रिटिश अधिकारी, गोमाश्ता, दलाल सभी भारतीय किसनों का शोषण करते हैं।
  3. वारेन हेस्टिंग्स ने भूमि सुधार के लिए इजारेदारी व्यवस्था द्वारा भूमि को पट्टे पर देने की व्यवस्था की थी जिसने भूमि व्यवस्था की कमियों को उजागर कर दिया।
  4. इस विद्रोह ने अंग्रेजों को चौकन्ना कर दिया और वे भावी कृषक आन्दोलन से बचने के लिए भू-राजस्व में कई सुधार किये।

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प्रश्न 12.
भील विद्रोह पर टिष्पणी लिखें।
या, भील विद्रोह का महत्व लिखें।
उत्तर :
आदिवासी विद्रोहों में भील विद्रोह अत्यन्त महत्वपूर्ण मानी जाती है। भील विद्रोह निम्नलिखित दो स्थानों में प्रमुख रूप से हुआ था, जिनमें ‘महाराष्ट्र’ एवं ‘राजस्थान’ हैं। इसके अलावे यह ‘गुजरात’ तथा ‘मध्यप्रदेश’ में भी हुआ था। यह विद्रोह महाराष्ट्र में सन् 1818 से लेकर 1831 ई० तक चला तथा राजस्थान में 1821 से लेकर 1825 ई० के मध्य में हुआ था।

महाराष्ट्र के खानदेश में भीलों का अस्तित्व था, जिन्हें दबाने और खत्म करने के उद्देश्य से अंग्रेजी सरकार ने उनके ऊपर भिन्न-भिन्न प्रकार के कर (Tax) जैसे- भूमिकर (Land Tax) एवं कृषि कर (Agriculture Tax) लगाया करती थी। अंग्रेजों के अत्याचार से परेशान भील जाति के लोगों या किसानों और मजदूरों ने सेवरम या सेवाराम के नेतृत्व में विद्रोह कर दिये। यह विद्रोह आदिवासी विद्रोह में सबसे चर्चित एवं महत्वपूर्ण मानी जाती है।

राजस्थान के दक्षिणी भाग में भील जातियों का समागम था जिनके ऊपर अंग्रेजी सरकार एवं जमींदारों और साहूकारों का बारम्बार आक्रमण तथा अत्याचार होता था। वे भीलों का शोषण किया करते थे। इस प्रकार राजस्थान के भीलों ने दौलत सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजी सरकार के साथ-साथ साहूकारों तथा जमींदारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिये।

आदिवासी जाति भीलों ने अपने वर्चस्व, आत्म-सम्मान तथा अपनी भूमि के रक्षा हेतु यह विद्रोह किया। भले ही यह विद्रोह समाप्न कर दिया गया परन्तु इसका प्रभाव देश-दुनिया के समस्त आदिवासी जातियों के ऊपर पड़ा है, जो अंग्रेजों, उपनिवेशवादों तथा स्थानीय जमीन्दारों, साहूकारों तथा ठेकेदारों द्वारा शोषित थे।

प्रश्न 13.
मुंडा विद्रोह का ऐतिहासिक महत्व लिखें।
उत्तर :
मुण्डा विद्रोह एक जनजाति या आदिवासी जाति द्वारा किया गया विद्रोह था। ऐसा भी माना जाता है कि मुण्डा विद्रोह जनजाति या आदिवासी विद्रोह न होकर एक प्रकार से किसान विद्रोह (Peasant Revolt) था जिसमें न केवल मुण्डा जाति नहीं बल्कि किसानों ने भी इस आन्दोलन में भाग लिया था। भारतीय इतिहास में आदिवासी विद्रोहों में इस विद्रोह को महत्ता अनमोल मानी जाती हैं। यह विद्रोह एक प्रकार से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का प्रतीक भी माना जाता था।

मुण्डा विद्रोह की शुरूआत दक्षिणी बिहार के छोटानागपुर इलाके के अन्तर्गत राँची, सिंहभूम, पलामू तथा हजारीबाग इत्यादि क्षेत्रों में हुआ था। बिहार के मुण्डा जाति समर्थक वीरसा मुण्डा ने अपने अथक प्रयत्नों से सन् 1899 से लेकर 1900 ई० तक इस विद्रोह को चलाया। बिटिश सरकार के अधीन जमींदारों एवं साहूकारों ने मुण्डा जाति पर अग्नि वर्षा की भाँति बरस पड़े और उनका खूब शोषण तथा अत्याचार किये, जिसके फलस्वरूप अंग्रेजी सत्ता ने इस विद्रोह को पूर्ण रूप से दबा दिया। परन्तु इस विद्रोह की महत्ता और योगदान भारतीय इतिहास में अनमोल माना ज़ाता है।

अन्य महत्व के रूप में :

  1. सरकार ने मुण्डा लोगों की मांग पर पुन: विचार शुरू किया। सन् 1903 में छोटानागपुर टिनेन्सी ऐक्ट (Chhotanagpur Tenancy Act) पास किया गया और मुण्डाओं की खुरकटि कृषि परम्परा को मान्यता दी गई।
  2. इस आन्दोलन का प्रमुख उद्देश्य मुण्डा राज्य की स्थापना करना था।
  3. विद्रोह समाप्ति के बाद भी भारत देश में मुण्डा जाति के विद्रोह के प्रतीक भी बनाया गया है, जो उनका बर्चस्व कायम रखता है।
  4. आन्दोलन की असफलता के बाद भी वीरसा मुण्डा अपने समर्थकों का एकमात्र नेता मान लिये गये। लोग वीरसा मुण्डा की पूजा देवता की तरह करने लगे।

यद्यापि मुण्डा विद्रोह तो असफल हो गया परन्तु अपनी स्वतंत्रता के लिए इनका संगठित प्रयास इतिहास के पन्नों में अमर हो गया तथा न केवल यह विद्रोह भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण माना गया बल्कि विश्च के इतिहास में भी इस जाति को स्थान दिया, जो अपने आप में गर्व की बात है।

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प्रश्न 14.
संथाल (हूल) (विद्रोह) के ऐतिहासिक महत्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
आदिवासी विद्रोहों में से संथाल विद्रोह एक महत्वपूर्ण विद्रोह माना जाता है । यह विद्रोह बंगाल एवं बिहार में सिद्ध एव कानू दो संथाली भाईयों के नेतृत्व में सन् 1855 से लेकर 1856 ई० तक चलाया। यह विद्रोह ब्रिटिश सरकार द्वारा बढ़ायी गई कर या लगान (Tax), जमीदारों, ठेकेदारों, साहूकारों, नीलहे गोरों, ईसाई मिशनरियों एवं असंतोष-जनक न्याय व्यवस्था के विरुद्ध किया गया था।
इस विद्रोह के ऐतिहासिक महत्व को निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है –

  1. यह महंत्वपूर्ण विद्रोह संथालियों के प्रति अपनेवर्चस्व को कायम रखने की बड़ी चुनौती थी, जो इस जाति ने भरपूर्ण निभायी।
  2. इस विद्रोह में देखा गया कि संथालियों ने खुद एक नये समाज की स्थापना किया, जो ‘संथाल परगना’ के नाम से जाना जाता है और भारतीय इतिहास के आदिवासी जातियों में महत्वपूर्ण माना जाता है।
  3. इस विद्रोह का प्रमुख उद्देश्य भारत के विभिन्न जगहों पर आदिवासियों के अपने वर्चस्व को कायम रखना।
  4. यह विद्रोह भले ही अपने उद्देश्य में असफल हो गया परन्तु आज संथालियों की महत्ता सिर्फ एकमात्र दो संथाली भाईयो ‘सिद्व ‘और ‘कानू’ की वजह से बढ़ गया है।

आज भी संथाली जाति की बात की जाती है, तो उनको याद जरूर किया जाता है। अतः इस प्रकार से हमलोग देख पाते हैं कि भारतीय इतिहास में आदिवासी विद्रोह में संथाल विद्रोह की महत्त्वपूर्ण या अनमोल ऐतिहासिक महत्ता है।

प्रश्न 15.
‘तारिख-ए-मुहम्मदिया’ (Tarikah-i-Muhammadiya) के बारे में क्या जानते हो।
उत्तर :
‘तारिख-ए-मुहम्मदिया’ का अर्थ ‘पुनरुद्धार’ या ‘नवजागरण’ होता है। अर्थात् मुस्लिम समाज में नवजागरण आना या मुस्लिम समाज का पुनरुद्धार होना होता है। चूँकि ‘तारिख-ए-मुहम्मदिया’ मुस्लिम शब्द है, इसलिए ‘पुनरुद्धार’ इसका मुस्लिम शब्द है और ‘नवजागरण’ हिन्दी शब्द है।
‘तारिख-ए-मुहम्मदिया’ का संबंध मुस्लिम समाज से है, इसीलिए इनके नेता ‘सैयद अहमद बरेलवी’ का प्रमुख उद्देश्य मुस्लिम समाज में फैली हुई कुरीतियों एवं बुराईयों को समाप्त कर नये सोच, विकास तथा उन्नति को स्थापित करना था।

इसी का नाम समाज का पुनरुद्धार होता है। सैयद अहमद बरेलवी के ऊपर दिल्ली के संत शाहवली उल्लाह तथा अरब के अब्दुल वहाब का प्रभाव अधिक था। इस कारण उनके द्वारा चलाये गये इस आन्दोलन को ‘वहाबी आन्दोलन’ तथा ‘वली उल्लाह’ आन्दोलन भी कहते हैं। वास्तव में देखा जाय तो यह ‘पुनरुद्धार आन्दोलन’ न होकर ‘सुधार आन्दोलन’ था, जो मुस्लिम समाज में चलाया गया था।

इस आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र उत्तरी-पश्चिमी कबायली प्रदेश में सियाना केन्द्र था। भारत में प्रमुख केन्द्र पटना था। इसके अतिरिक्त हैदराबाद, मद्रास, बम्बई, बंगाल और उत्तर प्रदेश में भी इसका केन्द्र बनाया गया था।

देखा जाय तो इस आन्दोलन का प्रमुख उद्देश्य काफिरों का देश (दारूल हर्ब) को मुसलमानों का देश (दारूल इस्लाम) में बदलना था। इतना ही नहीं, यह आन्दोलन अंग्रेजों के अलावा जमीन्दारों, महाजनों तथा नीलहे साहबों के विरुद्ध भी किया गया था। ‘तारिख-ए-मुहम्मदिया’ आन्दोलन, मुसलमानों का मुसलमानो द्वारा चलाया गया मुसलमानों के लिए आन्दोलन था। यह कभी भी राष्ट्रीय रूप नहीं ले पाया।

प्रश्न 16.
नील विद्रोह के महत्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
नील विद्रोह अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक किसान आन्दोलन था जो बंगाल एवं बिहार में किया गया था। यह विद्रोह सन् 1859 ई० से लेकर 1860 ई० के बीच चला था और इस विद्रोह के नेता का नाम ‘दिगम्बर विभास’ और ‘विष्णु चरण विश्वास’ था।
नील विद्रोह नोलहे साहबों या गोरों के विनाशकारी नीतियों के विरुद्ध किया गया था अर्थात् नीलहे और (अंग्रेज) नीलहे किसानों के जमीन को छीन लिया करते थे तथा उन किसानों को उनके ही भूमि पर नील की खेती करने के लिए मजबूर किया करते थे। फलस्वरूप विष्णुचरण विश्वास एवं दिगम्बर विश्चास के नेतृत्व में यह आन्दोलन चलाया गया।

इस आन्दोलन के निम्नलिखित महत्व हैं –
1. यह विद्रोह अंग्रेजी प्रशासन के खिलाफ एक किसान विद्रोह थी।
2. इस विद्रोह में प्रथम बार देखा गया कि नीलहे किसानों के साथ मध्यम वर्ग एवं जमींदार वर्गों ने भी भाग लिया।
3. इस विद्रोह से प्रेरित होकर महात्मा गाँधी जी ने अपना चम्पारण सत्याग्रह आन्दोलन बिहार में चलाया।
4. इस विद्रोह से प्रेरित होकर बंगाल के सुप्रसिद्ध नाटककार ‘दीनबन्धु मित्र’ ने नील की खेती की समस्या पर ‘नील दर्पण’ (Nil Darpan) नामक नाटक की रचना की, जिसका ‘माइकेल मधुसूदन दत्त’ ने अंग्रेजी में अनुवाद किया।
5. यह विद्रोह अपने अंजामों तक लगभग सफल माना जाता है, क्योंकि यह विद्रोह सन् 1857 के महा क्रान्ति के बाद ही किया गया था जिसमें जन समर्थन अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध उमड़ कर सामने आया।

इस विद्रोह में न केवल मध्यम वर्ग और जमीन्दार वर्ग शामिल थे बल्कि शिक्षित वर्ग भी शामिल थे, जो एक बड़ी एवं महत्वपूर्ण बात कहलाती है।

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प्रश्न 17.
भारत में वहाबी आन्दोलन क्यों हुआ था ? इसका स्वरूप क्या था ?
उत्तर :
वहाबी आन्दोलन एक धार्मिक आन्दोलन माना जाता था। इस आन्दोलन के विभिन्न स्वरूप हैं। यह आन्दोलन अरब, भारत एवं भारत के क्षेत्र बंगाल में किया गया था। अरब एवं भारत में वहाबी आन्दोलन का स्वरूप एक धार्मिक आन्दोलन था जो इस्लाम धर्म का प्रचार करने के लिए किया गया था। परन्तु भारत के क्षेत्र बंगाल में यह कृषक आन्दोलन के रूप में उभरा था। अब्दुल वहाब नाम का एक सुधारक जिसने इस्लाम धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिए सुधार आन्दोलन चलाया, वही ‘वहाबी आन्दोलन’ के नाम से जाना जाता है। भारत में इस आन्दोलन के म्रमुख नेता ‘सैय्यद अहमद बरेलवी’ थे। इस आन्दोलन के दो प्रमुख उद्देश्य थे –
(i) इस्लाम धर्म का प्रचार करना एवं
(ii) मुस्लिम समाज में सुधार करना।

सैख्यद अहमद ने इस आन्दोलन को देशव्यापी बनाने के लिए एक संगठन बनाया। भारत में इसका मुख्य केन्द्र पटना था। इसके अतिरिक्त हैदराबाद, मद्रास, बम्बई, बंगाल तथा उत्तर प्रदेश में भी इसकी शाखाएँ स्थापित की गयी। वे भारत में अंग्रेजी शासन का विरोध करने लगे। देश में इनके द्वारा स्थापित शाखाएँ इस सम्रदाय के लिए धन एवं धार्मिक सेना में सैनिकों की भर्ती करने में नेता सैय्यद अहमद बरेलवी की मदद करती थी।
इस प्रकार हमलोग भारत में वहाबी आन्दोलन के विभिन्न स्वरूप को संक्षिप्त में देख पाते हैं।

प्रश्न 18.
औपनिवेशिक वन कानून ने आदिवासियों के जीवन-यापन को किस प्रकार प्रभावित किया ?
उत्तर :
भारतीय वनों पर ब्रिटिश आधिपत्य कायम करने के लिए 1865 ई० में एक कानून बनाया गया, जिसे औपनिवेशिक वन कानून (1865) कहा जाता हैं। इस कानून के तहत यह घोषित किया गया कि ऐसी कोई भी जमीन जिस पर वृक्ष है वह सरकारी वन समझी जायेगी और उन पर सरकार का आधिपत्य होगा। भारत के आदिवासी साधारणतया वनों या पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करते थे तथा वनों से प्राप्त फल-फूल, लकड़ी, शिकार तथा साधारण कृषि से अपनी सीमित आवश्यकताओं कां पूरा करते थे। वे वन भूमि को साफ कर तथा निम्न और अनुपजाऊ भूमि को आबाद कर कृषि करते थे। पर ब्विटिश सरकार ने विभिन्न कानून तथा नियम तथा फायदों से बन सम्पद से आदिवासियों को वंचित कर दिया।

ब्रिटिश सरकार ने सन् 1864 में वन विभाग का गठन किया तथा ‘डायटिक वांडिस’ नामक एक जर्मन को वन विभाग का इंस्पेक्टर जनरल के रूप में नियुक्त किया। सरकार ने सन् 1865 में ‘भारतीय वन कानून’ बनाकर वन सम्पदा के ऊपर भारतीयों के अधिकारों को समाप्त कर दिया। सन् 1876 मे ‘भारतीय वन कानून’ पास हुआ। इस कानून के द्वारा वन संपदा पर सरकारी अधिकार और बढ़ गया।

इस प्रकार हमलोग देख पाते हैं कि औपनिवेशिक वन कानून ने आदिवासियों के जीवन यापन पर कठोराघात किये, जिससे उनका जीवन अस्त-व्यस्त हो गया।

प्रश्न 19.
राज विद्रोह, अभ्युत्थान तथा क्रांति से क्या समझते हैं ?
उत्तर:
राज विद्रोह (Rebellion), अभ्युत्थान (Uprising) तथा क्रांति (Revolution) देखने में एक जैसे लगते हैं, परन्तु इन शब्दों के अर्थ में अन्तर है। राजद्रोह या विद्रोह से तात्पर्य प्रचलित व्यवस्था में परिवर्तन की माँग को लेकर विरोधी जन समुदाय द्वारा आन्दोलन करना हैं। विद्रोह अल्पकालीन या दीर्घकालीन हो सकता हैं। विद्रोह व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों हो सकते हैं। बिंटिश शासन काल में घटित रंगपुर विद्रोह, पावना विद्रोह, नील विद्रोह तथा सिपाही विद्रोह आदि विद्रोह के उदाहरण हैं।

अभ्युत्थान (Uprising) से तात्पर्य किसी प्रचलित व्यवस्था के विरूद्ध एक भाग का संघर्ष। विभित्र समयों के सामरिक अभ्युत्यान इस संबंध में उल्लेखनीय हैं। सन् 1857 में भारतीय सेना के एक अंश द्वारा ब्रिटिशों के विरूद्ध सिपाही विद्रोह या 1946 ई० में घटित नौ सेना विद्रोह।

विप्लव या क्रांति (Revolution) से तात्पर्य व्यवस्था में एकाएक तेजी से परिवर्तन। क्रांति के उदाहरण हैं 18 वी शताब्दी की यूरोप की औद्योगिक क्रांति, जुलाई की क्रांति, फरवरी क्रांति तथा फ्रांसीसी क्रांति आदि।
इस प्रकार हमलोग राजविद्रोह, अभ्युत्थान तथा क्रांति शब्दों में विभिन्न अर्थ को देख या जान पाते हैं।

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प्रश्न 20.
ब्रिटिश शासन की पहली शताब्दी में किसान आंदोलन की शुरूआत के क्या कारण थे ?
उत्तर :
भारत में ज़ब ब्रिटिश शासन का आगमन हुआ तो अंग्रेजी प्रसाशन ने सबसे पहले भारतीय किसानों पर अपना निशाना साधा। उसने भारतीय किसानों को अपना गुलाम बनने पर मजबूर किया। उनके जमीनों को छीना, उनपर अत्याचार किया तथा विभिन्न विदेशी नीतियों को उनपर थोप दिया। यही सभी कारण था, जिसके फलस्वरूप किसानों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आंदोलन कर दिया।

इसके अतिरिक्त अन्य कारण है, जो इस प्रकार से है :-

  1. इंग्लैण्ड में कच्चे मालों की आपूर्ति करने के लिए तथा अन्य उद्योगों के लिए किसानों को नगदी फसल – जैसे – नील, जूट, अफीम आदि की कृषि करने के लिए बाध्य किया जाने लगा।
  2. परिवार बढ़ने के कारण किसानों की भूमि टुकड़ों में बटने लगी। इस भूमि से किसानों की आवश्यकता पूरी नहीं होती थौ, अतः वे विद्रोह करने लगे।
  3. अंग्रेजी शासन काल में किसानों को कर नकद देना पड़ता था। इस समय महाजन या सूदखोर या साहुकार वर्ग का उदय हुआ। जब किसान कम कर देते थे तो ये सभी मिलकर उनपर अत्याचार करते थे, जो आगे किसान आंदोलन को जन्म दिया

प्रश्न 21.
नील विद्रोह के समर्थन में आमजनता के योगदान का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
नील विद्रोह (1859-1860 ई०) को भरपूर जनसमर्थन मिला था। ‘तत्वबोधिनी’ के सम्पादक अक्षय कुमार दत्त, बगाल के गिरीश चन्द्र घोष ने किसानों पर नीलहे के अत्याचार की कहानियों को प्रकाशित किया। बंगाल के सुप्रसिद्ध नाटककार दीबन्धु मित्र ने नील की खेती की समस्या पर ‘नील दर्पण’ (Nil Darpan) नामक नाटक की रचना की। जिसका अंग्रेजी में अनुवाद माइकल मधुसूदन दत्त ने किया। इसके अतिरिक्त प्रेस एवं मंचों के माध्यम से भी नील विद्रोह को भरपूर जनमसर्थन मिला।

प्रेस एवं मंच के माध्यम से मध्यम वर्गीय बुद्धि जीवियों ने उस आंदोलन का समर्थन किया। सर्वप्रथम सन् 1822 मे नीलहों के अत्याचारों की खबर ‘सामचार चन्द्रिका, और ‘समाचार दर्पण’ में प्राकशित हुई। हरिशचन्द्र मुखर्जी ने ‘ हिन्दू पेट्रियाट’ (Hindu Patriat) के माध्यम से किसानों की दुर्दशा एवं अत्याचारों को जनता एवं सरकार तक पहुँचाने का प्रयास किया। मनमोहन घोष, शिशिर कुमार घोष, किशोरी चन्द्र मित्र तथा द्वारकानाथ विद्याभूषण ने भी नील किसानो की सहायता अनेक प्रकारसे की और उनको नेतृत्व दिया। जैसोर एवं नदिया से प्रकाशित होने वाले विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने भी नीलह अंग्रंजों के अत्याचार की कहानियाँ छापी।

इस प्रकार से नील विद्रोह को भरपूर जन समर्थन मिला, जो अपने आप में महत्चपूर्ण स्थान रखता है।

विवरणात्मक प्रश्नोत्तर (Descriptive Type) : 8 MARKS

प्रश्न 1.
नील विद्रोह क्या था ? इस विद्रोह के कारण और महत्व पर प्रकाश डालए।
उत्तर :
नील विद्रोह : 1860 ई० में बंगाल के नदिया जिले के नील की खेती करने वाले के किसानों ने दिगम्बर विश्वास और विष्णुचरण विश्वास (विश्वा बन्धु) के नेतृत्व में अंग्रेज नील व्यापारी और जमीन्दारों के विरूद्ध जो आन्दोलन शुरू किया उसे नील विद्रोह के नाम से जाना जाता है।

नील विद्रोह का कारण : नील विद्रोह की प्रकृति आर्थिक थी। अंग्रेज नील व्यापारी एवं जमीदार यहाँ के किसानों के कुछ जमीन पर नील की खेती करने के लिए बाध्य किया जाता था। सरकार ने नीलहे व्यापारियों के पक्ष में तीनकठिया व्यवस्था लागू की थी कि प्रत्येक किसान को अपने कुल भूमि के 3 / 20 हिस्से पर नील की खेती करना आवश्यक था, जिस तीनकठिया व्यवस्था कहा जाता था, जो किसान इस व्यवस्था को नहीं मानता उन पर तरह-तरह के अत्याचार किये जाते थें।

किसानों को नील की फसल का इतना कम कीमत दिया जाता था, कि किसानों का सालों भर अपने और अपने परिवार का पेट पालना कठिन हो जाता था। इसी दुर्दशा और अत्याचार से छुटकारा पाने के लिए नदिया जिले के किसानों ने विष्णु विश्वास और दिगम्बर विश्वास के नेतृत्व में संगठित और एकजूट होकर नीलहे अंग्रेजों और जमीन्दारों के विरुद्ध 1860 ई० में विद्रोह कर दिया।

इस विद्रोह को संगठित करने प्रचारित करने तथा सफल बनाने में हरीशचन्द्र मुखर्जी द्वारा सम्पादित हिन्दू पैट्रियाट समाचार-पत्र तथा दीन बन्धू मित्र द्वारा रचित नाटक नील दर्षण का बहुत बड़ा योगदान रहा।

सर्वप्रथम हिन्दू पैट्रियाट ने ही नील किसानों की दुर्दशा का उल्लेख किया और संघर्ष कर रहे किसानों के समर्थन में घनघोर अभियान चलाया। जिसका प्रभाव हुआ कि बंगाल के पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी वर्गों के साथ-साथ हिन्दू-मुस्लिम, ईसाई, सेठ साहुकार, छात्र, स्ती, किसान-मजदूर सभी वर्गों ने इस आन्दोलन का समर्थन किया और भाग लिया। इस आन्दोलन की एकजूटता और व्यापकता के कारण सरकार का रवैया भी आन्दोलनकारियों के प्रति नरम और संतुलित रहा और 1861 ई० में सरकार ने इस विद्रोह को सर्तकता के साथ दबा दिया।

महत्व या परिणाम : 1861 ई० में समाप्त हुए नील विद्रोह का भारतीय किसान आन्दोलन में महत्वपूर्ण प्रभाव एव महत्व रहा जिसे हम निम्न रूप में व्यक्त कर सकते है :

  1. यह भारत का पहला संगठित किसान जन आन्दोलन था जिसमें समाज के सभी वर्गो ने भाग लिया था।
  2. इस आन्दोलन का ईसाई मिश्नरियो ने भी समर्थन किया था। अतः इस आन्दोलन से सभी धर्मों की एकता को बढ़ावा मिला।
  3. इस आन्दोलन की व्यापकता के सामने अंग्रेजी सरकार को घूटने टेकने पड़े उन्होंने किसानों के शोषण के जाँच के लिए सर्टनकर आयोग की स्थापना की।
  4. सेटनकर आयोग ने अपनी जाँच में किसानों के आरोपों को सही पाया, फलस्वरूप लार्ड कैनिंग ने शीघ्र ही नीलहे व्यापारी और जमीन्दारों से ददनी प्रथा, तीनकठिया प्रथा को समाप्त कर राहत प्रदान की।
  5. इस आन्दोलन की सफलता से पेरित होकर ही महात्मा गाँधी ने अपना पहला सफल चम्पारण आन्दोलन शुरू किया था।

इसी आन्दोलन के द्वारा गाँधी जी ने चम्पारण जिले में चल रही तीनकठिया व्यवस्था को समाप्त कराने और उसके शोषण से किसानों को मुक्त कराने में सफल रहे। चम्पारण की सफलता ने ही गाँधी को पूरे देश का राष्ट्रीय नेता बना दिया।

इस प्रकार नील विद्रोह ने भारत में किसान आन्दोलन के लिए प्रेरित किया और जो आगे चलकर देश की स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए मार्ग प्रशस्त किया, इस कारण इस आन्दोलन का महत्व और भी बढ़ जाता है।

WBBSE Class 10 History Solutions Chapter 3 प्रतिरोध और आन्दोलन : विशेषताएँ एवं निरीक्षण

प्रश्न 2.
संथाल विद्रोह की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
संथाल विद्रोह एक आदिवासी या जनजातीय विद्रोह था। जिसमें आदिवासी संथालियों ने अपने स्वाभिमान की रक्षा तथा अस्तित्व के लिए विद्रोह किये। ये जातियाँ छोटानागपुर, पलामू, मेदनीपुर, बाँकुड़ा, हजारीबाग, कटक, वीरभूम, मानभूम, दलभूमि आदि के क्षेत्रीय जंगलों में निवास करती हैं। वन क्षेत्रों में रहने वाली अदिवासी संथाल धीरे-धीरे खेती एवं पशुपालन में रूचि लेने लगे थे। यह विद्रोह सन् 1855 से लेकर 1856 ई० के बीच इन सभी क्षेत्रों में हुआ था, जो बंगाल एवं बिहार से संबंधित हैं। संथालों द्वारा किये गये विद्रोह के कारण निम्नलिखित हैं –
भू-राजस्व : संथालियों को सरकार द्वारा जो पर्वतीय एवं वनीय भूमि प्राप्त हुई थी, उन भूमि को संथालियों ने ऊपजाऊ एवं कृषि योग्य बनाकर खेती-बारी करने लगे थे। तभी सरकार ने उनपर भूमि कर लागू कर दिया। जिसका विरोध संथाली लोग करने लगे। इतना ही नहीं, सरकारी कर्मचारी लोग उनसे अत्यधिक कर वसूलते थे। इन सभी समस्याओं से परेशान होकर संथालियों ने विद्रोह करने का काम ढूँढ़ लिये।

जमींदारों का अत्याचार : भू-राजस्व नीति के अन्तर्गत अंग्रेजी सरकार द्वारा स्थायी भूमि व्यवस्था लागू किया गया जिसके कारण संथालियों एवं सरकार के बीच जमीन्दार वर्ग का जन्म हुआ। यही जमीन्दार वर्ग उन दोनों के बीच मध्यस्थ बने थे। सरकार द्वारा जमीन्दर वर्ग को संथालियों से राजस्व (लगान) वसूलने का कार्य सौंपा गया था। जमीदार वर्ग संथालियों से मनचाहा लगान या कर वसूलता था तथा उनपर घोर अत्याचार भी करता था। ये सभी क्रिया-कलाप या अत्याचार को संथाली वर्ग बर्दास्त नहीं कर पाये और विद्रोह कर दिये।

महाजनों द्वारा अत्याचार : संथालों की शान्तिमय हरी-भरी बस्ती में आस-पास से धूर्त व्यापारियों एवं महाजनों की जाति भी आकर बसने लगी। व्यापारी एवं महाजन अपने तरह-तरह के व्यापारिक दाँव-पेचों से सरल प्रकृति के संथालों का शोषण करना शुरू किये। महाजनों ने संथालों को आवश्यकतानुसार 5 से 50 रुपये प्रतिशत की दर से ब्याज लेकर रुपया उधार देना शुरू किये। जो संथाल एक बार कर्ज ले लेता था तो उसे सूद के जाल से निकलना कठिन हो जाता था। इस प्रकार अत्याचार से परेशान होकर वे विद्रोह का मार्ग चुन लिये।

व्यापारियों का अत्याचार : व्यापारियों का भी अत्याचार एवं शोषण कम न था। वे धूर्ततापूर्वक उनकी फसले कम कीमत पर खरीद लेते थे। धीरे- धीरे व्यापारियों के शोषण एवं महाजनों के अत्याचार बढ़ जाने से संथालों की भावना भी उग्र होती गयी और वे ‘हूल’ अर्थात् विद्रोह की तैयारी में जुट गये।

ठेकेदारों द्वारा अत्याचार : संथालियों के ऊपर ठेकेदारों का भी भयकर अत्याचार था । ये ठेकेदार लोग ब्रिटिश सरकार से भूमि ठेके पर लेते थे और संथालियों को भूमि मनचाहा लगान (Tax) पर देते थे। यदि जो संथाली लोग कर नहीं दे पाते थे तो उन पर कठोर अत्याचार होता था। ऐसा ही कार्य वे संथालियों के ऊपर करते थे, जिससे परेशान होकर वे विद्रोह का रास्ता चुन लिये।

रेलकर्मियों द्वारा अत्याचार : राजमहल पहाड़ियों पर रेलपथ के निर्माण कार्य शुरु होने पर वहाँ अंग्रेज अधिकारी एवं कर्मचारी रेलकर्मियों के रूप में पहुँचे। हजारों की संख्या में स्थानीय कर्मचारी भी रेलपथ निर्माण कार्य में लगाये गये। रेल कर्मचारी एवं अधिकारी सीधे-सादे संथालों को नौकरी देने की लालच देकर उनके बकरे, मुर्गे आदि पशुओं को बिना पैसे दिये ही खा जाते थे। यदि वे प्रतिवाद करते तो उनपर तरह-तरह के अत्याचार किये जाते थे।

निलहे साहबों द्वारा अत्याचार : संथालियों के ऊपर न केवल ठेकेदारों, जमींदारों, रेलकर्मियों का अत्याचार होता था बल्कि निलहे साहबों द्वारा भी उनपर घोर अत्याचार किया जाता था। जो असहनीय था।

ईसाई मिशनरियों द्वारा धार्मिक अत्याचार : धर्म प्रचारक के रूप में पहुँचे ईसाई मिशनरियों के लोगों ने भी जोर जबरदश्ती से संथालों को धर्म परिवर्तन कर ईसाई बनने के लिए मजबूर करना शुरू किया। इन कायों से संथालों की धार्मिक परम्परा एवं संस्कृति का नाश होने लगा। धर्मान्तरण के इस कार्य से भी संथाल समुदाय के लोग विक्षुब्ध थे।

अंग्रेजी न्याय व्यवस्था : बिटिश सरकार ने जो न्याय व्यवस्था बनाये थे सिर्फ वे अपने फायदे के लिए किये थे। वे संथालियों के लिए कोई भी न्याय व्यवस्था नहीं बनाये थे। इससे संथालियों का समुदाय असंतुष्ट हो उठा था, जिससे वे विद्रोह का मार्ग चुन लिये।
संथालियों ने अपना विद्रोह राजमहल के पास जो ‘दामन-ए-कोह’ अर्थात् ‘संथाल परगना’ बनाये थे, वहीं से ही सिद्ध और कानू तथा चाँद और भैरव के नेतृत्व में शुरुआत किये। देखते ही देखते यह विद्रोह पूरे बंगाल एवं बिहार में फैल गया।

विद्रोह का दमन : ब्रिटिश सरकार ने विद्रोह को बड़ी ही नृशंसता से दमन कर दिया। जगह-जगह गिरफ्तारी तथा छापेमारी किया गया तथा सिद्ध एवं कान्हू को गिरफ्तार कर फाँसी दे दिया गया।

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प्रश्न 3.
पाबना विद्रोह के बारे में संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर :
पाबना (पाबना) विद्रोह (1873-76) : बगाल में पबना जिले के यूसफशाही परगना के किसानों ने 18591873 तक कर वृद्धि का विरोध नहीं किया और अधिक बढ़ी हुई दर पर भी बिना किसी विरोध के लगान देते रहे। 1859 के रेंट अधिनियम ने किसान असन्तोष को बढ़ाया। दूसरे, जमींदार कृषकों से उनकी जमीन पर से उनका अधिकार छीन लेना चाहते थे। भूमि के मालिक को किसानों से जबरन हस्ताक्षर करवाकर पट्टेदार बना दिया गया। किन्तु उन्हें नए कानूनों की जानकारी शिक्षित लोगों से होती रहती थी जिससे उन पर हो रहे अत्याचारों का ज्ञान हुआ। त्रिपुरा में अनुचित बेगार भी ली जाती थी जिससे वे अत्यधिक त्रस्त थे, अतः किसानों ने अपने को संगठित करना शुरू किया।

1873 ई० में ‘एगरेरियन लोग’ का गठन किया गया, पूरे जिले के किसान इसके सदस्य बन गए। यह आशर्यजनक घटना थी कि कृषको ने ब्रिटिश शासन का विरोध नहीं किया प्रत्युत वे ‘इंग्लैण्ड की रानी”‘ का किसान बने रहना चाहते थे, किन्तु उनके विरुद्ध हो रहे अन्याय एवं अत्याचार का उन्होंने विरोध किया। लीग ने जमींदारों की लगान वृद्धि के विरुद्ध मुकदमे भी शुरू किये और लगान देना बंद कर दिया। किसानों द्वारा बड़े पैमाने पर चलाये गये आन्दोलन के बावजूद हिंसक वारदात नाममात्र को ही हुई और कृषक मुख्यतः जमींदारों से अपनी सम्पत्ति बचाने का ही प्रयास कर रहे थे। जैसे-जैसे विद्रोह बढ़ा।

जमींदारों ने किसानों से बदला लेने के उपाय किये। यह विद्रोह ढाका, राजशाही, त्रिपुरा, जैदपुर, बाकरगंज और बोगरा में फैल गया। इस क्षेत्र के किसान मुख्य रूप से (लगभग 70 प्रतिशत) मुसलमान थे, लेकिन अंग्रेजों एवं जमीदारों ने इसे साम्प्रदायिक दंगे का नाम दिया।

यह उल्लेखनीय है कि केशवचन्द्र राय एवं शंभुनाथ पाल जैसे कृषक नेता हिन्दू थे। सरकार ने विवश होकर 1879 में एक रेंट कमीशन नियुक्त करना पड़ा। इस आन्दोलन का बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय एवं रमेशचन्द्र दत्त जैसे युवा बुद्धिजीवियों ने समर्थन किया था। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, आनन्द मोहन बोस और द्वारकानाथ गांगुली ने भी इण्डियन एसोसिएशन के माध्यम से 1880 के दशक में कृषक संगठनों की मदद की एवं कृषक अधिकारों का समर्थन किया। अतः सरकार ने रेंट कमीशन की सिफारिश पर 1885 का बंगाल काश्तकारी कानून पारित किया।

प्रश्न 4.
बंगाल के फकीर और सन्यासी विद्रोह पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर :
फकीर विद्रोह : बंगाल में 1776-77 ई० के बीच अंग्रेजी शासन के धार्मिक प्रतिबंध तथा शोषण और कुशासन के खिलाफ मजमून शाह के नेतृत्व में जो विद्रोह हुआ था, उसे फकीर विद्रोह कहा जाता है। मजमून शाह के मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्रों चिराग अली शाह, मूसा शाह ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया था। इस विद्रोह में हिन्दू नेता भवानी पाठक और बर्दवान की रानी सरला देवी चौधुरानी ने भी सहायता की थी।

फकीर विद्रोह का मुख्य कारण मुस्लिम फकीरों के देश में घूमने-फिरने पर रोक लगा देना, उनकी तीर्थ-यात्रा पर कर लगाना था। मुस्लमान फकीरों ने अंग्रेजों के इस कार्य को अपने धार्मिक जीवन में हस्तक्षेप माना, अतः उन्होंने अपने धर्म की स्वतंत्रता और अपने अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए मजमून शाह के नेतृत्व में संगठित होकर अंग्रेजी शासन के विरूद्द विद्रोह कर दिया।

फकीर विद्रोह का स्वरूप (प्रकृति) पूर्ण रूप से धार्मिक था। कमजोर संगठन, गरीबी, उंचित नेतृत्व की कमी, साम्पदायिक एकता का अभाव तथा अंग्रेजों की कठोर एवं निर्मम सैनिक कारवाई के बल पर इस विद्रोह को दबा दिया गया। अतः यह विद्रोह बिना किसी अपेक्षित परिणाम के समाप्त हो गया।

सन्यासी विद्रोह : बंगाल में 1763-80 ई० तक मे लगभग 40 वर्ष तक बर्दवान के सन्यासियों ने अंग्रेजों के शोषण अत्याचार, कुशासन के विरूद्ध जो आन्दोलन शुरू किया था, उसे सन्यासी आन्दोलन कहा जाता है।

इस आन्दोलन का नेतृत्व भवानी पाठक ने किया था, इसके अलावा चिराग अली, मूसा शाह, सरलादेवी चौधुरानी ने भी साथ दिया था। इस विद्रोह का मार्मिक वर्णन बंकिम चन्द्र ने अपने उपन्यास ‘आनन्दमठ’ में किया था।

कारण : बंगाल के ढाका से 1763 ई० में शुरू हुये सन्यासी विद्रोह के निम्नलिखित कारण थे –

  1. अंग्रेजी शासन का सन्यासियों के आन्तरिक क्रिया कलाप में हस्तक्षेप करना।
  2. सन्यासियों के देश में घूमने-फिरने पर रोक लगाना।
  3. सन्यासियों के तीर्थ-यात्रा पर कर लगाना और उसे नहीं चुकाने पर उन पर विभिन्न प्रकार से अत्याचार करना।
  4. अंग्रेजों द्वारा किसानों पर हो रहे शोषण और अत्याचार से तथा, 1770 ई० की महाअकाल के प्रभाव से मुक्ति दिलाने का प्रयास करना था।

उपर्युक्त कारणों एवं परिस्थितियों में सन्यासियों के सामने विद्रोह के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा था, फलस्वरूप 1763 ई० में भवानी पाठक के नेतृत्व में सन्यासी एवं फकीरों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। शुरू में इस विद्रोह का स्वरूप धार्मिक था, किन्तु आगे चलकर किसानों से जुड़कर आर्थिक रूप ग्रहण कर लिया।

विस्तार : सन्यासी विद्रोह की शुरूआत ढाका से हुआ था, जो धीर- धीरे बाँकुड़ा, मालदह, रंगपूर, दिनाजपूर, मैमन सिंह, फरीदपूर, कूचबिहार आदि जिलों से होते हुए ‘ओउ्म वन्दे मात्रम’ नारे के साथ पूरे बंगाल में फैल गया।

प्रभाव : सन्यासी विद्रोह 1763 ई० से शुरू होकर लगभग 1800 ई० तक चलता रहा। इस विद्रोह को आर्थिक मदद देने में बर्दमान (बंगाल) के राजा-रानी (सरला) का विशेष योगदान रहा। धन की कमी, संगठन, उचित नेतृत्व, एकता के भावना को कमी के कारण वारेन हेस्टिंग्स ने इस विद्रोह को भिखारियों एवं डकैतों का उपद्रव की संज्ञा देते हुये सैनिक ताकत के बल पर दबा दिया। इस प्रकार यह विद्रोह लम्बे संघर्ष के बाद भी बिना उद्देश्य प्राप्ति के समाप्त हो गया। किन्तु इस विद्रोह ने बंगाल के आदिवासियों, जनजातियों एवं किसानों में एकता और संघर्ष की भावना पैदा कर दी। इस विद्रोह से प्रेरित होकर देश के कई भागों में आदिवासी एवं किसान विद्रोह होने लगे।

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प्रश्न 5.
फराजी एवं वहाबी आन्दोलन के कारण और प्रभाव का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर :
फराजी आन्दोलन : बंगाल में मुस्लिम समुदाय से सम्बन्ध रखने वाले फराजी लोगों ने अंग्रेजों और भूजमीन्दारों के विरूद्ध 1818 ई० के आसपास जो आन्दोलन शुरू किया। उसे फराजी आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। फराजी का अर्थ-अल्लाह का सेवक, इस आन्दोलन का नेता हाजी शरीयतुल्लाह थे।

कारण : फराजी आन्दोलन की प्रकृति धार्मिक थी, फराजी सिद्धान्त के मानने वाले लोगों का मानना था कि हिन्दू धर्म से जो लोग इस्लाम धर्म में आये हैं। वे अपने साथ हिन्दू धर्म के बहुत से आचार-विचारों को लेकर इस्लाम में आये हैं। इसलिये इस्लाम का मौलिक रूप दूषित हो गया है। अतः ऐसे लोगों से छुटकारा पाने के लिए इस्लाम धर्म में सुधार करने के लिए फराजी आन्दोलन को जोड़ दिया, और उन्होंने अपने अनुयायियों को ललकारा कि अब बंगाल की धरती दारूल हर्व (शतनु का देश) हो गया है, इसलिये शत्रुओं के शासन को जड़ से उखाड़ फेंक कर मुस्लिम राज्य के स्थापना के लिए जीने-मरने के लिए तैयार हो जाये, इसी घोषणा के साथ 1818 ई० के आसपास बंगाल के फरीदपूर जिले में यह आन्दोलन शुरू हो गया, जो देखते-देखते बंगाल के आधे से अधिक जिले में फैल गया।

प्रभाव/परिणाम : फराजी आन्दोलन का परिणाम हुआ कि बहुत से फराजीयों ने जमीन्दारों को कर देना बंद कर दिया, और उनके घर तथा फसलों को लूटने लगें, क्योंकि उनका मानना था कि ‘सारी भूमि का मालिक खुदा है” – यही उनका नारा भी था। अन्त में जमीन्दारों के दबाव में सरकार को सेना भेजकर आन्दोलन का दमन करना पड़ा। दुधूमियाँ जो हाजी शरीयतुल्लाह के पुत्र थे उनको गिरफ्तार कर लिया गया, किन्तु प्रमाण के अभाव में जेल से छूट गयें, और तीन वर्ष बाद उनकी मृत्यु हो गयी, इस प्रकार एक धर्म सुधार आन्दोलन अपनी धार्मिक संकीर्णता, योग्य नेताओं के अभाव और कुशल प्रबन्धन को कमी के चलते (कारण) असफल सिद्ध हो गया। इसके बहुत से कार्यकता वहाबी दल में चले गये। इस प्रकार यह आन्दोलन बिना अपने उद्देश्य प्राप्ति के समाप्त हो गया।

वहाबी आन्दोलन : अरब देश के वहाबी आन्दोलन से प्रभावित होकर 1740 ई० के आस-पास वलीठल्लाह के नेतृत्व में इस्लाम धर्म में सुधार के लिए जो आन्दोलन शुरू हुआ उसे वहाबी आन्दोलन कहा जाता है। चूँकि इस आन्दोलन की शुरुआत वलीउल्लाह ने किया था इस कारण इसे व्लीउल्लाह आन्दोलन भी कहा जाता है, किन्तु भारत में इस आन्दोलन को फैलाने में सैयद अहमद बरेलवी का मुख्य योगदान रहा, इसलिये बरेलवी को इस अन्दोलन का मुख्य नेता माना जाता है।

कारण : वहाबी आन्दोलन के जन्मदाता अरब देश के मुहम्मद इब्न अब्दूल वहाब थे, जिन्होंने 1700 ई॰ में अरब देश में इस्लाम धर्म में दूसरे धर्मो से आयी प्रथा और परम्परा को दूर करने के लिए वहाबी आन्दोलन की शुरूआत की थी। जब दिल्ली के नेता वलीउल्लाह हज करने के लिए मक्का गये तो वे वहाँ के वहाबी आन्दोलन के सुधार कार्यो से प्रभावित हुए तथा भारत में ठीक उसी तरह इस्लाम धर्म के उत्थान और शुद्धिकरण के लिए वहाबी आन्दोलन की शुरूआत की, किन्तु उन्हें इस कार्य में विशेष सफलता नहीं मिली, किन्तु जब 1882 ई० में सर सैयद अहमद बरेलवी ने इस आन्दोलन का नेतृत्व शुरू किया।

तब उन्होंने इस्लाम धर्म के साथ-साथ इसे किसानों के शोषण-अत्याचार से जोड़कर अंग्रेजों के विरूद्ध आर्थिक एवं राजनीतिक आन्दोलन का रूप दे दिया, तब यह आन्दोलन उग्र रूप धारण कर लिया और इसके अनुयायी अंग्रेजी शासन के अत्याचार से मुक्त होने के लिए संघर्ष करते हुए लड़ने-मरने को तैयार हो गये।

इन्हीं उपर्युक्त परिस्थितियों एवं कारणों की पृष्ठभूमि में वहाबी आन्दोलन शुरू हुआ था। धीरे-धीरे यह आन्दोलन उत्तरप्रदेश, बंगाल, बिहार, हैदराबाद तक फैल गया। इस आन्दोलन के बढ़ते प्रभाव को देखकर अंग्रेजो ने सैनिक शक्ति के बल पर इसे दबा दिया।

महत्व : वहाबी आन्दोलन की प्रकृति धार्मिक व राजनीतिक थी । यद्यषि इस आन्दोलन को अंग्रेजों ने सैनिक शक्ति के बल पर दबा दिया। किन्तु यह आन्दोलन लम्बे समय तक अंग्रेजों को परेशान किये रखा, इस आन्दोलन से एक तरफ हिन्दूमूस्लिम एकता को बढ़ावा मिला तो दूसरी तरफ अंग्रेजों के विरूद्ध स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए मार्ग तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंग्रेजों के ‘फूट-डालों और शासन करो’ नीति के विरूद्ध थे देश का पहला आन्दोलन था, जिसमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों ने भाग लिया था।

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प्रश्न 6.
कोल विद्रोह के बारे में लिखें।
उत्तर :
कोल विद्रोह : छोटानागपुर क्षेत्र में कोल (कोलियर) जनजाति निवास करते हैं। इस जाति की अनेक शाखायें हैं जिनके अलग-अलग मुखियाओं के स्वतंत्र राज्य थे। इनको ‘मुख्या’ राजा कहा जाता था। ताराचन्द ने लिखा है कि कोलों ने इसलिए विद्रोह किया (1831-32 ई०) कि उनके गाँव को कोल मुखियों (मुण्डाओं) के हाथ से छीन कर परदेशी सिक्खों और मुसलमानों को दिया जा रहा था।

छोटानागपुर के आदिवासी बाहरी लोगों को अपनी स्वतंत्रता में बाधक मानते थे। इस विद्रोह का एक अन्य कारण भूमि प्रबंध, लगान वसूली का तरीका एवं साहूकारी व्यवस्था भी थी। कहा जाता है कि दरअसल भूमि सम्बन्धी असन्तोष ही इसका मूल कारण था। ‘हो’ और ‘मुण्डों’ के बीच पुरानी ग्राम्य समाज व्यवस्था चली आ रही थी। सात से बारह गाँवों पर एक पीर होता था। इसका प्रधान या नेता ‘ मानकी’ कहलाता था। वह इन गाँवों के लगान के प्रति सरकार या जमीदार के प्रति जिम्मेदार था। वह गाँवों के मुखियों के कार्यों की निगरानी करता था।

ये मुखिया ‘मुण्डा’ कहलाते थे। ये मुण्डे पुलिस का भी काम करते और अपने-अपने गाँवों का प्रतिनिधित्व करते थे। कम्पनी के भूराजस्व प्रबंध ने परम्परागत व्यवस्था को पूरी तरह बदल दिया था। ब्रिटिश राजस्व व्यवस्था के बाद स्थानीय जमींदार/ राजा द्वारा आदिवासी रैयत पर दबाव डालते थे, फलस्वरूप उनके द्वारा विरोध करने और सरकार द्वारा सैनिक कार्रवाई करने के घटना क्रम का पहला उदाहरण 1790 ई० के बाद के वर्षों में पालामऊ (जो छोटानागपुर पठार का उत्तरी प्रवेश द्वार है) में देखने को मिलता है।

अंग्रेजों ने समस्या के शीघ्य समाधान के लिए राजा को हटाकर उसके स्थान पर दूसरे व्यक्ति को बैठा दिया किन्तु इससे समस्या का अन्त नहीं हुआ। जैसा विदित है कि समस्या का वास्तविक कारण तो ब्रिटिश राजस्व व्यवस्था थी। स्थायी बन्दोबस्त ने जमींदारों को भूस्वामी बना दिया। 1793 के रेगुलेशन XVII (धारा II) के द्वारा लगान की शीघ्र वसूली की व्यवस्था कर दी गई।

जमींदारों, स्वतंत्र ताल्लुकेदारों तथा अन्य वास्तविक भूस्वामियों और इजारेदारों को, जिन्होंने सीधे सरकार पदाधिकारी को सूचना दिये बगैर बकाया लगान के लिए रैयतों, अवर लगान भोगियों और आश्रित ताल्लुकेदारों की फसल, भूमि की अन्य उपज- उनकी जमीदारी ठेके की सीमा में हो या बाहर कुर्क कर सकते है और उस सम्पत्ति को बकाया राशि की वसूली के लिए नीलाम करवा सकते हैं। कोलियरों की भाषा में उनकी जमीने छीन करदिकूओं (परदेशियो) को दी जा सकती थी और यह उनके लिए एक गंभीर समस्या बन गई।

अंग्रेजों ने कर अदा करने के लिए आदिवासी राजाओं को बाध्य कर दिया। कर का भुगतान न किये जाने पर राजा को बदलना आम बात थी। दूसरी ओर आदिवासी अपने क्षेत्र में विदेशियों को प्रवेश करने नहीं देना चाहते थे। कोल प्रजाति की एक शाखा ‘होश’ ने अपने प्रदेश में बाहरी व्यक्तियों को घुसने से रोकने के लिए अपनी सीमाओं पर प्रबंध किये।

पोराइट के राजा ने विवश होकर कर देना स्वीकार कर लिया था। परन्तु होश ऐसा नहीं चाहते थे। 1820 ई० में पोलिटिकल एजेण्ट के कोल्हन और चौबीसा क्षेत्र में प्रवेश करने पर उसका सशस्त विरोध उनकी उपरोक्त नीति का अंग था। 1827 ई० में उनके अनेक ग्राम जलाकर नष्ट कर दिये गये और उन्हें जमीदारों को कर देने, कम्पनी की प्रभुसत्ता स्वीकार करने को विवश किया।

जमींदारों की लगान का भुगतान न करने पर जमीनें नीलाम की जाने लगी और मैर्दानी भाग से आये लोगों को जमीनों पर अधिकार मिलने लगा। आदिवासियों पर उनके द्वारा निर्मित शराब पर उत्पादन शुल्क थोप दिया गया और उन्हें अफीम की खेती करने को बाध्य किया गया। कम्पनी कानूनों का उल्लघन करने पर आदिवासियों को कचहरियों में ले जाया जाने लगा। इन परिस्थितियों ने कोलियरों को संघर्ष करने के लिए मजबूर किया। विद्रोह का एक अन्य कारण आदिवासी स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार भी था।

अयोध्या सिंह ने लिखा है कि इस तरह कोलों के बीच असन्तोष तो बहुत दिनों से काम कर रहा था, लेकिन उसका फौरी कारण गैर आदिवासियों द्वारा जमीन के अलावा उनकी स्त्रियों को छीन लेना था। छोटानागपुर के महाराजा के भाई हरनाथ शाही ने अपनी जमीदारी के कुछ गाँवों की खेती की जमीन पुश्त दर पुश्त खेती करने वाले आदिवासियों से छीनकर अपने प्रिय पात्र कुछ मुसलमानों, सिक्खों आदि को सौंप दी।

सिंहभूमि की सीमा के पास बारह गाँव ही सिंगराय नामक ‘मानकी’ के थे। उनसे छीनकर सिक्खों को दे दिये गये। मानकी के सिर्फ गाँव ही नहीं छीन गये उनकी दा बहनां के साथ दुर्व्यबहार किया गया। सिक्खों ने उनके साथ बलात्कार किया। यही शिकायत मुसलमान किसानों के ंखलाफ थी। जफरअलो नामक एक किसान ने सिहभमि के बांदगांव के मुण्डा सुर्गा पर बड़ा अत्याचार किया।

साथ ही उनकी पत्यो को उठा ले गया और उसकी इज्ज़त लीटी परदेशियों के इन व्यवहारों ने आग में घी का काम कर दिया। उपरंक्त घटनाओं के कारण से कोलों का असन्तोष चरमसीमा तक पहुँच गया। राँची, सिंहभूमि, पालामऊ और मानभूमि यदि जिला के सभी आदिवासियों ने 1831 ई़० में एक साथ विद्रोह कर दिया। विद्रोह का प्रारम्भ हिंसा और लूटपाट से हुआ। कहा जाता है कि इस विद्रोह में लगभग एक हजार गैर-आदिवासयों को मार ड़ाला गया।

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प्रश्न 7.
मुंडा विद्रोह का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
मुंडा विद्रोह : मुंडा आदिवासियों का विद्रोह 1874 ई० से 1901 ई० के मध्य हुआ। 1895 ई० के बाद इसका नलन्ध बरसा मुंडा ने क्रिया, अत: इसे बिरसा मुंडा विद्रोह भी कहा जाता है। दक्षिण बिहार के छोटानागपुर इलाके के लगभग 400 वर्ग मील क्षेत्र में मुंडा निवास करते थे। प्रो. बिपिनचन्द्र ने लिखा है कि मुंडा जाति में सामूहिक खेती का प्रचलन ‘ग. लंक्नि जागीरदारों, ठंकेदार (लगान वसूलने वालों), बनियों और सूदखोरों ने सामूहिक खेती की परम्परा पर हमला कर दया ! मुंडा सरदार 30 वर्ष तक सामूहिक खती के लिए लड़ते रहे। मुंडा अंचल की जमीने मुंडा लोगो के हाथ से निकल कर साहकारों एवं जमोदारों के हाथ में जा रहो थी। ब्रिटिश भूराजस्व व्यवस्था ने उन्हें कृषक से मजदूर बानन को वाध्य क्रिया ‘इस कारण उनमें धीरे-धीर असन्तोष बढ़ने लगा।

ब्रिटिश शासन जमीदारों एवं साहूकार वर्ग के उत्थान का एक महन्त्वगण काण्क था। इस काला में इन वर्गों को आदिवासियों के शोषण करने की पूरी तरह छूट थी मुडों ने अपने सरदारों क नंतृत्व में इन लंगां के बिर्द आन्दोलन शुरू किया। उनका यह आन्दोलन ‘सरदारी लड़ाई’ के नाम से प्रसिद्ध था। इस विद्रांह का सम्बन्ध शुरू ों इसाई धर्म से था। के. एस. सिह ने लिखा है कि आदिवासी इस कारण ईसाई धर्म स्वीकार कर रंह भे जिससे जर्मन भिश्नरी जरीदारों के अत्यान्यारों को समाप्त करवा दें।

1857 ई० के समय कुछ जमींदारों ने मिशन पर भी हमला किया क्यांक निक्री मुडा लोगों के प्रति सहानुभूति रखते थे। 1858 ई० से हमें ईसाई आदिवासियों द्वारा अत्याचारी जमींदारों के खिलाफ लड़ने के प्रमाग मिलने लगते हैं। यह प्रवृत्ति 1862 ई० से 1882 ई० के बीच बहुत आम तो 1867 इ० में 14000 ईसाइयों ोे छोटानागुर के राजा और स्थानीय पुलिस के खिलाफ औपनिवेशिक अधिकारियों को अं भो दो थी 1 वेटखल नोगों के जमीन पर टखल दिलाने के भी कुछ प्रयास किये गये थे।

मार्च 1879 ई० में मुंडा लोगों यह घोगणा की कि छोटानागभुर उनका है। 1881 ई० में कुछ मुडा सरदारों ने ‘जान द बेणटिस्ट’ के नेतृत्व में देवसा के त्य की घंषणा कर दी। इसके बाद विद्रोह में कुछ बदलाव आया। जर्मन पादरियों से अभ्रसन्न होकर मुंडा लोगों ने उनसे चाना मम्बन्ध विन्छद कर लिया। कुछ समय तक उनका झुकाव कैथोलिक मिशन की ओर रहा, किन्तु औपनिवेशिक गरामक और जमींदार विद्राह को ख़ा करने क लिए आपस में सहयोग करने लगे। परिणामतः सभी विद्रोही यूरोपीय लोगों, दाई मिशनों, सरकारी अफसरों, जमींदारों और दिकुओं के खिलाफ हो गये।

इन गरिम्थितियों में उनका नंत्त्व बिरसा मुंडा ने अपने हाथ में ले लिया। बिरसा का जन्म राँची जिले के एक गाँव में बढाई के ख्वतो करने वाल एक परिबार में 1874 ई० में हुआ था। उसकी प्रारम्भिक शिक्षा चौबासा के मिशन स्कूल में हुई थी जहाँ रसंन अंग्रज़ी का साधारण ज्ञान भी प्राप्त किया था। प्रारम्भ में बिरसा अपने दवा के ज्ञान और बीमारों को ठीक करने की प्रक्नि के काएण जाने गए थे! ईसाई धर्म प्रचारको के प्रभाव में आकर वह ईसाई बन गया किन्तु इससे उसकी आत्मा को गान्त नहीं भिलो और उसने अपन पूर्वंजों के धर्म को स्वीकार कर लिया। 1895 ई० में उसने एक नया मत चलाने का निश्धय क्या और अपन समर्धकों को सिग बागा की पूजा करने की सलाह दी। उसने अपने समर्थको को स्वच्छता, शुद्ध नैतिक जांवन यापन करने एव मांस भक्षण न करने को प्रेरित किया।

बिरसा न घंषित किया कि उसका विद्रोह आत्मरक्षा के लिए था तथा उन तत्त्वों के लिये जो कि बाहरी जनता की अनाधिकारी चेष्टाओं से जोवित बच गये थे। मुण्डा समाज का पुनर्गठन करना भी उनका उद्देश्य था। शीघ्र ही बिरसा ने अंग्रेजी भूराजस्व व्यवस्था का विरोध करना शुरू किया। सुरेश सिंह की मान्यता हैं कि भूमि की समस्या मुण्डाओं के असन्तांष तथा विद्रोह का मूल कारण थी। स्थायी बन्दोबस्त ने मुण्डाओं को भी प्रभावित किया। वनों से लकड़ी काटने के प्रांतबध सम्बन्धी कानून ने उन्हें अपने परम्परागत अधिकार से वंचित कर दिया था। जगल साफ करके खंती नहीं की जा मकनो थी।

बनो मे अपने पालतृ जानवरों को चराने पर प्रतिबंध था। इस प्रकार सुरेशसिंह के विचार से उनका विद्रोह मुख्य रूप मू सामाजिक एवं आर्थिक शक्तियों के विरुद्ध था। अतः बिरसा विद्रोह को केवल एक धार्मिक आन्दोलन नहीं कहा जा सकता: मुंडा लाग एक एसी स्थिनि की कल्पना करने लगे जिसमें न तो देशी और न विदेशी शोषक हो। ताकतवर शासक से जीत क प्रयास में व ‘जगल के पर्नी’ पर विभास करने लगे और उन्ह ऐसा विभास हो गया कि वो उन्हं अपराजेय बना दंगा। इस विद्राह में महिलाओं की भूमिका भी महत्तपूर्ण थी। कुछ मामलों में हिसा भी हुई, लेकिन विद्राह में गरीब गैर आदवासियां क खिलाफ कोई भाव न था।

1899 ई० में क्रिसमस की पूर्व संध्या पर बिरसा ने मुंडा जाति का शासन स्थापित करने के लिए विद्रोह का ऐलान किया। उसने इसके ठेकेदारों, जागीरदारों, राजाओं, हाकिमों और इसाइयों का कत्ल करने का भी आह्दान किया। उसन कहा कलयुग को खत्म कर सतयुग लाएँगे और घोषणा की कि ‘दिकुओं (गैर आदिवासियों) से अब हमारी लड़ाई होगी और उनके खून से जमीन इस तरह लाल होगी जैसे लाल झंडा” “मगर उसने यह भी हिदायत दी कि गरीब गैर आदिवासियों पर हाथ न उठाया जाए।

5 जनवरी 1900 ई० को सम्पूर्ण मुंडा क्षेत्र में विद्रोह फैल गया। लगभग 6 हजार मुंडा तीर-तलवार, कुल्हाड़ी आदि हथियारों से लैस होकर बिरसा के साथ हो गए। छ: और सात जनवरी को क्रमशः दो एवं एक कान्सटेबल को मार डाला तथा स्थानीय महाजनों के घरों को जला दिया गया जिसमें गया नामक मुंडा का हाथ था। सरकार ने राँची एवं सिंहभूमि में सेना की तीन टुकड़ियाँ तैनात कर दी।

बिरसा को 3 फरवरी 1900 ई० को सिंहभूमि में गिरफ्तार कर, राँची जेल में डाल दिया और जृन में वह जेल में ही हैजे से पीड़ित होकर मर गया। इस तरह विद्रोह का दमन कर दिया गया पर मुण्डाओं में बिरसा अमर हो गया।

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प्रश्न 8.
महाराष्ट्र के भील विद्रोह के बारे में लिखे।
उत्तर :
भींग विद्रोह : महाराष्ट्र के वन्य प्रदेशों, गुजरात, मध्यप्रदेश एवं दक्षिणी राजस्थान में भील जनजाति बड़ी संख्या में निवास करती है : 1857 ई० से पूर्व भीलों के दो अलग-अलग विद्रोह हुए। 1818 ई० से 1831 ई० तक महाराष्ट्र के भीलों ने विद्रोह किया तथा दूसरे राजस्थान के भीलों ने 1821 ई० से 1825 ई० के मध्य बगावत की।

महाराष्ट्र का भील तिद्रोह : महाराष्ट्र के खानदेश में भील काफी संख्या में निवास करते है। इसके अतिरिक्त उत्तर में विन्ध्य से लेकर दक्षिण-पश्चिम में सहाद्रि एवं पश्चिमी घाट क्षेत्र में भीलों की बस्तियाँ देखी जाती हैं। 1861 ई० में पिण्डारियों के दबाव से ये लोग पहाड़ियों पर विस्थापित होने को बाध्य हुए। पिण्डारियों ने उनके साथ मुसलमान भौलों के सहयोग से क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया। इसके अतिरिक्त सामन्ती अत्याचारों ने भी भीलों को विद्रोही बना दिया। जसदन्तराव होल्कर के विद्रोह के दौरान पेशवा बाजीराव द्वितीय की सेनाओं ने भीलों की बस्तियाँ नष्ट कर दी थी। भीलों में इससे भी रोष व्याप्त था। इस तरह सामन्तीय अत्याचार से पीड़ित भील अंग्रेजी प्रभुत्व को भी उचित नहीं मानते थे।

1818 ई० में खानदेश पर अंग्रेजी आधिपत्य की स्थापना के साथ ही भीलों का अंग्रेजों से संघर्ष शुरू हो गया। कैप्टेन बिग्स ने उनके नेताआ को गिरफ्तार कर लिया और भीलों के पहाड़ी गाँवों की ओर जाने वाले मार्गो को अंग्रेजी सेना ने सील कर दिया, जिससे उन्हे रसद मिलना कठिन हो गया। दूसरी ओर एलफिस्टन ने भील नेताओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया और उन्हें अनक प्रकार की रियायतों का आथासन दिया।

पुलिस में भर्ती होने पर अच्छे वेतन दिये जाने की घोषणा की। किन्तु अधिकांश लोग अंग्रेजों के विरुद्ध बने रहे। 1819 ई० में पुन: विद्रोह कर भीलों ने पहाड़ी चौकियों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। अंग्रेजों ने भील विद्रोह को कुचलने के लिए सतमाला पहाड़ी क्षेत्र के कुछ नेताओं को पकड़ कर फॉसी दे दी। किन्तु जन सामान्य की भीलों के प्रति सहानुभूति थी। इस तरह उनका दमन नहीं किया जा सका।

1820 ई० में भील सरदार दशरथ ने कम्पनी के विरुद्ध विद्रोह शुरू कर दिया। पिण्डारी सरदार शेख दुल्ला ने इस विद्रोह में भीलों का साथ दिया। मेजर मोर्टिन को इस उपद्रव को दबाने के लिए नियुक्त किया गया, उसकी कठोर कार्रवाई से कुछ भील सरदारों ने आत्मसमर्पण कर टिया। 1822 ई० में भील नेता हिरिया ने लूट-पाट द्वारा आतंक मचाना शुरू किया, अतः 1823 ई॰ में कर्नल राबिन्सन को विद्राह का दमन करने के लिए नियुक्त किया गया।

उसने बस्तियों में आग लगवा दी और लोगों को पकड़-पकड़कर क्रूरता से मारा। 1824 ई० में मराठा सरदार त्रियंबक के भतीजे गोड़ा जी दंग्गलया ने सतारा के राजा को बगलाना के भोलों के सहयोग से मराठा राज्य की पुनस्थ्थापना के लिए आह्नान किया। भीलों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया एवं अंग्रेजी सेना से भिड़ गये तथा कम्पनी सेना को हराकर मुरलीहर के पहाड़ी किले पर अधिकार कर लिया।

परन्तु कम्पनी की बड़ी बटालियन आने पर भीलों को पहाड़ी इलाकों में जाकर शरण लेनी पड़ी। तथापि भीलों ने हार नहीं मानी और पेड़िया, बून्दी, सुतवा आदि भील सरदार अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करते रहे । कहा गया है कि लेफ्टिनेंट आउट्रम्, कैप्टन गिरबी एवं ओवान्स ने समझा-बुझाकर तथा भेद नीति द्वारा विद्रोह को दबाने का प्रयास किया। आउट्रम के प्रयासों से अनेक भील अंग्रेज सेना में भर्ती हो गये और कुछ शान्तिपूर्वक ढंग से खेती करने लगे। उन्हें तकाबी ऋण दिलवाने का आश्चासन दिया।

1826 ई० में दांग सरदारों एवं लोहारा के भीलों ने पुन: उपद्रव मचाया, किन्तु अंग्रेजों ने इसे भी शान्ति से दबा दिया। कहा जाता है कि देशमुखों ने भी विद्रोही भीलों की मदद की थी। अंग्रेजों ने भील विद्रोह का दमन करने के लिए भील सेना को उनके विरुद्ध खड़ा कर दिया और इस तरह विद्रोह शान्त हो गया। आगे जाकर 1831 ई० में धार (दक्षिणो-पश्चमी मध्य प्रदेश), 1846 ई० में मालवा, 1852 ई० में खानदेश और 1857 ई० में भागोजी तथा काजरसिंह नामक भील नेता के नेतृत्व में अंग्रेजों से लोहा लिया। किन्तु उपरोक्त सभी विद्रोहों को कठोरता पूर्वक कुचल दिया गया।

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प्रश्न 9.
राजस्थाना के भील विद्रोह का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
राजस्थान का भील आन्दोलन : राजस्थान में भील, मीणा, गरासिये आदि जातियाँ प्राचीन काल से निवास करता आयी है। वस्तुत: ये जातियाँ यहाँ के मूल निवासी थे। राजपूतों के राज्य स्थापित होने के पूर्व राजस्थान के कई इलाको में इन जनजातियों के छोटे-बड़े अनेक जनपद थे। मेवाड़ राज्य की रक्षा में वहाँ के भीलों की सदैव ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यही कारण था कि मेवाड़ के राजचिन्ह मे राजपूत के साथ एक धनुर्धारी भील का चित्र अंकित था। समय के बदलाव के साथ ये बहादुर जातियाँ अन्य जातियों से अलग-थलक पड़ गया।

राष्ट्र की मूल धारा से उनका सम्पर्क टूट गया। वं सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से एकदम पिछड़ गये। उन्हें वनवासी, आदिवासी और कहीं-कहीं तो जरायम पेशा जातियों की संज्ञा तक दी जाने लगी। ब्रिटिश काल में देश के अन्य भागों की तरह राजस्थान में भी सरकार और साहूकार ने समान रूप से इन जातियों का शोषण किया। अंग्रेजों ने जिस प्रकार अन्य प्रदेशों में जन-जातियों को ब्रिटिश कानूनों का पालन करने तथा भूराजस्व अदा करने के लिए बाध्य किया वही नीति राजस्थान में भील आन्दोलनों के विरुद्ध अपनाई गई। मेवाड़ के भील ‘भोलाई’ एवं ‘रखवाली’ लम्बे समय से वसूल करते आ रहे थे।

अपने आक्रमणों से इस इलाके के ग्रामों एवं यात्रियों को बचाये रखने के प्रतिफल रूप में ‘भोलाई’ एवं ‘रखवाली’ वसूल की जाती थी। कर्नल टॉड की सलाह से मेवाड़ के महाराणा ने भीलों के इस अधिकार को समाप्त कर दिया। इसका भीलों ने विरोध किया। कहा जाता है कि बाद में भील विद्रोह की आशंका सं ‘रखवाली’ वसूल करने की अनुमति प्रदान कर दी गई थी, किन्तु ‘भोलाई’ का अधिकार न रहा। अंग्रेजों के अनुरूप राजाओं ने भी वनों से लकड़ी काटने पर प्रतिबंध लगा दिये और महुवा के फूल एकत्र करने पर भी गेक लगा दी थी।

जंगलों से लकड़ी एवं घास काटने का एकमात्र अधिकार ठेकेदारों को था। जो सबसे ऊँची बोली लगाता था उसे वनों सेलकड़ी एवं घास काटने का अधिकार मिलता था। इस प्रकार राजाओं ने भी वनों को अपने लाभ का साधन बना लिया और धनी साहूकार या महाजन लोगों को ही इस प्रकार के ठेके मिलते थे। इतना ही नहीं नमक उत्पादन की स्वतंत्रता भी नही रहीं। यह भी ठेके पर दिया जाने लगा।

‘कृता’ के समय लगान भी अधिक निश्धित कर दिया जाता था। इसी प्रकार ‘तिसाला’ नामक नया भूमि कर लगा दिया गया। इस व्यवस्था में भील क्षेत्रों में साहूकारों का आगमन हुआ और शोषण की न रुकने वाली प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। बाहर कं व्यापारी उनकी सामग्री को कौड़ियों के भाव खरीदते थे और उनके द्वारा (बनियों को) बेची जाने वाली वस्तुएँ महंगी बेची जानी थी। कई गुना ब्याज पर भीलों को ऋण दिया जाता था और ऋण के भुगतान न कर पाने पर बन्धक श्रमिक बनाकर उनसं काम लिया जाता था। ज्ञातव्य है कि राजस्थान से बन्धक श्रमिक प्रथा का उन्मूलन बीसवीं सदी के $80-90$ के दशक में किया जा सका।

भीलों में डाकन प्रथा का प्रचलन था अर्थात् कुछ औरतों को डाकन या जादूगरनी समझकर भयंकर यातनायें दी जाती थी। इसी प्रकार सती प्रथा का भी बोलबाला था। इन कुरीतियों को समाप्त करने के लिए स्थानीय नरेशों ने प्रयत्ल किये। किन्तु ये कुप्रथायें इतनी जड़ें जमा चुकी थीं कि इन पर प्रतिबंध लगाना भीलों के लिए सहज न था। इस प्रकार उनकी अन्तर्मुखी व्यवस्था को, पूँजीवादी ब्रिटिश व्यवस्था ने, जिसका राजस्थान में भी प्रसार हो रहा था, भंग कर दिया। सड़कें बनाई जान लगी और आदिवासी इलाकों में यातायात के विकास के साथ भीलों का बाह्य व्यक्तियों से सम्पर्क बढ़ा और ये लोग अपनी पृथकता को बनाये नहीं रख सके।

इस आदिवासी समाज ने साहूकारी व्यवस्था के शोषण एवं अन्य हो रहे बदलावों से प्रेरित होकर 1821 ई० में विद्रोह करना शुरु किया जिसका द्मन करने के लिए एक ब्रिटिश अधिकारी नियुक्त किया गया, किन्तु उसे अधिक सफलता नहीं मिलो। भौलों का नेतृत्व दौलतसिंह कर रहा था, उसने 1826 ई० में आत्मसमर्पण कर.दिया। तथापि भीलों ने हथियार नहीं डाले और अपना संघर्ष जारी रखा। दक्षिण राजस्थान की रियासते : मेवाड़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर एवं प्रतापगढ़ के राजाओं ने आदिवासी विद्रांह के दमन हेतु बिटिश सरकार से सहयोग की मांग की।1841 ई० में ब्रिटिश सरकार ने ‘ मेवाड़ भील कोर्ष्स” की स्थापना की। खंरवाड़ा इसका केन्द्र बनाया गया। इन सब प्रयासों के बावजूद भील विद्रोह का दमन नहीं किया जा सका।

प्रश्न 10.
बंगाल में फराजी और वहाबी आंदोलन का स्वरूप क्या था ?
उत्तर :
बंगाल में फराजी आंदोलन का स्वरूप :- फराजी आंदोलन को एक प्रकार का किसान आंदोलन माना जाता है जो बिटिश सरकार के खिलाफ किया गया था। फराजी एक मुस्लिम सम्रदाय था, जो बंगाल के फरीदपुर जिले के रहन वाले थे। उन फराजी मुसलमानों के ऊपर ब्रिटिश सरकार ने घोर अत्याचार किये थे जिनके विरूद्ध फराजियों ने विद्रोह किये। फराजी लांग बगाल के फरीदपुर के निवासी हाजी शरीयतुल्ला द्वारा चलाए गए सम्र्रदाय के अनुयायी थे।

ये जमीदारों द्वारा किसानों के शाषण के विरूद्ध थे। ये ब्रिटिश सरकार को बाहर निकालकर बंगाल में मुस्लिम शासन स्थापित करना नाहते थे। फराजी आंदोलन का स्वरूप धार्मिक होते हुए भी सामाजिक था। इस सम्पदाय का मुख्य उदेश्य भले ही मुस्लिम राज्य की स्थापना रहा हो परन्तु हाजी शरीयतुल्ला इस बात से भी चिंतित थे कि उस समय मुस्लिम समाज में कई प्रकार के बुराईयाँ भी आ गई थी।

मुसलमानों में व्याप्त बुराईयों को दूर करने के लिए उन्होंने फराजी आंदोलन चलाया। उनके पुत्र टुद्ड़ मियाँ ने इस आन्दोलन को विशुद्ध मुस्लिम आंदोलन से जन आंदोलन में बदलने का काफी प्रयास किया। उनके प्रयासों के देखकर शोषित हिन्दू भी इसमें शामिल हो गए। दूधू मियाँ ने बंगाल को कई क्षेत्रों में विभक्त कर प्रत्येक क्षेत्र में एक खलीफा नियुक्त किया। खलीफा अपने क्षेत्र में फराजियों को संगठठत करते थे। फराजी आदोलन के नेताओं में प्रमुख हाजी शरीयतुल्ला तथा उनके पुत्र दूधू मियाँ थे।

बंगाल में वहाबी आंदोलन का स्वरूप :- वहाबी आंदोलन एक धार्मिक आंदोलन माना जाता था। इस आंदोलन $े$ विभिन्न स्वरूप हैं। यह आदोलन भारत, अरब तथा भारत के क्षेत्र बंगाल में किया गया था। अरब एव भारन में वहाबी आंदोलन का स्वरूप एक धार्मिक आंदोलन था। जो इस्लाम धर्म का प्रचार करने के लिए किया गया था। परन्तु भारत के क्षेत्र बंगाल में यह कृषक आंदोलन के रूप में उभरा था। वहाबी आंदालन के प्रवर्तक रागबंर्ली के सैग्यद अहमद बरेलबी थे।

सैख्यद अहमद इस्लाम में हुए सभी परिवर्तनों तथा सुधारों के विरूद्ध थे। वह हजरत मुहम्मद साहब के समय को पुन स्थापित करना चाहते थे। इस प्रकार से यह एक पुनरूद्धार आंदोलन था। वहाबी आंदोलन का आर्तिक्भिक स्वरूप धार्मिक था। उनका उद्देश्य काफिरों के देश (दार-उल-हर्ब) को मुसलमानों के देश (दार-उल-इस्ल!म) में बदलनः था। इन्होने भारत में अंग्रेजी शासन का विरोध किया तथा मुसलमनों को जमीन्दारों तथा सूदखोरों के शोषण एव अत्याचार का विरोध करने के लिए भी प्रेरित किया।

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प्रश्न 11.
औपनिवेशक वन कानून तथा ब्रिटिश न्याय व्यवस्था का वर्णन करें।
उत्तर :
वन के प्रयोग और वन की सम्पदा पर सरकारी नियत्रण और इजारेदारी की स्थापना का कार्य लार्ड इलहोजो के समय में आरम्भ किया गया। वन विभाग की स्थापना 1864 ई० में की गई तथा वन कानून को 1865 ई० में पारित किया गया। 1878 ई० में दूसरा कानून बनाकर सरकार ने अपने अधिकारों के क्षेत्र को बढ़ा लिया। इन कानूना के फलस्वरूप 1900 ई० तक भारत की जमीन के क्षेत्र का पाँचवा हिस्सा आरक्षित सरकारी वनों में बदल गया।

वनों पर बढ़ते सरकाती अधिकारों का किसानों ने कई प्रकार से विरोध किया, जिसमें सरकारी अधिकारियों पर हमला एव उनकी हत्या भा शामिल था आदिवासियों का इस परम्परा में विश्वास रहा है कि जमीन पर स्वामित्व छोटे समूहों अथवा छोटे गावों का होता है। कोई एक व्यक्ति उसका स्वामी नहीं हो सकता है। भूमि पर समुदाय के सभी लोगों का समान अधिकार होता है। केवल ‘वृद्धाओ की ग्राम समिति’ को ही भूमि के बंटवारे अथवा उसे फिर से बांटने का अधिकार होता है।

वनों को साफ करके उनको कृषि योग्य बनाना तथा इसमें कृषि कार्यों का सम्पादन करना, ये सारी बाते गाँव के पुजारी अथवा वृदा की सर्मिति के देख-रेख में किया जाता है। इसका अर्थ यह नहीं कि आदिवासी समाज में भूमि के व्यक्तिगत स्वामित्व का अस्त्व ही नहीं था आवश्यकता होने पर अथवा परिवार के बड़ा होने पर समुदाय जमीन पर उनके व्यक्तिगत स्वामित्व को भी मान्यता देता था स्पष्ट है कि उनकी यह जीवन शैली सभ्य समाज की जीवन-शैली से पूर्णतः भिन्न थो जिसमे व्यक्तिगत स्वामित्व की परम्परा हैं। जिसे देश में त्याग दिया गया। त्रिटिश कानून व्यवस्था का भी पूरा सरक्षण प्राप्त था।

न्याय प्रशासन के दृष्टि से भी आदिवासी समाज दूसरों से भिन्न था। आदिवासियों के मुकदमों के फैसले ग्राम समिति किया करती थी। फैसलों के लिए उन्हें धन तथा समय बर्बाद नहीं करना पड़ता था। उनकी न तो आधुनिक ढंग की अदालते होती थी और न ही उन्हें अपने मुकदमों की पैखी के लिए वकोल रखने पड़ते थे। किन्तु अंग्रेजों ने आदिवासी क्षेत्रों में भी अपनी कानून व्यवस्था को अनिवार्य बना दिया। इससे आदिवासियों की समस्या और बढ़ गयी, उन्हें मीलों चलकर अदालतों मे जाना पड़ता था।

अपने मुकदमों की पैरवी के लिए महँगे वकील रखने पड़ते थे। गवाहों को इकट्ठा करना पड़ता था और उनपर होने वाला खर्च को उठाना पड़ता था। कई बार मुकदमों की सुनवायी होती थी और ऊपर की अदालतों में अपीलें होती थी। इस प्रकार फैसला होने तक उनको काफी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता तथा दीत्रानी मुकटमें पर तो समय और रूपये और भी अधिक व्यय होते थे। मुकदमे जीतने पर भी उन्हें लागू कराने में काफी कठिनाईयाँ होती थी। इस प्रकार ब्रिटिश न्याय-व्यवस्था में आदिवासियों की आस्था नहीं रह गयी।

पुन: 1922 में सीता राजू के नेतृत्व में वन कानून एव साहूकारों के शाषण के विरुद्ध विद्रोह हो गया। परन्तु 1924 ई० में अंग्रंजों ने सीता राजू की हत्या करके विद्रोह को समाप्त कर दिया।

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